प्रिय यशवंत भाई, दैनिक जागरण के नेशनल ब्यूरो में पत्रकार रहे जरनैल सिंह का इंटरव्यू पढ़कर मन के तार झनझना गए। एक पत्रकार होने के नाते मैं भी मानता हूँ और खुद जरनैल को भी इस बात से इनकार नहीं है कि उन्होंने पत्रकारिता की मर्यादा का उल्लंघन किया है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि उनके उठाए सवाल बेहद वाजिब हैं और उनका पुरजोर समर्थन किया जाना चाहिए। जरनैल ने किस मन:स्थिति में चिदंबरम पर जूता फेंकने जैसा कदम उठाया होगा, इसे समझने की ज़रूरत है। वो उस समुदाय से आते हैं जिसके तीन हज़ार लोग तीन दिन में बेरहमी से क़त्ल कर दिए गए, बिना किसी गुनाह के। उनमें से कई लोग ऐसे होंगे, जो ज़रनैल के बिल्कुल अपने, बिल्कुल जान-पहचान के परिवारों से होंगे। उनके दर्द को समझने की बजाय उन्हें पनिशमेंट देने का ख्याल किसी बेरहम लोकतंत्र में ही पैदा हो सकता है। मैं ज़रनैल के साथ अपनी हमदर्दी नहीं, बल्कि वैचारिक समर्थन व्यक्त करता हूँ, क्योंकि जो सवाल ज़रनैल ने उठाए हैं, वो सवाल मेरे मन को भी सालों से मथ रहे हैं। मेरी 2003 की लिखी कविता “बुद्धिजीवी की दुकान” जो कि मेरे दूसरे कविता-संग्रह “उखड़े हुए पौधे का बयान” में संकलित है, में भी इन्हीं सवालों को उठाया गया था।
इस कविता को इस ई-मेल के साथ अटैच कर रहा हूँ।
आपका…अभिरंजन कुमार
बुद्धिजीवी की दुकान
मैं बुद्धिजीवी हूँ।
आओ मेरी दुकान में
यहाँ दुनिया के सारे प्रमाणपत्र मिलते हैं।
धर्मनिरपेक्षता के, ईमानदारी के, राष्ट्रवाद के, सामाजिक न्याय के,
दलितों-शोषितों का हितैषी होने के,
संस्कृति का पहरेदार होने के।
मैं जिसे चाहूँ पल भर में महान बना दूँ
जिसे चाहूँ नीच।
लोगों को शर्तिया यक़ीन होगा
जब मैं बोलूँगा मुट्ठियाँ भींच।
मेरी दुकान में हल नहीं, न सही
दुनिया की सारी समस्याओं पर भाषण हैं,
जिन्हें झाड़ कर ख़ूब जँचते हैं लोग।
मैं गुजरात में 1,000 मुसलमानों के क़ातिलों को साम्प्रदायिक कहूँ
और दिल्ली में 3,000 सिखों के हत्यारों को धर्मनिरपेक्ष
तो चौंकना मत।
क्रिया के बाद प्रतिक्रिया सिद्धांत देने वाले मुख्यमंत्री को दंगाई कहूँ
और बड़ा पेड़ गिरने के बाद धरती हिलने का सिद्धांत देने वाले प्रधानमंत्री को
मिस्टर क्लीन
तो भी कर लेना यक़ीन।
जिन्होंने पचास साल में एक भी दंगापीड़ित को न्याय नहीं दिलाया,
जिन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के इंसाफ़ को दिखा दिया ठेंगा-
उनकी आरती उतारूँगा मैं
और अपनी प्रतिबद्धता साबित करने के लिए
गिनूँगा सिर्फ़ दूसरे पक्ष के कुकर्म।
मेरी नज़र में मस्जिद ढहाने वाले तो साम्प्रदायिक हैं,
लेकिन राजनीतिक फ़ायदे के लिए
मंदिर का ताला खुलवाने वाले दूध के धुले।
मैं भूल जाता हूँ कि अंग्रेजों की फूट डालो और शासन करो की नीति
इस देश के सभी सत्तालोलुपों में एक-सी लोकप्रिय है
और सबने सेंकी हैं जलती चिताओं पर स्वार्थ की रोटियाँ
उत्तर से दक्षिण तक, पूरब से पश्चिम तक।
जो शातिर हैं, वो जा कर उन चिताओं पर बहा आते हैं आँसू
जो दुस्साहसी, वो दूर से करते हैं अट्टहास
पर सत्ता दोनों को चाहिए अपने पास।
जानता हूँ कि मेरी कानी सोच से कभी ख़त्म नहीं होगी साम्प्रदायिकता
फिर भी
दो साम्प्रदायिकों की लड़ाई में मुझे एक को धर्मनिरपेक्ष कहना है
आख़िर मुझे भी इस बाज़ार में रहना है !
मैं बुद्धिजीवी हूँ
मेरी बुद्धि है तुम्हारी मदद के लिए।
कोई बात नहीं अगर तुम जातिवादी हो, भ्रष्ट हो,
तुम्हारी पार्टी में अपराधियों का बोलबाला है
या फिर जेल जाते समय तुमने अपनी मूर्ख, अनपढ़ बीवी को
गद्दी पर बैठा दिया
जन्मदिन पर लाखों के ज़ेवर पहन लिये
या बेटे-बेटियों की शादी में करोड़ों फूँक डाले।
मैं कह दूँगा कि पैसा एक पिछड़े की संतान का है,
इसलिए अगड़ों की आँखों को चुभ रहा है
ग़रीब की बीवी को जोरू समझने वाले लोग ही
उसे सत्ता में देख कर बौखलाए हुए हैं।
मैं सभी अपराधियों और जातिवादियों को भी
सामाजिक न्याय का पुरोधा बता दूँगा।
बात फिर भी नहीं बनी, तो मैं एक समस्या को दूसरी से छोटी या बड़ी बताकर तुम्हारे पक्ष में हवा बनाने की कोशिश करूँगा।
मसलन मैं कह सकता हूँ कि साम्प्रदायिकता बड़ी समस्या है
अपराधियों का राजनीतिकरण, भ्रष्टाचार या जातिवाद छोटी समस्या।
देश के अंदर क़ानून-व्यवस्था के बिगड़ते हालात से ध्यान हटाने में भी मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूँ।
मैं सारा फ़ोकस अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद पर कर दूँगा।
उग्रवाद, नक्सलवाद और स्थानीय अपराधियों और राजनेताओं की साँठ-गाँठ में जो लोग मरे,
जिनके घर उजड़े,
जो रोज़-रोज़ दहशत में जीते हैं-
उनकी तरफ़ लोगों का ध्यान कम से कम जाए- ये मेरी ज़िम्मेदारी।
मैं बुद्धिजीवी हूँ
तुम्हें बुद्धि का इस्तेमाल करना सिखाता हूँ।
कोई तुम्हें फ़ासिस्ट कहे,
इससे पहले ही तुम उसे फ़ासिस्ट क़रार दो
मैं लोगों को ये भुलाने में तुम्हारी मदद करूँगा
कि तुमने कब-कब लोकतंत्र की हत्या की,
कब-कब प्रेस पर पाबंदियाँ लगाई
और कब-कब ख़िलाफ़ बोलने वालों को जेल में डाल दिया।
जिस मुँह से मैं लोकतंत्र और आम आदमी की वकालत करता हूँ
उसी मुँह से मैं तुम्हारे वंश के कुत्तों को भी
गुणगान कर भगवान बना दूँगा
कहूँगा कि इस वंश ने बड़ी क़ुरबानियाँ दी हैं।
…और तुम्हारा बच्चा पैदा होते ही सबका बाप हो जाएगा।
अगर मुझे लाल झंडे से फ़ायदा होगा
तो मैं भूल जाऊँगा कि इन्होंने कितना ख़ून बहाया है
यह भी भूल जाऊँगा कि इन्होंने कितने रंग बदले हैं
और यह भी कि पूँजीवादी बुर्जुआ संस्कृति से लड़ते-लड़ते
इन्होंने ख़ुद कितनी पूँजी बना ली है।
जिस दिन उनकी निष्ठा बदल जाएगी
उस दिन उनके साथ मैं भी अपनी निष्ठा बदल लूँगा
वो चाहे जिससे भी गठबंधन करें
मैं उसके सारे पापों पर पुण्य की मुहर लगा दूँगा।
बुद्धिजीवी हूँ तो बौद्धिकता भी झाड़ूँगा ही
जो साहित्य लोगों की समझ में आ जाएगा,
उसे घटिया साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ूँगा
और जो ख़ुद लिख कर ख़ुद समझ न आए
उसमें सूक्ष्मता और गहराई की तलाश करूँगा।
सत्ता की दलाली कर उसके मनमाफ़िक इतिहास लिखूँगा
फिर चाहे कोई उसे भगवाकरण कहे या अगवाकरण।
मेरी गालियाँ ठोस और सीधी लगने वाली होती हैं
लेकिन मैं हमेशा एक पापी को छोड़ देता हूँ
इससे मेरी दुकानदारी चलती रहती है।
हिसाब सीधा है
पापी रहेंगे तो प्रमाणपत्र बिकेंगे
समस्याएँ रहेंगी, तो भाषण बिकेंगे
और चूँकि मैं बिका हुआ हूँ
इसीलिए बाज़ार में टिका हुआ हूँ।
आओ मेरी दुकान में
मुझे सहित विचार और विचारधारा कुछ भी ख़रीद लो।