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जरा नए पत्रकारों के लटके-झटके देखिए

धनबाद कोयलांचल की वर्तमान पत्रकारिता : अपनी बात एक छोटी सी कहानी से शुरू करता हूं। हेनरी फोर्ड ने नये मॉडल की गाड़ी बनाई। एक मालदार ग्राहक को दिखाने के ख्याल से गाड़ी की अगली सीट पर बैठा लिया और गाड़ी खुद ड्राइव करने लगे। गाड़ी 30 किलामीटर चलकर ही रुक गयी। ग्राहक को आश्चर्य हुआ। उसने फोर्ड से पूछा, यह क्या, इसका इंजन तो 30 किलोमीटर में ही बंद हो गया? फोर्ड ने हंसते हुआ जवाब दिया, इसमें तेल भराना ही भूल गया था। फोर्ड ने यह बात इस तरह से कही जैसे 20-30 किलोमीटर तो बिना तेल के भी गाड़ियां सिर्फ उसके नाम पर चल सकती हैं। कुछ हद तक देश की कोयला राजधानी धनबाद कोयलांचल की वर्तमान पत्रकारिता भी इसी ढर्रे पर चल पड़ी है।

<p align="justify"><font color="#003366">धनबाद कोयलांचल की वर्तमान पत्रकारिता : </font>अपनी बात एक छोटी सी कहानी से शुरू करता हूं। हेनरी फोर्ड ने नये मॉडल की गाड़ी बनाई। एक मालदार ग्राहक को दिखाने के ख्याल से गाड़ी की अगली सीट पर बैठा लिया और गाड़ी खुद ड्राइव करने लगे। गाड़ी 30 किलामीटर चलकर ही रुक गयी। ग्राहक को आश्चर्य हुआ। उसने फोर्ड से पूछा, यह क्या, इसका इंजन तो 30 किलोमीटर में ही बंद हो गया? फोर्ड ने हंसते हुआ जवाब दिया, इसमें तेल भराना ही भूल गया था। फोर्ड ने यह बात इस तरह से कही जैसे 20-30 किलोमीटर तो बिना तेल के भी गाड़ियां सिर्फ उसके नाम पर चल सकती हैं। कुछ हद तक देश की कोयला राजधानी धनबाद कोयलांचल की वर्तमान पत्रकारिता भी इसी ढर्रे पर चल पड़ी है। </p>

धनबाद कोयलांचल की वर्तमान पत्रकारिता : अपनी बात एक छोटी सी कहानी से शुरू करता हूं। हेनरी फोर्ड ने नये मॉडल की गाड़ी बनाई। एक मालदार ग्राहक को दिखाने के ख्याल से गाड़ी की अगली सीट पर बैठा लिया और गाड़ी खुद ड्राइव करने लगे। गाड़ी 30 किलामीटर चलकर ही रुक गयी। ग्राहक को आश्चर्य हुआ। उसने फोर्ड से पूछा, यह क्या, इसका इंजन तो 30 किलोमीटर में ही बंद हो गया? फोर्ड ने हंसते हुआ जवाब दिया, इसमें तेल भराना ही भूल गया था। फोर्ड ने यह बात इस तरह से कही जैसे 20-30 किलोमीटर तो बिना तेल के भी गाड़ियां सिर्फ उसके नाम पर चल सकती हैं। कुछ हद तक देश की कोयला राजधानी धनबाद कोयलांचल की वर्तमान पत्रकारिता भी इसी ढर्रे पर चल पड़ी है।

आपको एक-दो नहीं थोक भाव में ऐसे पत्रकार मिल जायेंगे जो बड़ी शान से कहते हैं कि मेरे ही दम पर उसका अखबार (जिस संस्थान से वे जुड़े होते हैं) टिका है। आश्चर्य तो यह कि दो-चार साल पहले तक जिन्हें लोग जानते भी नहीं थे, अचानक धूमकेतु की तरह प्रकट होकर सीएम-डीएम से नीचे बात ही नहीं करते। इनके लटके-झटके भी देखने लायक होते हैं। वर्षों से पत्रकारिता जगत में रहकर पहचान बना चुके वास्तविक पत्रकार भी इनके सामने बेकार हैं। बल्कि वास्तविक पत्रकारों ने तो किनारा ही पकड़ लिया है। वे अपने संस्थानों से जुड़कर पूरी ईमानदारी से सेवा दे रहे हैं। उनमें न्यूज सेंस भी है, हिन्दी पर ठोस पकड़ भी है, अंग्रेजी की भी अच्छी जानकारी है। आज भी वे अखबारों की रीढ़ हैं, परंतु वर्तमान हालात में गुमनाम रहना ही बेहतर समझ रहे हैं।

इसके विपरीत कुकुरमुत्ते की तरह छा गये नयी पीढ़ी के इन पत्रकारों की न तो हिन्दी अच्छी है, न ही उनमें न्यूज सेंस है। हिंगलिश का प्रयोग इस तरह करते हैं जैसे अंगेजी उनकी मातृभाषा हो। अलबत्ता एक बात जरूर है कि विज्ञापन के मामले में ये प्रबंधन को खुश कर देते हैं। प्रबंधन खुश तो किसी के खुश होने, नहीं होने से क्या फर्क पड़ता है? इसी दम पर ये दो-चार को किसी भी संस्थान में रखवाने का भी माद्दा रखते हैं। कोयलांचल में इन दिनों यही ट्रेंड चल रहा है। मंत्री का हो, वीआईपी का हो या फिर प्रशासनिक अधिकारियों का, प्रेस कांफ्रेंस में ये पत्रकार किसी अन्य पत्रकारों को कुछ पूछने का मौका ही नहीं देते। सवाल भी ऐसे-ऐसे कि सुनकर कोई भी चकित रह जाये। अपनी तिकड़म के कारण डीसी-एसपी तक से किसी की पैरवी भी कर सकते हैं। पत्रकारों का ऐसा भी कॉकस सक्रिय है जो थाना प्रभारी तक को मनचाहा थाना दिलवाते रहे हैं।

स्थापना समिति की बैठक को प्रभावित कर शिक्षकों को भी मनपसंद स्कूल दिलवा देते हैं। अधिकारी-कर्मचारी ट्रांसफर-पोस्टिंग के लिए पत्रकारों के इस कॉकस के आगे-पीछे घूमते हैं। दुर्भाग्य से वर्तमान डीसी-एसपी से ट्यूनिंग नहीं बैठ पाने के कारण यह धंधा मंदा पड़ गया है। फिर भी किसी न किसी रूप में यह कारोबार आज भी जीवित है। अधिकारियों या संबंधित विभाग की मनपसंद खबरें छापकर सुबह-सुबह ऐसे पत्रकारों को हुजूर के दरबार में मुस्कुराते देखा जा सकता है। माफिया घराने का यस मैन होना तो इनके लिए फख्र की बात है। कई पत्रकार तो माफिया घराने के पैरोकार की भूमिका में हैं। हालांकि यह नहीं कहा जा सकता कि सभी पत्रकार ऐसे ही हैं या फिर नई पीढ़ी के सभी पत्रकार अयोग्य ही हैं।

नई पीढ़ी में भी चमकदार पत्रकार सामने आ रहे हैं। वे अपनी काबिलियत से अपनी सार्थकता साबित कर रहे हैं। वे इसे प्रोफेशन भी मानते हैं और मिशन भी। वैसे यह क्षेत्र अब मिशन रहा ही नहीं। गणेश शंकर विद्यार्थी और प्रेमचंद का जमाना नहीं रहा जब एक पत्रकार-साहित्यकार ही थोड़ी सी पूंजी लगाकर पत्र-पत्रिका निकाला करते थे। अब यह पूरी तरह एक उद्योग है, जहां भारी पूंजी की आवश्यकता होती है। अखबारों में अब भावना कम उत्पाद अधिक महत्वपूर्ण हो गये हैं।

धनबाद कोयलांचल ने अखबारी जगत की सदा अगुवाई की है। ब्रिटिशकाल से लेकर एकीकृत बिहार तक यह दबदबा कायम रहा। कोयलांचल में पत्रकारिता कर चुके कई पत्रकार राष्ट्रीय फलक पर छाये हुए हैं। वर्तमान में भी इस स्थान की उपेक्षा कर कोई भी हाउस झारखंड में अखबार नहीं चला सकता। ब्रिटिशकाल में भी सीमित स्तर पर यहां से अंग्रेजी व बांग्ला अखबार निकलते थे। परंतु ब्रह्मदेव सिंह शर्मा ने अखबार को घर-घर तक पहुंचाने का जो संकल्प निभाया, वह अविस्मरणीय रहेगा। उसके बाद तो प्रभात खबर, हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण आदि जैसे बड़े बैनर के अखबारों ने पांव जमा लिया। एक समय था जब ‘आवाज’ और ‘जनमत’ जैसे अखबार सिर्फ बीसीसीएल के भरोसे ही चला करते थे।

कुछ अखबार तो अब भी इसी प्रतिष्ठान के दम पर चल रहे हैं। ऐसे अखबारों को न बाजार की जरूरत है और न ही पाठकों की। एकाध सौ प्रतियां छापकर बीसीसीएल के पीआरवो कार्यालय तक पहुंचा देना ही उनके मालिकों की जिम्मेदारी है। कोल इंडिया के इस प्रतिष्ठान से इन अज्ञात अखबारों को हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण और प्रभात खबर से थोड़ा भी कम विज्ञापन नहीं मिलते। उससे भी मजेदार यह कि एबीसी की वार्षिक रिपोर्ट में धनबाद में सबसे अधिक छपनेवाले अखबारों में ये शीर्ष पर होते हैं। ये अखबार ए श्रेणी में आते हैं। उनकी डीएवीपी दर भी सबसे अधिक होती है। प्रसंगवश यह सुनना भी मजेदार लगेगा कि ऐसे अखबार के सीएमडी किसी ऐसे व्यक्ति को संपादक बनाकर रखते हैं जो कहीं से अखबारी जीव नहीं होते।

कोयलाचंल की अच्छी-बुरी जो भी हो, एक और भी आदत है। जो पत्रकार कलम से कमजोर रहते हुए भी अपनी पीठ आप थपथपाने का हुनर रखते हैं उसकी पीठ थपथपाने में यह नगरी भी पीछे नहीं रहती। इसे समझने के लिए एक छोटा सा उदाहरण पर्याप्त होगा। वर्ष 1996 में मेरी एक खबर राष्ट्रीय खबर बन गई। लिट्टे प्रमुख वी. प्रभाकरण का ड्राइविंग लाइसेंस धनबाद परिवहन कार्यालय से बन जाने की मुझे भनक लगी। मैंने पूरा प्रमाण इकट्ठा कर अपने संपादक महोदय को दे दिया। वे खुशी से उछल पड़े। वह खबर मेरे नाम से प्रथम पेज पर छपी तो तलहका मच गया। अगले दिन प्रायः सभी अखबारों ने उसे लिफ्ट कर छापा। किसी ने विवेक प्रकाश के नाम से तो किसी ने ज्ञान प्रकाश के नाम से उसे छापा। ‘जय’ भले ही किसी ने नहीं लगाया, परंतु ‘प्रकाश’ छोड़ने का साहस नहीं जुटा पाये। हद तो यह कि उस वर्ष धनबाद लायंस क्लब ने तीन पत्रकारों को उम्दा पत्रकारिता के लिए सम्मानित करने की जब घोषण की तो उसमें मेरा नाम नहीं था। अलबत्ता मेरे संपादक महोदय का नाम था। परंतु उनके जमीर ने उन्हें वह सम्मान लेने से मना कर दिया। ऐसा होना यहां के लिए आम बात है।

मैं अपनी बात प्रभात खबर के धनबाद संस्करण के संपादक दीपक अम्बष्ठ जी के प्रसंग से खत्म करना चाहूंगा। एकाध बार मेरी उनसे भेंट भी है। बेशक अच्छे इंसान और उससे भी बढ़कर अच्छे पत्रकार हैं। यह जानकर झटका लगा कि वे अखबारी दुनिया को ही अलविदा कर रहे हैं। भड़ास पर उनका मार्मिक अलविदा पत्र भी पढ़ा। पत्र के एक-एक शब्द घंटों मथते रहे। अचानक हिन्दी के प्रकांड विद्वान व साहित्यकार विद्यानिवास मिश्र का प्रसंग याद आ गया। उन्हें नवभारत टाइम्स का संपादक बनाकर लाया गया था। लेकिन डेढ़-दो साल में ही पत्रकारिता से मन भर गया। जब वे नभाटा छोडकर जा रहे थे तो उन्होंने लिखा था कि मैं फिर कभी पत्रकारिता जगत में प्रवेश नहीं करूंगा। नभाटा के प्रथम पेज पर उन्होंने भी एक मार्मिक अलविदा पत्र लिखा, जिसमें प्रेमचंद की एक कहानी फेरीवाला का जिक्र किया था।

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एक फेरीवाला एक मुहल्ला में रोज फेरी लेकर आता था। मर्द काम पर चले जाते थे और महिलायें घर का काम निपटा चुकी होती थीं तब वह आता था। महिलाओं में वह काफी लोकप्रिय था। महिलायें उसकी राह देखती थीं। ऐसे ही एक दिन जब वह दोपहर बीत जाने के बाद भी नहीं आया तो महिलायें बेचैन हो गयीं। तब तक किसी की नजर फेरी पर पड़ी। फेरी खुली हुई थी लेकिन फेरीवाला नहीं था। विद्यानिवास जी ने लिखा था, आज मैं भी अपनी गठरी चौराहे पर छोड़े जा रहा हूं। जो लेना हो लीजिये, दाम देना हो दीजिये, सब आपकी मर्जी पर छोड़ता हूं। अम्बष्ठ जी भी पत्रकारिता की अपनी गठरी सबके बीच छोड़कर जा रहे हैं। आलोचना-समालोचना जो मर्जी में आये कीजिये, अलबत्ता उसे सुनने फेरीवाला की तरह ही वे वहां मौजूद नहीं होंगे। उनका अभाव खटगेगा।

धनबाद से जय प्रकाश मिश्र की रिपोर्ट

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0 Comments

  1. saumya

    April 12, 2010 at 10:27 am

    bahut achchi baatein likhe hain. roz har jagah yahi ho raha hai.akhbar jab product ho gaya hai to isse umeed palna bekar hai.isse badhiya pan ki gumti chalana hai.dohri chalaki se to log bachkar rahenge.

  2. vineet kumar (gorakhpur) 09936809770

    April 12, 2010 at 10:29 am

    yah samashiya sirf kolayalanchal ka hi nahi. kamovash har pradesh ki hai. main to bhaut hi chota hu lakin is mudda par j.p. Mishra jee ka sath hun. Is nasur ko patrakaritya se khatam karna hoga

  3. Narender Vats

    April 12, 2010 at 11:05 am

    acha likhne ke liye badhai mere bhai.

  4. Rahul sinha

    April 12, 2010 at 11:25 am

    Sri J.P. Mishra ji aapne jo likha hai. wah sahi hai, par aaj k patrakaron ko aapke wicharon se koi lena dena nahi hai. koylanchal ki patrakarita ke bare me aap sabhi baton ka jikrar nahi kar paye hai. aap dil me hath rakh kar soche kya aapne sabhi batain sahi hi likhi hai.

  5. Rupesh kumar tiwari

    April 12, 2010 at 1:30 pm

    in bato ki gahrai tak janay &hamlogo tak pahuchany kalea thanks.lakin aaj v jis trah ka karaptio dase mai hi uasy patrkar hi thik kar payngy. lakin patrkaro ko v
    is may imandari dekhani ho ge.

  6. umesh mishra

    April 12, 2010 at 2:17 pm

    aap ki baato se dil bhar aayaa hai. vidhyaanivaas mishr ke patr ko dekhkar mera man bhi is patrkarita ko chodne ka hua tha lekin samaj ki kuch buraaiyo ko dikhane ke liye aaj bhi patrkarita kar raha hoon.
    mishra ji agar ese patrkar in nami girami sansthaao mai kaam kar rahe hai to ye un sanstaano ko jaroor dekhna chahiye

  7. puransingh jodhpur

    April 12, 2010 at 2:22 pm

    ye aek tarah se patrkarita yug ki samsya ban gyi hai iske samadhan ke liye sabhi ko dhyan dena hoga.nhi to aane vali dino mai patrkaro ke nam par aek kalank ban jayega

  8. neeraj narwar

    April 12, 2010 at 2:22 pm

    dekhiye mishr ji aap ka kahna bilkul sahi hai lekin koyle ki khan dhanbaad jis tarah se noshikhiye patrkaro ke jaal mai ulajh chuki theek usi tarah dasyu ke liye badnaam dholpur zila bhi maatr 2-3 patrkaaro ki vajah se badnam ho raha hai yahan to nami girami sansthano ne aapradhik pravarti ke logo ko hi panah de rakhi hai kuch ke khilaf to adalat ne saza ke fesle bhi diye hai baabjood iske naami girami chenal unhe apni sharan diye hue hai kuch ne to bade bade postar news chenlo ke naam ke chapvaa kar apne kiraye par chalne valee gadiyo par laga rakhe hai badi sharm hoti hai patrkar kahlane par
    bhavnaao ke saath
    neeraj narwar
    dholpur rajasthan

  9. sarvesh upadhyay

    April 12, 2010 at 3:22 pm

    अच्छा लगा किसी सीनियर पत्रकार के मुंह से अपने जूनियरों के प्रति ऐसे शब्द सुनकर। दरअसल जेपी जी यह आप की ही समस्या नहीं है बल्कि पूरे भारत के हर उस सीनियर पत्रकार की है जिसे युवा पत्रकार का जोश आंखों में किरकिरी की तरह लगने लगता है । रही बात कॉकश की तो यह शब्द आपके समय का बहुत ही प्रचलित शब्द रहा है नए पत्रकार तो अभी इसकी ए,बी,सी,ड़ी भी समझ नहीं सकते। और हां बिजनेस माइंड की बात कर रहे हैं तो उन युवा पत्रकारों को कोसने की बजाय यदि उन प्रिंट मीडया संस्थानों को कोसेंगे तो अच्छा होगा जहां इंटरव्यू के वक्त संपादक के बगल में कंपनी का मार्केटिंग हेड भी बैठा होता है। और ब्यूरो चीफ तो पूरा का पूरा मार्केटिंग हेड की ही तरह होता है। माफी चाहूंगा लेकिन सिस्टम बड़ा खराब है …..

  10. Jay Shankar

    April 12, 2010 at 4:05 pm

    aadarniy Mishra jee,main aapse kabhi nahi mila ,lekin aapki lekhani se lagta hai ki ye shabd mere hain ,aise maine likhe ho,mere dil mein bhi ye sawal kai baar kaundhe hain ,lekin waqt ki kami aur nuks nahi nikalne ki aadat ke kaaran maine apne vichar sarwajnik nahi kiye ,lekin koi baat nahi aag yahan se na sahi ,wahin se sahi aag jalni chahiye,main aapke vichar se sau fisdi sahmat hun,aise nakkare patrakaron ki koi kami nahi jo camera lekar khud ko samaj ka bhagya-vidhata samajhte hain. ,jee, main baat kar raha hun electronic media ke patrakaron ki ,darasal inme na to saamne wale se baat karne ki tameej hoti hai,aur na hi sawal puchhane ki tahjeeb,inhe ye pata nahi hota hai ki falan masle par news kya banta hai,yani news sense to ma-sa-allah,halanki main bhi aaj ke daur ka hi patrakar hun ,lekin sach maaniye aapki lekani ke character jaisa nahi ,aur mujhe is baat par garv hai,lekin ye bhi sach hai ki aaj ke daur mein imandaar patrakaron ko murkh samjha jata hai ,lekin un patrakaron ko shayad ye maalum nahi ki zameer bechana sab ke bas ki baat nahi hai,khair main shayad personal hota ja raha hun ,lekin ek baat aur jarur kahunga ki agar mujhe zara bhi ilm hota ki patrakarita dalali ka bhi roop kabhi le sakta hai to main is peshe mein kabhi nahi aata ,kyonki kabhi-kabhi maine mahsus kiya hai ki aap galat hain ya nahi lekin saamne wala aapko shaq ki nazar se dekhata hai ,shayad ye sochkar ki aap bhi usi zamat se aate hain jis zamat ke log khuleaam dalali kar rahe hain .bas ant mein yahi kahunga ki baat print ke patrakaron ki ya electronic ke patrakaron ki nahi hai ,baat hai wajud ki jise ham apne hi logon ke aaacharan ke kaaran kho rahe hain ,ise bachane ki jarurat hai ,Mishra jee ko mera Koti-Koti sadhuwad
    jayshankar

  11. rakesh pathak

    April 12, 2010 at 7:30 pm

    sabas, jaiprakash bhai
    apse ayasi he lekene ke ummed thi. apne koylanchal ki ptarkarrita ka sahi mulayakan kye hai

  12. harendra nath thakur

    April 12, 2010 at 8:51 pm

    mishra ji kya khubshurat baaten likhi hai aapne. mai bhi dhanbad se hi hu. aaj kal indore me etv me hu. apna contact no dijie, jara aapse kuchh puchhna hai. mera no hai- 09893498550

  13. sapan yagyawalkya

    April 13, 2010 at 4:35 am

    yah sthiti kamovesh sabhi jagah ban gai hai.patrakarita ke nam par setingbaz log giroh banakar chhaye huye hain. adhikariyon aur netaon ke ye isliye priy hain,kyonki chaplusi aur dalali hi inka kam hai. Sapan Yagyawalkya.Bareli.(MP)

  14. dharmind

    April 13, 2010 at 4:51 pm

    जयप्रकाशजी आपकी परेशानी क्‍या है कि नए लोग आपको जी सर जी सर नहीं करते। क्‍यों करेंगे क्‍या आप वो दोहराना चाहते हैं जो आपके साथ हुआ। रही बात हिंदी या हिंग्लिश की तो वो पूरे भारत की ऐसी है। अगर आपके घर में कोई लड़का या लड़की तो उससे कोई हिंदी में लेख लिखने को कहिएगा नहीं लिख पाएगा। आप समय के साथ क्‍यों नहीं चलना चाहते। लटके झटके से मतलब आपका ये कि वो खादी और झोला लटाकर आपके पीछे पीछे चले और सीएम से सवाल करें।
    रही बात गणेश शंकर विद्यार्थी और प्रेमचंद की तो आपको बता दूं उस समय विचारों को व्‍यक्‍त करना ही पत्रकारिता थी। ख़बर बहुत ही कम ध्‍यान दिया जाता था।
    असल पत्रकारिता आज होती है। जैसा आपने लिखा प्रभाकरण वाली ख़बर के बारे में ये विचार नहीं पत्रकारिता है। गणेशंकर और प्रेमचंद के जमाने अवाम को जगाने के लिए वैचारिक क्रांति की जरूरत थी। अब उतनी नहीं है कि क्‍योंकि एक गरीब किसान भी चाहता है कि उसका बेटा शहर के बड़े स्‍कूल में अंगरेजी की तालिम ले। क्‍यों इतना परेशान है लटके झटके तो रहेंगे। ये लटके झटके वाले लड़के लड़कियां ही हैं जो बिना थके समोसा खाकर भी ख़बर लाते हैं। इन्‍हें अन्‍यथा न लें, जमाना बदल रहा है आप भी बदलो अंगरेजी पत्रकारों की तरह।

  15. Abaj khan patna

    April 15, 2010 at 9:11 am

    Misra ji
    aapne koyelanchal ki nahi pure mufasil ki esathi ko likh diya bihar ka sabhi
    kasbai ilake me hai aache & imandar reporter in logo ke vajah se aapna aap ke kinare kar liya hai media house me baithe log aise logo ko tarji de rahe hai
    patna ke aaspas ilako me bhi aisa dekha ja raha hai

  16. Abaj khan patna

    April 15, 2010 at 2:16 pm

    Misra ji
    aapne koyelanchal ki nahi pure mufasil ki esathi ko likh diya bihar ka sabhi
    kasbai ilake me hai aache & imandar reporter in logo ke vajah se aapna aap ke kinare kar liya hai media house me baithe log aise logo ko tarji de rahe hai
    patna ke aaspas ilako me bhi aisa dekha ja raha hai

    [email protected]
    Abaj khan patna

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