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आयोजन

इमरजेंसी में डरे, अब पैसे पर गिरे

70 तक बड़ी इज्जत थी अखबार वालों की, लेकिन 75 से अखबार का डाउन फॉल शुरू हुआ : इमरजेंसी में पत्रकारों की हालत देख अखबार मालिकों ने तभी भांप लिया कि ये कागज के बुत हैं : राजनीतिक दलों ने पैसा दिया और मालिक, उम्मीदवार सभी इस पाप में भागीदार रहे : पहले के धंधेबाज जर्नलिस्ट कोई-कोई मिलता था, अब कोई-कोई ही ईमानदार मिलता है : आज पत्रकारिता पर सरकार से ज्यादा कॉरपोरेट सेक्टर का दबाव है : न्यायपालिका और प्रेस, दोनों सिस्टम क्रैक हो रहे हैं, यहां भी पैसे का खेल हो रहा है : पत्रकार की प्रतिबद्धता से ही उसको मिलता है सम्मान, बिकने से नहीं : हमें एक और आजादी की लड़ाई लड़नी पड़ेगी : कुलदीप नैय्यर :  अखबार पहले भी कमायी के साधन थे, लेकिन उसमें मिशन का भाव था : हर धंधा एक प्रोफेशन है, इससे एलर्जी उचित नहीं, प्रोफेशन को गंदा करने वालों की शिनाख्त जरूरी है : नीलाभ मिश्र :  विचारों की दुनिया संकट में है : मीडिया के बड़े व्यावसायिक घराने सिर्फ मुनाफा नहीं, अधिकतम लाभ के फेरे में हैं : कंज्यूमर सोसाइटी हमेशा लोभी समाज को पैदा करता है : आज एक्सट्रीम लेक्ट से एक्सट्रीम राइट की ओर कब कौन टर्न कर जाएगा, कहना मुश्किल है : हरिवंश : पूंजी मुखर होकर अखबारों के पन्नों पर दिख रही है : बिहार में बढ़ते भ्रष्टाचार अखबारों की सुर्खियां नहीं बनते. : पत्रकारिता का यदि पूरा विनाश नहीं हुआ है तो आखिरकार संपादक किस दिन का इंतजार कर रहे हैं : मणिकांत ठाकुर : सामाजिक जिम्मेवारी अगर नौकरी करते हुए हम निभायें तो यह अच्छी बात होगी : पेट भी भरे और क्रांति भी हो, यह बात ही व्यावहारिक है : पत्रकारिता के जरिये बदलाव या क्रांति की उम्मीद करना यूटोपिया में जीना है : राजकुमार :


70 तक बड़ी इज्जत थी अखबार वालों की, लेकिन 75 से अखबार का डाउन फॉल शुरू हुआ : इमरजेंसी में पत्रकारों की हालत देख अखबार मालिकों ने तभी भांप लिया कि ये कागज के बुत हैं : राजनीतिक दलों ने पैसा दिया और मालिक, उम्मीदवार सभी इस पाप में भागीदार रहे : पहले के धंधेबाज जर्नलिस्ट कोई-कोई मिलता था, अब कोई-कोई ही ईमानदार मिलता है : आज पत्रकारिता पर सरकार से ज्यादा कॉरपोरेट सेक्टर का दबाव है : न्यायपालिका और प्रेस, दोनों सिस्टम क्रैक हो रहे हैं, यहां भी पैसे का खेल हो रहा है : पत्रकार की प्रतिबद्धता से ही उसको मिलता है सम्मान, बिकने से नहीं : हमें एक और आजादी की लड़ाई लड़नी पड़ेगी : कुलदीप नैय्यर :  अखबार पहले भी कमायी के साधन थे, लेकिन उसमें मिशन का भाव था : हर धंधा एक प्रोफेशन है, इससे एलर्जी उचित नहीं, प्रोफेशन को गंदा करने वालों की शिनाख्त जरूरी है : नीलाभ मिश्र :  विचारों की दुनिया संकट में है : मीडिया के बड़े व्यावसायिक घराने सिर्फ मुनाफा नहीं, अधिकतम लाभ के फेरे में हैं : कंज्यूमर सोसाइटी हमेशा लोभी समाज को पैदा करता है : आज एक्सट्रीम लेक्ट से एक्सट्रीम राइट की ओर कब कौन टर्न कर जाएगा, कहना मुश्किल है : हरिवंश : पूंजी मुखर होकर अखबारों के पन्नों पर दिख रही है : बिहार में बढ़ते भ्रष्टाचार अखबारों की सुर्खियां नहीं बनते. : पत्रकारिता का यदि पूरा विनाश नहीं हुआ है तो आखिरकार संपादक किस दिन का इंतजार कर रहे हैं : मणिकांत ठाकुर : सामाजिक जिम्मेवारी अगर नौकरी करते हुए हम निभायें तो यह अच्छी बात होगी : पेट भी भरे और क्रांति भी हो, यह बात ही व्यावहारिक है : पत्रकारिता के जरिये बदलाव या क्रांति की उम्मीद करना यूटोपिया में जीना है : राजकुमार :


”मुझे लिखते हुए 50 वर्ष से ज्यादा हो गए। इस क्रम में मेरी हर संभव यह कोशिश रही कि मैं दिमाग से लिखूं। मेरी मेमोरी आज भी ताजी है। अभी मैं अपनी आत्मकथा लिख रहा हूं। सच तो यह है कि मैं पत्रकार बनना नहीं चाहता था। सन 1947 में जब देश का बंटवारा हुआ तो मैं भी अपनी जगह से विस्थापित हुआ। 13 सितंबर 1947 को अमृतसर बाघा बार्डर पार किया और दिल्ली चला आया। जीविका के लिए नौकरी की तलाश में निकला। मेरी अब तक की शिक्षा-दीक्षा लाहौर में हुई थी। वहीं की डिग्री थी मेरे पास। यह भी दृढ़संकल्पित था कि क्लर्की नहीं करूंगा। उन्हीं दिनों मालूम हुआ कि एक मुस्लिम परिवार ‘अंजाम’ नाम का अखबार निकालता है और उसे एक हिन्दू की तलाश है, जो उर्दू, अंग्रेजी-दोनों जानता हो। यहीं से मैंने पत्रकारिता आरंभ की। अखबारी काम के अलावे मालिक के बच्चे को भी पढ़ाता था। यह 47 से 50 तक का जो दौर था वह एक अजीब किस्म के भय और आतंक का था। ऐसा लगता कि हम उधर से आये लोग डरे सहमें हों और किसी के रहमो करम पर रह रहे हों। धीरे-धीरे स्थितियां सामान्य हुईं और भय आतंक का माहौल छंटने लगा। लोग घुलमिल गए। इसी बीच गांधी की हत्या हुई। एक रिपोर्टर की हैसियत से मैंने गांधी की हत्या की रिपोर्टिंग की। मैंने देखा कि गांधी जी का शरीर बड़े प्लेटफार्म पर पड़ा था। नेहरू, पटेल वहां मौजूद थे। तब सिक्यूरिटी उतनी कड़ी नहीं थी। दो दिन पहले गांधी की प्रार्थना सभा में भी मैं गया था। गीता, कुरान, बाइबिल तीनों वहां पढ़ी जाती थी। गांधी की हत्या ने सचमुच जनतंत्र की बुनियाद हिला दी।”

उक्त बातें हिन्दुस्तान के वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने कही। वे पटना में सीमेज कैटलिस्ट मीडिया कॉलेज द्वारा आहूत ”पत्रकारिता का बदलता परिप्रेक्ष्य और संपादक” विषय पर आयोजित ”एडिटर्स मीट” में तारामंडल सभागार में सैकड़ों लोगों से मुखातिब हुए। कार्यक्रम में श्री नैयर के अलावा कई समाचार पत्र-पत्रिकाओं के संपादक एक मंच पर इकटठा हुए और अपने मंतव्य रखे। शिरकत करने वाले संपादकों में प्रभात खबर के प्रधान संपादक हरिवंश, हिन्दुस्तान के वरीय स्थानीय संपादक अकु श्रीवास्तव, आउटलुक हिन्दी के संपादक नीलाभ मिश्र, राष्ट्रीय सहारा के स्थानीय संपादक हरीश पाठक, टाइम्स आफ इंडिया के वरीय सहायक संपादक राजकुमार और बीबीसी के बिहार प्रमुख मणिकांत ठाकुर मुख्य थे। कार्यक्रम में हिन्दुस्तान टाइम्स के स्थानीय संपादक मैमन मैथ्यु को भी शिरकत करना था लेकिन अपरिहार्य कारणों से वे नहीं आ पाये।

कार्यक्रम का आगाज करते हुए सिमेज के मीडिया हेड और कार्यक्रम संयोजक चर्चित पत्रकार नवेन्दु ने कहा कि यह एडिटर्स मीट इस मामले में ऐतिहासिक है कि मीडिया के बदलते परिदृश्य पर चर्चा करने के लिए संपादकों की यह टोली एक मंच पर इकटठा हुई है। उन्होंने कहा कि संपूर्ण देश सहित बिहार में पिछले दो दशकों में मीडिया के अंदर जो बदलाव आये हैं हम चाहते हैं कि यह गोष्ठी उस बदलाव को चिह्नित करे। नवेंदु ने संदर्भित विषय के कई पहलू को अपने आरंभिक संबोधन में ही टारगेट किया। समाचार पत्र घरानों को अखबार बेचना था लेकिन अब तो खबरें ही बिक रही हैं। उन्होंने पत्रकारिता की गिरती शाख, वहां हावी विज्ञापनी कल्चर और समय समाज से छूटते उसके सरोकार जैसे विषयों को अपने संक्षिप्त उदबोधन में तार्किक ढंग से पेश किया। उन्होंने कहा कि भारतीय पत्रकारिता ने कई सोपान तय किए। मनीषी संपादकों ने उसे शिखर तक पहुंचाया, लेकिन शिखर के पायदानों को तय करते-करते बदलता गया पत्रकारिता का रंग-ढंग और मिजाज। उन्होंने सवालिया लहजे में कहा कि क्या कल का मिशन आज महज बिजनेस बन चुका है? क्या एकदम से बदल चुकी है संपादकों की भूमिका? प्रतिबद्धता और बाजार के बीच क्या जूझ रही है आज की पत्रकारिता? क्या सोचते हैं आज के ये संपादक? कैसी है ये जद्दोजहद? या फिर यही है आज की पत्रकारिता के विकास का रंग? पत्रकारिता की नयी पीढ़ी और छात्र जानना चाहते हैं कि आज की ग्रोइंग मीडिया इंडस्ट्री में पत्रकारिता के साथ कैसे करें कदमताल? यह कहते हुए उन्होंने पत्रकारिता के लीजेंड कुलदीप नैयर को आमंत्रित किया।

कुलदीप नैयर ने अपने लंबे व्याख्यान में पत्रकारिता में आये बदलाव के कई बिंदुओं को रेखांकित किया। नेहरू युग का जिक्र करते हुए श्री नैयर ने कहा कि जवाहरलाल नेहरू का विजन था कि अखबार का रॉल क्या हो? उनका ख्याल था कि अखबार वाले अपोजिशन का रॉल अदा करेंगे। वर्किंग जर्नलिस्ट एसोसिएशन उनकी इसी सोच का नतीजा थी। श्री नैयर ने बतलाया कि नेहरू की दूसरी सोच यह थी कि अखबार मालिक हिन्दुस्तान के हीं हों, बाहर के नहीं। उस समय स्टेट्समैन से लेकर पायोनियर आदि जितने बड़े अखबार थे उसके मालिक बाहर के थे। अंग्रेज चले गए, लेकिन जिम्मेवारी रहित प्रेस अपने यहां कायम रहा। कुलदीप नैयर ने बतलाया कि सन 1970 तक अखबार प्रबंधन संपादक के पीछे ही रहा। हालांकि तब भी ”बिजनेस मस्ट” उनका उद्देश्य था, लेकिन शायद ही कोई संपादक इसकी परवाह करता था। 70 तक बड़ी इज्जत थी अखबार वालों की, लेकिन 75 से अखबार का डाउन फॉल शुरू हुआ। इमरजेंसी एक ऐसा अभिशाप थी जिसने भारतीय पत्रकारिता की बुनियाद हिला दी। इंदिरा जी ने उसकी स्वायत्तता को पूरी तरह रौंद दिया। मुझे याद है 26 जून को प्रेस क्लब में 103 जर्नलिस्ट इकट्ठे हुए थे वे इतने डरे सहमे थे कि मैं उसकी कल्पना नहीं कर सकता। अखबार मालिकों ने उसी समय भांप लिया कि ये कागज के बुत हैं, कुछ नहीं कर सकते और इसी के बाद से इसकी स्वायत्तता में क्षरण का दौर शुरू हो गया। कुलदीप नैयर ने बतलाया कि इमरजेंसी उनके जीवन का सबसे बड़ा सदमा थी। इतनी पीड़ा उन्हें उस वक्त भी नहीं पहुंची थी जब घर से विस्थापित होकर उन्होंने बाघा बार्डर पार किया था। यहां पर एक तानाशाही आयी। यही स्थिति पाकिस्तान में मार्शल लॉ के रूप में प्रकट हुई। कुलदीप नैयर ने कहा कि गांधी ने स्वाधीनता दिलायी और जेपी ने फ्रीडम, लेकिन इस आजादी का क्या अर्थ रहा, यह तो आपने देख ही लिया। मैं पटना आया जेपी से मिलने तो मुझे तक्सीम के वक्त गांधी से सुने ”आग इतनी लग चुकी है कि मैं कहां-कहां पहुंचूं” का वाकया याद हो आया।

कुलदीप नैयर ने हाल में चर्चा में आये पेड न्यूज के सवाल को भी उठाया। उन्होंने कहा कि राजनीतिक दलों ने पैसा दिया और मालिक, उम्मीदवार सभी इस पाप में भागीदार रहे। उन्होंने कहा कि जनतंत्र के इतने बड़े ढांचे का यह रवैया है तो किसके उपर यह देश कायम रहेगा। क्रेडिबिलिटी का सवाल अहम है। इमरजेंसी के समय हम डर से और अब पैसे के लिए गिर गए। पहले के जर्नलिस्ट ऐसी धंधेबाजी में संलिप्त नहीं थे। कोई-कोई ही ऐसा मिलता था। लेकिन अब स्थितियां बदल गई हैं। अब कोई-कोई ही ईमानदार मिलता है। उन्होंने कहा कि हमारी क्रेडिबिलिटी तभी आएगी जब ईमानदारी से हम धर्म, जाति, राजनीति और पैसे पर न बिकने को संकल्पित हों। उन्होंने कहा कि नया संकट यह है कि आज पत्रकारिता पर सरकार से ज्यादा कॉरपोरेट सेक्टर का दबाव है। उन्होंने कहा कि पाठक अभी भी समझता है कि जो भी छपता है, वह सच है। 99 प्रतिशत अखबार फेमिली ओन हैं। वर्तमान में पत्रकारिता को इस अधःपतन से उबारने के लिए उन्होंने दो वैकल्पिक सुझाव दिए। नंबर एक- पूरे देश में 26 जून को एंटी सेंसरशिप डे मनाया जाए। नंबर दो- मीडिया कमीशन बनाया जाए।

उन्होंने कहा कि नेहरू और मोरारजी देसाई के समय में भी प्रेस कमीशन बने थे। इस बार अगर इसका गठन हो तो पुरानी चीजों का ध्यान रखते हुए मालिक, संपादक पत्रकार और पाठकों के रिश्ते से संबद्ध नीतियां बनें। उन्होंने कहा कि प्रजातंत्र में न्यायपालिका और प्रेस, इन्हीं दो सेटअप पर लोगों की आस्था थी। लेकिन ये दोनों सिस्टम क्रैक हो रहे हैं। यहां भी पैसे का खेल अहम हो गया है। आज मोरेलिटी और पॉलिटिक्स अलग हो गए हैं। इन स्थितियों से मुक्ति के लिए हमें एक और आजादी की लड़ाई लड़नी पड़ेगी।

अपने व्याख्यान में नैयर ने माओवाद का भी जिक्र किया। उन्होंने कहा कि मैं बंदूक वालों के खिलाक हूं, इससे बात नहीं बनेगी। उन्होंने कहा कि बराबरी के जो उसूल गांधी, नेहरू, आजाद और भारतीय संविधान ने दिए वह कानून और सोसाइटी में कार्यान्वयन के लिए चुनाव के रास्ते आना पड़ेगा तभी बात बनेगी। श्री नैयर ने सोवियत रूस के विघटन का भी जिक्र किया और पत्रकारों से प्रतिबद्ध होकर आगे आने का आह्वान किया। कहा एक पत्रकार की प्रतिबद्धता से ही उसको मिलता है सम्मान, बिकने से नहीं।

हिन्दुस्तान, पटना के संपादक अकु श्रीवास्तव ने कहा कि जब भी वे नए पत्रकारों से बावस्ता होते हैं तो उनमें भाषा और जनरल नॉलेज के मामले में कमजोर पाते हैं। अगर इन दो तरह के ज्ञान से नए पत्रकार भरे-पूरे हों तो हिन्दी पत्रकारिता के लिए अच्छी बात हो। उन्होंने कहा कि आज की पत्रकारिता का संकट यह है कि यहां हमें 77 की तरह कोई सोशल टारगेट दिखलायी नहीं पड़ता। सन 80-84 के बाद परिदृश्य बदलता गया, लेकिन स्पष्ट सोच नहीं होने के कारण पत्रकारिता में कोई बदलाव हमें नहीं दिखा। श्री अकु ने कहा कि आज का अखबार कई अर्थों में पूर्ववर्ती अखबारों से महत्वपूर्ण साबित हुआ है। आज का अखबार पहले की तरह घटनाओं का रोजनामचा मात्र नहीं है अपितु जरूरत को देखने दिखलाने का अखबार है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि पाठक हमारे लिए गाहक हैं। उन्होंने कहा कि आज पत्रकारिता की चुनौतियां बदली हैं। कहीं-कहीं विचार भी बिकने लगे हैं। आज विभिन्न जगहों पर पीआरओ होते हैं। अगर हमें तोड़ना है तो इन चीजों को तोड़ें। अकू श्रीवास्तव ने कहा कि एक दौर ऐसा था कि शाम के बाद की खबरें छपती नहीं थीं अब स्थिति यह है कि 20 दिन बाद क्या होने वाला है, इसकी खबर हम छापते हैं। उन्होंने कहा पाठकों को सब पता होता है कि अखबार कहां गलत कर रहा है और कहां सीना ठोककर ईमान की बात कर रहा है। व्यावसायिकता के इस दौर में मुझे ऐसा लगता है कि पत्रकारिता की शाख को बचाये रखना आज की सबसे बड़ी चुनौती है।  

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आउटलुक के संपादक नीलाभ मिश्र ने विषय के सभी पहलुओं को बारीकी से स्पर्श किया। उन्होंने शुरुआत ही सवाल से किया। कहा- बदलता परिदृश्य है क्या? उसका नक्शा क्या है? इसमें कहां दूरियां हैं?  नयी पीढ़ी की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि उसके लिए इमरजेंसी इतिहास है, यह उसकी चेतना में नहीं है। नीलाभ ने नयी पीढ़ी में व्याप्त आधरहीनता  के बारे में भी बतलाया कि किस तरह दिल्ली विवि में हुए एक सर्वे में 95 प्रतिशत छात्रों को यह नहीं मालूम था कि इमरजेंसी क्या है? उन्होंने स्पष्ट किया कि पत्रकारिता में आज का परिदृश्य, सरोकार और उसकी चिंताएं बदल चुकी हैं। आज के संपादक जब तक इन स्थितियों को समझेंगे नहीं तब तक समस्या का हल संभव नहीं। उन्होंने कहा कि आज भारत में अखबार की प्रसार संख्या में विश्व के दूसरे देशों की बनिस्पत बड़ी तेजी से इजाफा हुआ है इसकी वजह यह है कि यहां जनसंख्या वृद्वि के साथ ही साक्षरता का भी विस्कोट हुआ है। विकसित देशों में जनसंख्या स्थगित होने की वजह से वहां पत्र उद्योग के सामने संकट की स्थितियां आ गयी हैं जबकि भारत में मीडिया ने अपना एक नया स्वरूप अख्तियार किया है। यहां बढ़ती जनसंख्या और साक्षरता के दबाव में ब्लाक स्तर से भी अखबार निकलने लगे हैं लेकिन इससे खबरों में विखंडन की भी स्थितियां आयी हैं। इसके कारण पड़ोस की खबर से दूसरे संस्करण वाले वंचित रह जाते हैं। नीलाभ ने कहा कि अखबार पहले भी कमायी के साधन थे, लेकिन उसमें मिशन का भाव था। आजादी की लड़ाई से लेकर बाद के दिनों तक इसके अंदर यह मिशनरी भावना कायम रही, लेकिन जब से ग्लोबल पूंजी का खेल आरंभ हुआ इससे मिशन भाव का लोप हो गया। उन्होंने कहा कि आज हमारे सामने चुनौतियां बढ़ी हैं इसके लिए इंस्टीच्यूशनल बदलाव जरूरी हैं। उन्होंने कहा कि हर धंधा एक प्रोफेशन है, इससे एलर्जी उचित नहीं। बल्कि इस प्रोफेशन को गंदा करने वालों की शिनाख्त जरूरी है। पेड न्यूज की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि पेड न्यूज अचानक नहीं आया। इसके पीछे एक कंपनी बनायी गई और सुनियोजित तरीके से यह व्यापक होती चली गई हुई।

प्रभात खबर के प्रधान संपादक हरिवंश ने निजी अनुभवों से अपनी बात आरंभ की। उन्होंने बताया कि इमरजेंसी के समय जब वे छात्र थे तो अपने मित्र रामकृपाल के साथ एजुकेशनल टूर पर दिल्ली गए थे। यहां उनका उद्देश्य जेल से छुटकर आये कुलदीप नैयर से मिलना था। उन्होंने उन स्थितियों का जिक्र किया और बतलाया कि पत्रकारिता का रास्ता उन्होंने क्यों अपनाया? उस दौर में पत्रकारिता की फिलॉसकी थी सच के साथ खड़ा होना। नेहरू का दौर खत्म हो चुका था और इंदिरा जी की तानाशाही की चुनौती अहम थी। हरिवंश ने कहा कि पत्रकारिता में आने की प्रेरणा उन्हें कुलदीप नैयर से मिली। कुलदीप जी जहां जाते थे, वहां फालोअप होता था। उस दौर की जरूरतों और बाद में इमरजेंसी ने मुझे पत्रकारिता में बने रहने का संबल दिया। उन्होंने कहा कि बाद में जेपी ने बड़े बदलाव के लिए अपनी बात कही। इमरजेंसी लगी तो तत्काल कुछ दिखलायी नहीं पड़ा।

हरिवंश ने कहा कि तबके समाज में और खासकर राजनीति में आइडियोलॉजी थी तो उसकी एक बड़ी वजह यह थी कि समाजवादी युवजन सभा, आरएसएस और कम्युनिस्ट पार्टी से प्रभावित युवाओं की एक बड़ी संख्या पत्रकारिता में आयी जिसकी वजह से इसमें यह आदर्श कायम रहा। उस दौर के पत्रकार मुद्दों के साथ खड़े होने का विकल्प तलाशते थे। आज के समाज में उस तरह की ईमानदार आवाज दिखायी नहीं पड़ती इसलिए यह करियर बन गई है। आज विचारों की दुनिया संकट में है। हरिवंश ने कहा कि बाजारवाद और उपभोक्तावाद के अच्छे और बुरे दोनों पहलू हैं, अधिक से अधिक लाभ उनका उद्देश्य है। आज मीडिया के बड़े व्यावसायिक घराने सिर्फ मुनाफा नहीं अधिकतम लाभ के फेरे में हैं, ऐसे में छोटे समाचार पत्र के सामने संकट की स्थितियां पैदा हो गई हैं। पेड न्यूज प्रकरण महाराष्ट्र, गुजरात समेत पूरे देश में जिस तरह से परवान चढ़ा, वह दुखद स्थितियों का सूचक है। विडंबना यह कि कई सांसद इसे संसद में मुद्दा नहीं बनाते।

हरिवंश ने कहा कि कंज्यूमर सोसाइटी हमेशा लोभी समाज को पैदा करता है। प्रतिबद्धता आती है आदर्श से। किसी सोच के प्रति झुकाव से। आज एक्सट्रीम लेक्ट से एक्सट्रीम राइट की ओर कब कौन टर्न कर जाएगा, कहना मुश्किल है। ऐसे में बड़े सपने एवं परिवर्तन की बड़ी ताकतों का ही आसरा है।

राष्ट्रीय सहारा के संपादक हरीश पाठक ने कहा कि जब-जब अखबार जन-सरोकार से दूर हुए हैं उनका नामलेवा कोई नहीं रहा है। उन्होंने कहा कि यह खबरों के विस्फोट का दौर है जिसमें ब्रांड मैनेजर ही चीजों को तय करता है। श्री पाठक ने ज्यादातर अपने काम के अनुभवों को शेयर किया और आज के बदलते हुए परिप्रेक्ष्य को उन घटनाओं से को-रिलेट करने की कोशिश की। जनसरोकार का अभाव और व्यावसायिक दबाव के बीच आज जरूरत इस बात की है कि अखबार जन संपर्क और जन सरोकारों से जुड़ें। इसी में अखबार की वृद्धि होगी और पत्रकारिता की प्रतिबद्धता भी कायम रहेगी।

बीबीसी रिपोर्टर मणिकांत ठाकुर ने कहा कि आज अखबारों के पतन का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि यहां पूंजी मुखर होकर अखबारों के पन्नों पर दिख रही है। श्री ठाकुर ने हरिवंश का नाम लेकर कहा कि आखिर क्या वजह है कि उनका प्रभात खबर अब बदले-बदले अंदाज में दिखता है। उनका स्पष्ट इशारा बिहार के बड़े अखबारों के साथ उनके अखबार के भी सरकारी भोंपू में तब्दील हो जाने की ओर था जबकि अखबार नहीं आंदोलन का स्लोगन लिए कभी यह अखबार लोगों को लुभाता था। उन्होंने स्पष्ट कहा कि यह दुखद है कि बिहार में बढ़ते भ्रष्टाचार अखबारों की सुर्खियां नहीं बनते. साथ ही बिहार की मीडिया वंचित वर्गों की आवाज को गौण कर रही है। श्री ठाकुर ने कहा कि आलम यह है कि समाचार पत्र प्रचार पत्र का रूप लेते जा रहे हैं। आलू प्याज बेचने लायक जो नहीं है, वह भी पत्रकार बन गया है। पत्रकारिता का यदि पूरा विनाश नहीं हुआ है तो आखिरकार संपादक किस दिन का इंतजार कर रहे हैं।

टाइम्स आफ इंडिया के राजकुमार ने कहा कि सामाजिक जिम्मेवारी अगर नौकरी करते हुए हम निभायें तो यह अच्छी बात होगी। पेट भी भरे और क्रांति भी हो, यह बात ही व्यावहारिक है। अन्यथा पत्रकारिता के जरिये बदलाव या क्रांति की उम्मीद करना यूटोपिया में जीना है।  

एडिटर्स मीट में शामिल सभी लोग मीडिया कमीशन बनाने और एंटी सेंसरशीप डे मनाने के कुलदीप नैयर के प्रस्तावों पर सहमत दिखे। कार्यक्रम में सिमेज के निदेशक नीरज अग्रवाल ने कहा कि सिमेज और कैटलिस्ट मीडिया बदलते दौर को देखते हुए मीडिया एजुकेशन के क्षेत्र में आधुनिक तकनीकी के साथ सरोकार से लैश पढाई की पक्षधर है। नयी पौध के संग निदा फाजली हों या एडिटर्स मीट में आये संपादक, ऐसे आयोजनों को पटना में मंच देने का यह सिलसिला हम आगे भी कायम रखेंगे। श्री अग्रवाल ने बिहार के गांव, कस्बे और जिलों में वैसे मेधावी छात्रों को छात्रवृति के जरिये कैटलिस्ट से निःशुल्क पत्रकारिता पढ़ाने की घोषणा की जिनके अंदर पत्रकारिता के बीज तत्व और दृष्टि मौजूद हैं।

सिमेज के चेयरमैन वसंत अग्रवाल ने संपादकों को कलम और स्मृति चिहन भेंट किया।

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पटना से अरुण नारायण की रिपोर्ट

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0 Comments

  1. jeet chandila

    March 24, 2010 at 10:16 am

    thek kaaha sir….
    ab yaaha her patrkar ya to daalal h. ya phir
    thekedar haar koi setting kaarane m laaga h….

  2. Megha Sinha,media student[PATNA]

    March 24, 2010 at 12:04 pm

    This was really a great effort to cherish because media of today demand intellectual discussion & not just discussions but a proper implementation so as to restore its credibility & recognition.

    OVERALL ,A GOOD EFFORT by “CATALYST MEDIA” !!!!!!

    & THNX TO “bharas4media” FOR INCLUDING THIS IN THEIR ARCHIVE

  3. KAUSHAL KISHOR.DELHI

    March 24, 2010 at 1:13 pm

    PAID NEWS KE CHALAN ME .KAHI NA KAHI PATRAKAR KO KHOKHLA KAR DIA JA RAHA HAI.SAMPADAK VIGYAPAN KE PICHHE BHAG RAHE HAIN.SACH BOLNEVALE PATRAKAR KA RASTA BADAL DIA JA RAHA HAI.SAMPADAK APNI JEB KAM BHARE AUR DESH NIRMAN ME KAM KARE.SAMPADAK NAM KI SANSTHA KI LAJ BACHANE KOI AUR NAHI AEGA,SAMPADAKON .PATRAKARO KO AGEANA HOGA

  4. BHARAT MISHRA,media student[PATNA]

    March 24, 2010 at 1:30 pm

    EDITORS SEMINAR IS A HISTORICAL MEET IN PATNA.EDITOR,S ROLE IN MEDIA IN THIS TIME IS AS BAMBOO STICK ON THE PLACE OF FORTH PILLAR.MEDIA STUDENTS ARE THOUTING THAT HOW TO THEY MANAGE IN C0MING TIME .REALLY IT,S A BIG CHALLANGE FOR MEDIA STUDENTS.

  5. RAJAN,AHIYAPUR,BIHAR UP.BORDER

    March 24, 2010 at 2:18 pm

    PAID NEWS (PACKAG PATRAKARITA)KE CHALAN SE PATRAKAITA KHOKHLI HOTI JA RAHI HAI.SAMPADAK VIGYAPAN KE PICHHE BHAG RAHE HAI.SACH BOLNEVALE PATRAKAR KA RASTA BADAL DIAJA RAHA HAI.SAMPADAK APNI JEB KAM BHARE AUR DESH NIRMAN ME SASHYOG KARE,SAMPADAK NAM KI SANSTHA KI LAJ BACHANE KOI AUR NAHI AYEGA,SAMPADKON ,PATRAKARON KO AGE ANAHOGA.

  6. virendra dangwal parth dehradun

    March 24, 2010 at 2:34 pm

    patrakarika se jude logon (uchcha pad par aasin) ka ek manch par charcha karana patrakarita ke girte star ke liye shayd shubh ho, patna me aayojit seminar ki riport ke madhym se logon ke vichar janne ka mauka mila, kuldeep naiyar ki baton “anti sensar day manana our midiya kamishan banana” ne prabhavit kiya, dusari taraf bbc reportar manikant thatur ki chinta “aalu-pyaj na bech pane wale patrakar ban gaye hain” des ki patrakarita ke liye gambhir chinta ka visay hai, aise patrakaron ki jamat ko rokane ki jarurat hai. Virendra Dangwal “parth” rastriya sahara dehradun.

  7. jyoti

    March 24, 2010 at 2:52 pm

    i agree with the comment that paisa ke sath pet bhi bharna chaiye. lekin kisi kisi ka pet bharane ka naam hi nahin leta, kya kha raha hai, kitna khana hai sima nahin, kai bar khana majboori bhi hota hai, itne dabaav hote hain, political bhi, peer pressure bhi, imaan bacha kar is kajal ki kothhri se bedaag nikalna bade jeevat ka kaam hai, zarurat hai har koi apne zameer se baat zaroor kare, rasta apne aap dikhega.

  8. rajiv@

    March 24, 2010 at 5:47 pm

    dainik jagran ne reportero ko sabse jayda giraya, patna ke sampadak ne to panchayat ke mukhiyo se reportero ko paisa lane ka nirdesh diya hai ,paisa nahi lane ke liye kahne per pali ,bihta ke reporter ko hata diya.

  9. SANTOSH PANDEY

    March 24, 2010 at 7:28 pm

    MAHRAJ DIVAS PER AAP LOG BADA HI BADHIYA BALLETE HAI. LEKIN BAAD ME BHOOL JATE HAI. MEDIA HOUCE ME PERESANI KAHA SE AATI HAI IS AAP BADE PRTAKAR LOG JARA BHI NAHI SOCHATE HAI.. 1-1 SAAL TAK INTERNSHIP KARWAKAR BACHHO KO CHHOD DIYE JATA HAI.. AAP LOG KABHI IS PER BICHAR KARTE HAI

  10. Rohit

    March 26, 2010 at 8:21 am

    रोहित, पत्रकार, पटना
    सीमेज का यह सचमुच अद्भूत प्रयास था,
    नवेन्दु जी ने एक इतिहास का निर्माण किया है! बधाई
    हिन्दी पत्रकारिता का स्तर लगातार गिरता जा रहा है. जिस मिशन को लेकर इसकी शुरुआत हुई थी आज उस पत्रकारिता का परिदृश्य लगातार बदल रहा है. नये पत्रकारों के लिए इस बदलते परिदृश्य को समझना होगा. इस पर व्यापक विमर्श के लिए अखबारों के संपादकों से बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता था. लेकिन, हिन्दी पट्टी से निकलने वाले इतने पत्रों के संपादकों को एक मंच पर लाना और उनसे सार्थक विमर्श करवाना भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं होगा. शायद इसलिए आज तक ऐसा प्रयास नहीं हुआ था. कम से कम मौजूदा पत्रकारों में से बहुत कम ने ऐसा कोई सम्मेलन देखा होगा. अगर देखा भी होगा तो उसकी सफलता नहीं देखी होगी. लेकिन, पटना में सीमेज के तत्वावधान में जो एडीटर्स मीट का आयोजन हुआ और उसमें भाग लेने वाले संपादकों ने जो सार्थक विमर्श किया. वह वास्तव में काबिले तारिफ है. इसके लिए सीमेज मीडिया कॉलेज और इस विमर्श के संयोजक को जितनी बधाई दी जाए कम है. यह विमर्श एक इतिहास बन चुका है. इससे मीडिया में आने वाले छात्र जितने लाभान्वित होंगे उतने ही लाभान्वित आज के पत्रकार भी होंगे. इस सफल आयोजन के लिए वरीय पत्रकार और सीमेज मीडिया कॉलेज के हेड ऑफ डिपार्टमेंट नवेन्दु जी को बहुत-बहुत बधाई. आशा है, सीमेज मीडिया कॉलेज इस तरह के आयोजनों का सिलसिला जारी रखेगा. जिसमें कुलदीप नैयर जैसे युगपुरुषों को आमंत्रित किया जाएगा. सीमेज के इस प्रयास को हिन्दी पत्रकारिता नहीं भूल सकती.

  11. jagdish ranjan, buxar,bihar

    March 26, 2010 at 2:26 pm

    patakar ab sirf kalam ke badaulat hi apni jiwika nhin chala sakte ,balki badalte parivesh me unhe apne kalam ko seth sahukaron aur khadi ke piche chupe khaddardhariyon ko apni kalam aur aatma ko shayad bechne ki taqut rakhni hogi.patna me hue editors meet me ye baaten khul ke to samne nhin aayee balki eshe dushre tarike se sampadko ne logon ke samne rakhne ki koshis ki…editors meet me bhi sampadakon ke vichar ek dushre ki baaton ko kathe rahe ..kuch to apni prasansha hi karte rahen…sampadkon ki bhid me sirf ek hi aisa ptrakar dikha jiske soch ko log ekyugi soch ke baare me bhi jante hai, wo hai kuldeep nayar.phir bhi en mananiya sampadkon ke vicharon ko ek manch se janta tak pahuchane ka kaam media ka koe nirvivad patrakar hi kar sakta tha . navendu ji ne jis tarike se en sampadakon ke vicharon ko bhari bhid me expose kiya wo kabile tarif hai.sampadak bhi bechare kya karen , patrakarita ke badalte waqt ke mare hai.lekin ye aayojan etihasiq tah jiske liye sampadkon ko kotisah badhai aur navendu ji hardik dhanyavad ke saath ek nasihat bhi hai ki yah silsila jari rahe. es aayojan me content bhi tha aur package sandar.

  12. amit(delhi)

    March 27, 2010 at 7:51 am

    I think this event is good for media student and for our bihar.
    This event is great and gave many benefits to the student as well as young editor. He got many tips about the past media generation and today media generation.
    so, thanks to CIMAGE and Navendu sir, those organized that successful event.

  13. ruby

    May 1, 2010 at 10:51 am

    look who is talking……..

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