Connect with us

Hi, what are you looking for?

कहिन

यह सुधार समझौतों वाली मुझको भाती नहीं ठिठोली

माखनलाल चतुर्वेदीपं. माखनलाल चतुर्वेदी की जयंती पर विशेष (4 अप्रैल, 1889)

हिंदी पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में एक ऐसा नाम हैं जिसे छोड़कर हम पूरे नहीं हो सकते। उनकी संपूर्ण जीवनयात्रा, आत्मसमर्पण के खिलाफ लड़ने वाले की यात्रा है। रचना और संघर्ष की भावभूमि पर समृद्ध हुयी उनकी लेखनी में अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध का जज्बा न चुका, न कम हुआ। वस्तुतः वे एक साथ कई मोर्चों पर लड़ रहे थे और कोई मोर्चा ऐसा न था, जहां उन्होंने अपनी छाप न छोड़ी हो।

माखनलाल चतुर्वेदी

माखनलाल चतुर्वेदीपं. माखनलाल चतुर्वेदी की जयंती पर विशेष (4 अप्रैल, 1889)

हिंदी पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में एक ऐसा नाम हैं जिसे छोड़कर हम पूरे नहीं हो सकते। उनकी संपूर्ण जीवनयात्रा, आत्मसमर्पण के खिलाफ लड़ने वाले की यात्रा है। रचना और संघर्ष की भावभूमि पर समृद्ध हुयी उनकी लेखनी में अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध का जज्बा न चुका, न कम हुआ। वस्तुतः वे एक साथ कई मोर्चों पर लड़ रहे थे और कोई मोर्चा ऐसा न था, जहां उन्होंने अपनी छाप न छोड़ी हो।

माखनलाल जी ने जब पत्रकारिता शुरू की तो सारे देश में राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव देखा जा रहा था। राष्ट्रीयता एवं समाज सुधार की चर्चाएं और फिरंगियों को देश बदर करने की भावनाएं बलवती थीं। इसी के साथ महात्मा गांधी जैसी तेजस्वी विभूति के आगमन ने सारे आंदोलन को एक नई ऊर्जा से भर दिया। दादा माखनलाल जी भी उन्हीं गांधी भक्तों की टोली में शामिल हो गए। गांधी के जीवन दर्शन से अनुप्राणित दादा ने रचना और कर्म के स्तर पर जिस तेजी के साथ राष्ट्रीय आंदोलन को ऊर्जा एवं गति दी वह महत्व का विषय है।

इस दौर की पत्रकारिता भी कमोवेश गांधी के विचारों से खासी प्रभावित थी। सच कहें तो हिंदी पत्रकारिता का वह जमाना ही अजीब था। आम कहावत थी – जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो। और सच में अखबार की ताकत का अहसास आजादी के दीवानों को हो गया था। इसी के चलते सारे देश में आंदोलन से जुड़े नेताओं ने अपने पत्र निकाले। जिनके माध्यम से ऐसी जनचेतना पैदा की कि भारत आजादी की सांस ले सका। वस्तुतः इस दौर में अखबारों का इस्तेमाल एक अस्त्र के रूप में हो रहा था और माखनलाल जी का कर्मवीर इसमें एक जरूरी नाम बन गया था।

हालांकि इस दौर में राजनीतिक एवं सामाजिक पत्रकारिता के समानांतर साहित्यिक पत्रकारिता का एक दौर भी चल रहा था। सरस्वती और उसके संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी उसके प्रतिनिधि के रूप में उभरे। माखनलाल जी ने भी 1913 में प्रभा नाम की एक उच्चकोटि की साहित्यिक पत्रिका के माध्यम से इस क्षेत्र में सार्थक हस्तक्षेप किया। लोगों को झकझोरने एवं जगानेवाली रचनाओं के प्रकाशन के माध्यम से प्रभा शीध्र ही हिंदी जगत का एक जरूरी नाम बन गयी। दादा की 56 सालों की ओजपूर्ण माखनलाल चतुर्वेदीपत्रकारिता की यात्रा में प्रताप, प्रभाकर्मवीर उनके विभिन्न पड़ाव रहे। साथ ही उनकी राजनीतिक वरीयता भी बहुत उंची थी। वे बड़े कवि थे, पत्रकार थे पर उनके इन रूपों पर राजनीति कभी हावी न हो पायी। इतना ही नहीं जब प्राथमिकताओं की बात आयी तो मप्र कांग्रेस का वरिष्टतम नेता होने के बावजूद उन्होंने सत्ता में पद लेने के बजाए मां सरस्वती की साधना को ही प्राथमिकता दी।

आजादी के बाद 30 अप्रैल, 1967 तक वे जीवित रहे पर सत्ता का लोभ उन्हें स्पर्श भी नहीं कर पाया। इतना ही नहीं 1967 में भारतीय संसद द्वारा राजभाषा विधेयक पारित होने के बाद उन्होंने राष्ट्रपति को वह पद्मभूषण का अलंकरण भी लौटा दिया जो उन्हें 1963 में दिया गया था। उनके मन में संघर्ष की ज्वाला हमेशा जलती रही। वे निरंतर समझौतों के खिलाफ लोंगों में चेतना जगाते रहे। उन्होंने स्वयं लिखा है-

अमर राष्ट्र, उदंड राष्ट्र, उन्मुक्त राष्ट्र, यह मेरी बोली

यह सुधार-समझौतों वाली मुझको भाती नहीं ठिठोली।

माखनलाल जी सदैव असंतोष एवं मानवीय पीड़ाबोध को अपनी पत्रकारिता के माध्यम से स्वर देते रहे। पत्रकारिता के क्षेत्र में कोई भी जंजीर उन्हें बांध नहीं पायी। उनकी लेखनी भद्रता एवं मर्यादा की तो कायल थी किंतु वे भय, संत्रास एवं बंधनों के खिलाफ थे। एक बार उन्होंने अपनी इसी भावना को स्वर देते हुए कहा था कि – हम फक्कड़ सपनों के स्वर्गों को लुटाने निकले हैं। किसी की फरमाइश पर जूते बनानेवाले चर्मकार नहीं हैं हम। यह निर्भीकता ही उनकी पत्रकारिता की भावभूमि का निर्माण करती थी। स्वाधीनता आंदोलन की आँच को तेज करने में उनका कर्मवीर अग्रणी बना। कर्मवीर की परिधि व्यापक थी। राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय विषयों पर समान अधिकार से चलने वाली संपादक की लेखनी हिंदी को सोच की भाषा देने वाली तथा युगचिंतन को भविष्य के परिप्रेक्ष्य में व्यक्त करने वाली थी। कर्मवीर जिस भाषा में अंग्रेजी राजसत्ता से संवाद कर रहा था, उसे देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि भारतीय जनमानस में आजादी पाने की ललक कितनी तेज थी।

स्वाधीनता आंदोलन में अपने प्रखर हस्तक्षेप के अलावा कर्मवीर ने जीवन के विविध पक्षों को भी पर्याप्त महत्व दिया। आए दिन होने वाली घटनाओं को मापने- जोखने एवं उनसे रास्ता निकालने की दिव्यदृष्टि भी कर्मवीर के संपादक के पास थी। अपनी पत्रकारिता के माध्यम से राजनीति के अलावा साहित्य कला और संस्कृति को भी उन्होंने महत्व दिया। साहित्यिक पत्रों के संदर्भ में उनकी समझदारी विलक्षण थी वो कहते हैं- हिंदी भाषा का मासिक साहित्य बेढंगें और बीते जमाने की चाल चल रहा है। यहां बरसाती कीड़ों की तरह पत्र पैदा होते हैं। फिर भी यह आश्चर्य नहीं कि वे मर क्यों जाते हैं। यूरोप में हर पत्र अपनी एक निश्चित नीति रखता है। हिंदी वालों को इस मार्ग में रीति की गंध नहीं लगी। यह टिप्पणी आज के संदर्भ में भी प्रासंगिक है।

वस्तुतः माखनलाल जी आम लोगों के बीच से उपजे पत्रकार थे। उनका कहना था कि पत्र संपादक की दृष्टि परिणाम पर सतत लगी रहनी चाहिए। क्योंकि वह समस्त देश के समक्ष उत्तरदायी है। वे समाचार पत्रों में उत्तरदायित्तव की भावना भरना चाहते थे। वहीं उनके मन में समाचार पत्र की पूर्णता को लेकर भी विचार थे। उनकी सोच थी कि हमें अपने पत्रों को ऐसा बनाना चाहिए कि हम पर ज्ञान की कमी का लांछन न लगे। वे पत्रकारिता जगत में फैल सकने वाले प्रदूषण के प्रति भी आशंकित थे। इसी के चलते उन्होंने अपने लिए आचार संहिता भी बनाई। आज जब पत्रकारिता और पत्रकारों के चरित्र पर सवालिया निशान लग रहे हैं तो यह सहज ही पता लग जाता है कि दादा वस्तुतः कितनी अग्रगामी सोच के वाहक थे। हिंदी पत्र साहित्य को उनकी एक बड़ी देन यह है कि उन्होंने कई तरह से हिंदी को मोड़ा और लचीला बनाया। भाषा को समृद्ध एवं जनप्रिय बनाने में उनका योगदान सदा स्मरणीय रहेगा।

Advertisement. Scroll to continue reading.

अपने लंबे पत्रकारीय जीवन के माध्यम से दादा ने नई पीढ़ी को रचना और संर्घष का जो पाठ पढ़ाया वह आज भी हतप्रभ कर देने वाला है। कम ही लोग जानते होंगें कि दादा को इसकी कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। उनके संपादकीय कार्यालय यानी घर पर तिरसठ बार छापे पड़े, तलाशियां हुयीं। 12 बार वे जेल गए। कर्मवीर को अर्थाभाव में कई बार बंद होना पड़ा। लेखक से लेकर प्रूफ रीडर तक सबका कार्य वे स्वयं कर लेते थे। इन अर्थों में दादा विलक्षण स्वावलंबी थे। आज जब पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर संकट के बादल हैं, पाठक एवं अखबार के बीच एक नया रिश्ता जन्म ले रहा है ऐसे संक्रमण में दादा जैसे ज्योतिपुंज की याद आना बहुत स्वाभाविक है।  


लेखक संजय द्विवेदी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और न्यूज चैनल में वरिष्ठ पदों पर रहने के बाद इन दिनों भोपाल में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय  के जनसंचार विभाग  में बतौर रीडर  पत्रकारिता के छात्रों को तराश रहे हैं। संजय से संपर्क उनके मोबाइल 09893598888 या मेल [email protected] के जरिए किया जा सकता है।

 

Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

अपने मोबाइल पर भड़ास की खबरें पाएं. इसके लिए Telegram एप्प इंस्टाल कर यहां क्लिक करें : https://t.me/BhadasMedia

Advertisement

You May Also Like

Uncategorized

भड़ास4मीडिया डॉट कॉम तक अगर मीडिया जगत की कोई हलचल, सूचना, जानकारी पहुंचाना चाहते हैं तो आपका स्वागत है. इस पोर्टल के लिए भेजी...

Uncategorized

भड़ास4मीडिया का मकसद किसी भी मीडियाकर्मी या मीडिया संस्थान को नुकसान पहुंचाना कतई नहीं है। हम मीडिया के अंदर की गतिविधियों और हलचल-हालचाल को...

टीवी

विनोद कापड़ी-साक्षी जोशी की निजी तस्वीरें व निजी मेल इनकी मेल आईडी हैक करके पब्लिक डोमेन में डालने व प्रकाशित करने के प्रकरण में...

हलचल

[caption id="attachment_15260" align="alignleft"]बी4एम की मोबाइल सेवा की शुरुआत करते पत्रकार जरनैल सिंह.[/caption]मीडिया की खबरों का पर्याय बन चुका भड़ास4मीडिया (बी4एम) अब नए चरण में...

Advertisement