आईआरएस विश्लेषण (1) : आंकड़े संदिग्ध और भ्रामक जान पड़ते हैं : रीडरशिप बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने का खेल काफी अरसे से चल रहा : आंकड़ों की बाजीगरी करते-करते सर्वे करने वाले लोग काफी आगे निकल गए : गजब तो यह कि यही आंकड़े पत्रकारिता की दिशा तय करेंगे :
देश में सबसे ज्यादा लोग किस अखबार को पढ़ते हैं? यह ऐसा सवाल है जिस पर अखबार की कमाई के साथ-साथ सत्ता के गलियारों से लेकर गली-नुक्कड चौबारों तक उसकी धमक टिकी होती है। साल में दो दफा इंडियन रीडरशिप सर्वे के आंकडें न सिर्फ अखबारों के घाटे-मुनाफे में निर्णायक हैं, बल्कि बाजार में कौन सी पत्रकारिता टिकेगी, किस किस्म के संपादकों का सिक्का चलेगा और किस तरह की पत्रकारिता को डाउन मार्केट करार दिया जाएगा, यह सब भी तय करते हैं। हाल ही इंडियन रीडरशिप सर्वे-2010 के पहले राउंड के आंकड़े सामने आए हैं। पहली नजर में ही यह आंकड़े संदिग्ध और भ्रामक जान पड़ते हैं। देश के टॉप 10 समाचार पत्रों की रीडरशिप के आंकड़ों अजीबोगरीब तस्वीर पेश करते हैं।
इंडियन रीडरशिप सर्वे के नतीजों में देश में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले 10 समाचार पत्रों की रैंकिंग दी गई है। हिंदी की सूची टॉप पर दैनिक जागरण है जिसकी टोटल रीडरशिप करीब 5.4 करोड है। इसके बाद दैनिक भास्कर करीब 3.3 करोड़ पाठकों के साथ दूसरे नंबर पर है। आखिरी पायदान यानी दसवा नंबर नवभारत को दिया गया है जिसकी कुल रीडरशिप भी करीब 47 लाख बताई गई है। इन्हीं आंकड़ों को अपनी मर्जी से तोड़-मरोड़ कर अखबार समूह मैं नंबर वन-मैं नंबर वन करते हुए प्रचार युद्ध में निकलते हैं। लेकिन अगर हम सर्वे के मुताबिक हिंदी के दस प्रमुख अखबारों की कुल रीडरशिप जोड़ें तो योग बैठता है 191052000 यानी 19 करोड़ से थोड़ा ज्यादा। यह देश के दस प्रमुख हिंदी अखबारों की कुल रीडरशिप है। जो हिंदी भाषी इन दस के अलावा अन्य अखबार पढ़ते हैं उनका आंकड़ा लिया जाए तो हिंदी रीडरशिप 25 करोड़ तक पहुंचेगी।
अब जरा देश के जनसंख्या से जुड़े बुनियादी आंकड़ों पर गौर करते हैं। वर्ष 2001 की जनगणना के मुताबिक, देश में 41 फीसदी लोग हिंदी भाषी हैं, जिनकी कुल आबादी करीब 42 करोड़ है। इनमे अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, अनपढ़-शिक्षित सब शामिल हैं। जाहिर है, हिंदी भाषियों की यह पूरी आबादी वर्ष 2001 में 42 करोड़ से बढक़र अब 2010 में 20 फीसदी की ग्रोथ रेट के हिसाब से भी ज्यादा से ज्यादा 50 करोड़ हो गई होगी। हिंदी अखबारों की रीडरशिप इन्हीं 50 करोड़ लोगों में से ही आएगी। लेकिन देश में साक्षरता का औसत ही 65.4 फीसदी है और बिहार जैसे हिंदीभाषी राज्यों में तो यह सिर्फ 47 फीसदी ही है। इस तरह 50 करोड़ हिंदी भाषियों में से करीब आधे लोग पढ़ाना ही नहीं जानते, इसलिए अखबारों की रीडरशिप में कोई योगदान नहीं करेंगे। इसके अलावा बड़ी तादाद गरीबों की है जिनके लिए खबरें तो दूर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ मुश्किल है।
भारत सरकार इनमें से भी बेहद गरीब 37.2 फीसदी लोगों को गरीबी रेखा से नीचे मानती हैं, जो रोजाना 15 रुपये से ज्यादा खर्च करने की क्षमता नहीं रखते। अगर 100 रुपये की न्यूनतम मजदूर को पैमाना माना जाए तो देश की करीब 70 फीसदी आबादी ऐसी है जो इतनी गरीब है कि 100 रुपये रोज से ज्यादा खर्च करने की स्थिति में नहीं है। हिंदी आबादी में से गरीबी रेखा से नीचे के करीब 37 फीसदी यानी करीब 18 करोड़ लोगों का किसी अखबार का पाठन होना तकरीबन असंभव है। इसी तरह देश की करीब 22 फीसदी आबादी 9 साल से कम उम्र के बच्चों की है। 50 करोड़ हिंदी भाषियों में यह आंकड़ा करीब 10 करोड़ बैठता है। 9 साल से कम उम्र के इन 10 करोड़ बच्चों में शायद ही कोई हिंदी अखबार का नियमित पाठक हो। कुल हिंदी भाषी आबादी में से 10-12 करोड़ छोटे बच्चे, करीब 25 करोड़ निरक्षर और करीब इतने ही बेहद गरीब लोग अखबार की रीडरशिप में कोई योगदान नहीं करते हैं। यानि इनके अलावा बचे लोग किसी अखबार के संभावित पाठक हो सकते हैं। हालांकि इन संभावित पाठकों में भी हिमाचल और उत्तराखंड के दुगर्म इलाकों से लेकर दष्टिहीन और पढ़ने में असमर्थ बूढ़े व्यक्ति शामिल हैं। लेकिन इन्हें नजरअंदाज कर उस आबादी का अनुमान लगाने की कोशिश करते हैं, जो हिंदी की पाठक है।
50 करोड कुल हिंदी भाषी – (10 करोड़ छोटे बच्चे + 20 करोड़ निरक्षर+ 5 करोड साक्षर लेकिन बेहद गरीब) = 15 करोड़
देश के टॉप टेन हिंदी समाचार पत्रों की कथित कुल रीडरशिप = 19 करोड़
मतलब साफ है। आंकड़ों की बाजीगरी करते करते रीडरशिप सर्वे करने वाले काफी आगे निकल गए हैं। देश में हिंदी भाषी पाठकों की कुल तादाद जहां 15 करोड़ के आसपास बैठती है जबकि सिर्फ दस अखबारों की कुल रीडरशिप करीब 19 करोड़ होने का दावा किया गया है। अगर इस रीडरशिप सर्वे की माने तो जितनी जनता अखबार पढ़ सकती है उससे ज्यादा रीडरशिप तो देश के 10 प्रमुख अखबार हासिल कर चुके हैं। यहीं है इस रीडरशिप सर्वे के आंकड़ों पर संदेह की सबसे बड़ी वजह।
दरअसल, रीडरशिप बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने का खेल कई अरसे से चल रहा है। लेकिन हरेक समाचर पत्र समूह को रीडरशिप की रेवडियां बांटने के चक्कर में सर्वे करने वालों ने बुनियादी तथ्य को ही नजरअंदाज कर दिया है कि देश मे हिंदी भाषी कितने हैं और अधिकतम कितने लोग अखबारों के पाठक हो सकते हैं। सर्वे की माने तो देश का हर हिंदी भाषी जो 9 साल से ज्यादा उम्र का है और बेहद गरीब नहीं है, रोज देश के प्रमुख अखबारों में से किसी न किसी का पाठक जरूर है। हर आदमी के हाथ में अखबार है। करोड़ों लोगों के हाथ में एक से ज्यादा अखबार है।
तकरीबन यही स्थिति अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषाओं के अखबारों की रीडरशिप में है। हिंदी, अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषाओं के 10-10 टॉप अखबारों की कुल रीडरशिप का योग करीब 35 करोड़ बैठता है। अगर देश का हर व्यक्ति दो-दो अखबार भी पढ़ता है तो क्या देश में प्रमुख दैनिक अखबार पढ़ने वाले ही 18 करोड़ लोग हैं ? गजब तो यह है कि यही आंकड़े पत्रकारिता की दिशा तय करेंगे। जो नंबर वन होगा, उसकी घटिया से घटिया बातें भी पिछलग्गू अखबारों में वेद वाक्य बन जाएंगी। उसके फोंट से लेकर फूहड़ता तक सब कुछ जायज और हिट होगा। ठीक टीवी चैनलों में टीआरपी की तरह। झांसे में कारपोरेट जगत भी आएगा। क्योंकि वह भी ऐसे ही सर्वे और आंकड़ों के आधार पर विज्ञापन का पैसा लुटाता है। यही समाचार पत्र समूहों की कमजोर नब्ज है, जिसे छूकर सर्वे एजेंसिया हवाई आंकड़ों के बूते भी अपना धंध चमका रही हैं।
हालांकि यहां रीडरशिप सर्वे के आंकड़ों की बहुत गहन पड़ताल नहीं की गई है। यह सर्वे के फिलहाल उपलब्ध नतीजा पर आधारित है और निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए जिन आंकड़ों और अनुमानों का सहारा लिया गया है, उनमें थोड़ा कम-ज्यादा हो सकता है। वैसे भी दुनिया में जो दो तरह के झूठ होते हैं, उनमें एक का नाम आंकड़ा ही है। यही आंकड़ों की चाल और इस्तेमाल की असल ताकत भी। लेकिन यहां आंकड़ों की सच्चाई से भी बड़ा सवाल यह है कि समाचार पत्रों की रैंकिंग जैसा गंभीर मसले का कोई माई-बाप नहीं है। प्रेस की आजादी की आड़ में रीडरशिप सर्वे भी बेलगाम हैं और चार लोगों की दुकान किसी भी अखबार को नंबर एक या नंबर दस करार दे सकती है।
लेखक अजीत सिंह पत्रकार हैं और इन दिनों आउटलुक हिंदी के साथ जुड़े हुए हैं.
Chandra Bhan Singh
May 5, 2010 at 9:56 am
Bahoot achha vishleshan. Very good.
sachin yadav
May 5, 2010 at 11:23 am
phir bhi aakhno par patti bandhi hai logone>:(
UPDESH AWASTHEE
May 5, 2010 at 11:42 am
दलील कुछ भी दो, दिल तो लगाना ही पड़ेगा :
आउटलुक के पत्रकार श्री अजीत सिंह जी और उनके विचारों से सहमत सभी साथियों से मैं करबद्ध क्षमाप्रार्थी हूं, परंतु मैं कहना चाहता हूं दलील कुछ भी दो, मर मिटो या अमर हो जाओ, विश्वास करो या न करो लेकिन दिल तो इन्हीं आंकड़ों से लगाना पड़ेगा क्योंकि इसके अलावा कोई विकल्प ही नहीं है।
मैं बताना चाहूंगा कि इण्डियन रीडरशिप सर्वे की रिपोर्ट तैयार करने वाली टीम कभी बेगामी शादी में अब्दुल्ला दीवाना की तर्ज पर सर्वे नहीं करती। यह एक प्रतियोगिता है। आईआरएस प्रबंधन इसका आयोजन है। सभी अखबार मालिक जिन्हे लगता है कि उनका अखबार लोकप्रिय है, इस प्रतियोगिता में शामिल होते हैं। शामिल सभी प्रतियोगियों के बीच सर्वे के उपरांत यह निर्धारित किया जाता है कि कौन किस नम्बर पर रहा।
कृपया ध्यान दीजिए, यह एक प्रतियोगिता है जिसमें प्रतिष्ठित अखबार शामिल होते हैं। तो क्या आपको लगता है कि शामिल प्रतियोगी किसी भी प्रकार का भेदभाव या निर्णयों में मनमानी होने देंगे, जबकि इसी रिपोर्ट पर अखबारों की प्रतिष्ठा टिकी है, पूरा का पूरा व्यावसायिक ढांचा टिका है। हमेशा के लिए गांठ बांधकर रखिए, जो लोग अखबारों में पूंजी लगाकर फायदे कमा रहे हैं वे मेरे या आपके जैसे तमाम बुद्धिजीवियों से कहीं ज्यादा चौकन्ने रहते हैं। हर कदम फूंक-फूंक कर रखते हैं, क्योंकि इसी पर टिका होता है उनका करोड़ों का कारोबार।
रहा सवाल देश की आबादी और पाठकसंख्या का तो मैं आपको बताना चाहूंगा कि यह आईआरएस 2010 क्यू-1, आर-1 के आंकड़े जिसके किनारे पर लिखा हुआ है टीआर। टीआर से तात्पर्य हुआ टोटल रीडरशिप। जो यह बताता है कि तीन माह की अवधि में एक अखबार कितने पाठकों द्वारा पढ़ा गया। कृपया शब्दों पर ध्यान दीजिए, कितने पाठकों द्वारा। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे कि एक दूधवाले का हिसाब। उसके पास कुल कितने ग्राहक हैं, कुल कितने नियमित ग्राहक हैं और एक माह में कुल कितने लीटर दूध बेचा गया। यहां कुल ग्राहकों की संख्या में उन लोगों को भी शामिल कर लिया जाएगा जिन्होंने महीने में केवल दो-चार दिन ही दूध लिया। नियमित ग्राहकों में संख्या वह आएगी जो पूरे 30 दिन दूध लेते हैं और यदि महीने भर का दूध की बिक्री लीटर में पूछ ली तो 1 नियमित ग्राहक=30 लीटर दूध।
आईआरएस की रिपोर्ट में कुल पाठक संख्या दर्शाई गई है वह भी पूरे तीन माह की. (ग्राहक संख्या नहीं, ग्राहक संख्या बताने के लिए ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन एकमात्र अधिकृत संस्थान है). यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे यदि वेटिकल सिटी के कुल 800 नागरिक नहाने के लिए लक्स का इस्तमाल करें और औसतन प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह 3 साबुन खर्च करता हो तो लक्स की बिक्री का आंकड़ा 2400 रहेगा जबकि यह आंकड़ा वहां की कुल आबादी से 3 गुना ज्यादा होगा।
आपका फार्मूला सही है, लेकिन उसे एबीसी रिपोर्ट पर अप्लीकेबल कीजिए, आईआरएस रिपोर्ट पर नहीं। मुझे नहीं लगता कि ऐसी किसी भी प्रतियोगिता के निर्णयों पर टिप्पणी करने का अधिकार मुझे या आपको है, जिसके नियमों की आपको जानकारी भी न हो। कृपया खेल के आयोजक, प्रायोजक, खिलाडिय़ों और नियम के विषय में पता लगाइए। फिर टिप्पणी कीजिए। ऐसी रिपोर्ट लिखेंगे तो अगली बार आउटलुक भी इस सूची में दिखाई देगी। शायद तब आपको यही आंकड़े खूबसूरत भी दिखें।
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Nupur Dixit
May 5, 2010 at 3:25 pm
Great analysis
rupesh sharma
May 7, 2010 at 3:51 pm
ajit ji. bahut badiya. aapne to surve ko dhokar rakh diya.