चार राज्यों में विधानसभा चुनाव करीब है। काली कमाई करने वाले नेताओं ने दिल खोलकर पैसा बहाना शुरू कर दिया है। इस रकम की तरफ अपनी माडर्न मीडिया की है ललचाई नजर। चैनलों-अखबारों के लिए ये चुनाव ‘स्पेशल फेस्टिव सीजन’ है। ‘जितना माल पीट सको, पीट लो’ के नारे के साथ हर अखबार और चैनल ने अपनी संपादकीय व मार्केटिंग की टीमों को ‘नेता दूहो अभियान’ में उतार दिया है।
चुनाव से ठीक पहले कुछ राज्यों में रीजनल न्यूज चैनल और अखबार के जिला छाप एडीशन लांच किए गए। कुछ मीडिया मालिकों ने तो चुनावी मौसम में चैनल की कमान भी ‘कुशल कारीगरों’ और कमाई करने-कराने में ‘विख्यात पेशेवरों’ के हाथ में सौंप दी है। वजह, नेताओं को दूहने में किसी तरह की कोई कसर न रह जाए।
नए और छोटे चैनलों-अखबारों की बात छोड़िए, अब तो बड़े और विख्यात चैनल-अखबार भी चुनाव के ‘माल पीटो मौसम’ में करोड़ों-अरबों की डील सीधे राजनीतिक पार्टियों से कर रहे हैं। यह चलन नया नहीं है। नया है तो बस इतना ही कि सारा खेल अब खुला होने लगा है। पहले सब ढंक-ढंका कर होता था। पिछले लोकसभा चुनाव में ‘खुला खेल फर्रुखाबादी’ हुआ। बाद में विधानसभा और नगर निगमों के चुनाव में भी इसे प्रैक्टिस में लाया गया। किसी नेता को प्रमोट करने, उसकी खबर छापने, उसको जीतते हुए दिखाने के लिए पैसे लिए जाने लगे। यह खेल पत्रकारों के बिना संभव ही नहीं। मोटी रकम मालिक लेता और कमीशन पत्रकार के खाते में जाता। चुनाव बीतने के बाद खूब कमाई करने के उपलक्ष्य में सामूहिक पार्टी होती।
पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में अखबारों ने खबर छापने के लिए नेताओं से खुलकर पैसे लिए। देश का नंबर वन अखबार दैनिक जागरण ने इस फंडे से खूब कमाई की। चुनाव पेजों पर उन्हीं नेताओं के प्रचार की खबरें छापी गईं, जिसने मुद्रा फेंका। उसे ही जीतता हुआ दिखाया जाता। पैसे न देने वाले नेता अघोषित रूप से प्रतिबंधित कर दिए गए थे। रिपोर्टरों से कह दिया गया था कि ‘विज्ञापन लाओ, कमीशन पाओ’। तब हेकड़ी दिखाने वाले रिपोर्टर कमीशन के लालच में नेताओं के आगे पीछे ‘जी सर, यस सर’ करके घूमने लगे और उनके विज्ञापन लाकर छापने लगे।
अब ये जो चार राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, इससे अरबों रुपये मीडिया मालिकों के हाथ लगेंगे। लाखों रुपये कमीशन के रूप में पत्रकारों के बनेंगे। अखबारों और न्यूज चैनलों ने एक्शन प्लान बना लिया है। पैसे देने वाले नेताओं के ही नाम अदब से लिए जाएंगे और उनकी फोटू गरिमामय ढंग से दिखाई जाएगी। संकेत, रुझान और सर्वे में उन्हें ही कांटे की लड़ाई में टक्कर देता हुआ बताया जाएगा।
बात सर्वे की आई तो एक प्रकरण उल्लेखनीय है। रायपुर में जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ नाम से चैनल चुनाव से ठीक पहले लांच किया गया। जी ग्रुप के इस फ्रेंचाइजी रीजनल चैनल ने लांच होते ही ‘खेल’ शुरू कर दिया। तुरंत एक चुनाव सर्वेक्षण कराया। उसमें कांग्रेस-भाजपा दोनों को ‘किंतु-परंतु’ जैसे शब्दाडंबर के साथ जीतते हुए दिखाया। भला किसी एक को जीतते हुए दिखाने पर दूसरा खुद को कैसे ‘दूहने’ देता! इस सर्वेक्षण पर सवाल भी उठाए गए। लेकिन चैनल ने सर्वेक्षण के आधार पर काफी ‘काम’ कर लिया। संभवतः इन्हीं सब करतूतों से एक्जिट पोल पर पाबंदी लगा दी गई है। वरना बड़ा आसान होता था किसी पार्टी से इकट्ठे डील करके उसे सर्वे के जरिए जीतता हुआ बता देना। जीत गए तो बल्ले-बल्ले। नहीं जीते तो ‘सर्वे तो सर्वे होता है, गलत भी हो सकता है’ का डायलाग मार दीजिए।
चुनावी मौसम की कोई फसल कटने से न रह जाए, इसके लिए ईटीवी ने राजस्थान के चर्चित नौकरशाह जगदीश चंद्र अरोड़ा उर्फ जगदीश कातिल को मीडिया मैन बना दिया। लाइजनिंग और लाभ के जानकार माने जाने वाले कातिल को शुरू में राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे बड़े चुनावी राज्यों का हेड बनाया गया। दो महीने बाद ही उन्हें यूपी और बिहार भी सौंप दिया गया। दो महीने में कातिल ने आखिर ऐसा क्या किया कि ईटीवी प्रबंधन उनसे गदगद है?
जानकारों का कहना है कि पत्रकारिता का क ख ग भी न जानने वाले एक नौकरशाह को मीडिया मैन इसलिए बनाया गया ताकि वे रेवेन्यू ज्यादा से ज्यादा ला सकें। बताते हैं कि भाजपा और ईटीवी प्रबंधन में हुए सौदे के तहत कातिल को कमान सौंपी गई है। अरबों रुपये की इस डील के जरिए कातिल को चार राज्यों में अपने मनमाफिक करने की खुली छूट दे दी गई है। जीवन भर मीडिया को कायदे से मैनेज करने के माहिर रहे कातिल अब जब खुद मीडिया मैन बन गए हैं तो उन्होंने अपनी टीम भी वैसी ही बनानी शुरू की है। इस टीम में ज्यादातर ऐसे पत्रकार हैं जो लाइजनिंग और लाभ दिलाने के माहिर माने जाते हैं।
वीओआई को लीजिए। इसके राजस्थान और मध्य प्रदेश के रीजनल चैनल इसलिए फटाफट लांच किए गए क्योंकि इन राज्यों में चुनाव होने हैं। यहां से पैसा निकालने के लिए चैनल ने एक से बढ़कर एक कुशल कारीगर लगा दिए हैं। इस चैनल के मालिक चुनाव से बिजनेस करने के लिए तत्पर हैं। बात सिर्फ किसी जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ या किसी कातिल या किसी वीओआई की नहीं है, यह हाल कमोबेश ज्यादातर छोटे-बड़े मीडिया हाउसों का है। बड़े और प्रोफेशनल मीडिया हाउस इस काम को ज्यादा आर्गेनाइज, लाजिकल और साफ्ट तरीके से करते हैं, छोटे मीडिया हाउस थोड़ा भदेस तरीके से करते हैं। भदेसपन तो पकड़ में आ जाता है, दिख जाता है पर साफ्टनेस बड़ी गड़बड़ को भी ढंकने में सक्षम हो जाती है।
अगर आप पत्रकारिता में नए हैं, किसी आदर्श के साथ आए हैं, आदर्श को जीने की कोशिश करते हैं तो संभवतः आपको ये सारी बातें उबकाई वाली लग सकती हैं लेकिन कड़वा सच यही है दोस्त। मार्केट और मीडिया आपस में इस कदर गलबहियां कर चुकी हैं कि धन के सिवाय कहीं कोई धंधा नहीं। ‘मीडिया मिशन’ से किस तरह ‘धन मिशन’ पूरा किया जाए, यही एकमात्र फंडा है आजकल। पत्रकारिता में आज आगे वही बढ़ रहे हैं जो पैसा कमाना और कमवाना जानता है। आखिर चैनल या अखबार का मालिक पैसे के लिए ही तो यह धंधा कर रहा है। उसके धंधे को धन के संदर्भ में बढ़ाने में जो सपोर्ट और सूट करता है, उसी को मालिक या सीईओ आगे बढ़ाने में रुचि लेता है।
आप सोचेंगे कि आखिर एक संपादक या हेड या इंचार्ज या प्रभारी किस तरह अपने मालिक को रुपया कमवाने में मदद कर सकता है? इसका सीधा सा जवाब है कि संपादक न्यूज रूम का काम देखने के साथ अपने मालिक के लिए, भदेस भाषा में कहें तो ‘दलाली’ का काम कंपनी के प्रति लायल्टी के नाम पर करता है। डील के लिए नेताओं से मीटिंग कराने, रेवेन्यू के लिए खबर रोकने-दिखाने, विज्ञापन लाने में मदद करने के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने जैसे काम को संपादक लोग बखूबी करते हैं। ये सारे कार्य संपादक के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ गए हैं। इसीलिए कहा जाता है कि आप अगर अच्छे पत्रकार हैं तो यह बिलकुल संभव है कि आप सफल संपादक न हों। सफल संपादक होने के लिए आपको न्यूज पर कम, रेवेन्यू पर ज्यादा ध्यान देना होगा।
मंदी के मचे हल्ले के बीच ये जो चुनाव है वो मीडिया मालिकों के लिए मंद-मंद मुस्कान की तरह है। वे हर हाल में ज्यादा से ज्यादा दूहने के लिए उतारू हैं। जाहिर है, संपादकों की सक्रियता और पत्रकारों की गति भी खूब बढ़ी हुई है क्योंकि उन्हें टारगेट पूरा कराने में मदद करने के सख्त निर्देश हैं। अगर आप भी ‘रुपैय्या को सबसे बड़ा बप्पा-मैय्या’ स्वीकारते हैं तो फिर खुलकर आइए मैदान में। डील करिए और कराइए। मालिक को माल दिलाइए और खुद भी पाइए। आप आदर्शवाद और सिद्धांत का सिर्फ ढोंग भर करते हैं तो आपके करियर की गाड़ी अच्छी चलेगी। अगर आप वाकई आदर्शवादी और सैद्धांतिक हैं तो आपके लिए नेक सलाह है कि अंडे या मूंगफली का ठेला लगा लीजिए पर मीडिया की नौकरी में न जाइए।
अगर आप अपने अनुभव हमें बता सकें कि चुनावी मौसम में मीडिया मैन किस तरह अपने मालिकों की कमाई कराते हैं, बदले में खुद भी बढ़िया बख्शीश (सेलरी, पद व कमीशन के रूप में) पाते हैं तो उसे भड़ास4मीडिया पर पब्लिश किया जाएगा। अनुरोध पर आपका नाम गुप्त रखा जाएगा। आप [email protected] पर मेल करें।