ये शायद दूसरे विश्वयुद्ध के दिनों के सबसे लोकप्रिय उपकरणों में से एक हुआ करता था, पर उस दिन तिहाड़ जेल में ये मेरे लिए एक खास साथी साबित हुआ। इसी सिंगल बैड रेडियो ने दस जनवरी की उस रात मुझे अपनी रिहाई की ख़बर दी।
ये विश्वास करना वाकई मुश्किल था कि मैं जल्दी आज़ाद होने वाला हूं और सरकार ने मेरे खिलाफ़ मुक़दमा वापस लेने का फ़ौसला किया है। वो 9 जून को आधी रात के बाद का वक्त था, मैं पाकिस्तान के मशहूर दैनिक द फ्राइडे टाइम्स के लिए अपना स्तंभ खत्म कर के बिस्तर में जा चुका था। करीब 2 घंटे बाद मेरी पत्नी अनीसा ने मुझे घबरा कर जगाया और कहा, “कोई दरवाज़े पर है”। मैं उठ कर दरवाज़े पर पहुंचा तो वहां पर दो वर्दीधारी खड़े थे, उन्होंने मुझे किनारे धक्का दिया, मेरे ऊपर बंदूक तान दी और करीब 1 दर्जन और लोग धड़धड़ाते हुए मेरे घर में घुस गए। उनमें से एक अधिकारी बोला, ”हम लोग आयकर विभाग से हैं और हमें आपके घर की तलाशी का आदेश दिया गया है।” अगले 18 घंटे काटते नहीं कटे, मेरे पूरे 3 बेडरूम के अपार्टमेंट को उलट पलट के रख दिया गया और मुझे बताया भी नहीं गया कि आखि्र क्या तलाशा जा रहा है। सुबह तकरीबन 7 बजे छापा मारने वाले दस्ते को मेरे टेलीविज़न सेट के नीचे वो चीज़ मिली।
एक माध्यम से कहा गया कि मेरे कम्प्यूटर की हार्ड डिस्क में एक रक्षा सम्बंधित दस्तावेज़ पाया गया (हालांकि वो सारा ज्ञान इंटरनेट पर सरलता से सबको उपलब्ध है)। दूसरे माध्यम ने कहा कि मैं और अनीसा भूमिगत हो गए. मुझे लोधी रोड के पुलिस थाने ले जाकर करीब एक हफ्ते रखा गया। मुझे दिन भर इंटेलीजेंस ब्यूरो के लोग भंभोड़ते और रात को मुझे अकेला छोड़ दिया जाता। अंततः मुझे तिहाड़ भेज दिया गया।
ज़ंज़ीरों में जकड़ कर मुझे तिहाड़ में मेरी कोठरी में ले जाया गया। जैसे ही मैं वहां पहुंचा वहां मौजूद और लोग चिल्लाने लगे, ”ये देखो वो आ गया…”। वहां सादी वर्दी में मौजूद कुछ लोगों और जेलर के साथ कई दोषी भी मुझ पर झपट पड़े, मुझे बेदर्दी से पीटा गया और मुझे आतंकवादी और गद्दार कहकर तिरस्कृत किया गया। तीन कत्लों के एक दोषी ने मुझे अपनी कमीज़ से शौचालय साफ़ करने का आदेश दिया। जिस तरह का स्वागत मेरा हुआ था, उसके बाद मेरे पास इन आज्ञाओं का पालन करने के अलावा कोई और चारा नहीं था। इसके बाद मुझे ज़्यादा ख़तरनाक कैदियों के साथ रख दिया गया जबकि उसके पहले ही मैंने ये अनुरोध किया था कि मुझे नए कैदियों के साथ रखा जाए।
अगले दो माह तक मैं मुश्किल से ही सो पाया होउंगा। मेरी तथाकथित गद्दारी के चर्चे हिंदी अखबारों में छा चुके थे और इसलिए साथ के कैदियों का बर्ताव वैसा ही बना रहा। मेरी कैद उन अपराध संवाददाताओं के लिए एक सबक हो सकती है जो अपराध की ख़बरों के लिए केवल पुलिसिया बयान को आखिरी सच मान लेते हैं और किसी आरोपी की छवि को तार तार कर देते हैं। उन्हें हर हाल में ख़बरों की तह में जाना चाहिए और पूरी रिपोर्ट के तथ्यों पर ध्यान देना चाहिए। मैंने वहां कई लोगों को मीडिया की एकतरफ़ा रिपोर्टों की वजह से जेल में कष्ट भोगते देखा।
मेरे बारे में सारे दुष्प्रचार की जड़ हिंदुस्तान टाइम्स की अपराध संवाददाता नीता शर्मा थी, जो सम्प्रति एनडीटीवी में कार्यरत हैं। उन्होंने कह डाला कि मैंने अदालत के सामने अपने आईएसआई से रिश्ते कुबूले हैं। रिपोर्ट में कहा गया, “हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गीलानी के 35 वर्षीय दामाद इफ्तिखार गिलानी ने अदालत के सामने मान लिया है कि वो पाकिस्तानी गुप्तचर एजेंसी का एजेंट था।” इतना ही नहीं एक कदम आगे बढ़कर नीता शर्मा ने कहा कि सैयद अली शाह गीलानी, इफ्तिखार के आईएसआई के साथ काम करने से इतने खुश ते कि उन्होंने अपनी बेटी का रिश्ता इफ्तिखार से कर दिया। क्या इससे ज़्यादा वाहियात रिपोर्ट हो सकती थी? हालांकि मैं एचटी के एक दोस्त और डिप्टी चेयरपर्सन शोभना भरतिया का आभारी हूं कि अखबार ने अपनी गलती दुरुस्त की।
यही नहीं हिंदी दैनिक हिंदुस्तान ने लिखा, “गीलानी के दामाद के घर आयकर छापे में बेहिसाब संपत्ति और संवेदशील दस्तावेज़ बरामद…” हैरत की बात ये थी कि ये बात तो पुलिस की चार्जशीट में भी नहीं कही गई थी, उसमें मेरे घर से केवल 3,450 रुपए की बरामदगी दिखाई गई थी। अख़बार ने मुझे बदनाम करने वाली पूरी एक श्रृंखला छापी। उसकी एक रिपोर्ट में ये भी दावा किया गया कि मैं इस्लामिक चरमपंथी गुटों के लगातार संपर्क में रहता था। इस ख़बर का आधार केवल मेरे एक पड़ोसी का ये बयान ता कि मैं अपनी बैठक में देर रात तक काम करता था। पायनियर में प्रमोद कुमार सिंह ने लिखा कि मैं हिज्बुल मुजाहिदीन के मुखिया सैयद सलाउद्दीन का खास आदमी था और उसे सेना की गतिविधियों की सूचना पहुंचाया करता था। उनका कहना था कि मैं अपने पत्रकार के चोले के पीछे अपनी असलियत इतने सालों तक छुपाए रहा कि एजेंसियों को मुझे पकड़ने में सालों लग गए।
स्टेट्समैन के संवाददाता ने मुझे वॉल मीडिया प्रोडक्शन नाम की एक कम्पनी का मालिक बताया और इस तरह की तमाम ख़बरें रोज़ छपती रहीं। चूंकि मैं मीडिया से जुड़ा हुआ था तो मेरे मित्र जानते थे कि क्या करना है, उन्होंने सम्पादकों को सच बताया और ये सब रोकने में कामयाब हुए। लेकिन ये एक बानगी भर है कि किस तरह सैकड़ों और लोग ग़ैर ज़िम्मेदार रिपोर्टिंग के शिकार होते हैं।
इस तरह की ख़बरों ने मेरी मुश्किलें और बढ़ा दीं। मेरी पत्नी आनिसा को मुझसे हफ्ते में दो दिन मिलने की इजाज़त थी और एक यही बात थी जिसने मेरी हिम्मत बंधाई हुई थी। मैंने उससे कहा कि वो दिल्ली छोड़कर बच्चों के साथ कश्मीर चली जाए पर वो यहीं रही और कश्मीर टाइम्स के सहयोग से बिना बच्चों की ज़िंदगी पर असर डाले मेरा साथ देती रही। मेरे मित्रों और सहकर्मी दबाव बनाते रहे और राष्ट्रीय अखबार मेरी हिरासत पर सवाल उठाते रहे। ज़ाहिर है जेल की अंधेरी बैरक में यही सब मेरे लिए तसल्लीबख्श बातें थी।
जेल में मेरा दिन सुबह साढ़े पांच बजे चाय और डबलरोटी के दो स्लाइस के साथ शुरू होता था। जेल में हर आदमी को एक ही मात्रा में खाना मिलता है, और जितनी जल्दी आप उसे खत्म करते हैं उतना ही जल्दी आप हिरासत का वक्त खत्म करेंगे, जेल के हर खाने के साथ मैं यही सोचा करता था।
एक महीने बाद मुझे अखबार पढ़ने की इजाज़त मिल गई, मैंने इंडियन एक्सप्रेस को चुना औक वो हर रोज़ मेरी कोठरी तक सेंसर होकर पहुंच जाता था, जिसमें केवल खेल का पन्ना बचता था। सुबह 8 से 10 बजे तक अनिवार्य कक्षाएं थी, चूंकि हमारा समूह शिक्षित कैदियों का था तो हम एक दूसरे को अपना अपना ज्ञान सिखा देते थे।
सफ़ेदपोश अपराधी योगेश चौधरी ने हमें बैंकों को चूना लगाने के तरीके बताए, एक जेबक़तरे ने हमें पर्स उड़ाने की तकनीक बताई और एक स्वामी जी अक्सर बलात्कार के मामलों में बचने के नुस्खे सिखाते थे। एक बार एक पहली बार जेल आए व्यक्ति ने बताया कि कैसे उसकी होंडा कार करोलबाग़ से चोरी हुई थी, उसके गुरु, जो कि एक कार चोर था, उसने कार का मॉडल, नम्बर और रंग पूछा और जवाब में बताया कि उसने वो कार 1,50000 में बेची थी। उसके बाद उन दोनो को बड़ी मुश्किल से एक दूसरे से छुड़ाया गया।
मुझे जल्दी ही इग्नू वार्ड में भेज दिया गया, यहां जीवन छुट्टी के जैसा था। यहां एक पुस्तकालय था, कुछ न चलने वाले कम्प्यूटर थे और एक टेलीविज़न सेट था। ये जेल का वो विभाग था जिसे अफ़गानिस्तान से आने वाले एक शिष्टमंडल को दिखाया गया। हालांकि जेल का माहौल इसकी इजाज़त नहीं देता पर मैंने अपना हास्यबोध बनाए रखते हुए वार्डन से कहा कि इनको ये दिखाओगे तो ये भारत आकर अपराध करेंगे जिससे वो यहां आकर आराम से ज़िंदगी बिताएं।
बीमार पड़ने पर मुझे जेल के अस्पताल में भेजा गया, जहां मुझे गद्दे और तकिए लम्बे वक्त बाद देकने को मिले। जो डॉक्टर हमारा इलाज करते थे वो बी काफ़ी कठोर हो चुके थे और केवल मरीज़ की शक्ल और उसकी चाल देख कर ही दवा लिख दिया करते थे। अस्पताल की सफाई कर रहे दूसरे कैदियों को बीमार मरीज़ को आराम करते देख कर जल भुन जाते थे। ऑक्सीजन मास्क के सहारे सांस ले रहे दो मरीज़ों को तो एक बार उठ कर शौचालय की सफ़ाई तक करनी पड़ी। वहां दूध भी दिया जाता था, एक आदमी कमरे के बीच में दूध से भरा एक जग रख जाता था। इसे हम पांच लोग आपस में बांटते थे। हम में से दो लोग टीबी से पीड़ित थे और हम सब एक ही प्लास्टिक के गिलास से ये दूध आपस में बांटते थे।
तिहाड़ में कैदियों का अपना मुद्रा विनिमय चलता था। असली करेंसी की जगह पांच रुपए और दस रुपए के कूपन चलते थे। अगर किसी तरह एक पांच सौ रुपए का नोट(गांधी) अंदर आ जाता था तो उससे साढ़े सात सौ रुपए के बराबर के कूपन खरीदे जा सकते थे। तम्बाकू का एक 2 रुपए का पाउच भी जेल में चार सौ रुपए तक मिल सकता था। हां तम्बाकू लपेटने का कागज़ मुफ्त उपलब्ध था और इसका श्रेय जाता है फादर पैडी को। फादर पैडी वहां के काउंसलर थे और उनके हर सप्ताह के भ्रमण से हमको बाइबिल की मुफ्त प्रतियां मिलती थी। इसके पन्नों में तम्बाकू लपेट कर हम बीड़ी तैयार करते थे, उनकी अनुपस्थिति में मैंने बड़े जतन से अपना कोलिन्स शब्दकोश बचा कर रखा।
जब मैं एक पत्रकार बना था तब मैंने कभी ये नहीं सोचा था कि जेल जाऊंगा। अब जब मैं बाहर आज़ादी की सांस ले रहा हूं मैं केवल तिहाड़ और वहां के साथियों को याद कर सकता हूं। न तो मैं कभी तिहाड़ को भूल पाऊंगा और न ही कभी अपने उन दोस्तों को…..
ये लेख सराय-सीएसडीएस और वाग संस्था द्वारा आयोजित कार्यशाला क्राइसिस मीडिया में मार्च 2003 में दिल्ली में प्रस्तुत किया गया था। यह लेख मूलतः अंग्रेजी में था, जिसका हिंदी में अनुवाद किया है यूएनआई टीवी के जर्नलिस्ट मयंक सक्सेना ने.
Dreamer
September 4, 2010 at 3:49 pm
Thanks Mayank Ji and Yashwant Ji for putting up this. It is sad that Hindustan Times’ former reporter Neeta Sharma published such false news reports and still remains in media.
Neeraj Bhushan
September 4, 2010 at 3:57 pm
इतनी बर्बरता का कितना सुन्दर वर्णन. लिखने वाले, अनुवाद करने वाले और यहाँ प्रकाशित करने वाले सभी बधाई के पात्र हैं.
हाँ, जिनकी वजहों से यह सब कुछ लिखा गया उन्हें बधाई नहीं दी जा सकती.
Ashish Tripathi
September 4, 2010 at 8:21 pm
जर्नलीज्म की जगह अब कोर्पोरेट जर्नलीज्म ने ले ली है। अब पत्रकारिता एक जज्बा नहीं बल्कि एक धंधा बनकर रह गया है। हर पत्रकार आज सिर्फ और सिर्फ अपनी नौकरी बचा रहा है। ऐसे में इस तरह की घटनाएं तो आम बात है। इफ्तिखार के पास एक माध्यम था तो उसने दुनिया को अपना दर्द बता दिया। लेकिन यूपी की जेलों में न जाने ऐसे कितने इफ्तिखार पड़े हैं पत्रकारों की जरा सी लापरवाही के कारण जेलों में सड़ने के लिए मजबूर हैं।