अमेरिकी अखबार ‘वॉल स्ट्रीट जरनल‘ में छपी खबर भारतीय मीडिया के मुंह पर कालिख पोतने के लिए काफी है। अभी तक ये बात घरवालों तक ही सीमित थी, या कहें कि हमने छिपाकर रखी हुई थी। मगर अब बदन से कपड़ा उघड़ गया है। जगजाहिर हो गया है कि भारतीय मीडिया का चाल, चरित्र और चेहरा कैसा है। साफ है कि ये चेहरा वैसा चमकदार नहीं है जैसा कि दावा किया जाता है। इस मीडिया का बड़ा हिस्सा बिका हुआ है। इस हिस्से की खबरें न्यूज वैल्यू के आधार पर तय नहीं होतीं, बल्कि उसकी कितनी ‘वैल्यू’ दी गई है, इससे निर्धारित होती है। इस रिपोर्ट ने लोकसभा चुनाव में खड़े एक उम्मीदवार के अनुभवों के हवाले से बताया है कि कैसे प्रिंट पत्रकारिता चुनाव-वसूली में जुटी हुई है। क्या पत्रकार और क्या मार्केटिंग के लोग सबके सब प्रत्याशियों से पैसे लेकर कवरेज का ठेका ले रहे हैं। यानी जिसने जितना धन दिया उसकी उतनी सकारात्मक ख़बरें और तस्वीरें अख़बारों ने छापीं। जिसने अंटी ढीली नहीं की, उसको खबरों से ही गायब कर दिया गया। इसमें लालच और भयादोहन दोनों को हथियार बनाया जा रहा है। बहुत से लोग कह रहे हैं कि अमेरिकी अखबार ने राई का पहाड़ बनाया है मगर हकीकत ये है कि ये पहाड़ की राई भर है।
उसने तो ये दिखाया है कि किसी चुनाव क्षेत्र विशेष में ऐसा हो रहा है मगर वास्तविकता ये है कि पत्र-पत्रिकाएं बड़े पैमाने पर इस चुनाव वसूली में जुटे हुए हैं। क्षेत्रीय पत्र-पत्रिकाएं तो इस चुनावी-गंगा में डुबकी लगा ही रहे हैं, राष्ट्रीय कहे जाने वाले प्रिंट मीडिया को भी अब इससे परहेज़ नहीं रह गया है। वे भी जुटे हुए हैं कवरेज की कीमत वसूलने में। नाम लेने की जरूरत नहीं है मगर वे भी इस धतकरम में शामिल हैं जो पत्रकारिता के गिरते स्तर पर घड़ियाली आँसू बहाते रहते हैं।
यही नहीं, प्रिंट तो प्रिंट टेलीविज़न चैनल तो उनसे भी दस हाथ आगे निकल चुके हैं। कुछ ही दिन पहले इसी वेबसाइट पर वॉयस ऑफ इंडिया के चंडीगढ़ ब्यूरो हेड मुकेश राजपूत का बयान छपा था कि उन्हें इस्तीफा इसलिए देना पड़ा, क्योंकि उनसे खुद “कमाने-खाने” ही नहीं, चैनल को भी खिलाने के लिए कहा जा रहा था। वे पत्रकार हैं मगर उन्हें “धंधे” पर लगाया जा रहा था। इस तरह की शिकायतें इसी वेबसाइट पर और लोगों की तरफ से भी प्रकाशित हो चुकी हैं। बेशर्मी देखिए कि संस्थान की तरफ से न तो उसका कोई प्रतिवाद आया और न ही कोई पश्चाताप भरा बयान। लेकिन आप केवल वॉयस ऑफ इंडिया (क्या अब इसे वॉयस ऑफ रुपैया कहना ज्यादा ठीक नहीं होगा?) को दोष नहीं दे सकते। उसके आने से पहले सहारा समय ये काम शुरू कर चुका था। पत्रकारिता और टीवी चैनलों की दुनिया में मूल्यों की स्थापना के बड़बोलेपन के साथ उतरे सुब्रतो राय के चैनल कीचड़ में लोट रहे हैं और कही कोई हाहाकार नहीं मचा। सहारा से पहले जैन टीवी के बारे में भी यही सब सुनने को मिलता रहा है। हैरत होती है कि किसी भी नेता या प्रत्याशी ने पत्रकारों का स्टिंग आपरेशन क्यों नहीं किया। लेकिन प्रश्न उठता है कि अगर की कर भी लेता तो उसे दिखाता कौन…हमाम में तो सभी नंगे हैं।
ये हाल तो उन चैनलों का है जो खुल्लमखुल्ला हर नुक्कड़ पर कंटेंट की दुकान खोलकर बैठ गए हैं, मगर बहुत से ऐसे चैनल भी हैं जिन्होंने सदाचार की रामनामी ओढ़ रखी है और जिनके अपने पाँच सितारा कोठे हैं। वे फाइव स्टार कॉल गर्ल की तरह बड़े ग्राहकों को अपनी सेवाएं प्रदान करते हैं। वैसे अगर चुनाव के दौरान की जाने वाली इस सौदेबाज़ी को छोड़ दें भी दें तो कंटेंट बेचने के बहुत से तरीके प्रचलन में हैं जिनकी चर्चा बहुत कम होती है। इसमें प्रोयजित इंटरव्यू, खबरें और मीडिया पार्टनर की आड़ में किया जाने वाला गोरखधंधा भी शामिल है। बिज़नेस चैनलों के कंटेंट को खंगाला जाएगा तो वहाँ ये गंद और भी ज्यादा मिलेगी।
ऐसा भी नहीं है कि चुनाव के समय धन उगाहने का धंधा इसी चुनाव में शुरू किया गया हो, प्रिंट मीडिया पिछले लगभग बीस साल से ऐसा कर रहा है। उसने देख लिया था कि चुनाव का पर्व केवल नेताओं और मतदाताओं का पर्व नहीं है, बल्कि उसके लिए भी धन तेरस जैसा है। इसीलिए उसने इसे मनाने के तरीके ईजाद करने शुरू कर दिए थे। ये काम पहले उसने छोटे स्तर पर और चुपचाप किया, मगर अब खुल्मखुल्ला मैदान में आ गया है। पहले आँखों की थोड़ी शरम बाकी थी इसलिए इस काम के लिए मार्केटिंग के लोग लगाए जाते थे या फिर अंशकालिक संवाददाताओं के जिम्मे इसे छोड़ दिया जाता था। मगर फिर अख़बार के रिपोर्टर इसके लिए ज्यादा उपयोगी समझे जाने लगे, क्योंकि उनका प्रभाव और संपर्क ज़्यादा होता है। क्षेत्रीय अखबारों में काम करने वाले अधिकांश पत्रकारों ने अब इसे अपने काम का हिस्सा समझ लिया है। कई ने तो इसे सफलता की सीढ़ी भी मान लिया है क्योंकि वे देख रहे हैं कि ज्यादा बिजनेस लाने वालों की प्रबंधन ज्यादा कदर करता है और उन्हें तरक्की भी जल्दी मिलती है। फिर चूँकि ये काले धन का कारोबार है इसलिए इसमें लाए धन का कुछ हिस्सा बीच में ही गायब भी किया जा सकता है। इससे त्वरित आर्थिक तरक्की के द्वार भी खुलते हैं। प्रदेश की राजधानियों में आप चले जाइए, ऐसे करोड़पति पत्रकारों की लंबी फेहरिस्त आपको मिल जाएगी।
बहरहाल, धीरे-धीरे आज हालत ये बन गई है कि चुनाव की इस कमाई को संस्थानबद्ध कर दिया गया और अखबारों ने इसे वैधता भी प्रदान कर दी है। हाल में आई मंदी ने तो इसके लिए एक और आधार प्रदान कर दिया है। कोई सवाल कीजिए तो जवाब मिलेगा ‘सरवाइव’ करने के लिए तो ये सब करना ही पड़ेगा। मानो मंदी के पहले वे ये काम नहीं कर रहे थे और जैसे ही मंदी कम होगी वे इससे फिर तौबा कर लेंगे। उनके इरादे नेक पहले भी नहीं थे और अब भी नहीं हैं। इसीलिए मजबूरी और ज़रूरी के नाम पर इस काले धंधे को वे लगातार स्थापित करते जा रहे हैं। यहाँ तक कि इसके लिए बाकायदा नियम-कानून बना दिए गए हैं। इसमें कवरेज के हिसाब से रेट निर्धारित हैं। आप जितना खर्च करना चाहते हैं वैसा पैकेज आपको मिल जाएगा। आप चाहें तो चकाचक कवरेज पा सकते हैं और अगर पैसा खर्चने की औकात आपकी नहीं है तो आपको एक लाइन भी अपनी देखने को नहीं मिलेगी। टीवी चैनलों ने भी प्रिंट की ही तरह विभिन्न तरह के पैकेज बना रखे हैं। अगर रैली लाइव करवानी है तो इतना लगेगा, यदि प्रचार का अच्छा कवरेज चाहिए तो इतना खर्च करना पड़ेगा, इंटरव्यू, जनता दरबार, विरोधी दल के खिलाफ अभियान वगैरा, वगैरा सबके रेट निर्धारित कर दिए गए हैं।
ध्यान रहे बिका हुआ ये कंटेंट संपादकीय सामग्री के रूप में प्रकाशित होता है न कि विज्ञापन के रूप में। कहीं इस बात का ज़िक्र नहीं होता कि प्रकाशित सामग्री का भुगतान किया गया है। अगर बहुत ज्यादा हुआ तो इतने छोटे अक्षरों में लिखा जाएगा कि किसी की नज़र भी न जाए। चैनलों में तो इतना भी नहीं किया जाता। यानी पाठकों को भ्रम में रखा जाता है। उन्हें पता ही नहीं चलता कि वे जो कुछ देख रहे हैं उसमें से क्या सही है और क्या प्रायोजित। अगर उसके विवेक ने उसे बता दिया तो ठीक नहीं तो वह तो सब ख़बरों को सत्य मान लेगा। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि पाठक-दर्शक अख़बारों-चैनलों में छपी-दिखाई गई चुनाव की ख़बरों को जिस भरोसे के साथ पढ़ता-देखता है वह एक बहुत बड़े छलावे के अलावा कुछ नहीं है।
तो ये है हमारे समाज का आईना दिखाने का दावा करने वाले आईने की असली तस्वीर। क्या यही है हमारे लोकतंत्र का चौथा खंभा, जिस पर हम गर्व करते हैं? पूछने को मन करता है-जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं, कहाँ हैं, कहाँ हैं………..।
जरा पत्रकारिता के इस बीस साल के विकास को आर्थिक उदारवाद के संदर्भ में भी देखें। क्या वजह है कि बाज़ारवाद के आगमन के साथ ही लालच का विराट रूप सामने आता है और पत्रकारिता के जीवन मूल्यों को दुबककर बिल में घुस जाना पड़ता है? आख़िरकार की भी परिवर्तन आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों से अलग नहीं होता।
लगभग ढाई दशकों से पत्रकारिता में सक्रिय मुकेश कुमार गत पंद्रह वर्षों से टेलीविज़न में हैं और कई न्यूज़ चैनलों के प्रमुख के तौर पर काम कर चुके हैं। उन्होंने कई किताबें लिखी और अंग्रेजी से अनुवाद की हैं। मुकेश से संपर्क करने के लिए [email protected] का सहारा ले सकते हैं।