आटोग्राफ लेने वालों की भीड़ से घिरे कुलदीप नैय्यर के लिए कहा जा सकता है- वे पत्रकारिता के सुपरस्टार हैं : कुलदीप नैय्यर को हिंदी में कोई कुलदीप नैयर लिखता है तो कोई कुलदीप नय्यर. उन्हें आप चाहें जैसे लिखें, लेकिन वे साक्षात दिखते हैं हीरो माफिक. वे जहां होते हैं, ढेर सारे लोग उनके इर्द-गिर्द इस लालसा में खड़े हो जाते हैं कि वे एक लिविंग लीजेंड के साथ दो-चार घड़ी बिता सकें. उसे सुन-महसूस कर सकें. एक सरल-सहज व्यक्तित्व जो पत्रकारिता का शीर्ष स्तंभ है, खुद के बारे में अब मंच से कहता है कि जीवन की सांझ की बेला है. उनके इस कहे से उन्हें चाहने वालों का दिल दुखता है. पर कुलदीप जी को एहसास है कि वे जीवन की शाम पर खड़े हैं. इस शाम के दौरान वे अपने और पत्रकारिता के अतीत को देखते हैं तो रुंधे गले से कह पड़ते हैं कि जो सोचा था, वह नहीं हुआ. जो सपने देखे थे, वे यथार्थ का रूप नहीं ले सके. प्रभाष जी पर कल एक किताब का लोकार्पण दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में हुआ तो पहला वक्तव्य कुलदीप नैय्यर ने दिया और उन्होंने ही किताब का लोकार्पण भी किया. हाल खचाखच भरा था. प्रभाष जी को चाहने-जानने वाले बड़ी संख्या में आए थे. कुलदीप जी ने बोलना शुरू किया तो हम जैसे कइयों का दिल दुखना शुरू हो गया.
उनकी बातों से लग रहा था कि कोई हूक है उनके अंदर जिसे वे सबके साथ शेयर करना चाहते हैं. लग रहा था कि जिस ईमानदारी से कुलदीप जी और उनकी पीढ़ी के लोगों ने मेहनत की, नतीजा उसके अनुरूप नहीं आया. अब जीवन की शाम की बेला में जो ओवरआल माहौल है, उसे देखते हुए उन्हें खुद की और अपने समय के ईमानदार लोगों की मेहनत व्यर्थ-सी जाती दिखने लगी है. पर उम्मीद कायम है. उन्हें लगता है कि नए लोग मशाल लेकर आगे बढ़ेंगे. अपने वक्तव्य में कुलदीपजी नए लोगों पर भरोसा जता रहे थे कि यही लोग अब आगे कारवां को आगे बढ़ाएंगे.
कुलदीप जी कार्यक्रम के उत्तरार्ध में जब जाने को निकले तो कार्यक्रम जारी रहने के बावजूद उनके पीछे एक हुजूम चल पड़ा. कुछ न्यूज चैनल के लोग भी. हाल से बाहर निकलते ही सबने उन्हें घेर लिया. जिन लोगों ने प्रभाष जी पर लिखी गई किताब को हाथ में ले रखा था, उनने कुलदीप का आटोग्राफ पाने के लिए किताब को उनके आगे कर दिया. जिनके पास कापी या डायरी थी, उनने अपनी कापियां व डायरियां आगे बढ़ा दी. कुलदीप जी ने किसी को निराश नहीं किया. न्यूज चैनल वालों ने कुछ सवाल पूछे तो उन्होंने सबको संक्षिप्त जवाब दिया. लोगों से मिलते रहे. लोग उन्हें अपना परिचय देते रहे. जिन्हें वे जानते थे, उनकी पीठ पर हाथ रखते रहे.
यूं करके वे हाल से बाहर निकल कर अपनी कार में करीब आधे घंटे बाद पहुंच पाए. मैं भी चुपचाप भीड़ के साथ कुलदीप जी के दाएं-बाएं चल रहा था. हाथ में मोबाइल था, सो मोबाइल से ही वीडियो रिकार्डिंग शुरू कर दी थी. अपने समय के हीरो को देखना और सुनना वाकई प्रफुल्लित करने वाला था. कुलदीप जी से उसी भीड़ में अपना परिचय दिया और उनसे मिलने की इच्छा जताई. उन्होंने वादा किया. पुष्पराज ने भी मेरा परिचय कुलदीप जी से कराया. कुलदीप जी के चेहरे पर लगातार एक उल्लास और गर्व का भाव था.
यह उल्लास और गर्व इसलिए भी रहा होगा कि उनके पीछे कुछ लोग हैं जो उन जैसा बनने के लिए सोचते हैं, उनकी राह पर चलना चाहते हैं. यही वो उम्मीद है जिस कारण कुलदीप जी कहते हैं कि नए लोगों पर उन्हें भरोसा है. पर नए लोग कितने हैं जो कुलदीप नैय्यर बनना चाहते हैं. संख्या बहुत कम होगी, उंगलियों पर गिनी जाने लायक होगी लेकिन यह सच है कि कुलदीप जी और प्रभाष जोशी जी ने बेबाकी की जिस मशाल को आगे बढ़ाते हुए यहां तक ले आए हैं, कुछ युवा लोग उसे अपने हाथ में थामकर पूरी ऊर्जा के साथ आगे बढ़ने वाले हैं. इन्हीं युवा योद्धाओं के बल पर पत्रकारिता की बुलंद परंपरा कायम रहेगी और आगे बढ़ती रहेगी. चिरकुट और चोर चाहें जिस तादाद में पैदा होते रहें, अगर दो-चार-दस-बीस ईमानदार पूरी ऊर्जा से सक्रिय होकर प्रभाष जी-कुलदीप जी की राह पर चलते रह जाएं तो उचक्कों की भ्रष्ट बुद्धि हर वक्त कांपती-थरथराती रहेगी और आम आदमी तक सुकून का संबल पहुंचता रहेगा.
आइए, कुछ वीडियो दिखाते हैं जब कुलदीप जी हाल से निकल कर अपनी कार की तरफ बढ़ रहे हैं और लोगों को आटोग्राफ दे रहे हैं, सवालों के जवाब दे रहे हैं. वीडियो के नीचे गांधी शांति प्रतिष्ठान में हुए कार्यक्रम की रिपोर्ट है जो आज जनसत्ता में प्रकाशित हुई है.
यहां अगर ओम थानवी का जिक्र नहीं करूंगा तो बात पूरी नहीं हो पाएगी. जनसत्ता के संपादक ओम थानवी से मेरा पहला सामना कल गांधी शांति प्रतिष्ठान में ही हुआ. वे मंच पर आए और बोले तो लोग चुपचाप सुनते रहे. बीच-बीच में तालियां बजती रही. ओम थानवी ने चंडीगढ़ के दिनों की बातें बताईं. किस तरह आतंकवादियों के प्रेस नोट बना काटे-छांटे पूरा का पूरा छपता था. आतंकियों ने मीडिया के लिए एक एडवाइजरी जारी की तो सिर्फ जनसत्ता ही ऐसा अखबार रहा जिसने उसे नहीं माना. न मानने का फैसला ओम थानवी और उनकी टीम ने प्रभाष जी की सलाह और अपनी इच्छा पर लिया. बड़ी बात है ये. जिन दिनों आतंकियों की तड़तड़ाती गोलियों से पंजाब का कोई भी शख्स सुरक्षित नहीं था, उन दिनों ओम थानवी और उनकी टीम चंडीगढ़ में अपने नजरिए से पत्रकारिता कर रही थी, प्रभाष जी को सानिध्य में, ये पत्रकारिता का ऐसा पहलू है जिस पर अभी बहुत विस्तार से कहीं लिखा नहीं गया है. ओम थानवी ने जितने भी बातें कहीं, कोई बात उनके अखबार जनसत्ता में नहीं प्रकाशित हुई क्योंकि ऐसा उनका नियम है कि वे कहीं भी जाएं, कुछ भी बोलें, उनकी बात उनके संपादकत्व में निकलने वाले अखबार में प्रकाशित नहीं होगी. आज के समय में ऐसे भी संपादक हैं, यह जानकर खुशी होती है. ओम थानवी ने वह प्रसंग भी सुनाया कि किस तरह उन्हें जनसत्ता, चंडीगढ़ का संपादक प्रभाष जी ने बनाया और उनके परिवार में आतंकवाद के उन दिनों में चंडीगढ़ जाने को लेकर क्या बहस हुई. प्रभाष जी और जनसत्ता को लेकर ओम थानवी ने काफी कुछ बातें बताईं और कई शंकाओं का शमन भी किया.
इस मौके पर हिंदी वेब मीडिया के प्रमुख लोग भी मौजूद थे. जनतंत्र डॉट काम संचालित करने वाले समरेंद्र सिंह और मोहल्लालाइव वाले अविनाश तो मौजूद थे ही, काम से परम विस्फोटक पर देखने में भारत का आम आदमी लगने वाले विस्फोट डॉट कॉम के कर्ताधर्ता संजय तिवारी भी शरीक हुए.
-यशवंत, एडिटर, भड़ास4मीडिया
09999330099
प्रभाष जी को योद्धा बताकर खुद हारी हुई कतार में न खड़े हो जाएं
‘आजादी के समय और बंटवारे के बाद भारत आने के बाद हम लोगों ने बहुत ख्वाब देखे थे. मेरे दौर के लोग सोचते थे कि ऐसा देश बनाएंगे, जहां हर आदमी को बराबरी का दर्जा मिले. गांधी, जेपी और लोहिया के सपने को सच करने में हमारी पीढ़ी काफी सजग थी. प्रभाष जी उस काम में हम लोगों के साथ जुड़े थे.’ वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने गुरुवार को गांधी शांति प्रतिष्ठान में प्रभाष जोशी स्मृति संचयन ‘हद से अनहद गये’ के लोकार्पण के मौके पर यह कहा. उन्होंने कहा कि हमें आजादी तो मिल गई, लेकिन स्वतंत्रता अभी तक नहीं मिल सकी है. खासकर नई पीढ़ी से उन्होंने कहा कि वह समाज को बदलने में अपना योगदान दें, तभी प्रभाष जी के सोच को नया जीवन मिल सकेगा. इस पुस्तक का संपादन रेखा अवस्थी, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह और स्मित पराग ने मिलकर किया है.
नैयर ने कहा कि प्रभाष जोशी की लेखनी का हर किसी को इंतजार रहता था. उनके लिखे पर गंभीर मंथन चलता रहता था. उन्होंने आपरेशन ब्लू स्टार के दौरान सत्ता के खिलाफ जनसत्ता में जमकर लेख लिखे. बाबरी मस्जिद विध्वंस के खिलाफ उन्होंने दक्षिणपंथी शक्तियों के खिलाफ जमकर मोर्चा ही खोल दिया. इस अवसर पर वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी ने कहा कि प्रभाष जोशी गांधीवादी निर्भयता के संभवतया अंतिम प्रवक्ता थे. वे अपने लोगों के खिलाफ तो जा ही सकते थे, स्वयं के खिलाफ भी जाने का साहस था. उन्होंने सत्ता के खिलाफ मुखर होने का साहस किया.
उन्होंने कहा कि प्रभाष जोशी ऐसे पत्रकार थे, जो हिंदी साहित्य में ध्यान से सुने जाते थे. यदि गैर साहित्यिक लोगों में से किन्हीं तीन प्रबुद्ध लोगों का चुनाव करना हो तो, राम मनोहर लोहिया, राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी का नाम लिया जा सकता है. अंतिम दौर में एक तरह से वे हिंदी समाज के प्रवक्ता बन गए थे. उन्होंने कहा कि पिछले आठ-दस साल से वे हिंदी समाज में हिंदी लेखन को प्रतिष्ठित करने में जुटे हुए थे. इन लेखकों की समाज में सार्वजनिक उपस्थिति और मान्यताएं बढ़े, इसके लिए वे प्रयासरत थे. स्वराज प्रकाशन की ओर से प्रकाशित इस पुस्तक की विशेषता पर रोशनी डालते हुए उन्होंने कहा कि पहली बार किसी पत्रकार पर लेखकों ने पुस्तक संपादित की है.
पर्यावरणविद अनुपम मिश्र ने कहा कि प्रभाष जी ऐसे शानदार व्यक्तित्व थे, जिस पर कभी भी चर्चा की जा सकती है. उनकी तस्वीर देखकर अहसास नहीं होता कि वे हमारे बीच नहीं हैं. उन्होंने कहा कि वे हाथ से लिखते थे, दिल से लिखते थे. उन्होंने लोगों का आह्वान किया कि प्रभाष जी को योद्धा बताकर खुद निकम्मापन नहीं दिखाएं. उन्हें महान बताकर खुद हारी हुई कतार में न खड़े हो जाएं. उन्हें याद करने के तरीके ढूंढे जा सकते हैं. कुछ अच्छा लिखकर हम उनके सफर को आगे बढ़ा सकते हैं. अगर हम पांच फीसदी लेखन भी प्रभाष जी के नजरिए से कर दें तो काफी काम हो सकता है.
लेखक नित्यानंद तिवारी ने कहा कि 1980 के बाद हिंदी पत्रकारिता का जो बौद्धिक चरित्र बना उसमें राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी का महत्वपूर्ण योगदान था. प्रभाष जी तो देशज बौद्धिकता के प्रतीक ही थे. उन्होंने कहा कि उनके लेखों ने नई हिंदी शैली का निर्माण किया. वे खूब यात्रा करते थे. जन आंदोलनों में शामिल होते थे. यह सिलसिला आखिर तक जारी रहा. समाज का बिखराव उन्हें अंदर से विचलित करता था. वे लोगों के साथ बराबरी से पेश आते थे, चाहे आदमी कितना भी छोटा क्यों न हो.
कवि मंगलेश डबराल ने इस मौके पर कहा कि वे लिखने वाले संपादक थे. उन्होंने हिंदी पत्रकारिता का औपचारिक ढांचा तोड़ दिया. उन्होंने अपने प्रयोग को कभी परंपरा नहीं बनने दिया, उसे अनौपचारिक स्वरूप दिया. उन्होंने कहा कि प्रभाष जी के लेखों में लोक देवताओं का जिक्र आता है. नदियों में भी गंगा की जगह नर्मदा का जिक्र करते हैं. इससे साफ है कि वे मामूली लोगों से जुड़ाव महसूस करते थे.
पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी ने कहा कि प्रभाष जोशी में तीस करोड़ लोगों से इतर लोगों में भी झांकने का नजरिया था. वे प्रिंट और टीवी में पैसे लेकर खबर छापने को लेकर चिंतित थे और देशभर में उसके लिए अभियान चला रहे थे. पुष्पराज ने कहा कि हम जैसे गांव से आए छात्रों का उन्होंने मार्गदर्शन किया. सोपान जोशी ने प्रभाष जी और उनके लिखे को याद करते हुए कहा कि वे पत्रकार बनने नहीं निकले थे, बल्कि स्कूल-कालेज छोड़कर ग्राम सेवा करने निकले थे. सुनवानी महाकाल प्रवास के दौरान उनका जो मन बना, वह अगले बावन साल तक एक समान रहा. सुख-दुख, हार-जीत में वे एक समान रहे. उनका मन गांव में रहने वालों का मन देख सकता था. कार्यक्रम की अध्यक्षता ओम थानवी ने की. संचालन रवींद्र त्रिपाठी ने किया. साभार : जनसत्ता
umesh mishra
January 29, 2010 at 2:45 pm
कुलदीप नैय्यर सही कहते है आज पत्रकारिता का मतलब ही बदल गया है अब पैसे लेकर पत्रकारिता हो रही है चाहे वो विज्ञापन की आड़ मे हो या सीधे तोर पर
Rishi Naagar
January 29, 2010 at 3:42 pm
No words to express my feelings! Yashwant Bhai, you are simply great! Saltes to Kuldeep Nayyar and Prabhash ji!
smit parag
January 30, 2010 at 8:31 am
thank u yashwant g
Gaurav Maurya
February 6, 2010 at 9:55 am
aaj pehli baar Bhadas4media par comments likh raha hun…Jansatta pichle 4 saal se padh raha hun…jab agra se delhi media course karne aaya tha, to pata bhi nahi tha prabhash joshi ji aur Om Thanvi ji ke bare mein….tab ek din hamare college mein Aaj Tak ke ek senior editor aaye aur hum logo se pucha kaun sa akhbaar padhte ho, sab ne garv se kaha Times of India, The Hindustan Times, Amar Ujala, Dainik Jagran etc etc etc. Kuch zyada samajhdaar students ne kaha The Hindu. Tab wo bole patrakarita kya hai ye samajhna hai to kam se kam 3 mahine ache se Jansatta padho. Tab laga ye kya baat hai, itnr bade bade akhbaro ke samne is chote se naam ka zikr kyun. Khair salaah maan kar amal kiya to pata chala kya farq hota hai ‘akhbaar’ aur ‘vyapaar’ mein.Jansatta ko asal mein ‘Aam Jan’ ki ‘Satta’ banane ka shrey Prabhash Joshi aur OmThanvi ji ko hi jata hai….Prabash ji ke bare mein Jansatta mein unka ‘Kagad Kare’ padh ke hi pata chala. Unki mrityu ke baad waqai ek khalipan aaya hai. Har sunday ko 5th page pe unka column padhne ki lat lag gayi thi….unke cricket ke content aur bhavukta se labrez lekh ab nahi milte. Khair Jansatta padhna nahi choda aur na hi kabhi chutega. Aur bhi akhbaar aate hain, lekin Jansatta se jo bhavnatmak lagaav hai us se paar pana kisi aur akhbaar ke liye sambhav nahi lagta. Prabash ji ke akhri dino mein Paise lekar khabar chapne wale akhbaaron ke khilaaf chalaye gaye abhiyaan se bahut kuch janne aur sikhne ko mila…..aisa vilakshan vyaktitva baar baar nahi paida hota, jo umra ke is padav pe bhi Commercialisation aur corruption ke khilaaf campaign chalane ka madda rakhe. kaash upar wala humein bhi aisi hi dridhta aur saahas se nawaze jis se kabhi galat ke khilaaf pair peeche na hatein…..Aaj ke media aspirant students ko zameeni patrakarita ke gur Om Thanve ji aur Prabhash ji jaise zameen se jude log hi sikha sakte.