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लोकतंत्र का महापर्व मीडिया के लिए रेवेन्यू सीजन

General Electionसभी छोटे-बड़े मीडिया हाउसों ने लोकसभा चुनाव कवर करने के लिए रणनीति बना ली है। सबका लक्ष्य एक है- ज्यादा से ज्यादा पैसा उगाहो। चुनाव मीडिया के लिए रेवेन्यू जनरेशन का सबसे बड़ा पर्व बन चुका है। चुनाव आयोग ने चुनाव खर्च को लेकर जो बंदिशें प्रत्याशियों पर लगाई है, उसका तोड़ प्रत्याशियों व मीडिया प्रबंधकों ने मिलकर निकाल लिया है। अखबारों में अब प्रत्याशियों का विज्ञापन नहीं छपता क्योंकि इस विज्ञापन का खर्च प्रत्याशी के चुनाव खर्च में जोड़ दिया जाता है। 

General Election

General Electionसभी छोटे-बड़े मीडिया हाउसों ने लोकसभा चुनाव कवर करने के लिए रणनीति बना ली है। सबका लक्ष्य एक है- ज्यादा से ज्यादा पैसा उगाहो। चुनाव मीडिया के लिए रेवेन्यू जनरेशन का सबसे बड़ा पर्व बन चुका है। चुनाव आयोग ने चुनाव खर्च को लेकर जो बंदिशें प्रत्याशियों पर लगाई है, उसका तोड़ प्रत्याशियों व मीडिया प्रबंधकों ने मिलकर निकाल लिया है। अखबारों में अब प्रत्याशियों का विज्ञापन नहीं छपता क्योंकि इस विज्ञापन का खर्च प्रत्याशी के चुनाव खर्च में जोड़ दिया जाता है। 

प्रत्याशी चुनावी खर्च कम रखने के लिए पत्रकारों व मीडिया हाउसों को मोटी रकम देकर विज्ञापन की जगह अखबारों के चुनाव पेज पर पाजिटिव खबरें छपवाते हैं। कांटे के मुकाबले की एनालिसिस कराते हैं। इन खबरों में प्रत्याशी को मजबूती से लड़ते हुए बताया जाता है। उनके पक्ष में जगह-जगह भीड़ उमड़ने की बात कही जाती है। प्रत्याशी के भाषण को जनसभा की तस्वीर के साथ पब्लिश किया जाता है। जो प्रत्याशी लाखों रुपये नहीं खर्च कर पाते, वो चाहे लाख योग्य और जेनुइन कैंडीडेट हों, उन्हें अखबार के ‘इलेक्शन स्पेशल’ पेज पर सिंगल कालम तक जगह नहीं दी जाती। इस कारण कई ईमानदार प्रत्याशी मंच से ही पत्रकारों को दलाल और बिका हुआ कहने में गुरेज नहीं करते। ऐसा वाकया मध्य प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में घटित हो चुका है। 

प्रत्याशियों से ज्यादा से ज्यादा पैसा ऐंठने के लिए मीडिया हाउसों के प्रबंधकों ने न्यूज हैंडल करने वाले वरिष्ठों को तगड़ा टारगेट सौंप दिया है। हरियाणा के एक बड़े अखबार के ब्यूरो चीफ ने नाम न छापने की शर्त पर भड़ास4मीडिया को बताया कि उन्हें एक छोटे से जिले से लोकसभा चुनाव के दौरान 20 लाख रुपये निकालने का टारगेट दिया गया है। इस टारगेट को पूरा करने के लिए वे सभी दलों के प्रत्याशियों के हाथ-पांव जोड़ रहे हैं। इन प्रत्याशियों से पेड न्यूज की डील हुई है। इनसे लाखों रुपये लेकर चुनाव भर अखबार के चुनावी पेज पर पक्ष में खबरें प्रकाशित की जाएंगी। खबरों में किसी भी प्रत्याशी की सीधे हारता या जीतता नहीं दिखाना है। सभी प्रत्याशियों का टेंपो हाई रखना है ताकि सभी से लाख- दो लाख रुपये वसूला जा सके। आप जब प्रत्याशियों से खबरों के नाम पर पैसे मांगेंगे तो उनके खिलाफ चुनाव में ही नहीं बल्कि चुनाव के बाद भी खबर लिखने में कलम कांपेंगी।

उत्तराखंड के हल्द्वानी जिले का एक रिपोर्टर प्रबंधन के दबाव से परेशान है। उसका कहना है कि चुनाव में हर प्रत्याशी से ज्यादा से ज्यादा पैसा निकालने के प्रबंधन के दबाव से उसका सारा वक्त प्रत्याशियों से पेड न्यूज के लिए डील करने में बीतता है। खबर के नाम पर केवल प्रेस रिलीज और इवेंट को ही भेजा जा रहा है। ऐसे माहौल में अखबारों से जन सरोकार वाली पत्रकारिता की उम्मीद करना बेमानी है। परफारमेंस का पैमाना बड़ी खबर ब्रेक करना नहीं रह गया है। जो सबसे ज्यादा रेवेन्यू प्रबंधन को दिलाएगा, वही प्रबंधन की आंख का तारा बनेगा।

एक अन्य अखबार के राष्ट्रीय ब्यूरो में कार्यरत एक वरिष्ठ पत्रकार का कहना है कि चुनाव के वक्त उन लोगों को अलग-अलग पार्टियों के बड़े-बड़े नेताओं के साथ लगा दिया गया है। इन नेताओं से प्रबंधन की मोटी डील पहले ही हो चुकी है। इसके एवज में नेताओं को परमानेंट तौर पर एक नेशनल रिपोर्टर सुपुर्द कर दिया गया है ताकि वे जहां भी जाएं और जो भी बोलें, उसकी खबर अखबार में नियमित तौर पर चुनावी पेज पर प्रकाशित की जाए। ज्यादातर रिपोर्टर इस चुनावी महासमर में विज्ञापन के दबाव से जूझ रहे हैं। विज्ञापन विभाग का काम भी इनके सिर आ जाने से ये डबल दबाव में हैं। सूत्रों का कहना है कि कई रिपोर्टर सहर्ष विज्ञापन बटोरेने के काम में लगे हुए हैं क्योंकि प्रबंधन विज्ञापन में इन्हें भी पंद्रह से लेकर तीस फीसदी तक कमीशन देता है। कई रिपोर्टर तो लोकसभा चुनाव के दौरान कमीशन के रूप में इतनी रकम कमा लेने की आस लगाए हैं ताकि वे चार पहिया गाड़ी खरीद सकें।

एक बड़े अखबार में यूपी मार्केट के रेवेन्यू को हैंडल कर रहे एक वरिष्ठ प्रबंधक का कहना है कि पत्रकार आम तौर पर चुनाव के दिनों में नेताओं से पर्सनली ओबलाइज हो जाया करते हैं लेकिन इसका लाभ मीडिया हाउस को नहीं मिलता। इसीलिए प्रबंधन ने पत्रकारों के लिए नियम बना दिया है कि विज्ञापन लाओ और तगड़ा कमीशन पाओ। इससे पत्रकारों की नंबर दो की कमाई को नंबर एक में बदल दिया जा रहा है। इससे पत्रकार और प्रबंधन दोनों को फायदा है। इसे कैसे गलत कहा जा सकता है? उनसे जब पूछा गया कि आप सभी पत्रकारों को चोर समझते हैं तो उनका कहना था कि आजकल ज्यादातर रिपोर्टर फील्ड से अपने लिए ज्यादा से ज्यादा फायदा जुटाते की फिराक में रहते हैं, कोई इसे स्वीकार कर लेता है और कोई इसे नहीं स्वीकारता। अगर पत्रकारों को रेवेन्यू जनरेशन से सीधा जोड़ दिया जा रहा है तो पत्रकारों को नंबर एक में कमाने का अतिरिक्त मौका मिल जाता है। यह तरीका सही है। रिपोर्टर अगर रेवेन्यू जनरेशन में जुट जाएगा तो पत्रकारिता के सिद्धांतों का क्या होगा? इस सवाल पर प्रबंधक महोदय कहते हैं- पत्रकारिता के सिद्धांत की बातें किताबी होती हैं। कोई भी इसका पालन नहीं करता, केवल पब्लिक मंच से इस पर भाषण दिया जाता है और पत्रकारिता के छात्रों को उपदेश पढ़ाया जाता है। आज जब मार्केट इकोनामी पूरे उफान पर है, हर आदमी अपने लिए ज्यादा से ज्यादा लाभ और सुविधाएं चाहता है। और यह चाहना गलत भी नहीं है। पत्रकारों के साथ दिक्कत यही है कि वे डबल स्टैंडर्ड रखते हैं। कहते कुछ और हैं और करते कुछ और।

एक अखबार के जनरल डेस्क पर कार्य कर रहे वरिष्ठ पत्रकार का कहना है कि चुनाव पेज पर कौन सी खबरें पेड हैं और कौन सी नहीं, इसकी पहचान के लिए पेड खबरों पर ‘चुनाव समाचार’ या ‘चुनावी हालचाल’ का क्रासर लगा दिया जाता है ताकि प्रबंधन और विज्ञापन विभाग को पता रहे कि इन खबरों के एवज में पैसा मिल चुका है। प्रिंट जैसा हाल चैनलों का भी है। न्यूज चैनलों ने चुनाव विश्लेषण और चुनावी खबरों के प्रसारण के लिए जिले-जिले के स्ट्रिंगरों और राज्यों के ब्यूरो चीफों को ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन लाने के निर्देश दे दिए हैं। स्टेट ब्यूरो के हेड को अलग से निर्देश दिया गया है कि वे चुनाव के जरिए अधिकतम रेवेन्यू जनरेट करने की योजना बनाएं। सूत्रों का कहना है कि कई टीवी न्यूज चैनल ओपिनियन पोल के एवज में राष्ट्रीय पार्टियों से मोटी डील कर चुके हैं। लोकतंत्र का यह महापर्व भले ही देश के भविष्य के दशा-दिशा को तय करने वाला होता है पर इस महापर्व की आड़ में चौथा खंभा जिस तरह अपने बुनियादी दायित्वों को भुलाकर पूरी तरह खाऊ-कमाऊ संस्कृति में लिप्त है, उसे लोकतंत्र और पत्रकारिता दोनों के लिए शुभ नहीं कहा जा सकता।


लोकसभा चुनाव में मीडिया और मीडिया प्रतिनिधियों की भूमिका को लेकर आपके पास भी कोई खबर, सूचना, जानकारी, रिपोर्ट, है तो इसे भड़ास4मीडिया तक भेजें, [email protected] पर मेल करें। आपका नाम गुप्त रखा जाएगा।

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