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दुख-दर्द

मुसीबत में एक पत्रकार

पत्नी का महंगा इलाज, सास की ब्रेन हैमरेज से मौत : प्रशान्त के अंधेरे को चाहिए हमारी-आपकी रोशनी : पत्रकारिता को लेकर भले ही समाज में कितनी ही अवधारणाएं बनी हों लेकिन मौजूदा पत्रकारिता का यह सच वाकई भयावह है कि समाज को रोशनी दिखाने का काम करने वाले पत्रकार कई बार खुद अंधेरों का दंश झेलने को अभिशप्त हो जाते हैं। यह एक ऐसा वर्ग है जो अपने स्वाभिमान की खातिर कई बार बहुत बड़ी कीमत भी अदा करता है। कभी कभी इस कथित स्वाभिमान की खातिर अपनी खुद की जिन्दगी को भी दांव पर लगा देता है। हिन्दी पत्रकारिता में ऐसी कई घटनाएं हैं, जो न किसी मंच से सुनाई गईं और न ही कभी कहीं उदघाटित। यहां जिस व्यक्ति की व्यथा-कथा को इस पूरी फिलास्फी से जोड़कर बताया जा रहा है, वह आज एक साथ कई मोड़ पर खड़ा जिन्दगी से न केवल लड़ रहा है बल्कि अपने वजूद की खातिर हर वह कीमत भी अदा कर रहा है जो उसके बूते से बाहर की बात है। मूलरूप से इलाहाबाद के रहने वाले प्रशान्त श्रीवास्तव छह साल पहले पंजाब में पत्रकारिता के क्षेत्र में कुछ कर गुजरने का जज्बा लेकर आए थे। एक संघर्ष के बाद एक बड़े प्रतिष्ठित अखबार में उप-संपादक की भूमिका में काम करते हुए उन्हें करीब तीन साल हो गए।

<p align="justify"><font color="#003366">पत्नी का महंगा इलाज, सास की ब्रेन हैमरेज से मौत : प्रशान्त के अंधेरे को चाहिए हमारी-आपकी रोशनी : </font>पत्रकारिता को लेकर भले ही समाज में कितनी ही अवधारणाएं बनी हों लेकिन मौजूदा पत्रकारिता का यह सच वाकई भयावह है कि समाज को रोशनी दिखाने का काम करने वाले पत्रकार कई बार खुद अंधेरों का दंश झेलने को अभिशप्त हो जाते हैं। यह एक ऐसा वर्ग है जो अपने स्वाभिमान की खातिर कई बार बहुत बड़ी कीमत भी अदा करता है। कभी कभी इस कथित स्वाभिमान की खातिर अपनी खुद की जिन्दगी को भी दांव पर लगा देता है। हिन्दी पत्रकारिता में ऐसी कई घटनाएं हैं, जो न किसी मंच से सुनाई गईं और न ही कभी कहीं उदघाटित। यहां जिस व्यक्ति की व्यथा-कथा को इस पूरी फिलास्फी से जोड़कर बताया जा रहा है, वह आज एक साथ कई मोड़ पर खड़ा जिन्दगी से न केवल लड़ रहा है बल्कि अपने वजूद की खातिर हर वह कीमत भी अदा कर रहा है जो उसके बूते से बाहर की बात है। मूलरूप से इलाहाबाद के रहने वाले प्रशान्त श्रीवास्तव छह साल पहले पंजाब में पत्रकारिता के क्षेत्र में कुछ कर गुजरने का जज्बा लेकर आए थे। एक संघर्ष के बाद एक बड़े प्रतिष्ठित अखबार में उप-संपादक की भूमिका में काम करते हुए उन्हें करीब तीन साल हो गए। </p>

पत्नी का महंगा इलाज, सास की ब्रेन हैमरेज से मौत : प्रशान्त के अंधेरे को चाहिए हमारी-आपकी रोशनी : पत्रकारिता को लेकर भले ही समाज में कितनी ही अवधारणाएं बनी हों लेकिन मौजूदा पत्रकारिता का यह सच वाकई भयावह है कि समाज को रोशनी दिखाने का काम करने वाले पत्रकार कई बार खुद अंधेरों का दंश झेलने को अभिशप्त हो जाते हैं। यह एक ऐसा वर्ग है जो अपने स्वाभिमान की खातिर कई बार बहुत बड़ी कीमत भी अदा करता है। कभी कभी इस कथित स्वाभिमान की खातिर अपनी खुद की जिन्दगी को भी दांव पर लगा देता है। हिन्दी पत्रकारिता में ऐसी कई घटनाएं हैं, जो न किसी मंच से सुनाई गईं और न ही कभी कहीं उदघाटित। यहां जिस व्यक्ति की व्यथा-कथा को इस पूरी फिलास्फी से जोड़कर बताया जा रहा है, वह आज एक साथ कई मोड़ पर खड़ा जिन्दगी से न केवल लड़ रहा है बल्कि अपने वजूद की खातिर हर वह कीमत भी अदा कर रहा है जो उसके बूते से बाहर की बात है। मूलरूप से इलाहाबाद के रहने वाले प्रशान्त श्रीवास्तव छह साल पहले पंजाब में पत्रकारिता के क्षेत्र में कुछ कर गुजरने का जज्बा लेकर आए थे। एक संघर्ष के बाद एक बड़े प्रतिष्ठित अखबार में उप-संपादक की भूमिका में काम करते हुए उन्हें करीब तीन साल हो गए।

लेकिन उनका यह संघर्ष उस समय लड़खड़ा गया जब करीब दो साल से रीढ़ की हड्डी में हुए के दर्द से पीड़ित अपनी पत्नी का इलाज करवाते-करवाते वो अपना बहुत कुछ दांव पर लगा चुके। तीन महीने पहले उनकी पत्नी को एक निजी अस्पताल में दाखिल करवाया गया, काफी पैसा खर्च होने के बावजूद निदान नहीं मिल पाया। बड़े अस्पतालों में इलाज करवाना प्रशान्त के बूते से बाहर था लेकिन संस्थान के सहयोगियों की मदद से कुछ उम्मीद की किरण जगनी शुरू हुई। एम्स के डाक्टरों से विचार-विमर्श के बाद इलाज की कवायद अभी शुरू ही हुई थी कि एक बड़ा पहाड़ उस समय टूट पड़ा जब अपनी बेटी का हालचाल पूछने और कुछ सेवा करने के भाव से पंजाब आईं उनकी सास को ब्रेन हैमरेज हो गया।

काफी प्रयासों के बावजूद डाक्टर उन्हें नहीं बचा सके और वह भगवान को प्यारी हो गईं। एक तरफ बिस्तर पर कराह रही उनकी पत्नी, दूसरी तरफ सास की मौत के बाद बने मातम के माहौल ने सचमुच में उसे अन्दर तक हिलाकर रख दिया। दुखों के पहाड़ को अपने सीने पर लादे प्रशान्त के समक्ष चुनौतियां अभी खत्म नहीं हुई है। हालांकि संस्थान ने मदद के जो दस्तावेज तैयार करवाए हैं, उसकी औपचारिकताएं और कवायद काफी लंबी है, वह कितना हो पाएगा, यह अभी तय नहीं है। लेकिन यह पूरी कहानी पत्रकारिता जमात से जुड़े लोगों के समक्ष इसलिए रखी जा रही है कि हम समाज को बदलने, सत्ता को बदलने और व्यवस्था को बदलने का माद्दा रखने वाले कलम के योगी, क्या अपनी ही जमात के एक ऐसे शख्स के जीवन को बदल सकते हैं, जिसे सचमुच बाहर के लोगों से नहीं बल्कि खुद की जमात से संबल की आवश्यकता है।

एम्स के डाक्टरों के मुताबिक प्रशान्त श्रीवास्तव की पत्नी की रीढ़ की हड्डी का लॉक अनलॉक हो चुका है, शायद उसमें टीबी का रोग भी शामिल है। लंबे समय तक चलने वाले इस उपचार पर हो सकता है खर्च करीब तीन लाख तक पहुंच जाए। यदि हमारे अन्दर की नैतिकता हमें अनुमति दे तो हमें लड़खड़ाते हुए इस शब्दकर्मी का संबल बनना चाहिए। डा. कुंवर बेचैन की यह पंक्ति इस समय याद आ रही हैं-

गमों की आंच पर आंसू किसी के उबाल कर देखो

बनेंगे रंग किसी पर भी डालकर देखो

तुम्हारे सीने की चुभन भी जरूर कम होगी

किसी के पांव से कांटा निकालकर तो देखो।

लेखक धीरज टागरा पत्रकार हैं और इन दिनों दिल्ली में अपैरल आनलाइन हिंदी से जुड़े हुए हैं. उनसे संपर्क 09873335506 के जरिए कर सकते हैं.

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0 Comments

  1. k.k.sharma

    February 1, 2010 at 2:30 pm

    rashtriya star par patrakaro ke liye ek kosh banana chahiye. jo patrakaro ke aise vikat samay mai kam aa sake.

  2. ashish goswami

    February 2, 2010 at 7:09 am

    pls inka nam a/c no 9981995201 par sms krva de….apne saamrthya ke anusar help kane ki kosish karuga,,,,

  3. prakash

    February 2, 2010 at 3:23 pm

    पत्रकारों को सरकार की तरफ से वेतन मिलना चाहिए क्योंकी पत्रकार तो सभी को मार्ग दर्शन कराता है …………..

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