जरनैल से न तो मेरा परिचय है, न मैं उनके कृत्य की प्रशंसा करने जा रहा हूं। परन्तु अपने लेख के जरिए उन्होंने जिस मुद्दे पर बहस की शुरुआत की है, वह निश्चित ही गंभीर विषय है। उस पर चर्चा होनी चाहिए। जरनैल के एक-एक शब्द में वर्तमान पत्रकारिता का चेहरा छुपा दिखता है। वह सच, जिससे कोई भी पत्रकार दूर नहीं भागना चाहेगा। अपने विचारों की शुरुआत करने से पहले कहना चाहूंगा कि मैं इस बात का प्रशंसक हूं कि जरनैल ने अपने कृत्य के लिए माफी मांगी तथा इसको पत्रकारिता की आचार संहिता के खिलाफ बताया। यह बात इतिहास हो चुकी है तथा उनको इसकी सजा भी मिल चुकी है। परन्तु मीडिया के कर्तव्य, दायित्व तथा वर्तमान स्थिति पर उन्होने जो प्रश्न खड़े किए हैं, वे कहीं न कहीं मीडिया के भविष्य की दशा-दिशा से जुड़े हैं। एक दशक पहले पत्रकारिता में यह सोचकर कदम रखा था कि अपाहिज हो चुके सिस्टम में कहीं कोई उजियारा कलम पैदा कर सकी तो प्रयास सार्थक समझूंगा। तीर्थनगरी हरिद्वार से पत्रकारिता का गहरा नाता रहा। स्वामी श्रद्धानंद से लेकर वर्तमान समय तक न जाने कितने पत्रकारों ने इस भूमि पर जन्म लिया।
बहरहाल, कुछ कर गुजरने की तमन्ना लेकर पत्रकारिता की शुरुआत की तथा व्यवस्था को अच्छी तरह समझा। हरिद्वार संतनगरी है। भण्डारों की पत्रकारिता से दो चार हुआ। देखा, किस तरह पण्डाल में लाखों की भीड़ को प्रवचन सुनाकर अहिंसा, असत्य, लोभ व मोह आदि से दूर रहने की सलाह देने वाले बाबा कलमकारों व चैनल प्रतिनिधियों को रूपये के लिफाफे देकर अपनी महिमा का बखान करवाते हैं। चैनलों व अखबारों के मालिक इन बाबाओं के चरणों की वंदना करते हैं तथा इनके प्रतिनिधि कभी कभी न चाहकर भी चरित्रहीन बाबाओं का बखान करते हैं। चुनावों के वक्त व्यवसाय की चाह में किस तरह खबरों को तोड़-मरोड़कर पेश किया जाता है, यह पत्रकार बिरादरी को बताने की आवश्य़कता शायद नहीं है। कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि आज पत्रकारिता पूरी तरह से पूंजीपतियों की रखैल बन चुकी है। ये शब्द लिखने वाला मैं कोई पहला पत्रकार नहीं। इससे पहले भी कई वरिष्ठ पत्रकार इस बात पर तल्ख टिप्पणी कर अपनी चिंता जता चुके हैं। परिवर्तन संसार का नियम है तथा इसे स्वीकार करना पड़ता है परन्तु परिवर्तन के नाम पर कलम को गिरवी रखने की जिस पत्रकारिता का दौर शुरू हुआ है, उसकी कहीं से भी प्रशंसा नहीं की जानी चाहिए।
सच्चाई तो यह है कि कलम के ठेकेदार बने हम लोग अपने क्षेत्र विशेष में कितना भी रौब जताते हैं परन्तु मीडिया में खुद के शोषण का कोई अंत नहीं। वापस जरनैल के मुद्दे पर आता हूं। उनका मानना है कि कलम की ताकत कुंद पड़ी है तथा आम आदमी भी इसकी विश्वसनीयता पर उंगली उठाने लगा है। इस बात से मैं पूरी तरह से सहमत हूं। जहां तक मेरा मानना है कि इसकी वजह सीधा सीधा व्यवसायीकरण है। जनसरोकारों से दूर होकर पत्रकारिता, पत्रकारिता न रहकर चाटुकारिता हो गयी है। पूंजीपतियों के यहां हमारे विचार गिरवी पड़े हैं। परन्तु कलम नहीं रूकेगी की तर्ज पर हम अपनी भावनाओं को काबू में रखें, यह भी जरूरी है। जरनैल सिंह जूता न फेंकते तो उन्हें कौन जानता। अपनी भावनाओं को कागज पर लिखते कुछ नहीं हुआ, तभी उनमें आवेग आ गया। मैं जरनैल सिंह से पूछना चाहता हूं कि जूता फेंकने के बाद भी क्या हुआ? नौकरी गयी। परिणाम ढाक के तीन पात रहे। परन्तु जरनैल भाई यही वह अंतर है कि कुछ लोग सिर झुकाकर कलम को कुंद करना जानते हैं और कुछ प्रतिरोध जताते हैं, आपकी तरह। बहरहाल पैसे के आगे नतमस्तक पत्रकारिता का क्या भविष्य होगा, इसकी तो सटीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती परन्तु जनसरोकारों से दूर होकर अभिनेत्रियों के लहंगे की खबर, नामचीन हस्तियों के कैटवॉक का प्रसारण, रियल्टी शोज की खबरें तथा सास-बहू के किस्से यदि दिखाए जाएंगे तो मैं नहीं समझता इसका भविष्य उज्जवल है।
पत्रकारिता में मेरा अनुभव बहुत ज्यादा नहीं परन्तु इतना कह सकता हूं कि साइकिल में पंचर लगाने वाले तथा शराब बेचने वाले चैनल की आईडी लेकर लोगों को ब्लैकमेल करेंगे तथा हिस्ट्रीशीटर चैनलों के मालिक बनेंगे तो पत्रकारिता की दिशा क्या होगी, कोई भी अनुमान लगा सकता है। परन्तु हर रात के बाद एक नया सवेरा आता है। और हमारे इस पेशे में भी इस सुबह की शुरुआत होगी। मैं कह सकता हूं कि—-
‘गर जमाना मेरे साथ न बदलना चाहे, मैं भला जमाने के साथ क्यों बदलता जाऊं!’
-शिवा अग्रवाल
सीना मत फुलाइए जरनैल सिंह
जरनैल सिंह ने जो मुद्दे उठाए हैं, वह तो सही हैं, लेकिन उनका जो कृत्य है, अक्षम्य है। वह चाहे जरनैल चिदंबरम की तरफ जूता चलाएं या फिर ईरानी पत्रकार बुश पर जूता फेंके। दोनों ही घटनाएंनिंदनीय हैं। यह तो ठीक वैसे ही है, जैसे कोई डॉक्टर ऑपरेशन टेबल पर किसी को इसलिए मार डाले या उल्टी-सीधी दवा दे-दे कि उसे उसका विरोध करना था। यह तो नहीं चलेगा कि आप प्रेस कांफ्रेंस में जाएं और अपना मकसद हासिल करने के लिए जूता उठा लें। यह तो पत्रकारिता ही नहीं, एक सभ्य समाज की भी तौहीन है। अरे, आप जो इतने बड़े एक्टिविस्ट हैं, इतनी आग आपकेसीने में है तो जाइए, जूते नहीं, गोली मार दीजिए, हालांकि यह भी विरोध का नपुंसक तरीका होगा। क्योंकि हिंसा हमेशा ही कायरता है और एक सभ्य समाज में इसकी कोई जगह नहीं होती। खैर, फिर भी प्रेस कांफ्रेंस को इसका तूल मत बनाइए। भिंडरांवाला मत बनिए। जरनैल ही बने रहिए तो अच्छा है, अच्छा रहेगा। पर यहां तो जरनैल एक साथ दो काम करते दिखते हैं। एक तो अपनीगलती मानते रहे हैं, दूसरे यह जुमला भी उछाल रहे हैं कि ‘आखिर वह काम जो, कलम को करना चाहिए था, वह जूते से कैसे संभव हुआ?’ जरनैल का यह कहना बहुत ही अफसोसनाक है।
यह तो वही बात हुई कि पंचों की राय सिर-माथे, लेकिन खूंटा वहीं गड़ेगा! माफ कीजिए जरनैल सिंह जी, आप की नौकरी गई है, इस पर मुझे बेहद अफसोस है। इस मसले पर प्रबंधन को आपकी नौकरीनहीं लेनी चाहिए थी, ऐसा मैं भी मानता हूं। क्योंकि किसी की नौकरी लेने को मैं फांसी की सजा ही मानता हूं। यह सजा आपकी नहीं होनी चाहिए थी। यह भी मानता हूं, पर जो कलम नहीं कर पाई, वह काम जूते ने कर दिया, आपके इस कहे पर सिर शर्म से झुक जाता है। आपकी सारी लड़ाई, सारी सम्वेदना धूल धूसरित हो जाती है। माफ कीजिए, हम जो अपनी मां से नाराज होकर उसे बापकी बीवी कहना शुरू कर देंगे तो उसमें मां की नहीं, हमारी ही हेठी होगी। मां को मां ही रहने दीजिए, बाप की बीवी मत बनाइए। अगर आपने गलती मान ली है तो वही ठीक है। उस पर नाज मतकीजिए। पत्रकारिता को मार डालने के लिए भड़ुए, दलाल क्या कम पड़ गए हैं जो आप भी इसमें न्योछावर होने को आ गए जरनैल जी! आप एक अच्छे रिपोर्टर ही बने रहिए। अब ठीक है किमाफिया और बिल्डर अखबार और चैनल के मालिक हो चले हैं तो इस सिस्टम में आप-हम जैसे लोग क्या बना-बिगाड़ लेंगे? इस ब्लैकमनी की बहती धारा में पत्रकारिता तो डूब चली है। उसकेअवशेष तो बचे रहने दीजिए। वृक्ष न बच पाए, न सही, बीज तो बचे रहने दीजिए। वृक्ष बह जाते हैं तो बह जाने दीजिए, बीज रहेंगे तो और भी वृक्ष उग आएंगे। तो जनरैल जी इस बात पर सीना मतफुलाइए कि जो काम कलम को करना चाहिए, वह जूते से कैसे संभव हुआ? यह बहुत अफसोसनाक ही नहीं, शर्मनाक भी है। शायद मान लें, इस गलती को भी। और जान लें आप भिंडरांवाला नहीं, जरनैल सिंह हैं और यही बने रहेंगे।
-दयानंद पांडेय
पत्रकारिता या जॉब?
सन् 2003 में पत्रकारिता कि पढाई पूरी करने के बाद एक बार मैं जॉब के सिलसिले में आउटलुक के तत्कालीन संपादक अलोक मेहता के पास गया था। उन्होंने पूछा कि आप पत्रकारिता करना चाहते हैं या जॉब? मैं उस समय जोश में था। मैंने कहा पत्रकारिता। मेहता ने जवाब दिया- हमारे यहाँ तो अभी जगह नहीं है, लेकिन आप पहले जॉब देखिये। पत्रकारिता तब होती है, जब आपकी कलम अपने इंक से लिखती हो और पेपर भी अपना हो। क्या यह उदाहरण आज की पत्रकारिता के लिए सही नहीं है? आप एक जॉब में हैं, जहां मालिक के फायदे के लिए आप काम करें और वो बदले में आपको थोडा-सा हिस्सा निकाल कर दे दे। आज मीडिया में कितने लोग देश की सेवा करने के लिए आते हैं? यह एक जाब की तरह है, उससे अलग कुछ भी नहीं। जहाँ पत्रकारिता हो रही है, वे लोग खाना खाने के लिए तरस जाते हैं।
बड़ी-बड़ी बात करने वालों से यह पूछा जाना चाहिए कि प्रेस या चैनल मालिक आखिर पत्रकारों को एक करोड़ का पैकेज कैसे दे सकता है, जब तक कि इससे उसके दूसरे प्रयोजन सिद्ध न होते हों?
-अमित त्यागी