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और वे सपने सजाकर सो गए…

[caption id="attachment_16596" align="alignleft"]अशोक मिश्राअशोक मिश्रा[/caption]हैदराबाद, डेली मिलाप और अशोक उपाध्याय : जिंदगी में ऐसा दिन आएगा बिल्कुल सोचा न था। एक दोस्त को दूसरे दोस्त पर संस्मरण लिखना पड़ेगा। भड़ास4मीडिया के जरिए वीओआई आफिस में अशोक उपाध्याय की मौत की दुखद खबर की सूचना मिली। पढकर यकबकएक ऐसा झटका लगा कि मानों सांस ही रुक गई हो। सोचने लगा कि अचानक यह क्या हो गया? खबर पढ़ी तो पता चला कि दफ्तर में काम करते-करते ही उन्होंने अंतिम सांस ली। इससे पहले यहां यह बता देना जरूरी है कि अशोक उपाध्याय टीवी पत्रकारिता में पिछले एक दशक के दौरान ही आए थे। इससे पहले वे हैदराबाद से प्रकाशित अग्रणी हिंदी अखबार डेली हिंदी मिलाप में सीनियर सब एडिटर पोस्ट पर कार्य कर रहे थे। फरवरी 1998 में दिल्ली से प्रकाशित जेवीजी टाइम्स के बंद हो जाने के बाद एकाएक मुझे वरिष्ठ पत्रकार रंजना कक्कड़ के सौजन्य से  (जो अब इस दुनिया में नहीं हैं) डेली हिंदी मिलाप में वरिष्ठ उप संपादक पद पर काम करने का ऑफर मिला।

अशोक मिश्रा

अशोक मिश्राहैदराबाद, डेली मिलाप और अशोक उपाध्याय : जिंदगी में ऐसा दिन आएगा बिल्कुल सोचा न था। एक दोस्त को दूसरे दोस्त पर संस्मरण लिखना पड़ेगा। भड़ास4मीडिया के जरिए वीओआई आफिस में अशोक उपाध्याय की मौत की दुखद खबर की सूचना मिली। पढकर यकबकएक ऐसा झटका लगा कि मानों सांस ही रुक गई हो। सोचने लगा कि अचानक यह क्या हो गया? खबर पढ़ी तो पता चला कि दफ्तर में काम करते-करते ही उन्होंने अंतिम सांस ली। इससे पहले यहां यह बता देना जरूरी है कि अशोक उपाध्याय टीवी पत्रकारिता में पिछले एक दशक के दौरान ही आए थे। इससे पहले वे हैदराबाद से प्रकाशित अग्रणी हिंदी अखबार डेली हिंदी मिलाप में सीनियर सब एडिटर पोस्ट पर कार्य कर रहे थे। फरवरी 1998 में दिल्ली से प्रकाशित जेवीजी टाइम्स के बंद हो जाने के बाद एकाएक मुझे वरिष्ठ पत्रकार रंजना कक्कड़ के सौजन्य से  (जो अब इस दुनिया में नहीं हैं) डेली हिंदी मिलाप में वरिष्ठ उप संपादक पद पर काम करने का ऑफर मिला।

इस ऑफर को मैंने दो से तीन माह तक टाला। जब जेवीजी टाइम्स अखबार बिल्कुल बंद होने के कगार पर पहुंच गया तो मुझे अपने अस्तित्व को बचाने के लिए हैदराबाद जाने का अप्रिय फैसला करना पड़ा। उन दिनों मेरा परिवार सिर्फ पत्नी पुष्पा तक ही सीमित था। उन्होंने कहा कि हर फैसले में मैं आपके साथ हूं। इस तरह मैं हैदराबाद पहुंच गया। पहले ही दिन डेली मिलाप में जिन सहकर्मियों से मुलाकात हुई उनमें अशोक उपाध्याय, जफर अहमद आजमी, एसोसिएट एडीटर रवि श्रीवास्तव, विवेक सिन्हा, न्यूज एडीटर सदाशिव शर्मा प्रमुख थे। पहले ही दिन अखबार के संपादक और स्वामी विनय वीर जी ने मेरा परिचय डेस्क पर जिस साथी से कराया वो अशोक उपाध्याय ही थे। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद अशोक जी बोले- मिश्रा जी चलिए, पहले एक-एक कप चाय पीते हैं और एक दूसरे से परिचित भी हो लेते हैं। चाय के दौरान ही घर परिवार संबंधी कुछ औपचारिक बातें हुईं। अशोक उपाध्याय उस्मानिया विश्वविद्यालय हैदराबाद से हिंदी से एमए करने के बाद नौकरी की तलाश में डेली हिंदी मिलाप में आ गए थे। मिलाप में उन्हें तुरंत स्थान मिल गया था।

मिलाप में सिर्फ एजेंसी की खबरें हिंदी में आया करती थी। बाकी सारा काम अंग्रेजी में आने वाली प्रेस विज्ञाप्तियों और दूसरे अखबारों में अंग्रेजी में प्रकाशित खबरों का अनुवाद करके होता था। हैदराबाद से प्रकाशित कई अखबारों से उर्दू, अंग्रेजी और तेलुगू की खबरों की आपस में अदला-बदली की जाती थी। अशोक उपाध्याय बहुत कम बोलते थे और ज्यादातर अपने काम से ताल्लुक रखते थे। अखबार के डाक संस्करण का काम दो बजे दिन में शुरू हो जाता था और रात्रि को नौ बजे संस्करण छोड़ना होता था। डाक संस्करण के लिए अंग्रेजी की खबरों का अनुवाद करने में काफी मशक्कत करनी पड़ती थी। उसकी वजह थी कि अखबार का ब्यूरो शाम को सात बजे के बाद ही अपना काम शुरू करता था। अशोक उपाध्याय दिन की शिफ्ट में जैसे ही आते, तुरंत अंग्रेजी खबरों को लेकर संजीदगी से अनुवाद करने में जुट जाते थे। बीच-बीच में वे डीटीपी ऑपरेटर से पूछते रहते थे कि कितने कॉलम खबरें हो चुकी है। अशोक उपाध्याय का अनुवाद बहुत अच्छा था। वे खबरों का अनुवाद बड़ी तेजी से करते थे। हिंदी भाषा और न्यूजसेंस के प्रति वे बहुत सतर्क रहते थे। कई बार वे कहते- मिश्रा जी आपके आने से मेरा ज्ञान काफी बढ़ गया है।

दक्षिण भारत की राजनीति की भी अच्छी जानकारी थी। मेरी साहित्यिक अभिरुचि का भी वे सम्मान करते थे। मेरी और उनकी उम्र में पांच साल का फासला था। साढे़ तीन साल के पूरे कार्यकाल के दौरान वे मुझे बड़ा भाई ही मानते रहे। चाय या समोसे का पैसा देते समय वे जिद कर अड़ जाते थे, मैं ही दूंगा। जिस दिन पैसे न होते तो बोलते- मिश्रा जी, चाय तो पिला दो। और फिर हम बाहर जाकर चाय पीकर आते थे। काम के बीच वे उठकर संपादकीय कक्ष के बाहर चले जाते और वहां सिगरेट पीकर चले आते। सहकर्मियों की चुगली या बुराई कभी नहीं करते थे। जब मेरी मुलाकात हुई, उस समय तक अशोक उपाध्याय अपने ही साथ पढ़ने वाली गैर-ब्राह्मण लड़की सीमा से शादी भी कर चुके थे। इस दौरान हम लोग कई बार एक साथ एक ही शिफ्ट में होते और कई बार अलग-अलग शिफ्ट में होते।

उनकी पत्नी सीमा उपाध्याय एक लूना मोपेड के शोरूम में प्रबंधक के रूप में काम करती थीं। मुझे दफ्तर आने-जाने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था। उसकी वजह थी कि मुझे प्रबंधन ने जो आवास रहने के लिए दिलावाया था, वह दफ्तर से करीब पांच किलोमीटर पर था। यह दिक्कत विशेषकर नाइट शिफ्ट में अधिक होती थी। अचानक एक दिन उन्होंने कहा कि आप एक मोपेड क्यों नहीं खरीद लेते? मेरा विचार अचानक बन गया। तब उन्होंने अपनी पत्नी से बात कर एक तीन माह पुरानी बिल्कुल नई कंडीशन वाली मोपेड लगभग आधे दाम पर मुझे दिलवा दी। मुझे इस बात की हैरानी थी कि ऐसा कैसे हुआ? मगर उन्होंने कहा कि तुम्हें इस बात से क्या मतलब, तुम्हारा काम हो गया बस! ज्यादा सिर खपाने की जरूरत नहीं। वे सिकंदराबाद में किराए पर रहते थे। दफ्तर आने जाने के लिए उन्होंने कायनेटिक स्कूटर खरीद रखा था। उन दिनों उनकी मां भी जीवित थीं जो अपने बडे़ बेटे के साथ हैदराबाद में ही अलग रहती थीं। शायद परिवार वाले गैर-ब्राह्मण लड़की से प्रेम व शादी करने के कारण अशोक से नाराज भी रहते थे।

हम लोग दफ्तर में एक शिफ्ट होने की स्थिति में एकाध बार चाय पीने के बहाने रोजमर्रा की दिक्कतें, सुख-दुख और कई सारी चीजों को बांट लिया करते थे। वे भी कुछ-कुछ अपनी पारिवारिक बातों को मुझसे शेयर करते। उन्हें मिलाप प्रबंधन से श्रीमती विपमा वीर और विनय वीर से शिकायत रहती थी कि यह लोग हिंदी भाषी पत्रकारों को बेहद कम वेतन देते हैं और खूब शोषण करते हैं। साथ ही कभी-कभी यह भी कहते कि यहां तो तेलुगू भाषी हावी हैं और मालिकों को भी चापलूस आदमी अधिक पसंद हैं जबकि चापलूसों के बल पर अच्छा अखबार नहीं निकाला जा सकता। उसी दौरान उनके घर पर बेटे का जन्म हुआ तो बोले- अब जल्दी आपके घर भी बेटा आए तो घर भर जाए। तीन मार्च 2000 को मेरे यहां बेटी के जन्म पर वे बहुत खुश हुए। हमें और पत्नी पुष्पा को आग्रह कर अपने घर ले गए। कई फोटो बच्चों के खींचे।

रहन सहन में वे सलीके और अच्छी जीवन शैली के शौकीन थे। अप्रैल 2001 में मैं मिलाप छोडकर अमर उजाला जाने लगा तो बहुत उदास हुए। बोले- तुम्हीं तो एक दोस्त हो मेरे, तुम भी जा रहे हो। वे बहुत स्वाभिमानी भी थे। वे महत्वाकांक्षी भी थे और जिंदगी में आगे बढ़ना चाहते थे मगर अपनी मेहनत से। शायद इसी के चलते वे मीडिया की मंडी दिल्ली आ गए जो उनके लिए शुभ साबित न हुई। अक्टूबर 2001 में ईटीवी का हिंदी चैनल शुरू होते समय वे उसमें चले गए। फिर हमारी बातचीत कम ही होती थी। मगर जब मेरा मोबाइल नंबर मिला तो उन्होंने कई बार बातचीत की। दिल्ली में वीओआई आने के बाद वरिष्ठ टीवी पत्रकार मुकेश कुमार से उनका नंबर मिला तो उन्हें फोन किया। अशोक अंतर्मुखी थे इसलिए कई बार वे अपने ग़म दोस्तों से भी शेयर नहीं करते थे। यह उनकी सबसे बड़ी कमजोरी थी। शायद इसी स्वभाव ने उनकी जान ले ली। कई बार फोन पर बातें हुई और उन्होंने मिलने का वायदा भी किया। मगर अब वे शायद वायदा भुलाकर चल दिये हैं। उनसे कहने का मन है कि ऐसी भी क्या जल्दी थी दोस्त!

गजलकार अशोक अंजुम के शब्दों में कहें तो…

सोचते थे हम कि शायद आएंगे,

और वे सपने सजाकर सो गए।

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लेखक अशोक मिश्र प्रिंट के वरिष्ठ सांस्कृतिक पत्रकार हैं। वे इन दिनों इंडिया न्यूज साप्ताहिक पत्रिका में सहायक संपादक पद पर कार्यरत हैं। उनसे संपर्क 9958226554 के जरिए किया जा सकता है।

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