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‘पहले पन्ने पर छाप दो कि यह अखबार झूठा है’

[caption id="attachment_14855" align="alignleft"]प्रभाष जोशीप्रभाष जोशी[/caption]उनका कुछ नाम भी है और काम भी। बरसों से हमारे दोस्त हैं। लेखक और समाजसेवी पिता के कारण बचपन से पत्रकारिता करने लगे। समाज को बदलने और बनाने की तलवार मान कर। पिछले आठ-दस साल से कोई अख़बार उन्हें नहीं रखता। सब इज्जत करते हैं। अपनी रोजी चलाने और रुचि बनाए रखने के लिए तरह-तरह के काम करते हैं। जैसे इस बार उनके एक दोस्त लोकसभा का चुनाव लड़े तो उनका मीडिया प्रबंधन किया। वह सब अपनी आंखों से देखा और महसूस करते हुए विचलित हुए जो आजकल हमारे अख़बार और टीवी चैनल कर रहे हैं। उनने डायरी लिखी। उसके कुछ पन्ने यहां देकर अपनी बात कह रहा हूं। आगे की कार्रवाई की रणनीति के तहत न उनका नाम दे रहा हूं न उनकी डायरी में आए नाम।


प्रभाष जोशी

प्रभाष जोशीउनका कुछ नाम भी है और काम भी। बरसों से हमारे दोस्त हैं। लेखक और समाजसेवी पिता के कारण बचपन से पत्रकारिता करने लगे। समाज को बदलने और बनाने की तलवार मान कर। पिछले आठ-दस साल से कोई अख़बार उन्हें नहीं रखता। सब इज्जत करते हैं। अपनी रोजी चलाने और रुचि बनाए रखने के लिए तरह-तरह के काम करते हैं। जैसे इस बार उनके एक दोस्त लोकसभा का चुनाव लड़े तो उनका मीडिया प्रबंधन किया। वह सब अपनी आंखों से देखा और महसूस करते हुए विचलित हुए जो आजकल हमारे अख़बार और टीवी चैनल कर रहे हैं। उनने डायरी लिखी। उसके कुछ पन्ने यहां देकर अपनी बात कह रहा हूं। आगे की कार्रवाई की रणनीति के तहत न उनका नाम दे रहा हूं न उनकी डायरी में आए नाम।


19-04-09 : ”बहुत सवेरे —-  के संवाददाता का फोन आया। हालचाल पूछे। मैंने जानना चाहा अचानक —-  के तीन तीन फोटो कैसे आ रहे हैं? वे बोले —-  उनने महंगा पैकेज लिया है। —-  जी ने दो लाख दिए हैं। वहां से उनकी ख़बरें आप देखते हैं? उनने सबसे महंगा पैकेज लिया है, पांच लाख का। यह फोन इसलिए किया कि आप लोगों का पैकेज पूरा हो रहा है। आज आपके —-  आने वाले हैं। रिचार्ज करवा लीजिए तभी हम कवर कर पाएंगे। दस दिन की ही तो बात है। बड़ा पैकेज ले लीजिए, सब कवर हो जाएगा।

रात में —-  के किसान से दिखते एक सज्जन कैप लगाए आए। उनने अपने अख़बार को यह कह कर बेचने की कोशिश की कि नामांकन तक तो हमने फ्री ख़बरें देने का निर्णय लिया था। अब पैकेज जे लीजिए। कैसा पैकेज? तभी उनके पास —-  से फोन आने लगे। न्यूज़ इंचार्ज और विज्ञापन मैनेजर के। हमारा उम्मीदवार उन्हें मोटी मुर्गी लग रहा था। उनसे बात पक्की करने के बाद नींद उड़ गई। कभी हम भी चुनाव कवर करने जाते थे। लेकिन अब इन पत्रकारों को देख कर तो मेरे होश उड़ रहे हैं। सबसे होशियार —-  के संवाददाता हैं। कह रहे थे कि —-  के कॉलम पढ़-पढ़ कर पत्रकारिता सीखे हैं। कैसे उनके पिता अदालत में काम करते हुए भी सदा ईमानदार बने रहे। उनने हर उम्मीदवार से पचास-पचास हजार लिये हैं। पैकेज वाले अख़बारों का पैसा तो पटना, लखनऊ और दिल्ली गया होगा। लेकिन इनका पैसा तो यहीं के बैंक में जमा हुआ होगा ना! यहां कांशीराम जी सिद्धांत काम कर रहा है। जिसकी जितनी संख्या भारी उतनी उसकी भागीदारी। यहां दो पार्टियों वाला मॉडल काम कर रहा है। —-  का इतना सर्क्युलेशन है और —-  इतना। —-  तो ढूंढे भी नहीं मिलता। अलबत्ता चैनलों की भीड़ है। कुछ संवाददाता तो दो-दो माइक लिये घूम रहे हैं। फोटोग्राफरों की भी चांदी है। पैसों के मुताबिक वे सभी उम्मीदवारों की तस्वीरें खींचते हैं।”


20-04-09 : ”आज एक प्रमुख दैनिक के स्थानीय प्रतिनिधि अपने विज्ञापन इंचार्ज के साथ आए। उनके अख़बार ने सभी उम्मीदवारों की तस्वीरें छापी थीं। निर्दलीय उम्मीदवार की तस्वीर गायब थी। शायद कहना था विज्ञापन दो वरना तस्वीर के लिए तरसो। संवाददाता कह रहे थे —-  मैंने ख़बर भेजी थी पर वहां एक जाति विशेष के संपादक हैं। छापेंगे नहीं। यानी पैकेज के बिना अख़बार में खिड़की-दरवाजे नहीं खुलेंगे।”


21-04-09 : ”एक स्थानीय पत्रकार ने पैकेज, रिचार्ज, विज्ञापनों के जरिये अख़बार को मनाने जैसे सभी प्रस्तावों पर पलीता लगा दिया। बेहद विनम्र और आने पर हर बार पैर छूने वाले —-  ने स्थानीय संपादक को एक फूटी कौड़ी नहीं दी। उसकी अपनी जेब ही फूलती जा रही है। स्थानीय संपादक एक जाति विशेष का है और एक दबंग उम्मीदवार भी उसी जाति का। इस पत्रकार ने संपादक को समझाया कि हमने उससे डील की तो जाति समीकरण बिगड़ सकता है। दूसरे उम्मीदवार जो मंत्री हैं उनके बारे में कहा कि वे सरकारी विज्ञापन दिलवाते रहेंगे, उनसे क्या लेन-देन करना। दिल्ली में जाने-माने और खूब पहचान रखने वाले एक उम्मीदवार के बारे में कहा कि जब उनसे मिलने गया तो वे फोन पर शोभना भरतिया से बात कर रहे थे। उनसे क्या पैकेज लिया जाए। असलियत यह है कि इन चतुर सुजान पत्रकार ने सबसे पैसा लिया। वह न संपादक को गया न अख़बार को। बाद में कहा जाने लगा कि धन तो दिया गया है। किसके पास कितना गया कौन जानता है। हिसाब-किताब तो होता नहीं। ‘पैकेज’ चूंकि काले धन का धंधा है, उम्मीदवारों का काला धन ही अख़बारों को मिल रहा है। बहुत जोर देने पर किसी के भी नाम पर किसी से भी रसीद दिलवा देते हैं। लेने देने वाले दोनों ही हिसाब-किताब से और आयकर से भी मुक्त हैं। पैकेज के बहाने अख़बारों और चैनलों में काला अर्थशास्त्र चल रहा है। आग्रह करने पर यह रसीद मिली। प्रायोजित ख़बर व विज्ञापन मद 1 लाख 90 हजार (एक लाख नब्बे हजार रुपये) प्राप्त किया। —-  दैनिक —-  25-4-09”


डायरी पढ़ने के बाद इन दोस्त से मैंने कवरेज का तरीका पूछा। उनने कहा –

सवेरे वे सब हमारे दफ़्तर आते। उनके लिए गाड़ी, रास्ते में पीने का पानी, नाश्ता आदि तैयार किया जाता। भोजन का पैसा नकद देना पड़ता। तय रेट के हिसाब से रोज का खर्चा-पानी अलग होता। चैनल वालों में छठे वेतन आयोग का वेतन पाने वाले दूरदर्शन के लोग भी होते। हमारी गाड़ियों में निकलने के पहले वे दूसरे उम्मीदवारों से भी प्रबंध करते। किसी से पेट्रोल के पैसे लेते, किसी से गाड़ी के। खर्चा-पानी की रकम बाद में वसूल करते। एक संवाददाता तो बेचारा पैकेज के पैसे लेने के लिए रात को दो बजे तक दरवाजे के बाहर बैठा रहा। इस बीच उसके मोबाइल पर जगह-जगह से फोन आए। पैसे मिलने तक उसका तनाव देखने और दया करने लायक था। सच, वहां कोई पत्रकार नहीं था। सब एजंट थे। उन्हें अपने अखबारों और चैनलों से कमीशन मिलता था। फिर भी अपना काम करने के पूरे से भी ज्यादा पैसे वे उम्मीदवार से वसूल करते थे। उनके भुगतान पर बारगेनिंग तो हो सकती थी लेकिन पैसे तो देने ही पड़ते हैं। चुनाव प्रचार का काम ही ऐसा है कि उसमें न हिसाब रखा जा सकता है, न ना की जा सकती है।

सब सुन कर और भयभीत होकर मैंने पूछा कि इसका मतलब यह कि आपके चुनाव क्षेत्र की चुनाव से संबंधित कोई भी ख़बर, फोटू, विश्लेषण किसी न किसी उम्मीदवार से पैसा लिये बिना नहीं छपी है। उनने कहा- एकाध अपवाद होगा। नहीं तो चुनाव का सारा कवरेज सभी अखबारों में पैसा लेकर किया गया है। इसमें पत्रकारिता और पाठक को सूचना और राय देने की कोई जिम्मेदारी नहीं है। यह सरासर पैकेज का धंधा है और पाठक/वोटर को सरासर बुद्धू मान कर किया गया है। जिसने पैकेज नहीं लिया या छोटा लिया, लगातार रिचार्ज नहीं करवाया उसका नाम और फोटू अखबारों से गायब रहा।

जरूरत नहीं थी कि अपने दोस्त की बात पर विश्वास न करूं। लेकिन ‘वॉल स्ट्रीट जरनल‘ की वेबसाइट पर उसके नई दिल्ली ब्यूरो चीफ पॉल बेकेट का लेख छपा है ‘प्रेस कवरेज चाहिए? मुझे कुछ पैसा दो’। पॉल ने चंडीगढ़ के निर्दलीय उम्मीदवार अजय गोयल का अख़बारों में नाम तक न छपने का कारण बताया है- कवरेज चाहिए? पैसा देना पड़ेगा। गोयल ने पॉल बेकेट को बताया –

अखबार मालिकों, संपादकों और संवाददाताओं की तरफ से कोई दस दलाल और जनसंपर्क अधिकारी उनसे मिल चुके हैं। ख़बरें छपवानी हैं तो फीस दो। एक ने तीन सप्ताह के कवरेज के दस लाख मांगे। एक संवाददाता और फोटोग्राफर ने दो सप्ताह तक पांच अख़बारों में कवरेज के उनके लिए डेढ़ लाख और बाकी के रिपोर्टरों के लिए तीन लाख मांगे। परखने के लिए अजय गोयल ने झूठ के पुलिंदों की ख़बर बना कर दी। वह अख़बारों में हूबहू छप गई। अपने अभियान में उनने कवर करने वाला एक भी रिपोर्टर नहीं देखा। साक्षरता और शिक्षा का क्या मतलब है, अगर लोग सच्ची खबर, ईमानदार छानबीन, शंकालु और सवाल पूछने वाला रिपोर्टर तक पा नहीं सकते- अजय गोयल ने पॉल बेकेट से पूछा।

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बनारस से हमारे एक मित्र ने चंदौली- मुगलसराय और वाराणसी के ‘हिंदुस्तान’ के 15 अप्रैल 2009 और 16 अप्रैल 2009 के नगर संस्करण की फोटो कॉपियां भेजी हैं। 15 अप्रैल के इस ‘हिंदुस्तान’ के पहले पेज का ले-आउट, उनने लिखा है, रोजाना की तरह था। ऊपर तीन कॉलम में फोटू, लीड, सेकेंड लीड, डबल कॉलम और तीन कॉलम ख़बरें, बॉटम न्यूज़। लेकिन अंतर बस इतना था कि इन सभी ख़बरों और तस्वीरों के केंद्र में थे माननीय तुलसी। ये तुलसी एक प्रत्याशी हैं। इन्हीं को समर्पित इस प्रथम पेज की कुछ हेडिंग इस प्रकार हैं – केवल वादा नहीं कर्म करने में करते हैं विश्वास : तुलसी (लीड न्यूज़), जाति-धर्म नहीं सिर्फ विकास के लिए लड़ना है : तुलसी (सेकेंड लीड), पूर्वांचल राज्य बनाकर विकास कराएंगे : तुलसी (तीन कॉलम न्यूज़), किसानों की खुशहाली को सर्वोच्च प्राथमिकता (बॉटम न्यूज़)। चुनावी सभाओं को संबोधित करते हुए तुलसी की ही तीन कॉलम की तस्वीर सबसे ऊपर छपी है। मित्र लिखते हैं कि इस अख़बार के पहले पेज को देख कर पाठकों, प्रत्याशियों और आम लोगों ने हल्ला किया। दूसरे दिन यानी 16 अप्रैल को हिंदुस्तान के पहले पेज पर स्पष्टीकरण छपा। स्पष्टीकरण :

”हिंदुस्तान के चंदौली, मुगलसराय एवं वाराणसी नगर संस्करणों में बुधवार 15 अप्रैल 2009 को प्रकाशित पहला पृष्ठ वास्तव में एक राजनीतिक दल के प्रत्याशी का चुनावी विज्ञापन है। उसमें प्रकाशित सामाग्री का हिंदुस्तान के संपादकीय विचारों से किसी प्रकार का तादात्म्य नहीं है – प्रमुख संपादक।”

मित्र ने दोनों दिनों के अखबार के पहले पेज की फोटोकापी भेजते हुए पूछा है –”जिस दिन पहले पेज पर यह सामाग्री छपी उसी दिन पाठकों को बताया क्यों नहीं गया कि यह विज्ञापन है, हमारी ख़बरों का पहला पेज नहीं, और हिंदुस्तान के संपादकीय विचारों से इनका कोई तादात्म्य नहीं है। क्या यह पहला पेज संपादकीय जानकारी और अनुमति के बिना छप गया? और जिस दिन स्पष्टीकरण छपा उसी दिन वाराणसी में वोट पड़े थे।”

पटना से हमारे एक और पाठक ने 16 अप्रैल 2009 के ”हिंदुस्तान” के पटना नगर संस्करण के पहले पेज की फोटोकॉपी भेजी है। इसमें आठ कॉलम का बैनर शीर्षक है – कांग्रेस बिहार में इतिहास रचने को तैयार। पहले पेज की किसी भी खबर से इस बैनर लाइन का कोई लेना-देना नहीं है। यानी यह किसी खबर का शीर्षक नहीं है। मित्र ने पूछा है- पाठक बूझे तो जाने, लीड की यह हेडिंग टिकाऊ है या बिकाऊ?

और आखिर में दिल्ली के एक संपादक ने यह सत्यकथा सुनाई….

दिल्ली से लगे एक राज्य के मुख्यमंत्री यह देखकर हैरान रह गए कि एक चुनाव क्षेत्र के एक उम्मीदवार की एक सभा की खबर छप जाने के बाद उसी अखबार के पहले पेज पर तीन दिन बाद बहुत महत्व के साथ बॉक्स में फिर छपी। इसमें बताया गया कि लाखों की भीड़ थी। मुख्यमंत्री ने उस अखबार के मालिक को फोन किया कि यह क्या हो रहा है? मालिक ने कहा कि मालूम करके बताता हूं। दस मिनट बाद उनका फोन आया – हां, वह विज्ञापन है। ऐसे विज्ञापन हम छापते हैं।

मुख्यमंत्री ने अखबार मालिक को कहा – तो ठीक है। कल मेरी तरफ से पहले पेज पर विज्ञापन छापिये कि यह अखबार झूठा है। पैसे लेकर विज्ञापन को खबर बना कर छापता है। पता नहीं उस विज्ञापन का क्या हुआ। अब तक किसी अखबार के पहले पेज पर दिखा तो नहीं।


प्रभाष जोशी जाने-माने पत्रकार और संपादक हैं। यह आलेख जनसत्ता में 10 मई को प्रकाशित उनके स्तंभ से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया जा रहा है।
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