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बाजार से मोहब्बत ने संपादकों को बनाया दलाल!

संजीवकुछ भी सुनी-सुनायी बात नहीं है। सब कुछ मैनें आंखों के सामने देखा। स्थान था चंडीगढ़। अखबारों ने किस तरह से अपने अस्मिता को सरेआम नीलाम किया, इसे बताते हुए शर्म आती है। चंडीगढ़ से बसपा प्रत्याशी हरमोहन धवन के घर एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक का मार्केटिंग प्रतिनिधि और रिपोर्टर प्रस्ताव लेकर पहुंचते हैं। कहते हैं कि भाजपा और कांग्रेस के प्रत्याशी ने उनके अखबार में आठ से दस लाख रुपये देकर पैकेज की खरीद की है। अगर वे खुद रूटीन की खबरों का कवरेज चाहते हैं तो इतनी ही रकम दे दें, कवरेज होगा। इसके कुछ दिन पहले ही एक दूसरे हिंदी राष्ट्रीय दैनिक के प्रतिनिधि भी धवन के पास पहुंचे। उन्होंने धवन से कहा कि अगले दिन उनके कई कार्यक्रम है। इसके कवरेज के लिए जो पैकेज हैं, उसे खरीदें। अखबारों के इस भेदभाव से पिछले कुछ दिनों से बसपा प्रत्याशी धवन जो चंद्रशेखर सरकार में नागरिक उड्डयन मंत्री भी रहे, काफी परेशान थे।

संजीव

संजीवकुछ भी सुनी-सुनायी बात नहीं है। सब कुछ मैनें आंखों के सामने देखा। स्थान था चंडीगढ़। अखबारों ने किस तरह से अपने अस्मिता को सरेआम नीलाम किया, इसे बताते हुए शर्म आती है। चंडीगढ़ से बसपा प्रत्याशी हरमोहन धवन के घर एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक का मार्केटिंग प्रतिनिधि और रिपोर्टर प्रस्ताव लेकर पहुंचते हैं। कहते हैं कि भाजपा और कांग्रेस के प्रत्याशी ने उनके अखबार में आठ से दस लाख रुपये देकर पैकेज की खरीद की है। अगर वे खुद रूटीन की खबरों का कवरेज चाहते हैं तो इतनी ही रकम दे दें, कवरेज होगा। इसके कुछ दिन पहले ही एक दूसरे हिंदी राष्ट्रीय दैनिक के प्रतिनिधि भी धवन के पास पहुंचे। उन्होंने धवन से कहा कि अगले दिन उनके कई कार्यक्रम है। इसके कवरेज के लिए जो पैकेज हैं, उसे खरीदें। अखबारों के इस भेदभाव से पिछले कुछ दिनों से बसपा प्रत्याशी धवन जो चंद्रशेखर सरकार में नागरिक उड्डयन मंत्री भी रहे, काफी परेशान थे।

उनकी बड़ी जनसभा को भी मीडिया में सिंगल कालम कवरेज नहीं मिल रहा था जबकि दूसरे दलों की छोटी जनसभाओं को भी चार कॉलम में छापा जा रहा था। पर धवन ने राष्ट्रीय दैनिक के प्रस्ताव को ठुकराते हुए चंडीगढ़ में आयोजित बसपा की चुनावी रैली में अखबारों पर हमला बोल दिया। इन अखबारों की बेशर्मी देखिए कि आरोपों में सच्चाई होने के बावजूद इनके चाल-चरित्र में कोई सुधार नहीं आया है। राष्ट्रीय जनता दल के चंडीगढ़ के उम्मीदवार हाफिज अनवारूल हक ने बातचीत में कहा कि अब देखना मीडिया कैसे कवरेज उन्हें देता है। आधा पेज वो मीडिया के खरीद लेंगे। उनकी कही बात में सच्चाई नजर आयी। देश के दो बड़े हिंदी अखबार ने वीरवार को हाफिज अनवारूल हक के बड़े-बड़े फोटो छापे और जोरदार खबर लगायी। सारा शहर और खुद मीडिया जानता है कि हाफिज अनवारूल हक कुछ वोट काटने की क्षमता रखते हैं और चुनाव नहीं जीत सकते है। फिर उन्हें मीडिया में बाकी दलों से ज्यादा कवरेज मिल रहा है। आखिर क्यों? स्पष्ट है। तो हक साहब ने भी मीडिया का पैकेज खरीद लिया है।

पैसे लेकर खबर छापने के आरोप पहले भी लगते रहे हैं। पहले यह आरोप रिर्पोटर पर लगते थे। अब आरोप मालिक पर लग रहे हैं। टूल रिपोर्टर और मार्केटिंग के लोग बने हैं। मालिकों ने साफ निर्देश बीट रिपोर्टरों को दिए हैं। प्रत्याशियों से पैसे मांगो और उनके पक्ष में संपादकीय की तरह खबर लिखो। पर हद तो यह है कि प्रत्याशियों के सामने अब रुटीन कवरेज के लिए भी पैकेज का प्रस्ताव रख दिया गया। अब मंचों से हो रहे हमले के बाद अखबारों को सोचना चाहिए कि क्या चुनावी मौसम में इस तरह की खबरें छापने के बाद अखबारों की विश्वसनीयता बनी रहेगी? जिन उम्मीदवारों के पक्ष में संपादकीय लिखा जा रहा है वो अगर हार गए तो क्या होगा। एक हिंदी राष्ट्रीय दैनिक ने पंजाब में हद कर दी है। प्रतिदिन एक पृष्ठ सताधारी अकाली दल के लिए समर्पित है। संपादकीय स्टाइल में अकाली दल को भारी मतों से जिताया जा रहा है। खबरों की हेडिंग देखिए-

  • कांग्रेस ने भटिंडा से हार माननी शुरू की
  • कई गुणों और हुनरों का सुमेल है हरसिमरत
  • बटिंडा पर शासन करने की बात कांग्रेसियों को उल्टी पड़ने लगी
  • अजनाला के हक में डटी भाजपा, राणा की नींद उड़ी
  • चंदूमाजरा दे रहे है प्रणीत को कड़ी टक्कर
  • चुनाव के बाद कैप्न की सियासत का सूरज होगा अस्त

ये उस राष्ट्रीय अखबार के एक पृष्ठ का उदाहरण है जिसके देश के हर हिस्से में इस समय चुनावी सुधार के लिए बड़े-बड़े होर्डिंग लगे हैं। यही अखबार पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के कार्यकाल में कांग्रेस का गुणगाण करता था। इस मीडिया हाउस के ग्रुप एडिटर अमरिंदर सिंह के मीडिया एडवाइजर भरतइंद्र सिंह चहल के यहां दरबारी की तरह बैठे होते थे। लेकिन इस अखबार की उस समय क्या विश्वसनीयता रह जाएगी जब चुनावी परिणाम आएंगे। पंजाब में क्या होगा, ये जनता भी जानती है और वो मीडिया हाउस भी जानता है, जो एक पृष्ट का चुनावी खबर किसी की चापलूसी में छाप रहा है। स्थिति लगभग एग्जिट पोल की तरह ही होगी। पर दुःखद बात यह होगी कि लोगों का विश्वास मीडिया तंत्र पर नहीं रहेगा। हालांकि अखबारों की पोल खुलने लगी है। इसके लिए कुछ युवाओं को धन्यवाद करना चाहिए जिन्होंने वेबसाइट के माध्यम से इस मुहिम को अंजाम दिया। साथ ही उन अखबारों को भी धन्यवाद देना चाहिए जिन्होंने पत्रकारिता के मान सम्मान को बनाए रखा है और तमाम दबावों के बावजूद इस खेल में शामिल नहीं हुए। हालांकि तमाम प्रलोभन उन्हें भी दिए गए।

दरअसल मीडिया की हालत तो बाजारू औरत से भी बदतर हो गई है। बाजारू औरत भी बाहर में शर्म रखती है। मंडी में अपने शरीर को बेचने के पीछे उसकी मजबूरी होती है। फिर शरीर को बेचते हुए भी वो शर्म और हया को बचाए रखती है। पर मीडिया ने इन मानदंडों को भी तोड़ दिया। इनके बिकने के पीछे कोई मजबूरी नहीं है। ये पहले से धनाढ्य हैं। पर सत्ता पर काबिज और धनधान्य से मजबूत हर व्यक्ति इनका पति है जिसके साथ ये पैसे के लिए रात गुजारेंगे। आज अकाली दल-भाजपा गठबंधन सता में है तो उनसे सौदा करेंगे, कल को कांग्रेस आएगी तो उनके साथ सौदा कर लेंगे। संपादकों की तो हद हो गई है। खासकर हिंदी अखबारों के संपादक संपादक नहीं बल्कि मालिकों के दलाल हो गए हैं। वो मालिक के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। मालिक को धन मिले इसलिए सरकार के एडवाइजरों के पास हाथ जोड़कर चपरासी की तरह खड़े रहते हैं। पहले रिपोर्टर मीटिंग फिक्स कराता है और बाद में संपादक पहुंचते हैं। एक जमाना था, अखबार के संपादक राजनेताओं के कार्यक्रमों में जाने से कतराते थे। अब स्थिति यह है कि सरकार तो सरकार, सरकार के चमचों के छोटे-मोटे कार्यक्रम में भी ये दौड़कर पहुंच रहे हैं। दुनिया सुधारने वाले खुद ही इतने ज्यादा भ्रष्ट हो चुके हैं कि कभी भी कोई आकर गिरेबान पकड़ ले।

कभी पैसे लेकर खबरों छापने का आरोप सिर्फ पंजाब केसरी पर लगता था। पंजाब में हिंदी भाषी क्षेत्र से आए हिंदी अखबारों ने भी यही धंधा शुरू कर दिया है। कुछ दिनों पहले एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक के ग्रुप एडीटर ने पंजाब में रिपोर्टरों की बैठक की। बैठक में उन्होंने साफ कहा कि हर रिपोर्टर कवरेज के एवज में प्रत्याशियों से पैसे ले। जितना ज्यादा कमाई कर सकते हो, करो। जो रिपोर्टर जितना ज्यादा पैसे प्रत्याशी से दिलवाएगा, उसके एपरेजल में उतने ही अंक और जोड़े जाएंगे। यानि की अब तो रिपोर्टरों के कमीशन पर भी मार पड़ गई है।

पर अखबारों को किसी गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए। अखबार न तो चुनाव जिता सकते हैं और न हरा सकते है। अगर ऐसी कोई गलतफहमी है तो खुद अखबार मालिक चुनाव लड़ लें। दैनिक जागरण के नरेंद्र मोहन ने पिछले दरवाजे से संसद में पहुंच सत्तासुख भोगा। वो भी भाजपा की चापलूसी करके। अब उनके ही ग्रुप के महेंद्र मोहन पिछले दरवाजे से संसद पहुंचकर सता सुख ले रहे हैं, मुलायम सिंह की चापलूसी कर। दम होता तो लोकसभा चुनाव लड़ते। पता चल जाता कि अखबार कितना चुनाव जिता सकता है। हिंदुस्तान टाइम्स की शोभना भरतिया ने भी संसद में पहुंचने के लिए पिछला दरवाजा ही चुना। अखबार चुनाव जिता सकता है, इस गलतफहमी के शिकार एक बार पंजाब केसरी के मालिक स्वर्गीय लाला जगत नारायण हो गए थे। वे पंजाब केसरी के मालिक थे, उन्हें लगता था कि अखबार के बल पर चुनाव जीत लेंगे। हरियाणा के नारायणगढ़ से चुनाव लड़ने की उन्हें सूझी। नारायणगढ़ में उन्होंने नामांकन किया और प्रतिदिन उनके ही अखबार में बड़ी-बड़ी खबरें और विज्ञापन आने लगे। इसके बाद भी लाला जगतनारायण चुनाव हार गए। एक बार लाला जगत नारायण के बेटे रमेश ने स्वर्गीय बंसीलाल को मीटिंग के दौरान सुझाव दिया- चौधरी साहब, अखबार वालों से बना कर रखा करो। अगर नहीं बनाकर रखोगे तो नुकसान में जाओगे। मिजाज के गरम चौधरी बंसीलाल को गुस्सा आया और रमेश को डांटते हुए कहा कि इतनी ही गलतफहमी थी तो लाला जगत नारायण चुनाव क्यों नहीं जीते?


लेखक संजीव जुझारू पत्रकार हैं और पिछले कई वर्षों से चंडीगढ़ में विभिन्न मीडिया माध्यमों से जुड़े हुए हैं। उनसे संपर्क के लिए आप उन्हें [email protected] पर मेल कर सकते हैं या फिर 09417005113 पर रिंग कर सकते हैं।


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