गुसलखाने में नहाने को घुसा ही था कि चार साल के बेटे की तुतलाती आवाज गूंज उठी- ‘पापा, बेकिंग न्यूज! बेकिंग न्यूज!!’ तौलिया लपेटकर जल्दी से बाहर निकला तो टीवी स्क्रीन पर ब्रेकिंग न्यूज की पट्टी सचमुच दौड़ रही थी- ‘दादरी में सोनिया की किसान रैली आज।’ माथा चकरा गया। समझ न आया कि मेरे बेटे में सरस्वती का वास अचानक कैसे हो गया। पत्नी की लाख कोशिशों के बावजूद जो ‘ल’ और ‘ब’ पहचानने से साफ इंकार कर देता हो, उसने ब्रेकिंग न्यूज कैसे पढ़ लिया?
बेटे से पूछा तो उसने उस लाल पट्टी की तरफ इशारा कर दिया जिस पर बार-बार ब्रेकिंग न्यूज लिखा हुआ आ रहा था। समझते देर नहीं लगी कि बेटे पर सरस्वती की कृपा कम और खबरिया चैनलों का असर ज्यादा पड़ा है। चार साल के बेटे को यह समझ आ गई थी कि यह लाल पट्टी देखते ही पापा ”ब्रेकिंग न्यूज- ब्रेकिंग न्यूज” कहते हुए या तो फोन पर चिपक जाते हैं या फिर वापस दफ्तर भाग जाते हैं। आज भी यही हुआ था, बेटे ने अपनी जिम्मेदारी निभाई थी।
खैर, बेटे की बात तो समझ आ गई लेकिन यह बात भी पल्ले नहीं पड़ी कि ‘दादरी में सोनिया गांधी की किसान रैली आज’ ब्रेकिंग न्यूज कैसे हो गई? दादरी में सोनिया की किसान रैली पूर्व नियोजित थी, तो फिर उसे ब्रेकिंग न्यूज की पट्टी में चलाने की क्या जरुरत थी? हां, अगर सोनिया गांधी उस रैली में कोई बड़ी बात कह जातीं तो ब्रेकिंग न्यूज हो सकती थी। लेकिन अब यह कौन तय करे कि ब्रेकिंग न्यूज की परिभाषा क्या हो? टीवी चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज की ऐसी पट्टियां आम बात हो गई है। गायक महेंद्र कपूर का निधन तो ब्रेकिंग न्यूज हो सकती है लेकिन उनके अंतिम संस्कार की खबर भला कैसे ब्रेकिंग न्यूज हो सकती है। महेंद्र कपूर का निधन हुआ है तो अंतिम संस्कार तो होना ही था। तो फिर ब्रेकिंग न्यूज की पट्टी पर यह खबर क्यों?
जाने माने पत्रकार एमली जैंटलमैन ने ब्रेकिंग न्यूज की जो परिभाषा दी है, वो कुछ इस तरह है– जब समाचार के प्रसारण के दौरान कोई ऐसी बड़ी खबर आ जाये जिसकी कल्पना दूर-दूर तक किसी ने न की हो और जिसका असर समाज के एक बड़े हिस्से पर पड़ता हो, वो ब्रेकिंग न्यूज है।
लेकिन एमली साहब की परिभाषा भारत में दम तोड़ती दिख रही है। दिल्ली में जनसंचार के कुछ छात्रों ने ब्रेकिंग न्यूज पर एक रिसर्च किया तो उन्हें दिलचस्प तथ्य हाथ लगे। बीबीसी जहां चौबीस घंटे में औसतन 1 घंटा 20 मिनट ब्रेकिंग न्यूज की पट्टी चलाता है वहीं भारतीय टीवी चैनल औसतन 6 घंटे ब्रेकिंग न्यूज की पट्टी दौड़ाते हैं। इनमें से कई ब्रेकिंग न्यूज ऐसी होती है जो उनके अगले बुलेटिन में गायब रहती है। मतलब जिस खबर को वो आधा घंटा पहले ब्रेकिंग न्यूज के रूप में दर्शकों को परोस रहे होते हैं, उससे जुड़ी कोई भी खबर अगले बुलेटिन या हेडलाइन में भी नहीं होती।
इससे अंदाजा लगया जा सकता है कि टीवी चैनलों में ब्रेकिंग न्यूज को कितनी गंभीरता से लिया जाता है।
एक ओलंपिक मुकाबले में भारतीय हाकी खिलाड़ी दिलीप ठाकुर को दिल का दौरा पड़ने की खबर एक चैनल ने चलाई थी जबकि दिलीप ठाकुर को सिर्फ जांच के लिए अस्पताल ले जाया गया था। दिलीप ठाकुर को तो कुछ नहीं हुआ। यहां भारत में खबर देखने के बाद उसकी मां को जरुर दिल का दौरा पड़ गया और उनकी जान जाते-जाते बची। ऐसे उदाहरण रोज देखने को मिलते हैं। लेकिन हम टीवी पत्रकार हंस कर अपनी गलतियों को पचा जाते हैं। यह किसी एक चैनल की कहानी भर नहीं है, हर खबरिया चैनलों की यही कहानी है।
आरुषि हत्याकांड में चैनलों ने रोज कितनी खबरें ब्रेक की और किस तरह वो खबरें बाद में चारो खाने चित होकर गिरीं, वो पूरी दुनिया ने देखा। वैसे खबरिया चैनलों के संगठन न्यूज ब्रॉडकास्टर एसोसिएशन ने खबरों के बारे में दर्शकों की शिकायतों को सुनने के लिए एक अथॉरिटी बनाकर यह संकेत दे दिया है कि उन्हें अपनी गलतियों का अहसास है। चैनलों ने अपनी आचार संहिता भी बनाई है। अगर किसी को लगता है कि आचार संहिता का उल्लंघन हो रहा है तो वो अथॉरिटी के सामने अपनी शिकायत रख सकते हैं। लेकिन ब्रेकिंग न्यूज की होड़ में जिस तरह हर पल खबरों को तोड़ा मरोड़ा जा रहा है वो बेहद चिंताजनक है। और यह सब हो रहा है टीआरपी के लिए, यह बात भी किसी से छिपी नहीं है।। खबरिया चैनलों की यह पहल तभी सफल हो सकती है जब उन पर हर हफ्ते टीआरपी का दबाव नहीं होगा।
लेखक उदय चंद्र सिंह लाइव इंडिया में एक्जीक्यूटीव प्रोड्यूसर (आउटपुट) हैं। उनसे [email protected] के जरिए संपर्क किया जा सकता है।