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आई क्विट!

सिर्फ महाराष्ट्र में 14 दिनों में 24 टीनएजर्स ने आत्महत्याएं कीं : ऐसे कैसे चांद सितारे छू पाएंगे नन्हे हाथ? : यह खबर चौंकाने के लिए काफी है कि मध्यप्रदेश के देवास में 10वीं की छात्रा ने ‘थ्री इडियट्स’ की तर्ज पर खुदकुशी कर ली. उसने सुसाइड नोट में लिखा कि ‘इसके लिए कोई जिम्मेदार नहीं. मैं अपना एसाइनमेंट पूरा नहीं कर पा रही. सो आई क्विट.’ 15 साल की एक विद्यार्थी के इस कदम से कोई भी अन्दर तक हिल सकता है. लेकिन, यह कोई अकेली घटना नहीं है. इसी तरह की खबर एक दिन पहले सागर से भी थी कि 14 साल के आठवीं के छात्र कुणाल खेड़ीकर ने ज्यादा होमवर्क से परेशान होकर कुएं में कूद कर आत्महत्या कर ली. कुणाल ने नोट में लिखा है कि अधिक होमवर्क वो पूरा नहीं कर पा रहा, इसलिए यह कदम उठा रहा है. अहमदनगर में बारहवीं की दो छात्राओं ने, जो राष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी भी थीं, ट्रेन के आगे कूद कर आत्महत्या कर ली. एक तलवारबाजी में, तो दूसरी कबड्डी में राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व कर चुकी थीं.

सिर्फ महाराष्ट्र में 14 दिनों में 24 टीनएजर्स ने आत्महत्याएं कीं : ऐसे कैसे चांद सितारे छू पाएंगे नन्हे हाथ? : यह खबर चौंकाने के लिए काफी है कि मध्यप्रदेश के देवास में 10वीं की छात्रा ने ‘थ्री इडियट्स’ की तर्ज पर खुदकुशी कर ली. उसने सुसाइड नोट में लिखा कि ‘इसके लिए कोई जिम्मेदार नहीं. मैं अपना एसाइनमेंट पूरा नहीं कर पा रही. सो आई क्विट.’ 15 साल की एक विद्यार्थी के इस कदम से कोई भी अन्दर तक हिल सकता है. लेकिन, यह कोई अकेली घटना नहीं है. इसी तरह की खबर एक दिन पहले सागर से भी थी कि 14 साल के आठवीं के छात्र कुणाल खेड़ीकर ने ज्यादा होमवर्क से परेशान होकर कुएं में कूद कर आत्महत्या कर ली. कुणाल ने नोट में लिखा है कि अधिक होमवर्क वो पूरा नहीं कर पा रहा, इसलिए यह कदम उठा रहा है. अहमदनगर में बारहवीं की दो छात्राओं ने, जो राष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी भी थीं, ट्रेन के आगे कूद कर आत्महत्या कर ली. एक तलवारबाजी में, तो दूसरी कबड्डी में राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व कर चुकी थीं.

खबर उस्मानाबाद से भी है कि इंजीनियरिंग के एक छात्र प्रवीण ने फांसी लगा ली. वह सिविल इंजीनियरिंग प्रथम वर्ष का छात्र था. नासिक में दसवीं की छात्रा 15 वर्षीय प्रियंका ने घर पर ही फांसी लगा ली. वजह यही कि पढ़ाई का तनाव, जिसे वह बर्दाश्त नहीं कर पाई. विचित्र ये है कि नासिक में ही पिछले 10 दिनों में ऐसे पांच विद्यार्थियों ने तनाव के चलते आत्महत्याएं की हैं. अकेले महाराष्ट्र में पिछले सोलह दिनों में ऐसी दो दर्जन घटनाएं किसी को भी व्यथित कर सकती हैं. अभी तक तो युवाओं में यह प्रवृत्ति देखने-सुनने को मिलती थी, जब वे अपने कैरियर और उससे जुड़ी परेशानियों को लेकर भावुक हो उठते थे, लेकिन अब किशोरवयीन बच्चे भी इसके शिकार हो रहे हैं.

13-14 साल के बच्चे यदि होमवर्क, एसाइनमेंट या फिर किसी अन्य कारण से तनाव में खुदकुशी जैसा रास्ता अख्तियार कर लें, तो यह पूरे समाज के लिए चिंता ही नहीं, उसे झकझोरने और गहराई से विचार करने को प्रेरित करने वाली बात है. जो उम्र बच्चों के खेलने-कूदने की हो, तमाम सामाजिक-आर्थिक तनावों में दूर सहज-प्राकृतिक रूप से आस-पड़ोस से जुड़ धमाचौकड़ी मचाने की हो, घर-परिवार और रिश्ते-नातों की समझ विकसित करने की हो और समाज-दुनिया को कौतुहल के साथ देखने-समझने-स्वीकार-अस्वीकार करने की कोपल फूटने की हो – उस पहले पायदान पर ही वे जिंदगी से हार जाएं, क्यों? वे इतने हताश-निराश क्यों हैं कि उन्हें आत्महत्या जैसा कदम उठाना पड़े? उनमें जिंदगी की दुरूहताओं, द्वन्द्व-अन्तद्वंद्व से टकराने की इच्छाशक्ति में कमी का आना क्या ये संकेत नहीं करता कि कहीं कुछ भारी गड़बड़ी है हमारे पूरे परिवेश में, सोच में और बदलते तौर-तरीकों में?

‘दूसरे की कमीज मेरी कमीज से सफेद क्यों’ – यह वाक्य अब महज टीवी विज्ञापन तक सीमित नहीं है. इसने तालाब पर तेजी से फैल रही जलकुंभी की तरह पूरे समाज को अपने आगोश में ले लिया है, लेकिन जो है अन्दर से पोपली और जड़विहीन. दरअसल, पैसे और भौतिक चीजों की अंधी दौड़ ने सब कुछ हर लिया है – न विवेक है, न मूल्य, न संस्कार, न धैर्य, न सहनशीलता. बस, हर कोई आगे निकलने को उतावला है – भले ही दूसरे के कंधे पर पैर रखकर जाना पड़े. जिस समाज में स्वस्थ प्रतियोगिता का स्थान अंधी प्रतियोगिता ले ले – उसमें ऐसा होना अस्वाभाविक भी नहीं. उम्रदराज लोगों में जहां इस प्रवृत्ति से तनाव – स्ट्रेस जनित ढेरों बीमारियां सामने आ रही हैं, वहीं इससे पिछले वर्षों में युवाओं में, और अब किशोरों में घातक जानलेवा मनोरोग पैदा हो रहे हैं. उनमें जूझने की स्वाभाविक प्रतिभा खत्म हो रही है और उसी अनुपात में वे शिकार हो रहे हैं हीन भावना के. माता-पिता, शिक्षक, स्कूल-कालेज, नाते-रिश्तेदार और यहां तक कि दोस्त भी अब विश्वास और आसरा नहीं बंधा पाते. किसी के पास खुदकुशी करने वाले बच्चों के लिए समय नहीं.

माता-पिता प्रायः अपनी महत्वाकांक्षाओं को बच्चों पर लादते दिखते हैं. जिंदगी में जो वे खुद नहीं कर पाए, उस कुंठा से अपने ही बच्चे को दूर रखें – मनोविज्ञानियों की ये छोटी सी बात भी उनके गले नहीं उतरती. नतीजा होता है कि नाक ऊंची रखने की होड़ में वे बच्चों की भावनाओं, इच्छा, चाहत और उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति तक की हत्या कर देते हैं. वैसे ऐसा नहीं है कि वे अपने ही बच्चों के विरोधी हों, या वे उनका विकास नहीं चाहते हों. दरअसल, वे सामर्थ्य भर बच्चों को सबकुछ देते हैं, बस नहीं दे पाते हैं तो आपसी विश्वास और जीवन से टकराने तथा उसे आनन्द से जीने की समझ और इच्छाशक्ति. और यही स्थिति स्कूल-कालेज और शिक्षकों के स्तर पर भी प्रायः देखने को मिलती है. वे इसी प्रयास में रहते हैं कि परीक्षाफल हर हाल में दूसरे संस्थानों से बेहतर हो, जिससे बाजार में दुकान फीकी न पड़ने पाए. और, ये मूल आधारवाक्य काफी पीछे छूट जाता है कि छात्रों की स्वाभाविक प्रवृत्तियों के स्वस्थ विकास के साथ उसका व्यक्तित्व भी निर्मित हो, जिससे वो अपनी योग्यता और क्षमता के अनुरूप स्थान बना सके. विपरीत स्थितियों के बीच भी उसकी जिजीविषा और इच्छाशक्ति उसकी मित्र सरीखी उसका साथ दें.

दिक्कत ये है कि आज न तो अभिभावक, न शिक्षक और न ही शैक्षिक संस्थान – प्रायः ये समझने को तैयार दिखते हैं कि हर बच्चे-किशोर में कुछ न कुछ खासियत होती है, उसमें कोई न कोई ऐसी प्रतिभा जरूर है जो दूसरों से बहुत बेहतर है. क्यों न उसे पहचान कर उसे विकसित किया जाए. अभिनेता आमिर खान की ‘तारे जमीं पर’ और ‘थ्री इडियट्स’ – इसी तथ्य का खूबसूरत फिल्मीकरण है. लेकिन, दुखद ये है कि व्यवस्था की मारी एक हताश बच्ची ‘थ्री इडियट्स’ का सकारात्मक सन्देश नहीं समझ पाती और फिल्म में दिखाए तरीके से खुदकुशी ही नहीं करती, अन्तिम नोट भी लिख डालती है – ‘आई क्विट’. दो शब्दों का यह वाक्य हमारी आज की कथित विकास यात्रा के सामने निश्चित रूप से बड़ा सवाल है. और, इस सवाल का जवाब ढूंढ़ा ही जाना चाहिए. जवाब ढूंढ़ा जाना इसलिए भी जरूरी है कि आने वाले दशक में भारत में युवाओं-किशोरों की तादाद बढ़ने वाली है और तब ये प्रवृत्ति बच्चों में और घातक शक्ल भी अख्तियार कर सकती है. आमिर खान ने इस दिशा में अच्छी पहल की है कि वे अब कई संस्थाओं से जुड़ कर किशोरों-युवाओं को ये समझाने की पहल करेंगे कि ‘जिंदगी खूबसूरत है, इसे खत्म मत करो, इसे और बेहतर बनाओ.’

दरअसल, आज बाजार की चकाचौंध और हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों और संस्कारों में आई कमी ने स्थिति को और भी खराब किया है. मूल्य आधारित रवीन्द्रनाथ टैगोर के शान्ति निकेतन की अवधारणा अब खो गई है. आज कोई शिक्षक राधाकृष्णन या आचार्य नरेन्द्र देव होने की कल्पना तक नहीं कर पाता – जो छात्रों के मुकम्मल विकास को ही शिक्षा या ज्ञान का आधार मानते थे. आज जरूरी है कि आधुनिकता और वैज्ञानिकता के साथ मूल्यों-संस्कारों को फिर से यथासंभव जोड़ा जाए. मूल्यहीनता और आदर्शहीनता में समाज का गर्त में जाना स्वाभाविक है. विकास की दौड़ और प्रतियोगिता का होना तय है, लेकिन इसे स्वस्थ रूप भी दिया जा सकता है. कम से कम इस बाबत बच्चों में शुरू से संस्कार तो डाले ही जा सकते हैं. अभिभावक-बच्चों और शिक्षक-छात्र के बीच टूटते विश्वास के पुल को तो संवारा ही जा सकता है, क्योंकि उसी बिंदु पर आदर्श और मूल्यों की स्थापना ही नहीं होती, उसे पुष्पित और पल्लवित होने के लिए खाद-पानी और स्वस्थ हवा भी मिलती है. लेकिन, इसके लिए बड़ों को अपने आचरण पर भी ध्यान देना होगा, क्योंकि उससे बच्चे सब कुछ सीखते हैं. खासकर वे बातें भी, जिन्हें आप उनसे छुपाना चाहते हैं. तो यह एक निरन्तर प्रक्रिया है, पर इस बाबत प्रयास अपेक्षित है.

बाजार, वैश्विक होती दुनिया और विकास के प्रतिमानों के बीच यह भी बताया जाना चाहिए कि कुरुवंश में यदि दुर्योधन अपने पांच भाइयों को पांच गांव तो दूर, सुई की नोंक बराबर जमीन भी देने को तैयार नहीं था और इस अन्याय के प्रतिकार के लिए महाभारत का सूत्रपात होता है, जिसमें लाखों जानें जाती हैं, तो वहीं रघुकुल में बड़े भाई राम की चरणपादुका सिंहासन पर रखकर भरत 14 साल अयोध्या में शासन करते हैं. रावण के वध के बाद लंका का सिंहासन विभीषण को और बाली के वध के बाद उसकी राजगद्दी सुग्रीव को सौंपते राम को देर नहीं लगती. इतिहास में निन्यानवे भाइयों को मार कर गद्दी पर बैठने वाले अशोक का भी उदाहरण है, जिसे शान्ति मिलती है – बुद्ध के सम्यक, मध्यम मार्ग में और फिर वही अशोक दुनिया भर में ‘बुद्धम् शरणम् गच्छामि’ का प्रतीक बन जाता है. धर्मराज युधिष्ठिर से जब यक्ष चारों भाइयों के प्राण वापस लौटाने के लिए पूछता है कि सबसे बड़ा खजाना क्या है तो वे कुबेर का नाम नहीं लेते, वो जवाब में कहते हैं ‘सन्तोष’. और, जब यक्ष पूछता है कि सबसे बड़ा मित्र कौन है तो युधिष्ठिर का जवाब होता है ‘धैर्य’.

तो कहने का आशय यह है कि नौनिहालों में ऐसे मूल्य और संस्कार डालने का दायित्व है माता-पिता, शिक्षक और पूरे समाज का. और वो भी तब, जब ऐसे आदर्शों की समाज में कोई कमी नहीं है, उनका पूरा भण्डार है – आज यह संकल्प की जरूरत है कि इस सांस्कृतिक पूंजी को आधुनिक सन्दर्भों में नए तरीके से व्याख्यायित किया जाए. समझा जाना चाहिए कि लाख आर्थिक विकास, आधुनिक और वैज्ञानिक दृष्टि के बीच भी आत्मिक स्तर पर, मन के स्तर पर हमें अपने सांस्कृतिक बोध को संजो कर रखना है. आखिर यहीं से मूल्यों और संस्कारों का विकास होता है. और, यहीं से मिलती है अदम्य गिरीश मिश्रइच्छाशक्ति, जिजीविषा और आध्यात्मिक ऊर्जा. जो शुरू होनी चाहिए माता-पिता, अभिभावक, शिक्षक और विभिन्न शैक्षिक संस्थानों के स्तर पर और जिसका उद्देश्य हो सामर्थ्यवान व्यक्तित्व का निर्माण, न कि महज सफलता.

लेखक गिरीश मिश्र वरिष्ठ पत्रकार हैं. इन दिनों वे लोकमत समाचार, नागपुर के संपादक हैं. उनका यह लिखा ‘लोकमत समाचार’ से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है. गिरीश से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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0 Comments

  1. ashok mishra

    January 17, 2010 at 11:02 am

    girishji ka lekh kafi acha aur vicharniya mudda utha hai.

    Ashok mishra

  2. Ambrish Shukla

    January 17, 2010 at 5:24 pm

    vaki si galakat prtispardh ke yug me har koi apne bachhon se yahee apecha rakhta hai ki uska bachha sabse aage ho. jeevan me takneeki ka bhee jaroorat se jyada samavesh is samasya ko badha raha hai. moolya adharit sikcha to jise gayab hee ho ja rahee hai. ab aap bachoo ko badon ke pair chookar pradam karte bahut kam dekhenge. unhe ghar ke sadasyon ke pas baidkar gapbaji ke bajay tv program va vidio gaim khelna jyada pasand aata hai. is gambheer vishay par aap ka dristikod ekda sateek hai. mera bhee manna hai ki bachhe par padhai ko lekar jyada dabav naheen banana chahiye. aur no1 banne ki bhee apecha nahee palnee chahiye. uske andar chupi us pratibha ko nikharne ki koshis karnee chhiye jisme usko bhee ruchi ho. bachhe ko samajik samarohon me jaroor le jana chahiye. unhe ekaknki hone se bachana chhiye. jab bhee mauka mile unke pas samay bitayen unki sunnee chhiye. kuch is tarah kuch baton par dhyan rakh kar is samasya se bacha ja sakta hai.

  3. pankaj

    January 18, 2010 at 5:02 am

    khabar wakai chintajanak hai lekin iske liye sabse jyada jimmedar to hamara pariwar aur samaj hi hai jo apni aakanshaon kaa bhooj apne bachhon pe daal raha hai

  4. Urmil Grover

    January 18, 2010 at 3:06 pm

    We have to think about this critical situation. Workload on students is not the original problem, because other students are completing the same work in same time period. Paents are also responsible for these type of prblems. They have to be more carefull .

  5. Aamir

    January 19, 2010 at 3:23 am

    in bachchon ke liye maut ek khilvaad ban gai hai aur may manta hoon iska sabse zyada zimmedaar hai aaj kal ki movies jo manoranjan ke naam par sucide ke behtar ideas bata rahi hai …..ye koi maharashtra ki hi baat nahi hai aur bhi pradeshon me sucide lambe pair pasaar chuka hai zaroorat hai logon ko jagrook karne ki ….
    dhanyavaad

    S. Aamir
    CNEB news

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