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ये सारे अखबार वाले बगुला भगत हैं

दैनिक भास्कर के झारखंड आने की खबर के बाद झारखंड से निकल रहे अखबारों में हलचल मच गयी है. विशेष कर वे अखबार ज्यादा परेशान हैं जो हर बार न्यूज प्रिंट की कमतों में बढ़ोतरी का बहाना बना कर अखबार की कीमतें बढ़ाते रहे हैं. कुछ दिन पहले की ही बात है. यहां अखबार साढ़े तीन रुपये में बिका करते थे. लेकिन अखबारों ने पचास पैसे बढ़ा दिए.

<p style="text-align: justify;">दैनिक भास्कर के झारखंड आने की खबर के बाद झारखंड से निकल रहे अखबारों में हलचल मच गयी है. विशेष कर वे अखबार ज्यादा परेशान हैं जो हर बार न्यूज प्रिंट की कमतों में बढ़ोतरी का बहाना बना कर अखबार की कीमतें बढ़ाते रहे हैं. कुछ दिन पहले की ही बात है. यहां अखबार साढ़े तीन रुपये में बिका करते थे. लेकिन अखबारों ने पचास पैसे बढ़ा दिए.</p> <p>

दैनिक भास्कर के झारखंड आने की खबर के बाद झारखंड से निकल रहे अखबारों में हलचल मच गयी है. विशेष कर वे अखबार ज्यादा परेशान हैं जो हर बार न्यूज प्रिंट की कमतों में बढ़ोतरी का बहाना बना कर अखबार की कीमतें बढ़ाते रहे हैं. कुछ दिन पहले की ही बात है. यहां अखबार साढ़े तीन रुपये में बिका करते थे. लेकिन अखबारों ने पचास पैसे बढ़ा दिए.

यह कहते हुए बढ़ा दिये कि न्यूज प्रिंट की कीमतें बढ़ गयी हैं. अखबार को बहुत समझौते करने पड़ रहे हैं. बढ़ी कीमतों का बोझ अखबार प्रबंधन नहीं उठा पा रहा है. जनता इसकी भरपाई करे. और, अठन्नी बढ़ा दिए गए. दाम हो गए चार रुपये. अब जब भास्कर आ रहा है तो इन अखबारों ने कीमतें आधी कर दीं. अब कैसे ये अखबार और उनके प्रबंधन इस घाटे की भरपाई कर पायेंगे? वह भी पचास पैसे नहीं, एक रुपये नही, बात दो रुपये की है. ऐसे में अखबारों पर तो दो गुना बोझ बढ़ गया है, अब कहां से पटेगा घाटा?

वास्तव में ये सारे अखबार वाले बगुला भगत हैं जो जनता के सामने ढोंग की चादर ओढ़ कर उसे बेवकूफ बनाते हैं. आश्चर्य तो यह है कि अपने को साम्यवादी कहने वाले अखबार ही इस पंक्ति में सबसे आगे हैं. झारखंड के अखबार दो रुपये में… दो रुपये में…. दो रुपये में…. कल तक चार रुपये में बिकने वाले अखबार अब दो रुपये में. और यह पहल है प्रभात खबर की. जिसका ध्येय वाक्य है- अखबार नहीं आंदोलन. प्रभात खबर की पहल पर लाजिमी था कि हिंदुस्तान और दैनिक जागरण भी रुख बदलते. हुआ भी वही. दोनों अखबार भी अब दो-दो रुपये में उपलब्ध हैं. नकली सामाजिक सरोकार के तहत. क्योंकि हमारी-आपकी सुबह तो अखबारों से ही होती है.

अखबार हमारी मानसिकता समझते हैं. और उसी का दोहन कर हमारी जेब पर हल्ला बोलते हैं. अभी-अभी देश आर्थिक मंदी से उबरा है. आर्थिक मंदी के दौरान अखबारी दुनिया में क्या-क्या हुआ, वह पर्दे के पीछे है. क्योंकि आम आदमी इससे कभी रू-ब-रू नहीं होता. इसका सच तो जानते हैं इसके भीतर बैठे लोग, जिनकी जुबान नौकरी जाने के डर से बंद होती है. पिछले वर्षों में कागज की कीमतें बढऩे, मुद्रण सामग्री की कीमत बढऩे और बढ़ते आर्थिक बोझ की वजह से झारखंड और बिहार के अखबारों ने समय-समय पर अपनी कीमतें बढ़ायी. यह समझने जानने की बात है कि बिहार-झारखंड में हिंदी अखबार देश के किसी भी प्रदेश से सबसे महंगे अखबार हैं. ध्यान रहे आर्थिक मंदी के दौरान अखबारी घरानों ने सरकार से बेलआउट पैकेज लिया था ताकि वे अपना अस्तित्व बचा सकें. झारखंड के तीनों बड़े अखबारों को भी उसका समान लाभ मिला था.

अखबार की कीमत बढ़ाने के साथ पाठकों से अपील करने वाले अखबार कि- आप अपना साथ बनाये रखें, आज अचानक चार रुपये से दो रुपये पर उतर आये हैं तो केवल और केवल अपना अस्तित्व बचाने के लिए. कहा जा सकता है कि अस्तित्व बचाये रखना किसी का पहला धर्म होता है और अखबार भी अपना धर्म निभा रहे हैं. वे धर्म निभायें लेकिन आम आदमी को फरेब न दें. आप कल भी कम कीमत पर अखबार बेच सकते थे लेकिन आपने ऐसा नहीं किया. आपने हमारी जेब पर हमले को अपना हित समझा. अब जब आपके सामने दैनिक भास्कर के नाम पर बड़ी चुनौती है, आप जनहित में अपना रंग बदल रहे हैं.

झारखंड के शहरों में गाडिय़ां दौड़ रहीं हैं- आपका अखबार, अपना अखबार, अब सिर्फ दो रुपये में. और यह पहल भी ‘अखबार नहीं, आंदोलन’ का दम भरने वाले प्रभात खबर की ओर से? लानत है ऐसी हिप्पोक्रेशी पर. जनता से फरेब अपने लाभ के लिए, क्यों? कहां है जनहित की बात, विज्ञापनों से मिलने वाली रकम पूरी नहीं पड़ती है इसलिए कवर प्राइस बढ़ाओ, पाई-पाई वसूलो और जरूरत पड़े तो जनहित की बात कह कर कीमत घटा लो.

तो जनाब जनहित नहीं सिर्फ अखबार हित कहें, क्योंकि आपके भी धंधे में जन कहीं नहीं है, सिर्फ आप ही हैं, आपका प्रबंधन ही है. झारखंड में लूट की कहानियां लिखने वालों, अपने गिरेबान में झांको और देखो इस लूट में आप किस पायदान पर हैं, क्योंकि नेताओं की तरह आपकी नजर भी हमारी जेब पर ही होती है. नेता हमारी भलाई के लिए हमें लूटते हैं और आप भी उसी राह पर हैं. हमारी अपील है कि आप चार रुपये में ही अपना अखबार बेचें, हम कल भी आपको खरीद रहे थे, हम आगे भी खरीदेंगे, हमारी मजबूरी को हमारा हित बताने का नाटक बंद हो, वर्ना आपको लोग बगुला भगत ही कहेंगे.

अर्चना प्रियदर्शी

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0 Comments

  1. Uttank

    June 22, 2010 at 9:11 am

    Archana ji aapne bilkul sahi kaha.

    Magar aap bhool rahi hain aajkal Patrakarita Mission nahi hai, balki Dhandha ban chuki hai. Aur waise bhi humare samaj mein dhandha jaise shabd ko abhi puri manyta nahi mili hai.
    Aaj sabhi media house Tu Daal Daal Main Paat Paat ki kahawat ko charitrath karte nazar aate hain. Shayad jyada education ka nakaratmak prabhaw yahi padta hai.

    Aaj sabhi Media house aur unke rahnuma aam janta se khud ko jyada bhudhimaan samjhate hain. Sabhi Bandar baantt mein lag hain aur wo sochate hain ki puri duniya hi andhi hai. Magar ……………….

    Waise aapko bata dun ki Dainik Jagran ne phir se 50 paise badha diye hain. yani 2.50 rs ka newspaper ho gaya hai.

    Uttank

  2. samer anand

    June 22, 2010 at 9:11 am

    sahi lekha hai apne archana ge. dohara mandanda nahi hona chahiya. demag me kuch, juban par kuch.

  3. कमल शर्मा

    June 22, 2010 at 9:13 am

    जनहित नहीं सिर्फ अखबार हित कहें, क्योंकि आपके भी धंधे में जन कहीं नहीं है, सिर्फ आप ही हैं, आपका प्रबंधन ही है. झारखंड में लूट की कहानियां लिखने वालों, अपने गिरेबान में झांको और देखो इस लूट में आप किस पायदान पर हैं…..बहुत खूब लिखा।

  4. Haresh Kumar

    June 22, 2010 at 9:41 am

    समय और जरूरत के हिसाब से सारे लोग अपनी प्राथमिकता तय करते हैं। आज जबकि, दैनिक भास्कर रांची में आने वाला है, तो अपना घर सबसे पहले बचाने की जुगत में प्रभात खबर ने दाम कर दिया और तुर्रा उस पर ये कि अखबार को घर-घर पहुचाना है। अधिक-से अधिक पाठकों तक अखबार पहुंचे इसके लिए हम ऐसा कर रहे हैं। तो क्या पहले जो दाम बढ़ाये थे आपने वो लोगों से पूछकर बढ़ाया था कि अखबारी कागजों के दाम भड़ गए हैं। सर्कुलेशन का खर्चा बढ़ गया है और भी। मतलब जब जी चाहा मनमाना किया। नक्सलियों के खिलाफ कार्यवायी पर आप सरकार की आलोचना करते हैं। सरकार ने विकास नहीं किया जिसकी वजह से यह सब हो रहा है। लेकिन आम आदमियों को मार कर नक्सली क्या हासिल कर लेंगे। अगर मारना ही है तो जिन लोगों ने व्यवस्था को लूटा और जो इसके लिए जिम्मेदार हैं। उन्हें मारो बाकी छोटे-मोटे चोर तो यूं ही सुधर जायेंगे।
    किसी भी अखबार को आम आदमी की चिंता नहीं है। सब अपने व्यवसाय के हितों को ध्यान में रखकर निर्णय लेते हैं। आज जब लोगों की क्रय शक्ति में इजाफा हो रहा है, तो लोग शिक्षा की ओर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। समाचारपत्र इसमें महती भूमिका निभा सकते हैं। लोगों के बीच जागरूकता फैलाकर। अंधविश्वास के खिलाफ आवाज उठाकर। लेकिन इनकी चिंता अपने व्यवसाय को लेकर ज्यादा होती है। आम आदमी के हितों को लेकर कम। जो बिकता है, वही चलता है के तर्ज पर ये सब काम करते हैं। इन्हें आम आदमी की परेशानियों से क्या।

  5. Shekhar

    June 22, 2010 at 10:50 am

    yeh aapka bada aashcharya janak view hai. Arrey bhai, jab sab maante hain ki yeh business hai, to kya koi apni business strategy nahin badlega competition aaney par? Ya aap sab ko shant rakhney ke liye baith kar intezar karengi ki Bhaskar kya karta hai? Seedhi si baat hai. Jahan Bhaskar aaya, pathak jama karne ke liye woh kam daam par bechte hain. Is bar kam se kam koi nmaya hathkanda to dekhney ko milega. Prabhat khabar ne daam gira kar Bhaskar ka ek mota weapon to neutralise kar liya.

  6. Kaki

    June 23, 2010 at 8:42 am

    Archna Ji,
    what do u think newspapers should be distributed for free. After all its a business and business needs profit. After this, when baskar is launching there competition will get tougher and tougher….. and what about ur salaries… it comes from the company… right and if the company will go in loss then??? so every thing is fair in love war and its war time……

  7. daulat

    June 24, 2010 at 1:30 pm

    एक,डेढ़ और दो रुपए के अखबार दरअसल ऐसा धीमा जहर है जिसका खामियाजा समाज और पाठक को ही भुगतना होगा। क्योंकि गांठ से पैसा लगा कर कोई अखबार निकालने वाला नहीं है। सस्ता बेचने वाले अपनी कलम बेचेंगे, जनता के हित में लिखने की बजाय उन ताकतों के हित साधेंगे जो उन्हें सीधे या विज्ञापन के रूप में पैसा देंगे। पैसा देने वाले जो लिखवाएंगे वे लिखेंगे, इससे पढ़ने वाले का नुकसान हो तो वह भुगते क्योंकि उसे तो सच्चा नहीं सस्ता अखबार चाहिए। कहावत भी है कि महंगा रोये एक बार, सस्ता रोये बार-बार।

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