कश्मीर में एक तरफ पथराव करते नवयुवक और सुरक्षा बल आमने-सामने हैं तो दूसरी तरफ सरकार और स्थानीय मीडिया में भी ठन गई है। मीडिया पथराव नहीं करता, लेकिन उसके शब्द किसी पत्थर से कम चोट भी नहीं करते। इसीलिए अकबर इलाहाबादी ने कहा भी है कि गर तोप हो मुकाबिल तो अखबार निकालो। स्थानीय मीडिया की शिकायत है कि तोप तो मुकाबिल है लेकिन अखबार नहीं निकालने दिया जा रहा है।
कश्मीर घाटी में पिछले दो दिनों से कोई अखबार नहीं निकला है। ऐसा सन् 2008 में तब हुआ था जब अमरनाथ यात्रा के मुद्दे पर जबरदस्त आंदोलन छिड़ा था और पांच दिनों तक घाटी में कोई अखबार नहीं निकला था। बताते हैं कि अगर पिछले 20 साल के कश्मीर विवाद के दौरान पहली बार श्रीनगर में सेना ने फ्लैग मार्च किया है तो कश्मीर के इतिहास में दूसरी बार अखबारों का प्रकाशन मुअत्तल हुआ है।
सचमुच यह अभिव्यक्ति की आजादी के इतिहास की चिंताजनक घटना है और ऐसा नहीं होना चाहिए। ऐसा हुआ क्यों? क्या सरकार ने अखबारों के दफ्तरों पर ताले जड़ दिए या मीडिया के दमन का कोई चक्र चलाया जा रहा है? कश्मीर के पत्रकारों की शिकायत है कि जबसे श्रीनगर में सेना को बुलाने का फैसला किया गया है तब से स्थानीय पत्रकारों को कर्फ्यू पास नहीं दिए जा रहे हैं।
कर्फ्यू पास दिल्ली के पत्रकारों को दिए जा रहे हैं और उनके साथ विशेष मेहमान जैसा व्यवहार किया जा रहा है। उनका आरोप है कि उन्हें सरकार या उसकी एजेंसियां सूचनाएं देने से मना कर रही हैं जबकि दिल्ली से आए पत्रकारों को विस्तार से ब्रीफ किया जाता है। अगर सरकार ने कश्मीर के कुछ पत्रकारों को कर्फ्यू पास जारी भी किए तो वे लोग संपादक स्तर के हैं। अब अखबार संपादक थोड़े ही निकालता है।
इस बीच रियाज मसरूर नाम के एक स्थानीय पत्रकार की सुरक्षा बलों ने कसकर पिटाई भी कर दी है। इसी सबसे नाराज होकर पत्रकार संगठनों ने अखबारों का प्रकाशन मुअत्तल कर रखा है। पत्रकार अहमद अली फैयाज का कहना है कि सरकार ने कश्मीर में पहली बार मीडिया इमरजेंसी लगाई है। हालांकि इस मामले पर एडिटर्स गिल्ड के हस्तक्षेप के बाद सरकार अपना रुख ढीला करती और स्थानीय पत्रकारों को पास देती नजर आ रही है। हो सकता है अगले हफ्ते से अखबारों का प्रकाशन भी शुरू हो जाए।
लेकिन क्या अखबारों पर बंदिश लगाने या पत्रकारों पर कड़ाई करने से जनता के असंतोष पर काबू करने में सुविधा होती है? क्या मीडिया समस्या का समाधान करने में मदद करता है या वह अपने आप में समस्या है? क्या कश्मीर का मीडिया राष्ट्रीय मीडिया के मुकाबले ज्यादा स्वतंत्र और सरकार विरोधी है? क्या स्थानीय मीडिया को घटनाओं से दूर रखकर और स्थानीयता को न समझने वाले राष्ट्रीय मीडिया से सही खबरें पाई जा सकती हैं?
दरअसल स्थानीय मीडिया की उपेक्षा करना वैसे ही है जैसे स्थानीय पुलिस की उपेक्षा कर सेना तैनात करना। उससे चीजें दब जरूर जाती हैं, पर किसी समस्या का जो स्वाभाविक समाधान होता है वह नहीं निकल पाता। बल्कि बदनामी दुनिया भर में होती है। स्थानीय मीडिया जनता के उसी तरह करीब होता है जैसे पुलिस।
जनता की भाषा समझने और उनसे संवाद करने में वे ज्यादा कारगर साबित होते हैं। कई बार राजनीतिक प्रक्रिया न चल पाने के कारण स्थानीय मीडिया राजनीतिक भूमिका भी अदा करता है। कश्मीर में राजनीतिक दलों के खामोश बैठने, आंदोलन उकसाने और संवाद व बैठकों का बायकाट करने के कारण जो शून्य पैदा होता है, उसे मीडिया भरता रहा है।
इसके अलावा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया की बड़ी खबरें पहले स्थानीय स्तर पर ही उठती हैं इससे कौन इनकार कर सकता है। लेकिन उससे भी बड़ी बात यह है कि मोबाइल और इंटरनेट के इस युग में क्या आज किसी खबर को पूरी तरह दबाया जा सकता है? नेट पर तो अखबारों से ज्यादा भड़काऊ दृश्य उपस्थित हैं। दो दिन अखबार नहीं निकले तो अफवाहें ज्यादा जोर से पकड़ती हैं।
कश्मीर के जो लोग स्थानीय अखबारों पर यकीन करते थे वे अचानक दिल्ली के अखबारों पर यकीन नहीं करेंगे बल्कि अफवाहों और पाकिस्तानी मीडिया की तरफ रुख करेंगे। वैसे दिल्ली का मीडिया भी खबरों को संतुलित ढंग से पेश ही करता हो ऐसा नहीं है। ‘जन्नत में इंतिफादा’ जैसे शीर्षक दिल्ली का मीडिया भी लगा रहा है। मौजूदा टकराव में सीआरपीएफ के कितने जवान घायल हुए इसका जिक्र ही नहीं है। इसलिए स्थानीय मीडिया को पथराव करने वाले युवकों से अलग रखना चाहिए भले उनकी खबरों में फूल से ज्यादा कांटें हों। (‘हिंदुस्तान’ से साभार)