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दुख-दर्द

वेतन मांगने पर मेरे संपादक ने मुझे मारा

गोपाल प्रसादमैं “स्पीड मीडिया ग्रुप” (पता- 6, स्कूल लेन, बाबर रोड, होटल ललित के सामने, नई दिल्ली-1) में काम करता हूं. 27 जनवरी को मेरे संपादक सुनील सौरभ ने वेतन मांगने पर मुझे कार्यालय के अन्दर और बाहर, मारा-पीटा. मेरी मां को संबोधित गन्दी गलियां दीं. एक अन्य सहकर्मी के बीच-बचाव करने पर मुझे अगले दिन यानी 28 जनवरी को 4 बजे दोपहर बुलाया गया. सामंती विचारधारा एवं दूसरों को अपमानित करने की मानसिकता वाले सुनील सौरभ ने हद की सीमा रेखा भी पार कर दी. मुझे सर्वप्रथम अपने दफ्तर के केबिन में सिटकनी बंदकर मारा पीटा और ‘कमीने खटीक की हरामी औलाद’ नामक गन्दी गाली दी. साथ ही यह भी कहा कि ‘हरिजन सालों को संस्कार कहां से आएगा?’ 27 जनवरी की घटना को भी मैंने बर्दाश्त किया था परन्तु 28 जनवरी की घटना को मैं जिंदगी भर नहीं भूल पाउंगा. अपने साथ हुए मानसिक, शारीरिक और आर्थिक उत्पीड़न से मैं काफी डर गया हूं. आश्चर्य का विषय यह रहा कि मेरे सहकर्मियों ने भी अपने नौकरी को महत्व दिया और कोई प्रतिकार नहीं किया. इससे इनका मनोबल इतना बढ़ गया कि एक दलित पत्रकार को अपने कार्यालय में न केवल मारापीटा बल्कि जातिसूचक गाली देकर मानवता को शर्मसार किया. मेरा गुनाह बस इतना था कि मैं बिना आर.एन.आई  नंबर के चल रहे इस प्रकाशन के रिपोर्टिंग एवं मार्केटिंग में योगदान दे रहा था.

गोपाल प्रसाद

गोपाल प्रसादमैं “स्पीड मीडिया ग्रुप” (पता- 6, स्कूल लेन, बाबर रोड, होटल ललित के सामने, नई दिल्ली-1) में काम करता हूं. 27 जनवरी को मेरे संपादक सुनील सौरभ ने वेतन मांगने पर मुझे कार्यालय के अन्दर और बाहर, मारा-पीटा. मेरी मां को संबोधित गन्दी गलियां दीं. एक अन्य सहकर्मी के बीच-बचाव करने पर मुझे अगले दिन यानी 28 जनवरी को 4 बजे दोपहर बुलाया गया. सामंती विचारधारा एवं दूसरों को अपमानित करने की मानसिकता वाले सुनील सौरभ ने हद की सीमा रेखा भी पार कर दी. मुझे सर्वप्रथम अपने दफ्तर के केबिन में सिटकनी बंदकर मारा पीटा और ‘कमीने खटीक की हरामी औलाद’ नामक गन्दी गाली दी. साथ ही यह भी कहा कि ‘हरिजन सालों को संस्कार कहां से आएगा?’ 27 जनवरी की घटना को भी मैंने बर्दाश्त किया था परन्तु 28 जनवरी की घटना को मैं जिंदगी भर नहीं भूल पाउंगा. अपने साथ हुए मानसिक, शारीरिक और आर्थिक उत्पीड़न से मैं काफी डर गया हूं. आश्चर्य का विषय यह रहा कि मेरे सहकर्मियों ने भी अपने नौकरी को महत्व दिया और कोई प्रतिकार नहीं किया. इससे इनका मनोबल इतना बढ़ गया कि एक दलित पत्रकार को अपने कार्यालय में न केवल मारापीटा बल्कि जातिसूचक गाली देकर मानवता को शर्मसार किया. मेरा गुनाह बस इतना था कि मैं बिना आर.एन.आई  नंबर के चल रहे इस प्रकाशन के रिपोर्टिंग एवं मार्केटिंग में योगदान दे रहा था.

इस अखबार की उतनी ही प्रति छापी जाती है, जितना विज्ञापनदाताओं को देना होता है. मैंने अपनी सेलरी मांगने का गुनाह किया. खैर, मेरे साथ हुए इस दुर्घटना का कोई गवाह बने या न बने, मैं अपनी लड़ाई लड़ना जानता हूं. मेरे 100 नंबर पर डायल करते ही स्थानीय पुलिस (थाना बाराखम्बा रोड, नई दिल्ली) ने मेरे को बचा तो लिया परन्तु शिकायत को एफ.आई.आर. के रूप में दर्ज नहीं किया. मेरे आवेदन के साथ-साथ मेरे 6 पूर्व सहकर्मियों ने अपने-अपने बाउंस चेक को लेकर अलग शिकायत दर्ज कराई है. अब उल्टे पुलिस ने 29 जनवरी की शाम को फोन कर यह सूचित किया कि आपके संपादक ने आप पर कार्यालय के कागजात चोरी करने का इल्जाम लगाया है और आप थाने आइये. क्या यह पूरे पीत-पत्रकारिता एवं पुलिस के दोहरे चरित्र को बेनकाब करने के लिए पर्याप्त नहीं है? जब एक दलित अपनी आवाज उठाता है तो पत्रकारिता को कलंकित करने वाले ऐसे तथाकथित पत्रकार एवं भ्रष्ट पुलिस के गठजोड़ से कैसे न्याय की उम्मीद की जा सकती है?

मुझे परवाह नहीं कि मेरा अंजाम क्या होगा परन्तु मैं अन्याय और शोषण बर्दाश्त नहीं करूंगा बल्कि इन जैसे तमाम उत्पीड़न करने वाले महारथियों को बेनकाब करने हेतु जी-जान लड़ा दूंगा. मैं इस मामले को अनुसूचित जाति आयोग में भी ले जाऊंगा. अपने दलित मंत्री राजकुमार चौहान तथा मादीपुर से विधायक मालाराम गंगवाल तथा जस्टिस पार्टी के अध्यक्ष उदितराज के साथ-साथ दलित हरिजन संगठनों को इस मामले से अवगत कराने जा रहा हूं. पत्रकार संगठनों को भी सूचित करने का प्रयास कर रहा हूं. अब यह लड़ाई मात्र गोपाल प्रसाद जैसे दलित पत्रकार के उत्पीड़न का नहीं है बल्कि सुनील सौरभ जैसी मानसिकता वाले पत्रकारों-संपादकों के खिलाफ है.

भड़ास4मीडिया पर मैं अपनी भड़ास इसलिए निकाल रहा हूं क्योंकि मैंने पत्रकारिता के अपने जीवन में भड़ास के आलेखों को बहुत नजदीक से जांचा-परखा है. मुझे विश्वास है कि मेरी आवाज यहां उठेगी. भड़ास4मीडिया न होता तो लुटेरे संपादक-मालिक जाने कितनों को अब तक लूट चुके होते. पर भड़ास4मीडिया के कारण गलत काम करने वालों के मन में एक भय रहता है. मुझे विश्वास है कि मेरे इस कदम के बाद ठगी के शिकार अन्य लोग भी मेरे आन्दोलन को मजबूत करने में अपनी भूमिका अवश्य निभाएंगे. अंत में मैं बस इतना ही कहना चाहूंगा- ‘जब-जब संवेदना ख़त्म  होती है तब-तब युद्ध होता है.’

जय हिंद!

गोपाल प्रसाद

संपर्क- 9289723145

मेल- [email protected]

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0 Comments

  1. alok nandan

    January 30, 2010 at 10:51 am

    जब जब संवेदना खत्म होती है तब तब युद्ध होता है……प्रत्येक व्यक्ति को चाहते वह पंडित हो या दलित अपने आत्म सम्मान की रक्षा करने का पूरा अधिकार है। जो कुछ आपने यहां पर लिखा है यदि वाकई में यह सच है तो इस युद्ध में मैं भी कहीं न कहीं आपके साथ खड़ा हूं. ……..

  2. manish sharma

    January 30, 2010 at 11:08 am

    yadi polis aap ki fir nahi le rahi he to court bhi to he. bhagwan ke gar der he andher nahi. vishws karo

  3. ASHISH KUMAR

    January 30, 2010 at 12:48 pm

    YE BAAT BULKUL SAHI HAI KI WO SAMPADAK KE NAAM PAR BADDANUMA DHABBA HAI HAR STAFF KE SATH YAHI KARTA HAI AAJ TAK JO BHI GAYE HAI USKE PASS JOB KARNE, UNSE YAHI BARTAB KARTA HAI KISI SE KAM TO KISI SE KE SATH JAYDA. JAB PAISE DENE KI BARI AATI HAI TO YAHI KARTA HAI BAHUT KAMINA ISHAN HAI MAI BHI JHEL CHUKA HOO, PAHLE TO BARE PYAR SE STAFF SE BAAT KARTA FIR BAAD ME GALI GALOZ PAR UTTAR JATA HAI, IS DUKHAD GHATNA ME MAI AAPKE SATH HOON

  4. anaam

    January 30, 2010 at 2:20 pm

    आपके साथ क्या हुआ मुझे नहीं पता, संपादक ने आपका वेतन क्यों रोका और वेतन मांगने के बदले मारपीट की, यह भी नहीं पता, लेकिन जो आप बता रहे हैं यह सही है तो वास्तव में आपके साथ गलत हुआ है। आपने अपनी बात रखी यह भी कुछ हद तक ठीक है, लेकिन दलित के नाम पर जो बकवास आपने लिखी है वह एक पत्रकार को शोभा नहीं देता। लोगोंं को यह जताना कि मैं दलित हूं और एक सांमती किस्म के संपादक ने मेरे साथ दुव्र्यवहार किया है, बिल्कुल गलत है इस तरह की सहानुभूति बटोरने से क्या मिल जाएगा। बस.. अपने पक्ष मंे कुछ कमेंट्स। पिछले कुछ दिनों से अनिल चमçड़या भी यही कर रहे हैं। हक की बात भी करते हो और दलित बनकर खुद को लाचार बताते हो, क्या मतलब है इसका। प्रताçड़त होने के बाद क्यों दलित होने का ढींढोरा पीटा जाता है। जब एक दलित फायदे में होता है और सबकुछ उसके मनमुताबिक होता रहता है तब तो वह कभी खुद को दलित होने की वजह से फायदेमन्द होना नहीं बताता है उस समय यह फायदा उसकी अपनी मेहनत होती है, लेकिन जब प्रताçड़त होता है तो दलित बन जाता है। इस विचारधारा से बाहर निकलो और अपने हक के लिए उसी अन्दाज में लड़ाई लड़ो जो एक शिक्षित नौजवान को शोभा देती है।

  5. ajatshatru

    January 30, 2010 at 6:07 pm

    अनाम के विचारों से पूर्ण सहमत हूं, बातों में कायरता झलक रही है इस लिये गोपाल जी कुछ कर पायेगे ऐसा नही लगता, जब सौरभ इन्हे मार रहे थे तो ये क्या केवल मार खा रहे थे……
    वैसे दलित चेतना का जागना भी इनके भीतर का स्वार्थ मात्र है।

  6. Rajeev

    January 31, 2010 at 3:20 am

    Gopal prashad ko salary nahi mili ye bahut bura hua,unko iske liye wages&labour act ke untargact shikayat darz karani chahiye thi,lekin apne aap ko jis tarike se dalit ki aad mein ye so called patrakar mahodya kisi ko black mail kar rahe hain ye thik nahi hai,ye us abla nari Mayawati ki tarah hai jisne Dalit ki aad mein Rita Bahuguna Joshi ka ghar jalwaya,unko raat ke 2 baje uthakar jail bhijwaya,ye hai Dalit power,jis tarike ye so called patrakar apne jati ke neta se samarthan ki baat kar rahe hain inko pata hona chahiye ,”testis kitni bhi badi ho jaye penis ke niche hi rahegi”

  7. S.P.Singh

    February 1, 2010 at 6:34 am

    GO TO MAYAWATI FOR THIS ISSUE.

  8. satish kumar

    February 4, 2010 at 11:01 am

    abe agar usne tujhe maara to kya tere haath toot gaye the. naukari to jaani he thi, do chaar tu bhi chatka deta. tu bhi uski maa-behan ek kar deta. yashwant ne to faisla karana nahinj hai. upar se photo chaapkar apni ro rahe ho. apne yudh khud he ladna padta hai pyare. to jab bhi wp mile, uski maa……………de. wohi intqaam hoga. yahan rone se khuch nahin hoga.

  9. rajesh agrwal

    February 12, 2010 at 3:47 am

    taali ek haath se nahi bajtee, apna kasoor aapne safai batakar emotionaly attachment karne ki koshish ki hei. sourbhji ki prtikriya bhee chaapni chhaye.

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