मीडिया का नंगा सच : वादे के अनुसार, हम खुलासा करने जा रहे हैं, मीडिया के उस चेहरे का जिससे खुद मीडिया वाले अनजान थे। मीडिया का एक ऐसा कड़वा सच, नंगा सच जो सोचने पर मजबूर कर दे। गोरखपुर में शुक्रवार की रात एक व्यापारी को लूटते वक्त एक लुटेरा मारा गया। लुटेरे के साथ दो और लोग भी थे। वे पकड़े गए। पुलिस ने पूछताछ की तो उन्होंने मारे गए व्यक्ति को बस्ती जिले का निवासी और यूपी में कई जगहों से छपने वाले एक बड़े अखबार का रिपोर्टर बताया। सुबह होते-होते गोरखपुर से लेकर बस्ती तक यह खबर जंगल में आग की तरह फैल गई।
नाम न बदनाम होने देने की कवायद रात से लेकर दिनभर की गई। शाम होते-होते पुलिस और संबंधित अखबार के वरिष्ठों ने मारे गए लुटेरे के रिपोर्टर होने से इनकार कर दिया। यह खबर जब भड़ास4मीडिया तक पहुंची तो एक टीम ने मामले की छानबीन की।
छानबीन में कई नई जानकारियां सामने आने लगीं। मारा गया लुटेरा सुनील चौधरी था। छानबीन में यह बात सौ आने सच निकली कि इसे रिपोर्टर रखा गया था। पर यह भी सच पता चला कि उसे अभी प्रेस कार्ड जारी नहीं किया गया था और न ही उसका लिखत-पढ़त में कहीं नाम था। वह डेढ़ महीने पहले नियुक्त किया गया था। मौखिक निर्देश के जरिए पुराने रिपोर्टर को हटाकर उसकी जगह सुनील चौधरी को नया रिपोर्टर घोषित कर दिया गया था।
सवाल उठा कि क्या यह खबर भड़ास4मीडिया पर संबंधित अखबार के नाम और उससे जुड़े वरिष्ठ लोगों के नाम के साथ प्रकाशित की जाए? पूरी टीम ने विचार-विमर्श कर तय किया कि इस मामले में जितने भी प्रमाण भड़ास4मीडिया के पास हैं, उसके आधार पर यह तो साबित होता है कि सुनील चौधरी को रिपोर्टर रखा गया था और वह अखबार के लिए काम कर रहा था लेकिन कार्ड जारी न होने से अखबार से उसके सीधे संबंध को प्रमाणित नहीं किया जा सकता। भड़ास4मीडिया टीम ने अंततः तय किया कि हम अखबार और उससे जुड़े लोगों का नाम नहीं छापेंगे। इसी गाइडलाइन के आधार पर इस पूरे मामले की सच्चाई यहां दी जा रही है। सुनील चौधरी उर्फ महेंद्र को डेढ़ महीने पहले एक बड़े अखबार के बस्ती जिले के साउंघाट ब्लाक का प्रतिनिधि नियुक्त किया गया। इससे पहले इस ब्लाक में नरेंद्र चौधरी रिपोर्टर हुआ करते थे। उन्हें मौखिक निर्देश के जरिए हटाया गया और सुनील को प्रतिनिधि बना दिया गया। पूर्व प्रतिनिधि नरेंद्र चौधरी अब किसी टीवी न्यूज चैनल के लिए काम करते हैं।
सुनील चौधरी पुलिस रिकार्ड में एक कुख्यात हिस्ट्रीशीटर था। उस पर गैंगस्टर, गुंडा एक्ट, लूट समेत आधा दर्जन मुकदमें थे। रिपोर्टर बनने से पहले सुनील चौधरी शिक्षा मित्र भी बन गया था। शिक्षा मित्र की ट्रेनिंग के दौरान पुलिस ने सुनील को उठाया था। उसके और उसके साथियों की निशानदेही पर लूट की आधा दर्जन मोटरसाइकिलें बरामद की गईं थीं। इस घटना के कई महीने बाद सुनील चौधरी को साउंघाट ब्लाक का प्रतिनिधि बना दिया गया। गोरखपुर में व्यापारी को लूटते समय पब्लिक से घिर जाने और एक बहादुर सिपाही द्वारा गोली चलाने से सुनील चौधरी मारा गया। इसके बाद हिस्ट्रीशीटर के रिपोर्टर बनने का भांडा फूटा।
गोरखपुर के एसपी सिटी रमेश कुमार ने भड़ास4मीडिया को बताया कि मारे गए लुटेरे सुनील चौधरी के पास से एक लाख दस हजार रुपये बरामद किया गया है जो व्यापारी से लूटा गया था। व्यापारी गोरखपुर का रहने वाला है और बस्ती से ट्रेन से लौट रहा था। ये लुटेरे बस्ती से ही इसके पीछे लग गए थे और आउटर पर ट्रेन रुकने के बाद जब व्यापारी उतरा तो ये भी उतर गए। एकांत देखकर ये व्यापारी का बैग छीनकर भागने लगे। व्यापारी के शोर मचाने पर पब्लिक ने इनका पीछा किया। बाद में पुलिस भी आ गई। सुनील चौधरी ने भागते-भागते फायर किया। पुलिस ने जवाबी फायरिंग में इसे मार गिराया और इसके दोनों साथियों को गिरफ्तार कर लिया। एसपी सिटी से जब मारे गए सुनील चौधरी के रिपोर्टर होने के बारे में पूछा गया तो उनका कहना था कि इस बारे में वे कुछ नहीं बता सकते। आप बस्ती की पुलिस या संबंधित अखबार के लोगों से ही पूछिए।
कुछ ऐसी ही बातें गोरखपुर के डीआईजी ने भी कहीं।
मतलब साफ था। पुलिस जो पहले सुनील चौधरी के रिपोर्टर होने की बात खुद ही प्रचारित करती घूम रही थी, बाद में अचानक इस मुद्दे पर चुप हो गई। पुलिसवालों ने मारे गए सुनील चौधरी के दो साथियों, जिन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, के जरिए हर मीडिया वाले के सामने बयान दिलवाते फिर रहे थे कि सुनील फलां अखबार का रिपोर्टर था। बाद में पुलिसवालों ने मुंह सिल लिए।
संबंधित अखबार का बस्ती ब्यूरो, जिसको सुनील चौधरी बतौर रिपोर्टर रिपोर्ट करता था, इस अखबार के गोरखपुर संस्करण के अधीन है। इस अखबार के गोरखपुर संस्करण के स्थानीय संपादक से जब भड़ास4मीडिया ने सुनील चौधरी के उनके अखबार का रिपोर्टर होने की सत्यता के बारे में बात की तो उनका कहना था कि रात में प्रसार वालों ने ऐसी सूचना दी थी कि हमारा कोई प्रतिनिधि मारा गया पर बाद में यह सूचना गलत साबित हुई। जिस साउंघाट ब्लाक का प्रतिनिधि होने की बात सुनील चौधरी के बारे में कही जा रही है, वहां का प्रतिनिधि तो नरेंद्र चौधरी है। ये हो सकता है कि वो (सुनील चौधरी) वहां के किसी रिपोर्टर के साथ आता-जाता रहा हो इसलिए उसका नाम जोड़ा जा रहा हो लेकिन सुनील के रिपोर्टर होने की बात बेबुनियाद है।
भड़ास4मीडिया ने जब मारे गए सुनील चौधरी के भाई अरविंद चौधरी से फोन पर बात की तो उसने कहा कि उनका भाई डेढ़ महीने से अखबार का प्रतिनिधि था। अरविंद चौधरी ने बताया- ‘मेरे सामने उसकी नियुक्ति की बात हुई थी। फिर जो हेड हैं, चीफ हैं, उनसे बात हुई थी। मैं भइया के साथ तीन-चार खुद आफिस गया था। आज भी मैं आफिस गया था लेकिन उन लोगों ने भइया के रिपोर्टर न होने की बात बताकर जाने को कह दिया। अब जिसको भी फोन लगा रहा हूं, वो फोन नहीं उठा रहा है।’
ये तो हुई जिन-जिन लोगों से भड़ास4मीडिया ने बात की, उनका ब्योरा।
इन सबसे अलग, कुछ अहम सुबूत मिले हैं जो भड़ास4मीडिया के पास सुरक्षित हैं। इन सुबूतों से प्रमाणित होता है कि उस अखबार के बस्ती ब्यूरो के एक रिपोर्टर और ब्यूरो चीफ की सहमति से सुनील चौधरी को ब्लाक का प्रतिनिधि बनाया गया था। सवाल उठता है कि अगर ये प्रतिनिधि रखा गया तो इसकी जानकारी उस अखबार के गोरखपुर के स्थानीय संपादक को थी या नहीं? इस बारे में छानबीन से पता चला कि चूंकि अभी सुनील लिखत-पढ़त में प्रतिनिधि नहीं बनाया गया था, इसलिए उसके बारे में स्थानीय संपादक को कोई विशेष जानकारी नहीं थी। अब जब मुठभेड़ के बाद रिपोर्टर होने की बात उन तक पहुंची तो वे पूरे मामले को गोरखपुर और बस्ती के बीच ही रहने देने में लग गए। कोशिश यही रही कि यह मामला अखबार के केंद्रीय संपादकीय नेतृत्व और शीर्ष प्रबंधन तक न पहुंचे।
अखबार के केंद्रीय संपादकीय नेतृत्व से जब भड़ास4मीडिया ने इस बारे में बात की तो उनका कहना था कि ये मामला अभी उनके संज्ञान में आया ही नहीं है। पर इतना कह सकता हूं कि इस नाम के किसी व्यक्ति को प्रेस कार्ड या नियुक्ति पत्र नहीं दिया गया है। अगर ऐसा होता तो उनके संज्ञान में जरूर होता। उनका कहना था कि वे पूरे मामले की जांच कराकर अवश्य ही उचित कार्रवाई करेंगे।
बहरहाल, यह मामला पूर्वी उत्तर प्रदेश में मीडिया के लोगों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है। जो संवेदनशील पत्रकार हैं, वे चिंतित हैं। यह घटना मीडिया के अपराधीकरण की दस्तक है? क्या हिस्ट्रीशीटरो के विधायक, सांसद और मंत्री बनने के बाद लोकतंत्र के एक और स्तंभ के चरम पतन का दौर शुरू हो चुका है? क्या अब हिस्ट्रीशीटर भी रिपोर्टर, सब एडीटर, चीफ रिपोर्टर और एडीटर बना करेंगे?
मुद्दा यहां यह नहीं है कि अखबार कौन सा है? स्थानीय संपादक कौन है? ब्यूरो चीफ कौन है? असल मुद्दा यह है कि क्या मीडिया को अब पढ़े-लिखे लोगों और संवेदनशील लोग सूट नहीं करते? क्या मीडिया को माफिया चलाया करेंगे? यह कोई पहला वाकया हो, ऐसा भी नहीं है। अतीत में कई अखबारों के कई संस्करण माफियाओं के भरोसे प्रसार और व्यवसाय के कीर्तिमान स्थापित कर चुके हैं। पर वहां भी तब कम से कम संपादकीय में लिखने-पढ़ने वाले लोग हुआ करते थे। अब जो दौर है उसमें तमंचाधारियों के हाथ में कलम थमाया जा रहा है।
अब भी वक्त है, अगर नहीं चेते तो आगे जाने क्या होगा!
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