शक्तिमान राम को कुशलता के साथ केवट ने जिस तरह नदी के पार उतारा, वहीं भूमिका मीडिया में एक संपादक की होती है। यहां शक्तिमान समाज है और उसके लिए केवट की भूमिका संपादक को निभानी होती है। लेकिन अब बदले माहौल में संपादकों ने केवट की भूमिका छोड़ दी है और समाज की बजाय मीडिया मालिकों के हितों के लिए ज्यादा काम कर रहे हैं। यह बात सही है कि पत्रकारिता अब मिशन नहीं प्रोफेशन बन गई है, जिससे संपादकों की भूमिका भी बदली है लेकिन संपादकों ने अपनी सत्ता को इस बदली भूमिका में कमजोर कर लिया है। एक अखबार, एक टीवी और एक वेबसाइट में आने वाले समाचारों और विचारों के एक-एक शब्द के लिए संपादक सीधा जिम्मेदार होता है। यही वजह है कि पहले मीडिया घरानों में हर शब्द पर चर्चा होती थी।
हर खबर पर बात होती थी। वह अब संपादकों की बदली भूमिका में लगभग समाप्त हो गई है। संपादकों ने अपनी नई भूमिका के तहत मालिकों के पीए की तरह काम करना शुरू कर दिया है। उनके हितों को साधने का काम शुरू कर दिया है। संस्थानों के लिए कर्ज लेने, बैंकों से कर्ज के निपटारे, न्यूज प्रिंट से लेकर विज्ञापन बटोरने, मालिकों के आगमन पर ठहराने से लेकर कार और निजी सुविधाओं को उपलब्ध कराने, सारी सरकारी सुविधाएं संस्थान के आकाओं एवं खुद के लिए जुटाने के काम मुख्य हो गए हैं। बदले जमाने में संपादकों के लिए किसी खबर की चिक-चिकबाजी पर नौकरी छोड़ने वाले संपादक अब ढूंढने से भी नहीं मिलेंगे। हां, सुविधाएं न जुटाने पर लात मारकर निकाले जाने वाले संपादक आपको जरूर मिल जाएंगे।
इस स्थिति के लिए मैं अकेले मालिकों को दोषी नहीं ठहराना चाहता, बल्कि सुविधा भोगी बनने के लिए खुद संपादकों ने ही अपनी वह हालत वनाई है। मालिकों ने जो ताकत संपादकों के हाथ में दी थी, उसे उन्होंने ही अपने आचरण और व्यवहार से कमजोर किया। मैं पिछले दिनों कार्यवश खंडवा गया। वहां कुछ पत्रकारों से मुलाकात हुई तो उन्होंने बताया कि मध्यप्रदेश और राजस्थान के कुछ हिंदी दैनिक तो ऐसे लोगों की आम खबरों को छापने से बच रहे हैं, जो उनके विज्ञापनदाता नहीं हो सकते। यानी इन अखबारों ने यह तय कर लिया कि अब खबरें वे ही छपेंगी जो उनके सेठों की तिजोरियों में पैसे पहुंचाते हैं। कम से कम दो हिन्दी अखबारों के बारे में तो मुझे भी यह पता है कि वे कोई भी चुनाव हो, प्रत्याशियों से पैसे लेकर उनके मन-माफिक समाचार छापते हैं। इन अखबारों के रिपोर्टरों को संपादकों का सीधा आदेश होता है कि चुनाव में बगैर पैसे लिए कोई भी खबर नहीं छापनी है और इस पैसे का बंटवारा भी होता है।
एक जमाने में कहा जाता था कि सफल संपादक वह है जो हर पन्द्रह दिनों में सार्वजनिक स्थल पर पिटे, लेकिन अब सफल संपादक वह है जो शहर में होने वाले कार्यक्रमों में ज्यादा से ज्यादा जगह मुख्य अतिथि बने। कई संपादक अपने जूनियरों और नवपत्रकारों को अपने दफ्तरों या मीडिया संस्थानों में पढ़ाते समय यह जरूर कहते हैं कि पत्रकारिता में वे ही आएं जो कबीर की इस उक्ति पर चलते हों ‘जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ।’ पत्रकारिता नौकरी नहीं एक मिशन है। पत्रकार वही बने जो सब कुछ त्याग कर काम करना चाहते हो । ऐसी अनेक बातें संपादकों के मुख से आपको हर समय सुनने को मिल सकती है। लेकिन क्या संपादकों ने अपने जीवन मे इनमें से किसी को भी अपनाया ?
मैं यहां पुरानी पत्रकारिता या फिर आजादी के समय की पत्रकारिता की बात नहीं कर रहा हूं। उस समय तो ऐसे अनेक संपादक और पत्रकार हुए, जो आज के संपादकों के आचरण और व्यवहार को देख लेते तो आत्महत्या कर लेते। कबीर की उक्ति सिखाने वाले संपादक पहले यह देखें कि क्या वे अपने घर फूंककर संपादकी कर रहे हैं या फिर घर भरकर। जूनियरों को पाठ पढ़ाते हैं कि पत्रकारिता मिशन है लेकिन मालिकों की केबिन में घुसते ही उनका मिशन कहां चला जाता है। अपने जूनियरों के हक की बात तो छोड़िए, अपनी सत्ता तक की चर्चा नहीं कर पाते । एक समाचार के लिए नहीं भिड़ पाते और वह बात आसानी से मान लेते हैं जो उनके मालिक के पक्ष की होती है । साथ ही पत्रकारों की दूसरी पीढ़ी तैयार करने की अपनी जिम्मेदारी से भाग रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि मीडिया के मालिकों ने संपादकों की सत्ता पर कैंची चला दी, बल्कि खुद संपादक बगैर मेहनत किए कार्यालय आते हैं। जिसका नतीजा यह है कि उनकी सत्ता की डोर मालिकों के हाथ में चली गई और बगैर होमवर्क किए कार्यालय आने वाले संपादक सच्ची संपादकी नहीं कर मैनेजरी कर रहे हैं। कितने संपादकों को तो संपादकीय लिखे महीनों गुजर जाते हैं और उनके नाम पर संपादकीय कोई और लिखता रहता है। संपादक खुद जब अपने काम में मजबूत नहीं है तो सत्ता और महत्ता का कमजोर होना तय है।
आज अनेक संपादक तो शराब, शबाब और कबाब के पीछे भागते दिख जाएंगे। उन्हें ये तीनों चीजें नहीं मिले तो लगता है उनकी शाम बेकार चली गई। इस टिप्पणी पर कई संपादकों को ऐतराज हो सकता है लेकिन मैं फिर वही कहना चाहूंगा। सच्चाई सब जानते हैं, सीधे स्वीकार नहीं करेंगे। कई प्रेस क्लब तो ज्यादातर संपादकों और पत्रकारों के लिए विचार की जगह नहीं, दारू के अड्डे बन गए हैं । ऐसे ही अनेक संपादकों ने मूल्य आधारित पत्रकारिता का अर्थ ही कुछ और निकाल लिया है और वे हर खास समाचार का मूल्य वसूल कर रहे हैं।
देश का एक बड़ा मीडिया हाउस तो कहता है कि हमें संपादक नहीं, ब्रांड मैंनेजर चाहिए जो हमारा उत्पाद बेच सके। जब मालिक यह करता है तो क्यों संपादक अपने साथियों को मिशन और मेहनत की नसीहत देते हैं। राजस्थान के एक अखबार के दो संपादक तो सुबह दस बजे से रात आठ बजे तक लिखते कम थे और मालिकों के आगे डांस ज्यादा करते थे। हालांकि अब ये दोनों संपादक हमारे बीच नहीं है। ऐसे में मैं इनके बारे में खुलकर कुछ नहीं लिखना चाहूंगा। इन सरस्वती पुत्रों को ऐसा लाचार देखकर तरस आता था। इन्हें संपादक की बजाय अपने नाम की तख्ती के नीते कुछ और नया पद लिखवा लेना चाहिए था।
पत्रकारिता में मैं तकरीबन 20 साल से हूं और प्रिंट, वेब एवं इलेक्ट्रॉनिक तीनों माध्यमों में डेस्क व फील्ड दोनों जगह काम करने का खूब मौका मिला। साथ ही स्वतंत्र रुप से लिखने का भी आनंद लिया । इस दौरान अनेक संपादकों और संस्थानों से वास्ता पड़ा। अनेक संपादकों के साथ काम किया तो कुछ ऐसे संपादक मेरी आंखों के आगे आ जाते हैं, जिन्होंने अपनी सत्ता और महत्ता को कम नहीं होने दिया। उनमें सबसे पहले मैं श्री सुरेन्द्र प्रताप सिंह का नाम लूंगा, जिनके साथ काम करने का अल्प अवसर मिला। क्योंकि मेरा लक्ष्य वाणिज्य पत्रकारिता था और ‘नवभारत टाइम्स’ में उन दिनों इस तरह के समाचारों के लिए खास स्थान नहीं था लेकिन एस.पी.सिंह ने जीवन के अंतिम क्षण तक एक पत्र, एक संपादक की सत्ता और महत्ता को जिस तरह बरकरार रखा, वैसा अब रख पाना मुश्किल है। श्रेष्ठ संपादकों की लंबी सूची है। ऐसे संपादकों के बारे में यह माना जाता है कि इन्होंने अपने सत्ता का उपयोग समाज और अपने साथियों की बेहतरी के लिए किया तो प्रबंधन में अपने महत्व को बरकरार रखा।
लेखक कमल शर्मा बिजनेस पत्रकारिता में पिछले 20 वर्षों से सक्रिय हैं। आईआईएमसी, दिल्ली के पूर्व छात्र रहे कमल मौजूदा समय में नेटवर्क18 के पोर्टल कमोडिटीजकंट्रोल डॉट कॉम में संपादक (हिंदी) पद पर कार्यरत हैं। उनसे संपर्क 09819297548 या [email protected] से कर सकते हैं।