30 मई हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर विशेष : ये वक्त टेक्नालॉजी की पत्रकारिता का है। एक समय था जब टीवी नहीं था। इंटरनेट और सैटेलाइट चैनलों का नामोनिशान न था। अखबार श्वेत श्याम हुआ करते थे। थोड़े पेजों वाले अखबार। ज्यादातर अखबार आठ पन्नों के हुआ करते थे। हर पेज की अपनी शान। खबरों की मारामारी। किसी संस्था या आयोजन की खबर को दो कॉलम जगह मिल जाना बड़ी बात। तस्वीरों का भी उतना जलवा नहीं था। अधिकतम तीन कॉलम की फोटो छप जाया करती थी और आठ पेज के अखबार में ऐसी बड़ी फोटो तब कुल जमा चार हुआ करती थी। एक पहले पन्ने पर, दो शहर की खबर में, एक प्रादेशिक पन्ने पर और एक अन्तर्राष्ट्रीय समाचारों में। यह वह दौर था जब ‘पत्रकारिता की टेक्नालॉजी’ काम किया करती थी। खबरों को सूंघ कर, खोज कर निकाला जाता था। एक-एक खबर का प्रभाव होता था। एक्शन और रिएक्शन होता था। लोग सुबह सवेरे अखबार की प्रतीक्षा किया करते थे। लेकिन बदलते समय में सब कुछ बदल गया है।
अब उस बेसब्री के साथ आम आदमी अखबार का इंतजार नहीं करता है। सुबह छह बजे अखबार आये या आठ बजे। जीवन की जरूरी चीजों में अखबार भी शामिल है इसलिये प्रतिदिन एक अखबार मंगा लिया जाता है। जिन घरों में बच्चे पढ़ रहे हैं उनके लिये कोई राष्ट्रीय दैनिक मंगा लिया जाता है वह भी अंग्रेजी का ताकि बच्चे को प्रतियोगी परीक्षा में आसानी हो सके। यह बदलाव आखिर आया क्यों? आखिर अखबारों के प्रति रूचि कम क्यों हुई? ऐसे अनेक सवाल हैं और हर सवाल का जवाब बहुत ही आसान। यह बदलाव, अखबारों के प्रति पाठकों की कम होती रूचि का एकमात्र कारण है ‘टेक्नालॉजी की पत्रकारिता’ का अस्तित्व में आना। जब तक ‘पत्रकारिता की टेक्नालॉजी’ काम कर रही थी, अखबारों की भूमिका अधिक प्रभावी थी लेकिन जब से ‘टेक्नालॉजी की पत्रकारिता’ काम कर करने लगी है, अखबारों के प्रति रूचि कम होती जा रही है।
तीन-चार दशक पहले टेलीविजन ने पांव पसारना शुरू किया था। इसके पहले समाचार पत्रों का एकछत्र राज्य था। पराधीन भारत में जनजागरण का कार्य समाचार पत्रों ने किया था और जिन्होंने पूरी शिद्दत के साथ अपनी जवाबदारी निभायी। समाचार पत्रों की ताकत इसी दौर में भारत की जनता ने महसूस किया। पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त होकर भारत एक नये देश और समाज के निर्माण में जुट गया। इस दौर में भी समाचार पत्रों ने वही कार्य किया जो पराधीन भारत की मुक्ति के समय किया था। विकासशील भारत की संरचना और नये जमाने के हिन्दुस्तान के निर्माण में समाचार पत्रों का अविस्मरणीय योगदान रहा।
स्वतंत्र भारत में समाचार पत्रों का विकास और विस्तार होने लगा लेकिन यह विकास और विस्तार अस्सी के दशक में तेजी से हुआ। इस समय तक आकाशवाणी एक विकल्प के रूप में मौजूद था किन्तु सरकारी नियंत्रण वाले इस इलेक्ट्रॉनिक प्रसार माध्यम के प्रति लोगों का बहुत विश्वास नहीं था। लोगों की दृष्टि में यह बात पक्की हो गयी थी कि आकाशवाणी का अर्थ सरकारी भोंपू है।
आकाशवाणी के बाद भारत में दूरदर्शन का आगमन हुआ। यह पत्रकारिता का नया अनुभव था। कुछ अतिरिक्त सूचना तो मिलना आरंभ हुआ ही, अब दृश्य पत्रकारिता का श्रीगणेश भी हो चुका था। दूरदर्शन की विश्वसनीयता संदिग्ध थी। आकाशवाणी की तरह ही दूरदर्शन को भी लोग संदेह की नजरों से देखते थे और उनका यह मानना था कि यह भी सरकारी भोंपू है और सरकार इसके माध्यम से अपनी इमेज बिल्डिंग का काम कराती है। इसे भारत में बुद्वु बक्सा भी कहा गया। हालांकि दूरदर्शन को भी कोई बहुत जगह नहीं मिली किन्तु आकाशवाणी से ज्यादा विस्तार दूरदर्शन को मिला। एक कारण तो यह था कि यह दूरदर्शन के माध्यम से दृश्य पत्रकारिता का आरंभ हो चुका था। भारत में साक्षरता का प्रतिशत वैसे भी कम है और ऐसे में दूरदर्शन प्रभावशाली माध्यम के रूप में विकसित हुआ। इसके बाद दृश्य पत्रकारिता में क्रांतिकारी परिवर्तन आया तब जब सेटेलाइट के माध्यम से टेलीविजन के चैनलों का प्रसारण आरंभ हुआ।
दूरदर्शन से अधिक इन निजी टेलीविजन चैनलों को भारत में स्थान मिला और विश्वास भी। लोगों को यह समझ में आने लगा कि जो जहां जैसा घट रहा है, उसे टेलीविजन दिखा देते हैं। समय गुजरने के साथ साथ चैनलों की संख्या सौ के आसपास हो चली है और इसी के साथ विश्वसनीयता का संकट भी उपजा है। इस पर आगे चर्चा करेंगे। बहरहाल, समाचार पत्र, आकाशवाणी, दूरदर्शन, टेलीविजन चैनल्स के विस्तार के बाद पत्रकारिता का नया युग ई-जर्नलिज्म से आरंभ होता है। ई-जर्नलिज्म एक तरह से एलीट क्लास की पत्रकारिता कही जा सकती है क्योंकि यह पूरी तरह से टेक्नॉलाजी की पत्रकारिता है। इसके लिये स्वयं का कम्प्यूटर, इंटरनेट और इसके संचालन की जानकारी उपयोगकर्ता को होना चाहिए। इसका पाठक वर्ग भी बेहद सीमित है। वही लोग पाठक हैं जिन्हें ई-जर्नलिज्म के संचालन की टेक्नॉलाजी का ज्ञान है। हालांकि ई-जर्नलिज्म समाचार पत्र, दृश्य एवं श्रव्य पत्रकारिता का मिला-जुला चेहरा है, बावजूद इसका क्षेत्र सीमित है और आम आदमी की पहुंच से बहुत दूर।
इस तरह पत्रकारिता का विस्तार होता गया और विकास भी किन्तु इसी के साथ साथ विश्वसनीयता का संकट भी उपजा। एक समय था जब समाचार पत्रों की विश्वसनीयता का कोई सानी नहीं था। अखबारों में छपी खबरें एकदम सत्य मानी जाती थी लेकिन टेलीविजन चैनलों के विस्तार के साथ समाचार पत्र और न्यूज चैनलों की खबरों में तुलना की जाने लगी। आम पाठक और दर्शक के लिये दोनों में कोई फर्क नहीं था किन्तु इस माध्यम के लोग इस फर्क को जानते थे किन्तु इस मामले में वे असहाय बने रहे। समाचार पत्रों की आलोचना होने लगी। आहिस्ता आहिस्ता समाचार पत्रों का चेहरा बदलने लगा। टेक्नालॉजी का विस्तार होने के साथ साथ अखबार रंगीन होते गये और लगभग अखबारों का स्वरूप साइलेंट टेलीविजन का हो गया। रंगीन तस्वीरें और लोगों को भरमाने, उकसाने वाली खबरों को अधिकाधिक स्थान मिलने लगा। सामाजिक सरोकार की खबरें गुम होने लगीं।
खबरों में अतिशयता से इंकार करना मुश्किल था। कहीं तारीफ हो रही थी तो कहीं लक्ष्य कर आलोचना की जाने लगी। तथ्यों को नजरअंदाज किया जाने लगा और खबरों की गंभीरता कम होने लगी। एक प्रकार से अखबार एक प्रोडक्ट बन कर रह गये और अखबार की गंभीरता उसी तरह से कम होने लगी जिस तरह से शिक्षा के क्षेत्र में प्रभाव का उपयोग कर उसकी गंभीरता को कम करने का प्रयास किया जाने लगा। मेरी राय में पत्रकारिता और शिक्षा एक दूसरे के पूरक हैं। शिक्षा जहां अक्षर ज्ञान का माध्यम है तो पत्रकारिता का दायित्व समाज को जागरूक बनाने का है। इस संदर्भ में यह उल्लेख करना जरूरी लगता है कि जिस तरह विश्वविद्यालयों में कुलपति की गरिमा हुआ करती थी, उस गरिमा का ह्ास हुआ है, कुछ कुछ वैसा ही अखबारों में सम्पादक को लेकर हुआ है। शायद यही कारण है कि अखबारों की गरिमा और उसके प्रति समाज का विश्वास कुछ कम हुआ है।
टेलीविजन के विस्तार और ई-जर्नलिज्म ने पत्रकारिता की टेक्नॉलाजी को गुम कर दिया है। अब सिर्फ और सिर्फ टेक्नॉलाजी की पत्रकारिता कार्य कर रही है। खबर को सूंघने और खोजने की प्रवृति कम होती जा रही है। इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी को ही पाठकों को परोसा जा रहा है। ऐसा भी नहीं है कि समूची पत्रकारिता ऐसी ही हो गई है लेकिन काफी हद तक बदलाव दिख रहा है। मुझे याद पड़ता है कि जब हमारे क्राइम रिपोर्टर शाम को थाने में फोन पर जानकारी लेकर अपराधों की खबर बनाते थे तो लगता था कि ये लोग कोई काम नहीं कर रहे हैं और पुलिस की जानकारी को ही समाचार का स्वरूप दे रहे हैं किन्तु बदलते समय में अब यही सब कुछ हो रहा है। सूचना के अधिकार ने भी पत्रकारिता को सहूलियत दी है। जानकारी नहीं देने, गलत जानकारी देने और जानकारी देने में आनाकानी करने वाले अफसरों के आगे पत्रकारों को बार बार घुमने की जरूरत खत्म हो गयी है। सूचना के अधिकार के तहत जानकारी देना विभाग की जवाबदारी है और इसमें गोलमाल की कोई गुंजाइश नहीं बच जाती है।
एक तरह से खबरों की प्रामाणिकता तो बनती है लेकिन जो खोजी प्रवृत्ति का एक नेचर होता है, वह कहीं कमजोर हो रहा है। दरअसल जब हम खबरों को तलाश करने जाते हैं तो कई और सूत्र और तथ्य हासिल हो जाते हैं जो नयी खबर के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करती थी किन्तु आइटीआई से मिली जानकारी एक खबर को तो पुष्ट कर देती है किन्तु खबरों का विस्तार रूक जाता है।
टेक्नालॉजी के इस दौर में पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों को भी अनदेखा किया गया है। अब दुर्घटना की खबर श्वेत-श्याम नहीं हुआ करती है। मौत कितनी भी दर्दनाक हो, रंगीन ही छपती है। एक दुघर्टना में सौ पचास लोगों की मौत हो गयी है तो संख्या को अलग से हाईलाईट करने के लिये अलग रंग का इस्तेमाल किया जाता है। अस्सी के दशक में मैंने अपनी पत्रकारिता में अनेक घटनाओं को देखा है और समझा है। इंदिरा गांधी की हत्या, राजीव गांधी हत्या जैसी खबरों में कभी अखबार रंगीन नहीं छपे। यह एक राष्ट्रीय आपदा है और कोई भी आपदा कभी रंगीन नहीं हो सकती है किन्तु अखबारों ने बदले समय में हादसे को, आपदा को भी रंगीन बना दिया है। इस बारे में हमारे दिग्गज सम्पादक पत्रकार कभी चर्चा करते नहीं दिखते हैं। उनकी चर्चा में पत्रकारिता की विश्वसनीयता, सम्पादक की खत्म होती सत्ता, पेड न्यूज आदि इत्यादि होती हैं। यह ठीक भी है कि जब हम नयी टेक्नालॉजी के दौर में हैं तो अखबार रंगीन ही होना चाहिए। ये जो बातें मैं कर रहा हूं, वह फिजूल की हैं और यह पिछड़ों की तरह है। नये दौर में नये सोच वाले पत्रकार चाहिए। इस सिलसिले में मुझे स्मरण हो आया कि शायद यही कारण है कि अब अखबारों को अनुभवी पत्रकारों की नहीं बल्कि नौजवान पत्रकारों की जरूरत है जिनकी उम्र पैंतीस से पार न हो।
टेक्नॉलाजी की पत्रकारिता से टेलीविजन की पत्रकारिता भी अछूता नहीं है। फर्क इतना ही है कि टेलीविजन की बंदिश यह है कि उसे टेक्स्ट के साथ साथ दृश्य भी दिखाना होता है और इसके लिये खोजी प्रवृत्ति का होना जरूरी है। इस प्रवृत्ति से पत्रकारिता का विकास होता रहा है किन्तु खबरों को और अधिक विश्वसनीय बनाने के फेर में पत्रकारिता की मर्यादा भूली जाने लगी है। पत्रकारिता की सीमा को लांघ कर निजता का उल्लंघन किये जाने का बार बार आरोप न्यूज चैनलों पर लगता रहा है। इस आरोप को पूरी तरह स्वीकार न भी करें तो अस्वीकार करने का कोई ठोस कारण नजर नहीं आता है। शायद यही कारण है कि टेलीविजन की पत्रकारिता बहुत जल्द अविश्वसनीय होने लगी है। साख में यह गिरावट एक बड़ी चिंता का कारण है और इस पर मंथन करना जरूरी है। इस तरह यह मान लेना चाहिए कि हम टेक्नॉलाजी की पत्रकारिता कर रहे हैं और आने वाले दिनों में यही टेक्नालॉजी पत्रकारिता ही काम करेगी।
लेखक मनोज कुमार स्वतंत्र पत्रकार एवं मीडिया अध्येता हैं.