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मीडिया शोध और शिक्षण की सीमाएं

[caption id="attachment_16770" align="alignleft"]कृपाशंकर चौबेकृपाशंकर चौबे[/caption]पचीस वर्षों तक मैंने सक्रिय पत्रकारिता की और पत्रकारिता बगैर संवाद के चल ही नहीं सकती। मीडिया शिक्षण में भी मेरी रुचि इसलिए जगी क्योंकि यह भी विद्यार्थियों से जीवंत संवाद का अवसर देती है। पिछले वर्ष जुलाई में वर्धा के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग में रीडर बनकर आया तो यह आकांक्षा स्वाभाविक थी कि अपने विद्यार्थियों में भी जीवंत संवाद का कौशल विकसित कर सकूं। मेरा मानना है कि किसी भी तरह की रचनात्मकता के लिए, विकास के लिए, यहां तक कि किसी समुदाय को आगे ले जाने के लिए संवाद जरूरी है। मैं मीडिया में शिक्षा की पारंपरिक पद्धतियों के साथ संचार के उत्तरोत्तर आधुनिक साधनों के समन्वय का भी हिमायती हूं क्योंकि सिर्फ पारंपरिक शिक्षा पर टिके रहने से कई चीजें छूट जाएंगी और वह शिक्षा भी एकांगी होकर रह जाएगी इसलिए अपने विद्यार्थियों में द्रुत गति से विकसित हो रही टेक्नालाजी और ज्ञान प्राप्ति के नए-नए साधनों के प्रति दिलचस्पी बनाए रखना चाहता हूं ताकि जनसंचार के क्षेत्र में हो रहे नित नए आविष्कारों के प्रति वे उदासीन न हों क्योंकि वैसा होने पर वे पिछड़ जाएंगे।

कृपाशंकर चौबे

कृपाशंकर चौबेपचीस वर्षों तक मैंने सक्रिय पत्रकारिता की और पत्रकारिता बगैर संवाद के चल ही नहीं सकती। मीडिया शिक्षण में भी मेरी रुचि इसलिए जगी क्योंकि यह भी विद्यार्थियों से जीवंत संवाद का अवसर देती है। पिछले वर्ष जुलाई में वर्धा के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग में रीडर बनकर आया तो यह आकांक्षा स्वाभाविक थी कि अपने विद्यार्थियों में भी जीवंत संवाद का कौशल विकसित कर सकूं। मेरा मानना है कि किसी भी तरह की रचनात्मकता के लिए, विकास के लिए, यहां तक कि किसी समुदाय को आगे ले जाने के लिए संवाद जरूरी है। मैं मीडिया में शिक्षा की पारंपरिक पद्धतियों के साथ संचार के उत्तरोत्तर आधुनिक साधनों के समन्वय का भी हिमायती हूं क्योंकि सिर्फ पारंपरिक शिक्षा पर टिके रहने से कई चीजें छूट जाएंगी और वह शिक्षा भी एकांगी होकर रह जाएगी इसलिए अपने विद्यार्थियों में द्रुत गति से विकसित हो रही टेक्नालाजी और ज्ञान प्राप्ति के नए-नए साधनों के प्रति दिलचस्पी बनाए रखना चाहता हूं ताकि जनसंचार के क्षेत्र में हो रहे नित नए आविष्कारों के प्रति वे उदासीन न हों क्योंकि वैसा होने पर वे पिछड़ जाएंगे।

मीडिया शिक्षण का काम भविष्य की ओर देखने की दृष्ट विकसित करना है।  एक उदाहरण दूं। मीडिया के कितने छात्रों को यह पता है कि गूगल के नए स्मार्ट फोन से भविष्य में संचार कितना सुगम होगा, उसके क्या लाभ होंगे? सनद रहे कि इंटरनेट सर्च प्रोवाइडर गूगल ने अभी-अभी अमेरिका में जो स्मार्टफोन लांच किया है, उसमें अनलिमिटेड टेलीफोन काल्स की सुविधा है। यह एप्पल के आईफोन से दोगुना तेज है। थ्री जी सुविधा के साथ इस फोन में टच स्क्रीन डिस्प्ले और गूगल एंट्राइड साफ्टवेयर का नया वर्जन शामिल किया गया है। इसकी सबसे बड़ी खूबी गूगल वाइस सेवा है। इसे मोबाइल नेटवर्क से जोड़ने की कोशिश की जा रही है। उसके बाद तो लोग मुफ्त में वीडियो कालिंग का लाभ भी उठा सकेंगे। गूगल की कोशिश सर्विस प्रोवाइडर को बदले बिना ही यूजर को उसके मौजूदा सिम पर ही फोन सेवा उपलब्ध कराना है।

वस्तुतः मैं एक अग्रगामी, गतिशील और उत्तरोत्तर आधुनिक मीडिया शिक्षा पद्धति का पक्षधर हूं। मैं अपने विद्यार्थियों को बंधनों से और आत्ममुग्धता से मुक्त रखना चाहता हूं ताकि वे खुले मन से और खुले ढंग से चीजों को देख सकें और उसका उन्मुक्त होकर विश्लेषण कर सकें। लेकिन यह तो रही मेरी आकांक्षा की बात। मीडिया शिक्षण में आने के बाद मुझे जिन व्यावहारिक दिक्कतों का सामना करना पड़ा, उससे मैं बेतरह विचलित हूं। मीडिया में जो विद्यार्थी उच्च शिक्षा ग्रहण करने आ रहे हैं, उनकी अशुद्ध भाषा व व्याकरण की गलतियां विचलित करनेवाली हैं। दिलचस्प यह है कि जनसंचार में स्नातकोत्तर के इन विद्यार्थियों और शोधार्थियों ने बाकायदे प्रवेश परीक्षा देकर दाखिला लिया है। वे हिन्दी प्रदेशों के नामी विश्वविद्यालयों से स्नातक या स्नातकोत्तर करके आए हैं। पर उनमें भाषा का संस्कार-अनुशासन नहीं है। हिन्दी माध्यम से जनसंचार में शोध कर रहे अधिकतर विद्यार्थियों को ‘कि’ और ‘की’ में अंतर नहीं पता। ‘है’ और ‘हैं’ का अंतर नहीं पता। शब्द के बीच में ‘ध’ व ‘भ’ लिखना नहीं आता। ‘में’ नहीं लिखना आता। ‘उन्होंने’ और ‘होंगे’ नहीं लिखना आता। ‘कार्यवाही’ व ‘कार्रवाई’ का अंतर या ‘किश्त’ व ‘किस्त’ का अंतर नहीं पता। वे अक्सर उद्धरण चिह्नों को बंद करते समय उन्हें विराम चिह्नों से पहले लगा देते हैं। विभक्तियां सर्वनाम के साथ नहीं लिखते। क्रिया पद ‘कर’ मूल क्रिया से मिलाकर नहीं लिखते। आज के अधिकतर मीडिया विद्यार्थियों या शोधार्थियों से आप यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वे दो पैरा भी शुद्ध लिखकर आपको दिखाएंगे। उन दो पैराग्राफों में ही व्याकरण की गलतियों की भरमार मिलेगी। ‘य’ के वैकल्पिक रूपों और अनुस्वार, पंचमाक्षर और चंद्रबिंदु को लेकर अराजकता मिलेगी। अक्सर देहात, अनेक, जमीन, समय, वारदात जैसे शब्दों के बहुवचन रूप मिलेंगे।

वर्तनी को लेकर तो सर्वाधिक अराजकता मिलेगी। एक ही पृष्ठ में एक ही शब्द नाना ढंग से लिखा मिलेगा। मजे की बात यह है कि बहुत कम मीडिया शिक्षक हैं कि जिनकी इन गलतियों को सुधारने में रुचि है। उन्हें किसी तरह कोर्स पूरा करने की हड़बड़ी रहती है। वैसे ऐसे शिक्षकों की संख्या बहुत कम है जिन्हें शब्दावली, वाक्य विन्यास और व्याकरण संबंधी ज्ञान प्राप्त हो। सवाल है कि मीडिया संस्थानों से एम.ए., एम. फिल. और पीएच.डी. की उपाधि लेने के बाद जब ये विद्यार्थी या शोधार्थी पत्रकारिता या मीडिया- शिक्षण करने जाएंगे तो किस तरह की हिन्दी अपने पाठकों, श्रोताओं, दर्शकों या छात्रों को देंगे? ध्यान देने योग्य है कि पिछले कुछ वर्षों में जब से मीडिया शिक्षण संस्थानों की बाढ़ आई और उनसे निकलकर जो मीडिया घरानों से जुड़े, तभी से प्रिंट या इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता में भाषा के प्रति जागरुकता में क्रमशः ज्यादा गिरावट देखी जाने लगी और व्याकरणिक शिथिलताएं बढ़ने लगीं।

पहले ऐसा नहीं था। पहले भाषा को लेकर पत्रकार बहुत सजग रहते थे। तथ्य है कि हिन्दी गद्य के निर्माण का अधिकांश श्रेय प्रिंट मीडिया के उन पुराने पत्रकारों को है जिन्होंने अपने पत्रों के जरिए हिन्दी गद्य को रोपा-सींचा और परिनिष्ठित रूप दिया। पहले भाषा के प्रति सजगता इतनी थी कि छोटी सी त्रुटि पर भी विवाद खड़ा हो जाता था। 1905 में ‘अनस्थिरता’ शब्द को लेकर बाल मुकुंद गुप्त और महावीर प्रसाद द्विवेदी के बीच जो विवाद हुआ था, उससे भाषा व व्याकरण को एक नई व्यवस्था मिली थी। पहले के पत्रकार नए शब्द गढ़ते थे। ‘श्री’, ‘श्रीमती’, ‘राष्ट्रपति’, ‘मुद्रास्फीति’ बाबूराव विष्णु पराड़कर के दिए शब्द हैं। भाषा के प्रति तब यह जज्बा पत्रकारों की सामान्य खासियत हुआ करती थी और इसी जज्बे के कारण पुराने पत्रकार हिन्दी भाषा (और साहित्य) की समृद्ध विरासत खड़ी कर पाए थे। भारतेंदु मंडल के लेखकों से लेकर अज्ञेय, धर्मवीर भारती और रघुवीर सहाय तक एक लंबी परंपरा रही जिसमें प्रिंट मीडिया पाठकों को भाषाई संस्कार देती थी, उनकी रुचि का परिष्कार करती थी और साथ ही साथ लोक शिक्षण का काम करती थी। लेकिन पिछले ढाई दशकों में सारा परिदृश्य बदल गया।

आज प्रिंट या इलेक्ट्रानिक मीडिया में भाषा के सवाल को गौण कर दिया गया है। इन माध्यमों में भाषा व व्याकरण की गलतियां न मिलें तो वह अचरज की बात होगी। क्या हिन्दी की प्रिंट व इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता की भाषा हिन्दी की रह भी गई है? यह अहम सवाल भी हमारे सामने खड़ा है। आज हिन्दी की समूची प्रिंट व इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता घुमा-फिराकर दस हजार शब्दों का इस्तेमाल कर रही है। नब्बे हजार शब्द अप्रासंगिक बना दिए गए हैं। विज्ञप्त तथ्य है कि मीडिया पाठकों-दर्शकों-श्रोताओं के विचारों को ही नहीं, उनकी भाषा को भी गहरे प्रभावित करता रहा है। मीडिया, भाषा-शिक्षण का दावा नहीं करता पर पाठक उस माध्यम से भाषा व शब्दों के प्रयोग सीखते रहे हैं। पर आज तो मीडिया में जैसे अशुद्ध भाषा लिखने-बोलने की सनकी स्पर्धा चल रही है। हिंग्लिश को स्वीकृति दे डाली गई है। इसी माहौल में हिन्दी पत्रकारिता की पढ़ाई हो रही है जहां हिन्दी के सिर अशुद्धियां लादी जा रही हैं। यह भार वह कब तक सहेगी? बोझ ढोते-ढोते वह अचल नहीं हो जाएगी?

यदि हिन्दी पत्रकारिता के शिक्षण संस्थानों के विद्यार्थी व शिक्षक और हिन्दी की प्रिंट व इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता के पत्रकार अपनी भाषा के प्रति उदासीन रहेंगे तो यह कैसे माना जाए कि अपने भाषा-भाषियों के हित की चिंता उन्हें होगी क्योंकि कोई भाषा और उसे बोलनेवालों के हित अलगाकर नहीं देखे जा सकते। समस्या सिर्फ भाषा को लेकर नहीं है, मीडिया शोधों की स्थिति भी उतनी ही सोचनीय है। मीडिया पर इधर जो शोध प्रबंध प्रकाशित हुए हैं, उनमें कुछ अपवादों को छोड़कर गंभीर अध्ययन और प्रौढ़ विवेचन का सर्वथा अभाव है। अधिकतर शोध प्रबंधों में मीडिया-अनुसंधान की कई दिशाएं अछूती रह गई हैं। मीडिया शोधार्थी से जिस अनुशीलन और परिश्रम की अपेक्षा की जाती है, उसकी बेतरह कमी दिखाई पड़ती है। कहने की जरूरत नहीं कि प्राध्यापक बनने की अर्हता अर्जित करने के लिए यानी सिर्फ अकादमिक डिग्रियां लेने के लिए हो रहे ये शोध रस्म अदायगीभर हैं। इन अधिकतर शोध प्रबंधों में संबद्ध विषय को लेकर न कोई दृष्टि है न विषय पर नया प्रकाश पड़ता है न कोई नया रास्ता खुलता दिखता है। शोधार्थी के खास मत-अभिमत का भी पता नहीं चलता।

हिंदी में मीडिया पर गंभीर शोध की प्रवृत्ति नहीं होने से पूर्व में प्रकाशित पुस्तकों, संदर्भ ग्रंथों अथवा शोध प्रबंधों में दिए गए गलत तथ्य भी अविकल उद्धृत किए जाते रहे हैं और उन तथ्यों की सत्यता जांचने का जहमत प्रायः नहीं उठाया जाता और ऐसा बहुत पहले से-छह दशकों से होता चला आ रहा है। हिंदी की प्रिंट मीडिया पर पहला शोध छह दशक से भी पहले राम रतन भटनागर ने किया था। ‘राइज ऐंड ग्रोथ आव हिंदी जर्नलिज्म ’ शीर्षक अंग्रेजी में लिखे-छपे उनके प्रबंध पर प्रयाग विश्वविद्यालय से उन्हें डाक्टरेट की उपाधि मिली थी। डा. भटनागर ने 1826 से 1945 तक की हिंदी की प्रिंट मीडिया को अपने शोध का उपजीव्य बनाया था। उनका शोध प्रबंध 1947 में प्रकाशित हुआ। उस प्रंबध की सीमा यह थी कि उसमें गलत तथ्यों की भरमार थी। उसमें पुराने पत्रों के प्रकाशन काल तक की गलत सूचनाएं थीं। उदाहरण के लिए ‘उचित वक्ता’ का प्रकाशन 7 अगस्त 1880 को शुरू हुआ था पर भटनागर जी ने उसका प्रकाशन 1878 बताया था। इसी भांति ‘भारत मित्र ’ का प्रकाशन 17 मई 1878 को शुरू हुआ था जबकि भटनागर जी ने उसे 1877 बताया था। ‘सारसुधानधि’ का प्रकाशन 13 जनवरी 1879 को हुआ था जबकि भटनागर जी ने उसे 1878 बताया था। उन्होंने ‘नृसिंह’ पत्र का नाम बिगाड़कर ‘नरसिंह’ कर दिया था। यह पत्र 1907 में निकला था जबकि भटनागर जी ने उसका प्रकाशन काल 1909 बताया था।

विडंबना यह है कि भटनागर जी के शोध प्रबंध की उक्त गलत सूचनाओं को उनके परवर्ती काल के शोधार्थी दो दशकों तक उद्धृत करते रहे। वह सिलसिला 1968 में डा. कृष्णबिहारी मिश्र का शोध प्रबंध छपने के बाद ही थमा। मिश्र जी के प्रबंध का मूल नाम था-‘कलकता की हिंदी पत्रकारिताः उद्भव और विकास।‘ लेकिन वह छपा ‘हिंदी पत्रकारिताः जातीय चेतना और खड़ी बोली की निर्माण-भूमि’ शीर्षक से। डा. मिश्र ने अपने शोध में भटनागर जी के प्रबंध में दर्ज गलत सूचनाओं को सप्रमाण काटा। उसके बाद, देर से ही सही, डा. भटनागर के शोध प्रबंध की कमियों को दूर करते हुए  उसका संशोधित संस्करण 2003 में विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी से छापा गया। वैसे अप्रामाणिक तथ्यों के लिए सिर्फ भटनागर जी को दोष देना उचित नहीं है। यह गलती दूसरे नामी अध्येताओं से भी हुई है।

हिंदी पत्रकारिता का पहला इतिहास (शोध प्रबंध नहीं) राधाकृष्ण दास ने लिखा था। ‘हिंदी भाषा के सामयिक पत्रों का इतिहास’ शीर्षक उनकी पुस्तक 1894 में नागरी प्रचारिणी सभा से छपी थी। पर उसमें भी कई गलत सूचनाएं थीं। बाबू राधाकृष्ण दास ने उस किताब में ‘बनारस अखबार’ को हिंदी का पहला पत्र बताया था। इसी किताब को आधार मानते हुए बाल मुकुंद गुप्त ने भी ‘बनारस अखबार’ को ही हिंदी का पहला अखबार लिखा। प्रो. कल्याणमल लोढ़ा और शिवनारायण खन्ना ने ‘दिग्दर्शन’ को हिंदी का पहला पत्र लिखा किंतु ब्रजेंद्रनाथ बनर्जी ने इस तथ्य को सप्रमाण प्रस्तुत किया कि 30 मई 1826 को प्रकाशित ‘उदंत मार्तंड’ हिंदी का पहला पत्र है। बहरहाल, अचरज की बात है कि तथ्य संबंधी त्रुटि आचार्य रामचंद्र शुक्ल से भी हुई। उन्होंने अपने हिंदी साहित्य के इतिहास में ‘उचित वक्ता’ का प्रकाशन 1878 बता डाला है। दरअसल राधाकृष्ण दास की किताब को आधार बनाने से यह चूक शुक्ल जी से हुई।

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तथ्यों की प्रामाणिकता की दृष्टि से डा. कृष्णबिहारी मिश्र का शोध प्रबंध एक मानक है और विशिष्ट उपलब्धि भी। मिश्र जी ने साबित किया कि शोध एक श्रम साध्य और गंभीर विद्या कर्म है। लेकिन त्रासद स्थिति है कि इधर के कई मीडिया शोधार्थियों ने मिश्र जी के शोध प्रबंध की सामग्री हड़प लेने में कोई संकोच नहीं किया है। एक शोधार्थी ने तो मिश्र जी के प्रबंध की पूरी सामग्री तो ली ही, उस लेखिका ने आभार का पन्ना भी जस का तस छपा लिया है। अभी-अभी मीडिया के एक अन्य शोध प्रबंध को हूबहू किसी दूसरे शोधार्थी द्वारा अपने नाम से प्रस्तुत करने का मामला प्रकाश में आया है। यह मामला इसलिए पकड़ में आया क्योंकि नकल किया गया प्रबंध जांचने के लिए उसी विशेषज्ञ के पास गया, जिसने पहले प्रबंध को जांचा था।

ऐसे प्रतिकूल परिवेश में अहम सवाल है कि मीडिया शोध का मान कैसे उन्नत होगा? कहना न होगा कि सबसे बड़ी जरूरत शोधार्थियों में शोध-वृत्ति जागृत करना और उन्हें शोध की सारस्वत महत्ता का बोध कराना है। शोध निर्देशक की यह न्यूनतम जिम्मेदारी है कि वह शोधार्थी में शोध का अपेक्षित दृष्टिकोण विकसित करे, शोध के विषय के चयन के पहले उसकी सार्थकता पर गंभीरता से गौर करे और इस पर सतर्क नजर रखे कि शोधार्थी में विषय को लेकर अपेक्षित रुचि, निरंतरता और सक्रियता है कि नहीं क्योंकि उसके बिना वह मीडिया के सम्यक अनुशीलन में सक्षम नहीं होगा। शोध निर्देशक में शोध विषयक नित्य की क्रमिक प्रगति से अवगत होते रहने की उत्सुकता भी होनी चाहिए। विडंबना यह है कि इस उत्सुकता का अभाव दिखता है।

लेखक परिचय- समकालीन पत्रकारिता के साथ ही आधुनिक गद्य लेखन में डा. कृपाशंकर चौबे एक सुपरिचित नाम हैं। मीडिया शिक्षण में आने के पहले ‘हिन्दुस्तान’ में विशेष संवाददाता थे। उसके पूर्व ‘सहारा समय’ में मुख्य संवाददाता रहे। ‘जनसत्ता’ में ग्यारह वर्षों से ज्यादा समय तक उप संपादक रहे। ‘आज’, ‘स्वतंत्र भारत’, ‘सन्मार्ग’ (कोलकाता) और ‘प्रभात खबर’ में भी काम किया। प्रमुख कृतियां- 1.’चलकर आए शब्द’ (राजकमल प्रकाशन), 2. ‘रंग, स्वर और शब्द’ (वाणी प्रकाशन), 3. ‘संवाद चलता रहे’ (वाणी), 4. ‘पत्रकारिता के उत्तर आधुनिक चरण’ (वाणी), 5. ‘समाज, संस्कृति और समय’ (प्रकाशन संस्थान), 6. ‘नजरबंद तसलीमा’ (शिल्पायन), 7. ‘महाअरण्य की मां’, 8. ‘मृणाल सेन का छायालोक’, 9. ‘करुणामूर्ति मदर टेरेसा’ (तीनों आधार प्रकाशन) और 10. ‘पानी रे पानी’ (आनंद प्रकाशन)। कृपाशंकर से संपर्क 09503527704 के जरिए किया जा सकता है.

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0 Comments

  1. ashok mishra assistant editor india news

    January 19, 2010 at 11:06 am

    kripaji apka dawra lakh mai uthay gaya mudda bahut vicharniya hai.achi bat hai ki aap kuch likh raha hai.

  2. hanuman galwa

    January 19, 2010 at 11:26 am

    आपने सही लिखा है कृपा शंकर चौबे जी। हमारे यहां पत्रकारिता और जनसंचार के पाठ्ïयक्रम तो हर शिक्षण संस्थान में शुरू कर दिए जाते हैं, लेकिन विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए अच्छी फैकल्टी बहुत कम जगह हैं। ज्यादातर विश्वविद्यालय के पत्रकारिता एवं जनसंचार के पाठ्ïयक्रम अपडेट भी नहीं है। प्रिंटिंग तकनीक पूरी तरह बदल चुकी है, लेकिन कई विश्वविद्यालय अभी भी ट्रेडल प्रिंटिग तकनीक का ही ज्ञान दे रहे हैं। पत्रकारिता एवं जनसंचार पाठ्ïयक्रम की भी कहीं कोई एकरूपता नहीं है। पाठ्ïयक्रम में एकरूपता भले ही न हो, लेकिन गुणवत्ता की दृष्टिï से तो इसे उपयोगी बनाया जाना जरूरी है। पत्रकारिता एवं जनसंचार के विद्यार्थियों को ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिए, जो उनके कॅरियर निर्माण में उपयोगी साबित हो सके। मीडिया के विद्यार्थियों में हमें जो कमी नजर आ रही है, उसे दूर करने का दायित्व किसका है? इस पर भी हमें विचार करना होगा।
    – डॉ. हनुमान गालवा
    वरिष्ठ उप संपादक, डेली न्यूज, जयपुर 098292 88733

  3. mohan singh kolkata

    January 19, 2010 at 12:01 pm

    kripa shanker ji ko mai varso se padta raha hu. kolkata ke woh aise patrakar hai jo apni lekhni ki wajah se desh me jane jate hai. unki paini dristi hi ka kamal hai ki haindi ko bengla aur bengla walo ko hindi walo ke sath lane me mahatwopurna bhumika nibhai.

  4. rij

    January 19, 2010 at 12:17 pm

    chaube ji bahut achha hota ki aap universsities me ho rahi niyuktiyo ke bare me bhi apne bebak vichar rakhe. aap jaha niyukt hain vahi ke aapke head chorguru ke rup me jane jate hain,aapke mahan professor mitra keval b.com pss karke anubhav ke name per professor hai. jaha ek lecturer ke liye tamam bandishe hain vahi professor ke liye kuchh nahi.aap khud hindi ke student rahe hain aur anubhav ke adhar per patrakarita padh rahe hain. aap ki baat aur achhi lagti yadi aap media ke mahan yaogya teachers ke bare me bhi likhe. lekin aisa nahi hoga kyoki aap bhi……

  5. madhavi shree

    January 19, 2010 at 12:48 pm

    हम भूल जाते है कृपा जी बच्चे हमसे ही सिखाते है , विद्यार्थियों को कोसना आसान है पर खुद के गिरेबान में झाकना कठिन . चलिए आपने कोलकाता से निकल कर वर्धा जाने की हिम्मत तो की . उसके लिए बधाई .

  6. sarvesh, patna

    January 19, 2010 at 1:07 pm

    kripa jee student ko kosna bahut aasan hai lekin kabhi khud ke bare mein aapna socha hai ki jis sodh ki baat aap kar rahe hai uske bare mein appko kitna pata hai.

  7. Ratan Singh Shekhawat

    January 19, 2010 at 3:07 pm

    आपने सही सवाल उठाया है। वर्तमान समय में ऐसे संपादकों की बड़ी संख्या है जिनका मानना है पाठकों या दर्शकों की संख्या भाषा की शुद्धता से नहीं बल्कि खबर के विस्फोटक होने से बढ़ती है। ऐसे में भाषा का सवाल काफी पीछे चला गया है। मेरे हिसाब से मीडिया की चाहे वह इलेक्ट्रॉनिक हो या प्रिंट्र भाषा में बदलाव बहुत ज्यादा आने वाले हैं। भाषा में एकरूपता नहीं है। एक ही शब्द को अखबार अलग-अलग रूप में लिख रहे हैं। जैसे रुपये-रुपए। यह नहीं अग्रेंजी शब्दों का प्रयोग जितनी तेजी से बढ़ रहा है उससे साफ है कि उनके हिंदी शब्द लोग भूल ही जाएंगे। मीडिया ने भाषा को अपनी सुविधा के लिए इस्तेमाल किया है। आखिर हँस और हंस में अंतर किसे नहीं पता, लेकिन अनुनासिक को मारकर अनुस्वार की सत्ता को अपनी आसानी के लिए मीडिया ने ही स्थापित किया। तर्क यह है कि भाषा बदलती रहती है और जो समय साथ बदलता है वह कभी नहीं मरता। अब यह आप जैसे बुद्धिजीवी तय करें कि हिंदी का मूर्त रूप बने रहने में हमारा हित है या उसके बदलते रहने में।
    रतन सिंह शेखावत, सीनियर सब एडिटर, बिजनेस भास्कर

  8. pallav

    January 19, 2010 at 4:36 pm

    umda aalekh.

  9. sandeep mishra

    January 19, 2010 at 5:19 pm

    बात केवल पत्रकारिता की पढ़ाई की ही नहीं है, आज केवल शिक्षा रोजगार का माध्यम बन गई है। केवल कुछ ही बाजार के चंगुल से बचे पर वह भी आज मजबूर हो गये हैं। आपने लेख अच्छा लिखा है लेकिन इसकी सार्थकता तभी है जब इसे अखबार चलाने वाले पढ़ लें। हिन्दी विस्तार करे यही मेरी कामना है।
    संदीप मिश्र
    मोबाइल 9968127275

  10. vivek yadav

    January 19, 2010 at 5:47 pm

    आपने जिस शोध में तथ्यात्मक गलतियों की ओर सवाल उठाए है हो सकता है कि वह सही भी हो। लेकिन एक बात मैं आपको याद दिलाना चाहता हूं कि आप जिस विश्वविद्यालय में है वहां जिन लड़कों को आप पीएचडी करा रहे हैं उन लड़कों की योग्यता को कभी आपने परखने की कोशिश की है। आप पुरानी बातों का जिक्र कर रहे हैं। पुराने शोध में की गई गलतियों का जिक्र कर रहे हैं। लेकिन आप जिन छात्रों को पीएचडी करा रहे हैं कभी उनके बारे में सोचा है कि उनको शोध के बारे में एबीसीडी भी पता है। पहले अपने छात्रों को शोध की विषय वस्तु और उससे जुड़ी बारीकियों के बताएं। उसके बाद ही कोई आपके इस लेख का महत्व लोगों को समझ में आएगा।
    vivek yadav, uttarakhand

  11. dhirendra MIshra

    January 19, 2010 at 5:51 pm

    चौबे साहब हिंदी को अपना समझना छोड् दें तो बेहतर है हिंदी अब भारतीय पूंजीपतियों की रखैल है प.कार से पूंजीपति श्रम खरीदते हैं भाषा की शुद़धता और अशुद़धता नहीं आपने ये बात कहने में देर कर दी है अब पूंजीपति इसी रखैल के माध्‍यम से भोपूं बजाते रहेंगे और किसी को सोने नहीं देंगे आजादी के बाद के जिन प.कों की आप तहेदिल से प्रशंसा कर रहे हैा उन्‍हीं की अंगुली पकड1 आगे बढ1ने वाल आज के स्‍वनामधन्‍य प.कार चैनल चला रहे हैं जिन्‍हें आप खूब जानते हैा उन्‍होंने पू‍ंजीपतियों के हाथों इस भाषा को गिरवी रख दी है इसलिए आप नई पीढ1ी के प.कारों यानी हिं‍गलिश को कोसना छोड1 दें हांा इस बात को लेकर अलख जगाएं तो बात बने क्‍योंकि आज केवल कहने से कुछ नहीं होने वाला है क्‍योंकि गांधी के इस स्‍‍वराज्‍य और सुशासन में भाषा को बाजार में सर्वोत्‍तम उत्‍पाद बताकर बेचने का काम जारी है इसलिए आप चिंता न करें उत्‍पाद सही है तो लोग खरीदेंगे नहीं तो उससे मुंह मोड् लेंगे बाजार का यही नियम है इसे पूंजीपति बदल नहीं सकते ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि वैश्‍वीकरण और उदारवाद के नाम पर जिस तरह से हमारे कर्ताधर्ता अपने लोगों से ही विश्‍वासघात करने से नहीं चूकते तो ि‍फर भाषा से खेल ही रहे हैं तो इसमें अनपेक्षित क्‍या है। हकीकत ये है कि प.कार भाषा को नहीं बिगाड1 रहे, बल्कि मीडिया को प.कारों से चाहिए यही भाषा जिसे आप हिंदी नहीं हिंगलिश मानते हैं

    धीरेन्‍द्र मिश्र

  12. pallavi newyork

    January 20, 2010 at 9:32 am

    kripashanker chaubey ji ka lekh kafi umda hai . is pure lekh se yeh malum padta hai ki hinustaan ka higher education system ki reality kya hai.

  13. jaiprakash mishra

    January 20, 2010 at 9:35 am

    Bhaiya,
    pranam,
    aapne jis mude ko uchhala hai. wah hindi samaj ko jhakjhorne wala hai. kabir ne jis tarah kaha tha ki duniya bartan k bahri hise ko majti hai. hindi ki bindi ko sawarne wale log v hindi ki bahri duniya ko sudharne me lage hai parantu andar hi andar andhera kayam hai. aaj basantpanchami k mauke par barbas hi nirala ki ye pankti yaad aa rahi hai ..gahan hai aadhiyara…. bangal k hindi pati k patrakaro k anusar aap bengal k akele aadmi hai jo bengal ko hindi me likhata hai. ise sangyan me lekar mai yah kahna chahta hoo ki bengal aur kamobesh har prant ke state board, cbse & icse me bache 5 to M,A. (hindi) notes padhte hai tatha guru ji notes k antim pane par hastaksahar kar dete hai. aise logo ko janm dene k intellectuals hi jimedaar hai…….is gahan adhiyara se aap samaj ko mukti dila sakte hai. ……………….
    jaiprakash Mishra, Prabhat khabar kolkata edition

  14. shani singh

    January 20, 2010 at 2:01 pm

    aap sahitya ke teacher hai, soch samjh ker bolo

  15. Chandrika Panday, wardha

    January 20, 2010 at 2:59 pm

    Mr. Kripa
    There is a lot of grammatical error in your articles also, do u know about this. plz check the error try to write meaning of “paragraph” in hindi. otherwise people will say the same thing about u , which u are saying about the current batch of PHD Student of महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, wardha.

  16. jamos sablok

    January 20, 2010 at 3:22 pm

    पत्रकारिता की सभी पुराणी परिभाषाएं बदल रही हैं इसीलिए इसके प्रति नज़रिया भी बदलना अब जरूरी हो गया है|यह चौथा स्तम्भ भी अब महंगाई+भ्रस्टाचार+अपराध+नकारे पण को कोई प्रभावकारी मुद्दा नहीं बना पा रहा है|

  17. विनीत कुमार

    January 20, 2010 at 5:05 pm

    एक कमेंट तो मैंने भी किया था,वो कहीं दिखाई नहीं दे रहा। मामला क्या है?

  18. Devashish Prasoon

    January 20, 2010 at 6:01 pm

    kisht aur kist mein anter hi patrakarita nahi hai. patrakarita ka matlab kripa shankar bhi nahi hai. jab aap jaise log teacher ban jayange to student se kya ummid ki ja sakti hai.
    Devashish Prasoon

  19. shani singh

    January 21, 2010 at 9:40 am

    kripa shankar ji aap sahitya ke student rahe ho, ishke baad aapko sahitya ke student ko hi sikhana chahiye ki hai or hei me kya diffent hai, main or mein my kya anter hai, aapko to MGAHU (mass communication) depatmen se aap logo ko PhD kara rahe hai ush to chod ker sahitya depatment ke student ko PhD karani chahiye, kyuki apko mass communication ke bare me jayada pata nahi hai, kya hoti hai mass communication. sambad kya hota hai, kis ke sath hota hai, sab ke sab exprience batate hai, degree to kisi ke pass hai nahi, jab exprience se hi lucture or prof. ban sakte hai to, hum logo ka degree lena bekar hai, pata nahi aap logo ne kis-2 ko rishwat de hogi, kuch time or, sab ka chitha ishee blog per daluga, jara sabhal ker,
    if u r contract me so mail me my id,
    [email protected]

  20. RINKOO SINGH

    January 21, 2010 at 12:05 pm

    CHAUBE JI AAP AUR AAPKE B.COM 3RD DIVISION PASS PROFFESSOR DOST JAB CLASSROOM ME NAXLI NETAO KO B.B.C. KA PATRKAR BATA KAR INTRODUCE KARVAYENGE TO AAP KE BAUDHIK BE-IMANI KA ANDAJA LAGAYA JA SAKTA HAI. APNE 3RD DIVISIONAR DOST PROFFESSOR KE JANE KI KHABAR SE AAP BADE DUKHI HAIN. YE KYO NAHI SOCHTE KI AOSE PROFESSOR KE JANE SE STUDENTS KI KAI PIDHIYO KO BARBAD HONE SE BACHAYA JA SAKEGA. AAP APNI AUR APNE YOGYA SAH ADYAPAKO KI PROFILE BATA DE AUR KHUD DIL PER HATH RAKH KAR KAHE KI AAP LOGO KI NIYUKTIYA UCHIT HAIN TO JAANU. JAB AAP JAISE TEACHER KEVAL MAHDEVIYON KI KRIPA SE READER AUR PROFESSORSA BAN JAYE TO STUDENTS SE AISI GALTIYAN HONI HI HONI HAI. PER UPDESH KUSHAL BAHUTERE AAP JAISO KKE LIYE HI KAHA GAYA HAI. BHAVISHYA ME BINA APNE POST SE RESIGN KIYE AISE ARTICLES NA LIKHE AUR KEVAL AUR KEVAL WARDHA ME RAJNITI KARE TO BADI KRIPA HOGI.

  21. sukesh narula, chandigarh

    January 21, 2010 at 6:38 pm

    kripa jee, bhai rinku ne aapki asli haqiqat jamane ke samne rakh di hai. sath hi apke param priye dost ke educational qualification ka bhi khulasa kar diya hai. ab aapka is bare mein kya kahna hai. kya B.Com 3rd Division ko journalism ka professor banaya ja sakta hai. aap apne opinion se jaswant bhai ko jarur bataye. taki log aapke is article ka asli bhavarth samaj sake.

  22. gopal, kanpur

    January 22, 2010 at 9:51 am

    Kripa Shankar ji
    App aur aapke dost kab tak jamane ko education ke nam per dhoka dete rahenge. muskil to yeh hai ki aap dono ka kya kiya jaye. aakhir guru ji jo tahre

  23. Devashish Prasoon

    January 23, 2010 at 1:39 pm

    संपादक महोदय,

    कृपा जी जैसे शिक्षक बहुत भाग्यशाली विद्यार्थियों को नसीब होते हैं। सौभाग्य से मुझे यह मौका मिला है। बतौर छात्र मैंने पत्रकारिता और भाषा की कई सूक्ष्म बारीकियाँ उनसे सीखी हैं।

    आज किसी बेहूदे और मनचले मनोरोगी ने मेरे नाम का उपयोग करते हुए मेरे गुरू का जो अपमान किया है, उससे मैं आहत हूँ। अफ़सोस है कि ब्लॉगिंग की इस दुनिया में किसी दूसरे के नाम से अपने मनोविकार को निकालने पर कोई लगाम नहीं लग पा रहा है।

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