यूपी मान्यता प्राप्त संवाददाता समिति (यूपीएसएसीसी) के रविवार को हुए विवादास्पद चुनाव में पक्षपात एवं दुराग्रहपूर्ण फैसलों ने एक प्रत्याशी के रूप में न सिर्फ मुझे अपितु राज्य मुख्यालय के तमाम पत्रकारों को आहत किया है। राज्य मुख्यालय पर मान्यता प्राप्त पत्रकारों के बीच धड़ेबाजी कराने की बीते दिनों जो भी कोशिशें की गईं, मैंने और साथी पत्रकारों ने उसे समाप्त कराने के प्रयास किए, इसे सभी जानते है। वस्तुत: विगत ढाई दशक से भी ज्यादा समय से अस्तित्व में रहने वाली इस समिति का न तो कोई पंजीकरण है और न ही इसके संचालन के लिए कोई लिखित नियम। आपसी तालमेल और परंपराओं के अनुसार समिति के चुनाव राज्य सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त संवाददाताओं की अघतन सूची से कराए जाते हैं।
8 जुलाई 2007 को पिछले चुनाव हुए जिसमें मैं अब तक के इतिहास में सर्वाधिक 168 मत का रिकार्ड कायम कर सचिव बना था। तब वोटिंग से एक दिन पहले तत्कालीन सूचना निदेशक दिवाकर त्रिपाठी द्वारा भेजे गए मान्यता प्राप्त संवाददाताओं की अद्यतन सूची को मताधिकार योग्य माना गया था। इस बार गजब की साजिश रची गई। 18 दिसंबर को आमसभा की बैठक में तय किया गया कि 10 दिसंबर को होने वाले चुनाव में मुख्य निर्वाचन अधिकारी जे.पी. शुक्ला के साथ वरिष्ठ पत्रकार अंबरीश कुमार और गोलेश स्वामी सहायक निर्वाचन अधिकारी रहेंगे। कल चुनाव में विजय शंकर पंकज और नरेंद्र श्रीवास्तव को किसने और कैसे सहायक निर्वाचन अधिकारी के रूप में बैठा लिया, यह न तो मेरे और न ही किसी के समझ में आया।
चुनाव 15 दिसंबर तक मान्यता पाए संवाददाताओं की सूची से करा दिया जिसमें कुल 287 सदस्य थे। 30 दिसंबर को इलेक्ट्रानिक मीडिया के 9 तथा प्रिंट के दो पत्रकारों को मान्यता समिति की स्थाई समीति की बैठक में मान्यता प्रदान की गई। इसकी मौखिक सूचना निवर्तमान अध्यक्ष प्रमोद गोस्वामी ने मुख्य निर्वाचन अधिकारी को दे दी। 31 दिसंबर को समिति के सचिव के रूम में निदेशक सूचना को पत्र लिखकर मैंने अघतन सूची मुख्य निर्वाचन अधिकारी को अविलम्ब भेजने का अनुरोध किया। इसमें इलेक्ट्रानिक मीडिया के ज्यादातर रिपोर्टर और कैमरामैन ऐसे थे, जिन्हें पहले से मान्यता थी, लेकिन दूसरे चैनलों में ट्रांसफर होने से मान्यता में बदलाव की औपचारिकता भी करनी थी।
सुरेंद्र दुबे जैसे वरिष्ठ पत्रकार की भी मान्यता महज औपचारिकता के नाते लंबित थी। सभी को मालूम था कि जिन 11 पत्रकारों के नाम पर आपत्ति की साजिश रची जा रही थी, उनमें दस मेरे समर्थक हैं। मुझे सूचना मिली थी कि उन्हें मतदान से रोकने की साजिश चल रही है इसलिए 9 जनवरी की दोपहर ही मैंने मुख्य निर्वाचन अधिकारी के घर जाकर एक पत्र देकर उन्हें अद्यतन सूची से मतदान कराने का अनुरोध किया ताकि किसी को उसके अधिकार से वंचित न किया जा सके। मुझे इस बाबत सकारात्मक संकेत मिले थे, इसलिए मैं चुप रहा। कल मतदान से पूर्व इनमें से 10 सदस्यों को लेकर मैंने मुख्य निर्वाचन अधिकारी से विरोध जताया तो बताया गया कि इस बाबत फैसला ले लिया गया है कि 15 दिसंबर की सूची से चुनाव कराया जाएगा। मैंने पूर्व परंपराओं के तर्क और साक्ष्य प्रस्तुत किए तो कहा गया कि मतदान शुरू होने दीजिए, अभी देखा जाएगा। इस मुद्दे पर वहां विवाद एवं मारपीट की नौबत आ गई लेकिन मैंने आगे बढ़कर सबको शांत कराया ताकि बाहर कोई गलत संदेश न जाए।
अंतत: जब अर्ह सदस्यों को मतदान का मौका नहीं दिया गया तो मैंने मतगणना का बहिष्कार किया। मतगणना कक्ष में मौजूद मेरे विश्वास के साथियों ने बताया कि मेरे कई मत एक दूसरे प्रत्याशी के पक्ष में गिन दिए गए और आखिर में मुझे छह वोट से हरा दिया। मुझे साजिश के तहत हराया गया है, इसमें कोई शक नहीं। मेरा दावा है कि जिन लोगों को वोट डालने से साजिशन रोका गया है, उनको मतदान का अधिकार देकर देख लिया जाए कि कौन जीतता है। इस चुनाव को मैं किसी भी सूरत में वैध नहीं मान सकता हूं। क्या मुख्य निर्वाचन अधिकारी और अवैध चुनाव से जीते लोग इस बात का जवाब देंगे कि सचिव पद के प्रत्याशी अनुराग त्रिपाठी को चुनाव लड़ने और गोपाल चौधरी को वोट देने की अनुमति कैसे दी गई जबकि 15 दिसंबर तक की सूची में क्रम संख्या 286 और 287 पर इनके नाम के आगे “कार्ड बनने की प्रक्रिया में” लिखा है। यदि मुख्य निर्वाचन अधिकारी ने इन्हें परंपरा और व्यवहार के चलते ऐसी अनुमति दी तो अन्य 11 लोगों को मताधिकार से क्यों वंचित किया?
shahzad
January 15, 2010 at 2:20 pm
Hement ji
Ab pachtay kya ho jab chidiya chug gai khet