आर्थिक मंदी का अमेरिकी माडिया पर भी असर पड़ने लगा है। आशंका जताई जा रही है कि इनके साझा उपक्रम जो भारत और बाकी दुनिया में हैं, को भी ग्रहण लगने वाला है। शेयर बाजार के भूचाल ने पूरी दुनिया की वित्तीय व्यवस्था की नींव हिला दी है। छंटनी की आशंका से नौकरीपेशा लोग सकते में हैं।
इन्फारमेशन टेक्नालाजी पर भी आशंकाओं के बादल छाए हुए हैं। भारी खर्च करके और कर्ज लेकर पढ़ रहे छात्रों का भविष्य भी अधर में लटक सकता है। इन सब आशंकाओं के बीच अब मीडिया पर भी तलवार लटक गई है।
दुनिया की सबसे बड़ी समाचार एजेंसी एसोसिएटेड प्रेस (एपी) पर आर्थिक मंदी का असर पड़ने लगा है। यह वही समाचार एजेंसी है जिसने 137 साल पहले कोलंबस के लेख और चित्रों को छापा था। इस समाचार एजेंसी से अमेरिका समेत दुनिया के तमाम अखबार रोजाना समाचार और फोटो पाते हैं। इस एजेंसी ने खर्चों में कटौती का जो प्रस्ताव किया है उसके विरोध में इसके कई सदस्य अखबारों ने अपनी डिस्पैच सेवा को आर्थिक कारणों से रोकने का गंभीर फैसला लिया है। एपी के परिवर्तनों के विरोध में कई बड़े-छोटे अखबार खड़े हो गए हैं। इनमें ट्रिब्यून जैसे बड़े नेटवर्क वाले अखबार भी हैं। इसने एसोसिएशन से हटने तक की धमकी दे दी है। हालांकि उसने यह भी कहा कि खर्चे में कटौती किए जाने की जरूरत है। लास एंजिल्स टाइम्स और शिकागो ट्रिब्यून ने भी उसकी हां में हां मिलाई है।
छोटे अखबारों ने एपी के खर्चे में कटौती के फैसले की घोर निंदा की है। इनका आरोप है कि एपी जितना डिस्पैच के एवज में वसूलता है, उसे हम बर्दाश्त नहीं कर सकते। उल्टे आरोप भी लगाया कि जितनी हमें जरूरत होती है उससे कम ही मुहैया कराता है। इतना ही नहीं, हमारे साथ प्रतिस्पर्धी जैसा बर्ताव भी करता है। यह सब कुछ देखकर लगता है कि वे यह भूल ही गए हैं कि वे हमारी सेवा के लिए ही हैं।
उधर एपी का कहना है कि वह अपने 1400 अखबार सदस्यों का पैसा बचाना चाहता है। इसी के मद्देनजर एपी ने नए परिवर्तन और खर्चे में कटौती की योजना बनाई है। एपी का कहना है कि इन परिवर्तनों से सदस्यों का ही फायदा होगा। एपी की कार्यकारी संपादक कैथलीन कैरोल का दावा है कि कम ही अखबारों ने कटौती और परिवर्तनों की योजना का विरोध किया है। यह विरोध भी गलतफहमी और उन अखबारों के अपने वित्तीय संकट के कारण है। कैथलीन का कहना है कि अनुबंध के मुताबिक डिस्पैच रोकने से पहले सदस्य अखबारों को दो साल की नोटिस देनी होती है। इस हिसाब से भी जो एपी से अलग होना चाहते हैं उन्हें कम से कम 2010 तक इंतजार करना पड़ेगा। कैथलीन ने कहा कि इस विरोध के पीछे दबाव डालकर दर कम कराने की साजिश है।
एपी के इस संकट की वजह अमेरिकी अखबारों का वित्तीय संकट है। पिछले दो सालों में विज्ञापनों से इनकी कमाई 25 प्रतिशत घटी है। इसके ठीक उलट एपी का पिछले साल मुनाफा 81 प्रतिशत यानी 24 मिलियन डालर से 710 मिलियन डालर बढ़ा। कहने को एपी एक गैर-मुनाफे वाली कंपनी है। खुद एपी ने यह आंकड़ा अपने सदस्यों को जारी किया है।
अब सदस्यों के अलग होने की कवायद ने दुनिया की समाचार संकलन करने वाली इस सबसे बड़ी कंपनी एपी के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। करीब 100 देशों में इसके तीन हजार पत्रकार कार्यरत हैं। जिस दिन से एपी से समाचार मिलने बंद हो जाएंगे उस दिन से अमेरिकी अखबार दुबले हो जाएंगे। 162 साल पहले गठित एपी एकमात्र अखबारों का संगठन है जो सदस्यों का स्वामित्व व बोर्ड में वोट का अधिकार देता है। एपी के रिपोर्टर ब्रेकिंग न्यूज अपने सदस्य अखबारों से लेते हैं और इसे दूसरे सदस्यों को देते हैं। अब इन्हीं सदस्यों का मानना है कि एपी का खर्च उन पर भारी पड़ रहा है। स्टार ट्रिब्यून के संपादज नैन्सी बर्न्स का कहना है कि वे एपी को एक मिलियन डालर देते हैं जो कि न्यूजरूम में 10 से 12 रिपोर्टर के खर्च के बराबर है। तमाम अखबारों के संपादकों का कहना है कि वे दूसरी समाचार एजेंसियों जैसे- रायटर या ब्लूमबर्ग न्यूज से सामग्री लेने पर विचार कर रहे हैं। हालांकि उनका भी मानना है कि एपी के फोटो का कोई विकल्प नहीं है।
सवाल यह उठता है कि अमेरिकी माडिया में एपी से उठा यह बवंडर क्या भारतीय मीडिया को प्रभावित करेगा? विदेशी निवेश पर चल रहे भारतीय अखबारों व टीवी की उल्टी गिनती अब शुरू होने वाली है। एपी जैसा विशाल संगठन अपने खर्चे समेटने लगा है तो उस पर आधारित बाकी दुनिया की मीडिया को भी धक्के तो लगेंगे ही। यह अलग बात है कि भारत की तमाम मीडिया ऐसी भी हैं जो अपने बलबूते चल रही हैं। शायद उन्हें कम संकट झेलना पड़े मगर विदेशी निवेश वाले संस्थान बवंडर में घिरने वाले हैं।
http://www.PoliticalForum.com पर उपलब्ध इस मूल अंग्रेजी लेख का हिंदी में अनुवाद कोलकाता के वरिष्ठ पत्रकार और ब्लागर डा. मांधाता सिंह ने किया है। डा. मांधाता से संपर्क करने के लिए [email protected] पर मेल कर सकते हैं।