मंगलवार, 22 दिसंबर की बात है। यानि अशोक जी के निधन के करीब 48 घंटे पहले। रात के सवा 12 बजे के आस-पास अशोक जी दफ्तर आए। मैं काफी तनाव में था, एक-दो लोगों पर चिल्ला चुका था। अपना काम समेट ही रहा था कि वो मेरे केबिन में आकर बोले… गुड ईवनिंग अतुल जी। उनका ये अंदाज़ इतना सहज, इतना स्वाभाविक था कि मुझे अपना तनाव कमतर सा महसूस होने लगा। उन्होने मुझसे कहा कि क्या हुआ सर? मैने कहा कुछ नहीं अशोक जी, जैसा काम चाहता हूं, वैसा हो ही नहीं पा रहा है, वगैरह-वगैरह। वो सारी बातें बड़े मन से सुनते रहे और बोले, “अतुल जी, हम लोग गलत जगह फंस गए हैं। हमने लाइन ही गलत चुन ली है। हम यहां के लिए मिसफिट हैं। लालाओं की घुसपैठ से टीवी पत्रकारिता की दुनिया गंधा गई है। विडंबना देखिए, जिनके साथ काम कर रहे हैं उन्ही पर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं। न वो हम पर भरोसा करते हैं और न हम उन पर, फिर भी साथ-साथ चले जा रहे हैं।”
मुझे झटका सा लगा। अशोक जी कभी ऐसी नकारात्मक बातें करते नहीं थे। वो जब भी मिलते थे, पूरे आत्मविश्वास और उत्साह के साथ। जो भी कहते थे उसमें भविष्य की आशांए झांकती सी प्रतीत होती थीं। लेकिन उस दिन अशोक जी वो वाले अशोक जी नहीं थे जिन्हे मैं जानता था। निराशा उनके चेहरे पर साफ झलक रही थी। मैंने पूछा कि क्या हुआ सर, नींद नहीं पूरी हुई क्या? तो बोले कि “नहीं अतुल जी, अब मन उकता गया है। काम करने का मन नहीं होता। सच कहूं तो लगता है कि ईटीवी हैदराबाद छोड़ कर दिल्ली आने का फैसला सही नहीं था। पत्नी ने बहुत मना किया था लेकिन माना नहीं। आगे बढ़ने का सपना संजोए दिल्ली तो आ गया लेकिन यहां आकर इतना पीछे चला गया जितनी उम्मीद भी नहीं थी। ना पैसा कमा पाया, ना नाम।” मैनें बात को घुमाते हुए कहा कि अच्छा अशोक जी, आप एक काम कीजिए… कल से नाइट शिफ्ट छोड़ कर सुबह की शिफ्ट में आ जाइए। तो फौरन बोले, “ना-ना, ऐसा मत कीजिएगा अतुल जी। नाइट में अच्छा है। शांति से काम तो कर पाता हूं वरना सुबह तो वो भी नहीं कर सकूंगा। आपको तो पता ही है कि मुझे चीखना-चिल्लाना आता नहीं है। इसीलिए आराम से रात में पड़े रहने दीजिए मुझे। वैसे मैं चाहता भी हूं कि कुछ पढ़ा-लिखा जाए तो उसके लिए रात का वक्त ही मुफीद है मेरे लिए।”
बात आई-गई हो गई। बातों ही बातों में वो काम में लग गए और मैं अपना सामान उठा कर दफ्तर के बाहर आ गया। कार में बैठा और घर की तरफ चल पड़ा। अशोक जी की बातें याद आ रही थीं कि क्या वाकई हम टीवी मीडिया के लिए मिसफिट हैं? क्या वाकई चिल्ला-चोट मचाने भर से ही काम होता है? लोग नाइट शिफ्ट करने से बचने के बहाने खोजते हैं और एक बंदा ऐसा भी है जो नाइट शिफ्ट पर ही रहना चाहता है। वगैरह-वगैरह.
घर पहुंचा, अशोक जी की बातें दिमाग में कौतूहल मचाए हुए थीं। अपनी पत्नी चित्रा से सारी बातें बताईं। वो मुस्करा दीं। बोलीं “अशोक जी ऐसे ही हैं। जब हम ईटीवी में थे तो वहां पर भी उन्हे सभी लोग पसंद करते थे। उनकी सादगी और साफगोई का हर कोई कायल था। वो चीखते-चिल्लाते बिलकुल भी नहीं थे लेकिन उनका काम शानदार होता था। एंकरिंग से लेकर कॉपी, पैकेजिंग, वॉयसओवर सब कुछ।” इसके तुरंत बाद मेरी बीवी ने मुझे ज्ञान भी दे डाला, “अशोक जी से कुछ सीखिए। शांति से रहा कीजिए आप भी। चीखना-चिल्लाना बंद कर दीजिए। बंद न कर सकें तो कम ही कर दीजिए।” एक भारतीय पुरुष भला ये कैसे बर्दाश्त कर सकता है कि उसकी बीवी उसके सामने ज्ञान बघारे। ये फंडा मुझ पर भी लागू हुआ। तुंरत मैंने बात टाली और बात आई-गई हो गई।
अगले दिन यानि 23 दिसंबर की सुबह झारखण्ड विधानसभा के लिए मतगणना होनी थी। अशोक जी ने तड़के मुझे फोन लगाया। बोले “अरे अतुल जी, सुबह 8 बजे से काउंटिंग होनी है। मैनें टैली, ग्राफिक्स प्लेट्स, मोन्टाज वगैरह सब कुछ लोड करा दिया है। विज़ुअल्स भी कटवा लिए हैं। आप अगर सुबह से एंकरिंग करें तो मज़ा आ जाए। कल रात, बातों ही बातों में काम की बात तो हो ही नहीं सकी।” मैंने उन्हे कुछ चीज़ें और बताईं और बोला कि ठीक है अशोक जी, मैं सुबह 7 बजे तक दफ्तर पहुंच जाऊंगा। सुबह साढ़े 7 बजे मैं ऑफिस पहुंचा। सीधे अशोक जी से मिला। दूसरे प्रोड्यूसरों से एकदम उलट, काम का कोई तनाव उनके चेहरे पर नहीं था। हमेशा की तरह से ही ‘आदतन’ मुस्करा रहे थे वो। इसी बीच कल्याण कुमार भी आ गए। कल्याण जी ने काम संभाला और हमने (अशोक जी और मैनें) साथ में चाय पी, उसके बाद मैं स्टूडियो / पीसीआर में चला गया और वो घर।
एंकरिंग करते वक्त भी मैं सोचता ही रहा कि किस मिट्टी का बना है ये इंसान। जब देखो तब मुस्कराता ही रहता है। ना कुछ होने का गुरूर और ना कुछ ना होने की टीस। हमेशा एक जैसा ही रहता है अशोक उपाध्याय। किसी के ऊपर कभी खुद को थोपता नहीं था अशोक उपाध्याय। दूसरों को कभी परेशान नहीं करता था अशोक उपाध्याय। कल रात भी यही हुआ। तबीयत खराब थी लेकिन अति-संकोची स्वभाव के चलते, दूसरों को परेशान ना करते हुए अकेले ही कार में जा बैठा और हमें छोड़ कर चला गया अशोक उपाध्याय। आखिरी सांस लेने के बाद भी आंखें खुली थीं उनकी… जैसे कह रही हों, “अब मैनें सही लाइन चुन ली है, कम से कम इस लाइन पर तो मुझे आगे बढ़ जाने दो मेरे दोस्त… मैं जा रहा हूं…”
लेकिन अशोक गुरू, ये आपने अच्छा नहीं किया। आप बिन बताए चले तो गए लेकिन मैं आपसे बहुत नाराज़… बहुत नाराज़। अरे, आपने तो हमें ‘हैंडओवर’ ही नहीं दिया सर…
लेखक अतुल अग्रवाल ‘वॉयस ऑफ इंडिया’ के आउटपुट हेड हैं.
pragya
January 18, 2010 at 1:08 pm
REALY ITS TRUE………..
pragya
January 18, 2010 at 1:13 pm
JANA OR AANA JINDGI KA SACH HAI PER KUCH LOG BAHOT APNE NA HOKER BHI ..ANGINAT YAADON KO DE JATE HAI…….JO HUMARE VICHARON KA ANOKHA MANTHAN BAN JAHEN ME GHUM KAI PRASHNO KE UTTAR TALASH KARTI HAI……KYA KYON OR KAISE….THX..