हिंदी दिवस पर विशेष (3) : जिस पट्टी के लोगों ने हिन्दी को सिर पर बिठाकर हिन्दुस्तान के माथे की बिन्दी बनाया उसी पट्टी में हिन्दी उदास है। यहां के उभरते लोगों को हिन्दी से लगाव नहीं है। अंग्रेजी की चाह ने उन्हें त्रिशंकु बना दिया है। उनकी जमीन दरक रही है लेकिन वे हैं कि अंग्रेजी के लिए उड़ते जा रहे हैं। तभी तो गली गली में हर दिन कान्वेंट स्कूल खुल रहे हैं। अंग्रेजी स्पीकिंग कोर्स में बैठने की जगह नहीं मिल रही है। खाते पीते घरों में अब बच्चों से अंग्रेजी में बात करने का चलन बढ़ता जा रहा है। गोरखपुर-बस्ती मण्डल हिन्दी का गढ़ रहा है।
न जाने कितने नाम हैं जिन्होंने हिन्दी को पल पल जिया है। आगे बढ़ाया है। कुछ नाम इस तरह हैं- बस्ती के अगौना में जन्मे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, गोरखपुर के पकड़डीहा में पं. विद्यानिवास मिश्र, डुमरी के रामदरश मिश्र, मोती बी.ए., आचार्य रामचन्द्र तिवारी, रामदेव शुक्ल, विश्र्वनाथ प्रसाद तिवारी, प्रो. परमानन्द, विद्याधर विज्ञ, गोरख पाण्डेय, माधव मधुकर, डा. अरविन्द त्रिपाठी प्रो. गिरीश रस्तोगी, अरुणेश नीरन, देवेन्द्र आर्य, अष्टभुजा शुक्ला आदि। इनमें से कई काल कवलित हो गये हैं। पर उनकी कृतियां हिन्दी की ताकत हैं, हिन्दी को जिंदा किये हैं। गोरखपुर के बनवारपार में जन्में रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी ने भले उर्दू को समृद्ध किया लेकिन हिन्दी और उर्दू के बीच एक पुल बनाकर उन्होंने हिन्दी को भी नयी ऊंचाई दी। मंुशी प्रेमचंद ने गोरखपुर में लम्बे समय तक साहित्य साधना की और उनकी कई प्रसिद्ध कहानियां यहीं रची गयी। कबीरदास यहीं मगहर आये तो अपनी पंचमेल खिचड़ी को हिन्दी के लिए विरासत के रूप में सौंप दिया। नये कवियों में भी बहुत से नाम चले हैं। बहुतों में संभावना भी है पर अब वह स्वीकार्यता नहीं है जो पहले के लोगों में थी। वजह यह है कि हिन्दी के प्रति लोग उदास हैं। कोई रूचि नहीं है।
सरकारी दफ्तरों में हिन्दी पखवाड़ा मनाये जाने के दौरान ही सारे कार्य अंग्रेजी में संपादित होते हैं। कितनी विडम्बना है कि बाढ़ के दिनों में रामदरश मिश्र अपने गांव से तैरकर स्कूल जाते थे। वे हिन्दी सीखते भर नहीं, उसे जीते थे और आज भी हिन्दी जी रहे हैं। पर अब उनके गांव के रास्तों पर संकरी पगडंडियां भी पिच में तब्दील हो गयी है। वहां से फर्राटा भरते युवा अंग्रेजीदा स्कूलों और विश्र्वविद्यालयों में पढ़ने जा रहे हैं लेकिन उनकी प्राथमिकता में कहीं भी हिन्दी नहीं है। हिन्दी से उन्हें तौहीन महसूस होती है। गोरखपुर-बस्ती मण्डल के गांवों-कस्बों में यह धारणा बनती जा रही है कि बिना अंग्रेजी पढ़े विकास नहीं होगा। स्थापित होने के लिए अंग्रेजी होना जरूरी है। इस भावना ने लोगों को हिन्दी से दूर करना शुरू कर दिया है। हिन्दी को जिन लोगों ने आगे किया वे लोग भी निराश दिखने लगे हैं। ऐसा भी नहीं है कि हिन्दी को लेकर सक्रियता नहीं है। हिन्दी के लिए समय समय पर आयोजन होते हैं। कुछ उत्सवधर्मी इन आयोजनों के लिए जी जान लगा देते हैं। लेकिन इसका कारगर नतीजा नहीं निकलता। इसलिए कि हिन्दी के प्रति अब लोग संशय पाल लिये हैं। इसके लिए बहुत हद तक वे लोग भी जिम्मेदार हैं जो हिन्दी की दुकान चला रहे हैं। हिन्दी को ओढ़ते-बिछाते हैं और उसी की खाते हैं लेकिन यह नहीं चाहते कि उनकी परिधि में दूसरे का दखल हो। कहीं न कहीं समरसता और सामूहिकता खो गयी है।
लेखक आनंद राय गोरखपुर जर्नलिस्ट प्रेस क्लब के पूर्व अध्यक्ष रहे हैं। उनसे संपर्क करने के लिए [email protected] या फिर 09415210457 का सहारा ले सकते हैं।