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पार्टनर! मेरी पॉलिटिक्स यह है

[caption id="attachment_16770" align="alignleft"]कृपाशंकर चौबेकृपाशंकर चौबे[/caption]एक पत्रकार का आत्मकथ्य : मैं उत्तर प्रदेश के बलिया जनपद के चैनछपरा गांव में जन्मा-पला-बढ़ा। यह गांव गंगा किनारे है। बचपन में झुंड के झुंड में हम नित्य ही गंगा नहाने जाते और तब तक तैरते-जल-क्रीड़ा करते रहते, जब तक कि बड़े-बुजुर्ग डांट-डपटकर बाहर निकलने को नहीं कहते। वह मुक्त, सहज और स्वाभाविक जीवन स्मृतियों में यथावत सुरक्षित है तो बाढ़ की विभीषिका भी। नदियों से सुख-दु:ख दोनों जुड़े हैं। बरसात शुरू होते ही गांव में बाढ़ की दहाड़ सुनाई पड़ने लगती। सियारों, नेवलों और सांपों का उत्पात बढ़ जाता। बाढ़ जाते-जाते हैजे का प्रकोप छोड़ जाती।

कृपाशंकर चौबे

कृपाशंकर चौबेएक पत्रकार का आत्मकथ्य : मैं उत्तर प्रदेश के बलिया जनपद के चैनछपरा गांव में जन्मा-पला-बढ़ा। यह गांव गंगा किनारे है। बचपन में झुंड के झुंड में हम नित्य ही गंगा नहाने जाते और तब तक तैरते-जल-क्रीड़ा करते रहते, जब तक कि बड़े-बुजुर्ग डांट-डपटकर बाहर निकलने को नहीं कहते। वह मुक्त, सहज और स्वाभाविक जीवन स्मृतियों में यथावत सुरक्षित है तो बाढ़ की विभीषिका भी। नदियों से सुख-दु:ख दोनों जुड़े हैं। बरसात शुरू होते ही गांव में बाढ़ की दहाड़ सुनाई पड़ने लगती। सियारों, नेवलों और सांपों का उत्पात बढ़ जाता। बाढ़ जाते-जाते हैजे का प्रकोप छोड़ जाती।

खेती बर्बाद होती सो अलग। मुझे याद है, सत्तर के दशक में लगभग हर वर्ष मेरा गांव बाढ़ में डूब जाता। घरों में बाढ़ का पानी घुस जाता तो किसी ऊंचे स्थान पर आश्रय लेने के लिए नाव की प्रतीक्षा शुरू हो जाती। नाव आती किन्तु उस पर सबसे पहले बाभनों का हक बनता। मेरे गांव में सर्वाधिक ब्राहृण (चौबे) परिवार हैं। उसके बाद कानू, कमकर, लोहार, तुरहा और ततवा जैसी अति पिछड़ी जातियां हैं। एक नोनिया परिवार भी पहले था। बाढ़ के दिनों में गांव से बाहर सुरक्षित स्थानों पर जाने के लिए अति पिछड़ी जातियों के परिजनों को सबसे आखिर में नाव मिलती, मानों ब्राहृणों की तुलना में उनके जीवन का मूल्य कम हो। अति पिछड़ी जातियों के बच्चों के साथ ब्राहृणों के बच्चे नदी में साथ-साथ स्नान करते, स्कूल में जमीन पर बोरा बिछाकर साथ-साथ बैठकर पढ़ते, गांव के मैदान या बगीचे में साथ-साथ गुल्ली-डंडा, कबड्डी, फुटबाल या क्रिकेट खेलते। वे साथ-साथ आम तोड़ते, महुआ तोड़ते, जामुन तोड़ते, इमली तोड़ते, बैर तोड़ते। किन्तु नावों पर अति पिछड़ी जातियों के बच्चों और उनके परिजनों को बराबरी का अधिकार नहीं था। जातिगत भेद-भाव का यह कड़वा अनुभव मैंने तभी कर लिया था जब दूसरी कक्षा में पढ़ रहा था।

अति पिछड़ी जातियों के बच्चों के साथ खेलने की तो मुझे छूट थी पर उनके घर-आंगन जाने या उनके यहाँ कुछ खाने की सख्त मनाही थी। मुझे याद है, मेरे बाबा नागेश्वर चौबे या पिताजी शिवदर्शन चौबे या बड़े चाचा जयकृष्ण चौबे या छोटे चाचा देवकृष्ण चौबे या अग्रज प्रेमशंकर चौबे या अनुज रविशंकर चौबे यदि सुबह या शाम घर पर पिछड़ी जातियों के लोगों को चाय पर बुलाते तो चाय पीने के बाद पिछड़ी जातियों के लोग कप धोते। गाँव में कहीं दावत होने पर सवर्णों की पाँत उठ जाने के बाद ही पिछड़ी जातियों के लोग बैठते। पिछड़ी जातियों के साथ यह भेद-भाव मेरे बाल-मानस को अंदर तक झकझोर जाता। पिछड़ी जातियों के लोग सवर्णों के यहाँ आते तो द्वार पर रखी खाट या चौकी या कुर्सी पर नहीं बैठ सकते थे। भले कुर्सी-चौकी-खाट खाली रहे। वे जमीन पर बैठते। हाँ, सवर्णों के साथ उनके कौड़ा तापने पर मनाही नहीं थी। पिछड़ी जातियों के लोग चौबे लोगों को “मलिकार’  कहकर संबोधित करते। “मलिकारों’ ने उन्हें गाँव में झोपड़ियां बनाने के लिए अपनी जमीन दी थी।

पहले मेरा खपरैल का घर था। चारों ओर से टाट, ऊपर से खपरैल। हर बाढ़ में उस घर की दुरावस्था को देखते हुए पिताजी ने गाँव के बीचों-बीच पक्का मकान बनवाया। तब गाँव में पक्के मकान गिने-चुने थे। बाढ़ से बचने के लिए मिट्टी भरकर पक्के मकान का ऊँचा भीत बना। बही पक्का मकान आज भी खड़ा है, मेरे बचपन और किशोरावस्था की कई स्मृतियों को अपने अंक में दबाए हुए। धोबिन, हजामिन, पनिहारिन, कहार, लोहार, बढ़ई, अक्सर घर आते और चौखट पर खड़े होकर आवाज लगाते-मईया! और मईया कोनसिया घर से अनाज लेकर आतीं और उन्हें देतीं। दादी को हमलोग मईया कहते। मेरे मकान के समीप ही गिरिधारी और रामेश्वर नोनिया, विनोद कानू, किसुन तुरहा, सतीश चौबे और योगेन्द्र चौबे का घर है। किशोरावस्था में ये ही लोग मेरे संगी-साथी थे। ये ही मेरे अपने थे, सपने थे। सुख-दुख के साझीदार थे। स्कूल के बाद गिरिधारी, रामेश्वर, विनोद, सतीश, योगेन्द्र और मैं अधिकतर समय साथ-साथ रहते। रात में साथ ही साथ हम नाच देखने जाते। कभी भिखारी ठाकुर का नाच तो कभी गोड़ऊ नाच। साथ ही साथ हम बगीचे में भी जाते। गाँव में आम, इमली और जामुन के बगीचे थे। अब भी हैं। हम साथ-साथ फल तोड़ते। विनोद के यहाँ हरी मिर्च और नमक मिलाकर पीसा जाता। उसे कागज के पुड़ियों में रखकर हम चना के खेत में जाते, साग खोंटते और खाते। साथ-साथ मचान पर बैठकर मकई का खेत अगोरते। साथ-साथ भंसारी में जाते और जोन्हरी की बालियाँ पकाकर चिउरी बनाकर खाते, भुट्टा सेंककर खाते। होरहा लगाते। साथ-साथ मेला घूमने जाते और जलेबी खाते। गिरिधारी, रामेश्वर नोनिया और विनोद कानू के यहाँ एक ही थाली में मैं दाल-भात भी खा लेता। मेरे घर वालों को और गाँव के पुरनिया लोगों को यह कत्तई नहीं पसंद था। विनोद कानू के यहाँ बजहरा गाँव का अनिल भी आता था। वह दुसाद परिवार में जन्मा था। उससे भी हमारी गहरी दोस्ती हो गई थी। एकबार विनोद के यहाँ एक ही थाली में हमारे साथ उसने भी खाना खाया। इस पर बाबा का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया था। उन्होंने कहा था, “कृपवा के रहनि बिगरि गईल बा। इ नान्ह जातिन के संगे रहता। उहनिए संगे खात-पियत बा। ई हमनी के वंश बुड़ा दी। हमनी के कुजात छंटवा दी।’

गाँव के बड़े-बुजुर्ग भी मेरी “रहनि’ से क्षुब्ध रहते। मेरे द्वार पर एक बार पट्टीदारी के सभी बड़े-बुजुर्ग जुटे। मुझे पहले समझाने की कोशिश की गई और बाद में हड़काया गया। बंका चाचा ने कहा था- “तोर दिमाग खराब हो गईल बा। नान्ह जाति के माथा पर उठाव तारे। नान्ह जात के संगे रहत-रहत तेहूँ नान्ह जात हो गईल बाड़े।’ मैंने विनम्रता से जवाब दिया था, “जिन्हें आप नान्ह जात कहते हैं, उन्हें मैं अपने बराबर का मनुष्य मानता हूँ।’ बुजुर्गों ने कहा कि ‘रहनि’ नहीं सुधारने पर वे मेरे परिवार का हुक्का-पानी बन्द कर देंगे। उन्होंने सिर्फ यह धमकी ही नहीं दी, बल्कि मेरे यहाँ आयोजित भोज का दो-एक बार बहिष्कार भी किया। उसके बाद की घटना है कि भगवती साव के लिए हमने अगरौली के बाभनों से बड़ी लड़ाई लड़ी थी।

गाँव में मैंने लक्ष्य किया कि ब्राहृण पुरूष दूसरी जातियों को जितनी हेय दृष्टि से देखते थे, ब्राहृण महिलाएं उतनी नहीं देखती थीं। ब्राहृण महिलाएं पिछड़ी जाति की महिलाओं के साथ ही झुण्ड में हाथ में डोलची लिए तड़के गंगा स्नान करने जातीं और समवेत स्वर में गातीं – “राम ही राम रटन लागे जिभिया।’ वैसे पर्व-त्यौहार या किसी अनुष्ठान में ब्राहृण महिलाएं पिछड़ी जाति की महिलाओं को अपने आँगन में बराबरी का दर्जा नहीं देती थीं। बच्चा होने पर सोहर भी अपने कूल-खूंट की महिलाएं ही एक साथ आंगन में बैठकर गातीं- “ओ हि रे अयोध्या में राम जनमले, अयोध्या आनंदले हो। ललना, अयोध्या में बाजेला बधइया, महल उठे सोहर हो।’ बच्चे के जन्म के समय चमार की महतारी नार काटने के लिए आती। ब्राहृण के आंगने में अछूत का वही एक मात्र प्रवेश होता।

मईया को बहुत सारे गीत कंठस्थ थे। सगुन, तिलक, चउका, चुमावन, संझा पराती, मंडप, मटकोर, हल्दी चढ़ाई, इमली घोंटाई, द्वारा पूजा, परिछन, कोहबर, उबटन, नहवावन के गीत। चावल बीनते, दाल छौंकते, सब्जी काटते, गोबर से घर लीपते, आंगन बहारते, बर्तन मांजते, जांत पीसते हुए और यहाँ तक कि ढिबरी या लालटेन  जलाते हुए मईया कोई न कोई गीत गाती रहतीं। गाने के मामले में बाबा भी कम न थे। गाँव में द्वार-द्वार जो फगुआ गाया जाता, उसकी अगुवाई बाबा ही करते। वे अक्सर गाते- “ए रामा चइता मासे। चइता मासे बाजेला बधइया, ए रामा चइता मासे।” गवनई में या अक्सर होने वाले हरिकीर्तन या होलिका दहन में पिछड़ी जातियों से भेदभाव नहीं बरता जाता था। मैं जब इंटर में पढ़ रहा था तो पड़ोसी गाँव राजपुर के जनार्दन सिंह ने मार्क्स, लेनिन, एंगेल्स, माओ-त्से-तुंग की किताबें पढ़ने को दीं। उन किताबों से मुझे नई जीवन-दृष्टि मिली। बाद में स्नातक की पढ़ाई करने इलाहाबाद गया तो प्रगतिशील छात्र संघ (पीएसओ) की स्टडी सर्किल में मार्क्सवादी साहित्य पढ़ने का सुयोग मिला। मुझे जैसे जीने का औचित्य मिल गया था। इलाहाबाद में पढ़ने के दौरान प्राय: हर महीने गाँव आना होता और गाँव की पुरानी गरीबी और पुराने विकारों से सामना होता।

गांव में गरीबी से लड़ने के गंवई टोटरम थे। समहुत के दिन खेतों में यह आवाज गूँजती रहती – “हरियर-हरियर महादेव। चारू कोना चार मन, बिगहा हजार मन।’ इसी कामना के साथ कढ़ी, बरी, फुलौरा और भात बनता था। समहुत की सारी कामना के बावजूद गांव में इतनी खेती नहीं हो पाती थी कि लोगों का गुजर-बसर हो। इसलिए हर घर के पुरूष को कमाने के लिए बाहर जाना पड़ता था। पिताजी भी कमाने कलकत्ता निकल गए थे। बाद में कोलकाता से दुर्गापुर चले गए थे। वे हायर सेकेंडरी के शिक्षक थे। बाहर कमाने वाले लोग गांव में मनीआर्डर भेजते, तभी घरों का चूल्हा जलना सुनिश्चित होता। कई बार गांव में आग भी दूसरों के घर से मंगाकर जलाई जाती थी। अक्सर मकई का भात, बाजरे की रोटी, जौगोजई (जौ और गेहूँ को मिलाकर बनने वाला आटा) की रोटी, अरहर या चने की दाल बनती थी। खास मौकों पर ही चावल का भात (अक्सर खुदिया) बनता था। हाँ, सब्जी की कमी नहीं होती। हर घर के छप्पर पर लौकी, कोंहड़ा, नेनुआ, भतुआ, करैला फलता रहता। खेतों में आलू, टमाटर और बैंगन फलता। कुछ सम्पन्न परिवार रवि और बुधवार को लगने वाले रेपुरा के बाजार से भी सब्जियाँ खरीदकर लाते। अधिकतर परिवारों का खर्चा मुश्किल से चलता। एक अति पिछड़ा परिवार तो खलिहान में दँवरी के बाद बैल के गोबर से अनाज चुनकर गुजारा करता था। गरीब चौबे परिवारों की संख्या भी कम न थी। गरीबी के बावजूद अधिकतर चौबे परिवार ब्रााहृण होने के अहंकार से अकड़ और ठसक में रहते। एकाध परिवार अपनी दबंगई के कारण जाने जाते थे। जानकी चौबे के सभी बेटे इसी कारण ख्यात थे। उनके नाम से गाँव ही नहीं, पूरा जवार काँपता था। वे बात-बात पर गोली -बंदूक निकाल लेते थे। जानकी चौबे के बड़े बेटे इन्द्रजीत चौबे ग्राम प्रधान भी बने। उनके द्वारा बाढ़ के दौरान पिछड़ी जातियों को नाव की ब्रााहृणों जैसी सुविधाएं नहीं देने और बाढ़ राहत राशि नहीं देने की लिखित शिकायत मैंने जिलाधिकारी से की। फिर क्या था? इन्द्रजीत चौबे और उनके घनिष्ठ अन्य चौबे परिवारों ने मुझे प्रताड़ित करने की कोई कोशिश बाकी नहीं रखी। लाठी-भाला और बंदूक लेकर मुझ पर हमले की कोशिश भी हुई।

कबीर-जोगीरा के बोल में जो अश्लीलता थी, वैसा ही कुकर्म कई बाभनों के घर होता था। लुके-छिपे। आन-शान पर जान देने का दम्भ भरने वाले जिन ब्रााहृणों के कुकर्म सार्वजनिक हुए वे कुजात छाँट दिए गए थे। जाँत-पाँत के अलावा धार्मिक अन्ध-विश्वास मेरे गाँव की दूसरी बड़ी विकृति रही है। गाँव में बजरंगबली मंदिर के पास ब्राहृ बाबा का स्थान था। अब भी है। परछावन के बाद वर की असवारी को वहाँ ले जाया जाना अनिवार्य रहा है। इसी तरह हर नई वधू की असवारी सबसे पहले वहीं उतारी जाती रही है। इतने गंवई टोटरम थे कि बचपन में ही मुझे उनसे नफरत हो गई थी। मेरी पट्टीदारी में एक बूढ़ी महिला थीं। वे मेरी आजी लगती थीं। उन्हें डायन माना जाता था। कहा जाता था कि वे जादू-टोना जानती हैं। उनके यहाँ जाने पर सख्त मनाही थी। इसी तरह नूनू चाची के यहाँ पर जाने पर भी मनाही थी। कहा जाता था कि वे माता खेलती हैं। उन्हें देवी की कराह चढ़ाई जाती थी। पढ़ने-लिखने की तुलना में मेरे गाँव में भागवत सुनने, हरिकीर्तन कराने, रामायण कराने, सत्यनारायण भगवान की कथा कहाने की सनकी स्पर्धा चलती। धार्मिक क्रिया-कलापों का सार्वजनिक प्रदर्शन होता। धर्म और देवी-देवता के नाम पर गाँव के ब्रााहृण लोग रोज टनों कसमें खाते। झूठी कसमें।

मेरी माँ बहुत धार्मिक हैं। धर्म के लिए उनका बेटों के प्रति नेह-छोह भी बिला जाता। माँ का अधिकतर समय पूजा-पाठ में बीतता रहा है। मेरे नास्तिक होने के कारण माँ हमेशा मुझे सरापती रहती हैं- “तू जनेऊ नहीं पहनता। भगवान को नहीं मानता। तेरा कभी भला नहीं होगा।’ एक बार मैंने अपने सहपाठी सैयद मंजरूल हक के साथ एक ही थाली में खाना खाया तो माँ ने दंडस्वरूप  उस दिन खाना नहीं दिया। और अगले दिन दिया भी तो पाग। तीन-चार दिन बासी रोटी को उबाल कर उसमें गुड़ या चीनी डालकर पाग बनता है। माँ ने अब तक मुझे यही कोई सौ-बार पाग खिलाया है। मेरा कोई दोस्त मेरे घर पानी पीता तो उसके जाने के बाद माँ कागज जलाकर उसे गिलास में डालकर “शुद्ध’ करतीं। माँ घर में दो तरह के गिलास रखती हैं। परिवार-पट्टीदार-नातेदार और सवर्णों के लिए स्टील का गिलास और निचली जातियों के लिए काँच का गिलास।

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मेरी दिनचर्या और जीवनशैली से मां ही नहीं, पिताजी भी क्षुब्ध रहते। पिताजी ने इलाहाबाद में मुझे पैसे भेजने बंद कर दिए थे। कठिन संघर्ष करके मुझे पढ़ाई पूरी करनी पड़ी। कुछ दिन दिहाड़ी मजदूरी भी करनी पड़ी। स्थिति तब सुधरी जब 1985 में एस. के. दूबे और कैलाश चंद्र मौर्या ने मुझे “आज’ में शैक्षणिक उप संपादक बनवा दिया। इलाहाबाद में महादेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा, भैरव प्रसाद गुप्त, जगदीश गुप्त, अमरकांत और उपेन्द्र नाथ अश्क की वत्सलता मुझे मिली। “आज’ के बाद “स्वतंत्र भारत’, वाराणसी में उप संपादक बनकर गया। वहाँ से 1988 में सन्मार्ग कोलकाता में उप संपादक बनकर गया। उसी दौरान मदर टेरेसा के निकट संपर्क में आया। मदर ने एक कार्यक्रम में मुझे महाश्वेता देवी से मिलवाया। उन्हीं दिनों सिर पर मैला ढोने वालों की खबर लेने गया तो उनकी लड़ाई से जुड़ गया। उनकी एक सभा में महाश्वेता देवी भी आईं। मेरे भाषण से वे बहुत उद्वेलित हुईं। उन्होंने सभा स्थल में ही मुझे सार्वजनिक तौर पर प्रस्ताव दिया, “आओ हम साथ मिलकर इस तरह की लड़ाई को आगे बढ़ाएं।’ तब से यानी बाईस साल से बंगाल में आदिवासियों, दलितों और अल्पसंख्यकों के संग्राम में महाश्वेता देवी के सैनिक के रूप में यथासंभव योगदान करने की कोशिश मैंने की है। सदियों से पिछड़ों से भेद-भाव, उनके उत्पीड़न और शोषण का जो पाप किया गया है, उनके संग्राम से मेरा जुड़ना और जुड़े रहना मेरा पापक्षालन भी है। मैं दलितों-पिछड़ों और वंचितों के जितना करीब गया, उतना ही उनके संघर्ष से जुड़ता गया। चुनी कोटाल की मौत के मामले पर जो लड़ाई लड़ी गई, उसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा ले सका, इसका मुझे संतोष है। चुनी निचली जाति से आती थी। वह मेदिनीपुर के विद्यासागर विश्वविद्यालय में मानव शास्त्र में एमएससी कर रही थी। पर सवर्ण शिक्षक इसे नहीं पचा पा रहे थे कि किसी निचली जाति की लड़की उच्च शिक्षा प्राप्त करे। उसे तरह-तरह से प्रताड़ित किया गया और अन्तत: उसे आत्महत्या पर मजबूर किया गया।

मेदिनीपुर के ही लोधा शबरों के सवाल पर हमने कोलकाता के रानी रासमणि रोड पर बड़ी सभा की थी और सभा के बाद महाश्वेता देवी, प्रदीप राय और मैं लोधा शबरों को लेकर मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को ज्ञापन देने राईटर्स बिÏल्डग गए थे। ज्ञापन लेने के बाद बुद्धदेव ने मेदिनीपुर में लोधा सेल को तुरंत पुनर्जीवित करने का एलान किया था। कई साल बीत गए पर आज तक लोधा सेल का पुनर्गठन नहीं हुआ। मेदिनीपुर के लोधाओ की तरह पुरुलिया के खेड़िया शबरों के लिए कोलकाता में कई बार चावल, दाल, दूसरे खाद्यान्न, कपड़े आदि संग्रह करने और उन्हें पुरुलिया के खेड़िया शबर कल्याण समिति में भिजवाने में योगदान करने का भी तोष है। कई बार महाश्वेता देवी के साथ पुरूलिया के आदिवासी अंचलों में जाने और यथाशक्ति उनके काम में सहयोग करने का भी गौरव मुझे मिला। उत्तर 24 परगना में बिरसामुण्डा के नाम पर विद्यालय को सुचारू रूप से चलाने के लिए मिले दायित्व का भरसर निर्वाह भी किया।

पश्चिम बंगाल में जब दलित समन्वय समिति बनाई गई तो उसके स्थापना काल में ही दलित चिंतक नीतीश विश्वास ने कहा था- “आप हमारी लड़ाई में पहले से ही शामिल हैं। इसलिए कमेटी में आपको यथोचित दायित्व दिया जा रहा है।’ उस दायित्व के निर्वाह की कोशिश आज भी करता हूँ। बंगाल के दलित आन्दोलन में मेरी हिस्सेदारी को देखते हुए त्रिपुरा के उच्च शिक्षा मंत्री अनिल सरकार ने कुछ साल पहले बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर व्याख्यान माला के लिए आमंत्रित किया तो वहाँ भी मैंने कहा था कि महाश्वेता देवी से यह सीख ली जा सकती है कि सवर्ण घरों में जन्म लेने के बाद भी दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की लड़ाई कैसे लड़ी जा सकती है।

गुजरात के दंगों के बाद दंगा पीड़ितों की मदद के लिए महाश्वेता देवी के साथ कोलकाता में राहत सामग्री जुटाने के लिए हमने दिन-रात एक कर दिए थे। राहत सामग्री लेकर महाश्वेता देवी छह बार गुजरात गई थीं। ये सारे काम एक गहरे नैतिक आवेग से हम करते रहे हैं। वह नैतिक आवेग ही था कि छह दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद हमने कोलकाता के टाँटिया हाईस्कूल में सभा की थी। प्रतिरोध की संस्कृति का व्यावहारिक पाठ मुझे बंगाल के सांस्कृतिक जगत ने सिखाया। बंगाल के लेखक-कलाकार बार-बार विभिन्न मसलों पर सड़क पर उतरते हैं। उनके साथ कदम ताल करने का मुझे भी गौरव मिला है। बंगाल में गत दो दशकों के दौरान सुभाष मुखोपाध्याय, नीरेन्द्र नाथ चक्रवर्ती, सुनील गंगोपाध्याय, शंख घोष, जय गोस्वामी, नवारूण भट्टाचार्य, मृणाल सेन, गौतम घोष, जोगेन चौधरी, गिरिजा देवी सरीखी विभूतियों का जो स्नेह मुझे मिला, उससे मेरा जीवन समृद्ध हुआ है।

लेखक डॉ. कृपाशंकर चौबे हिन्दी पत्रकारिता और समकालीन गद्य साहित्य में एक सुपरिचित नाम। उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं- ‘चलकर आए शब्द’ (राजकमल प्रकाशन), ‘रंग, स्वर और शब्द’ (वाणी प्रकाशन), ‘संवाद चलता रहे’ (वाणी प्रकाशन),  “पत्रकारिता के उत्तर आधुनिक चरण’ (वाणी प्रकाशन), “समाज संस्कृति और समय’ (प्रकाशन संस्थान), ‘नज़रबंद तसलीमा'(शिल्पायन), “महाअरण्य की माँ’, “मृणाल सेन का छायालोक’, “करूणामूर्ति मदर टेरेसा, (तीनों आधार प्रकाशन) “पानी रे पानी’ (आनंद प्रकाशन)। 25 वर्षों तक पत्रकारिता करने के बाद अब महात्मागांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर।

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0 Comments

  1. manoranjan

    March 8, 2010 at 9:24 am

    आपके द्वारा सच को इतनी ईमानदारी से स्‍वीकार करना बहुत अच्‍छा लगा। चैनछपरा से इलाहाबाद होते हुए वर्धा तक की यात्रा की शायद कुछ बातें छूट सी गई लगती हैं। ऐसा मेरा मानना है।

  2. sachindradubey

    March 5, 2010 at 9:13 am

    shree choubay ji
    tushi gret ho
    aapke soch, vichardhara our lekh ko parnam.

    sachindra dubey

  3. sachindradubey

    March 5, 2010 at 9:11 am

    अपनी तकलीफ भी मुझे बताये,शायद उनके इतने निकट कोई नहीं है,जो उनकी तकलीफें भी जानता हो। यह उनका स्वाभिमान ही है, जो भूखे होने पर भी तने रहने जैसा प्रदर्शन करता रहा है। मैं भी आज ही जान सका कि इलाहाबाद में रहते हुए उन्हें घर से पैसे मिलने बंद हो गये थे, उनकी सामाजिक समझ ही शायद मुसीबतों में भी खड़े रहने की हिम्मत देती रही।

  4. s bharatiya

    March 4, 2010 at 10:06 am

    bhaiye pandit vishanukant shasatri ko bhula diye? unake sath bhi to khoob ghume. mother teresa ka sanidhya pakar bhi nastik bane rahen. dhanya hain prabhu.

  5. Sapan Yagyawalkya

    March 2, 2010 at 10:23 pm

    patrakarita mein dr.chaubey jaise prerak udahran pranamyogya hain.aisi gambhir samagri blog ke alochkon ko achchha uttar bhi hai. Sapan Yagyawalkya .Bareli(MP)

  6. prabhat ojha

    March 3, 2010 at 1:20 am

    कृपाशंकर को तभी से जानता हूं, जब उन्होंने पत्रकारिता शुरू की थी, यानि इलाहाबाद में आज अखबार की नौकरी के साथ। मैं उनका जनपदवासी भी हूं। हम दोनों उत्तर प्रदेश के बलिया से हैं,और आज में साथ ही काम भी किया। इस कारण थोड़े निकट भी हुए, पर कृपाशंकर ने मुझे इतना निकट नहीं समझा कि अपनी तकलीफ भी मुझे बताये,शायद उनके इतने निकट कोई नहीं है,जो उनकी तकलीफें भी जानता हो। यह उनका स्वाभिमान ही है, जो भूखे होने पर भी तने रहने जैसा प्रदर्शन करता रहा है। मैं भी आज ही जान सका कि इलाहाबाद में रहते हुए उन्हें घर से पैसे मिलने बंद हो गये थे, उनकी सामाजिक समझ ही शायद मुसीबतों में भी खड़े रहने की हिम्मत देती रही।

  7. sudhanshu dwivedi

    March 3, 2010 at 11:32 am

    kripa g
    vakai aapko kafi sangharsh krna pda. pr ek sarthak jivn jine ka jo sukh aapke pas hai , uske aage sb bekar hai. aap isi trh kmjoro ki ldai ladne ki takt pate rhe–yhi shubhkamna hai.
    –Dr. sudhanshu dwivedi

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