धीरेन्द्र अस्थाना का उपन्यास ‘देश निकाला’ मुम्बई के फिल्मी जीवन का आईना है। इसमें वर्तमान यथार्थ से आगे जाकर एक नए यथार्थ को स्थापित करने की सराहनीय कोशिश की गई है। ये विचार जाने माने कथाकार जगदम्बा प्रसाद दीक्षित ने शनिवार 13 जून को लोकमंगल द्वारा मुम्बई के दुर्गादेवी सराफ सभागृह में आयोजित लोकार्पण समारोह में व्यक्त किए। पहली बार शायद ऐसा हुआ कि दीक्षित जी वामपंथी चिंतन और साम्राज्यवादी चिंता से मुक्त होकर मुक्तभाव से बोले। उन्होंने आगे कहा कि फ़िल्म जगत में मां बनने के बाद अभिनेत्री का कैरियर खत्म हो जाता है। मगर इस उपन्यास की नायिका मल्लिका को मां बनने के बाद भी प्रमुख भूमिकाओं के प्रस्ताव मिलते हैं।
यह स्वागतयोग्य बात है। अभिनेत्री मीना कुमारी पर मर्मस्पर्शी संस्मरण सुनाकर उन्होंने फिल्म जगत के अंधेरे पक्ष को रेखांकित किया। दीक्षित जी ने बताया कि स्टार अभिनेत्री होने के बावजूद मीनाकुमारी सामान्य स्त्री की तरह व्यवहार करती थीं। इलाहाबाद के कवि यश मालवीय के आलेख को आकाशवाणी के उदघोषक आनंद सिंह ने और दिल्ली के कवि सुशील सिद्धार्थ के आलेख को लेखक अनिल सहगल ने प्रस्तुत किया। कवि राजेश श्रीवास्तव और कवि हृदयेश मयंक ने ‘देश निकाला’ पर अपने आलेख खुद पढ़े। दिल्ली से पधारे ‘थिंक इंडिया’ के सम्पादक देवी प्रसाद त्रिपाठी ने बहुत आत्मीयता से अपनी बात रखते हुए कहा कि यह उपन्यास मुम्बई के जीवन का जीवंत दस्तावेज़ है। उन्होंने डॉ. राही मासूम रज़ा के हवाले से कहा कि कलकत्ता कजरारी आंखों से गिरे आंसुओं की राख है। पता नहीं क्यों मुम्बई आने वाले परदेसियों के लिए ऐसे विरह गीत नहीं लिखे गए। कवि देवमणि पांडेय ने अप्ना विमर्श प्रस्तुत करते हुए कहा कि ‘देश निकाला’ के चरित्र, घटनाएं और संवाद इसे एक श्रेष्ठ कृति साबित करते हैं। इसे दो विपरीत ध्रुवों कि कथा बताते हुए उन्होंने नायक गौतम के चरित्र को निदा फ़ाज़ली के एक शेर से साकार किया-
यहां किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिराके अगर तुम संभल सको तो चलो
नायिका मल्लिका के संघर्ष को रेखांकित करने के लिए उन्होंने ज़फ़र गोरखपुरी का शेर उद्धरित किया-
ये ऐसी मौत है जिसका कहीं चर्चा नहीं होता
बहुत हस्सास होना भी बहुत अच्छा नहीं होता
उपन्यास की पहली लाइन है- ‘सीढ़ियों पर सन्नाटा बैठा था’ और आख़िरी लाइन है- ‘यह दो स्त्रियों का ऐसा अरण्य था जहाँ कोई परिंदा भी पर नहीं मार सकता था’- इन लाइनों के हवाले से देवमणि पांडेय ने कहा कि धीरेन्द्र की ख़ूबी यह है कि सुख-दुःख,उमंग-उल्लास,स्वप्न और आकांक्षा, हर मूड के अनुसार वे भाषा क्रिएट करते हैं। इस जीवंत भाषा ने उपन्यास को बेहद पठनीय बना दिया है। अंत में पांडेय जी ने मज़ाक किया- ”धीरेन्द्र जी अच्छे कुक हैं। शायद इसी लिए किताब के हर दूसरे-तीसरे पेज़ पर कोई न कोइ डिश मौजूद है। कहीं चिकन, मटन, बिरयानी है तो कहीं पनीर और पुलाव है। इस लिए इसे पढ़ते हुए बहुत भूख लगती है।” संचालक आलोक भट्टाचार्य ने जोड़ा- इसे पढ़ते हुए प्यास भी बहुत लगती है। फ़िल्मकार सागर सरहदी ने भी इस प्रसंग में इज़ाफ़ा किया। फिल्म ‘बाज़ार’ के समय उन्होंने अभिनेत्री स्मिता पाटिल से कह दिया था – ‘मैं अच्छा कुक हूं। अगर यह फ़िल्म नहीं चली तो मैं सड़क किनारे ढाबा खोल लूंगा।’ डॉ. राजम पिल्लै ने इस कृति की नायिका मल्लिका और मोहन राकेश के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ की मल्लिका की रोचक तुलना करते हुए कहा कि औरत जब अपने लिए स्पेस चाहती है तो निर्मम हो जाती है। बाद में धीरेन्द्र अस्थाना की पत्नी ललिता अस्थाना ने इससे सरेआम असहमति जताई।
नवनीत के सम्पादक विश्वनाथ सचदेव ने मुंबई के चारकोप इलाक़े को ग्लोबल बनाते हुए कहा कि यह उपन्यास मानवीय अनुभूतियों का कोलाज है। प्रतिष्ठित फ़िल्म लेखक -निर्देशक सागर सरहदी ने रचनाकार से असहमति जताते हुए कहा कि फ़िल्म में जाने के बावजूद नायक-नायिका को थिएटर नहीं छोड़ना चाहिए था। कथाकार उदय प्रकाश की कहानी ‘मोहनदास’ पर बनने वाली फिल्म के निर्माता तथा ‘आशय’ पत्रिका के सम्पादक वीके सोनकिया ने लेखकीय संकट जैसे कुछ संजीदा मुद्दों पर श्रोताओं का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की। आकर्षित होने के बजाय श्रोता आपस में बातचीत करने लगे तो वे वापस लौट गए। डॉ. रामजी तिवारी ने कहा कि उनके पास बोलने के लिए कुछ नहीं है मगर वे बीस मिनट तक बोलते रहे। आरजेडी के महासचिव अशोक सिंह ने भी पुस्तक पर विचार व्यक्त किए। डॉ. रामजी तिवारी ने ‘देश निकाला’ का लोकार्पण किया और प्रथम प्रति साहित्य अनुरागी रामनारायण सराफ को भेंट की। सराफ जी को इससे पहले 60 पुस्तकों की प्रथम प्रतियां प्राप्त हो चुकीं हैं। मगर यह पहली पुस्तक है जिसे पढ़कर उन्होंने नया रिकार्ड बनाया। संचालक आलोक भट्टाचार्य ने हमेशा की तरह बोलने में कोई कोताही नहीं बरती। कभी कभी जब वे चुप हो जाते थे तो वक्ताओं को भी बोलने का अवसर मिल जाता था।
कुल मिलाकर एक कथाकार के औपन्यासिक विमर्श में कवियों का बहुमत रहा। 6 कवियों ने परिचर्चा में भागीदारी की। 7वें कवि ने संचालन किया और 8वें कवि कन्हैयालाल ने बड़े रोचक अंदाज़ में आभार व्यक्त किया। इस कार्यक्रम में मुम्बई के रचनाकार जगत से श्री नंदकिशोर नौटियाल, डॉ. सुशीला गुप्ता, मो.अयूबी, यज्ञ शर्मा, विभा रानी, गोपाल शर्मा, हस्तीमल हस्ती, लक्ष्मण दुबे, सिब्बन बैजी, संजय मासूम, हरि मृदुल आदि मौजूद थे। संगीत जगत से गायिका सीमा सहगल, डॉ. सोमा घोष, डॉ. परमानंद आदि मौजूद थे। कार्यक्रम की शुरुआत में रंगकर्मी हबीब तनवीर, कवि ओमप्रकाश आदित्य, नीरजपुरी,लाड़सिंह गुर्जर और ब्रजेश पाठक मौन के प्रति श्रद्धांजलि व्यक्त की गई।