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अखबारों में संपादकों के नाम ढूंढो तो जानें!

अजीत अंजुमअखबार का विस्तार, संपादक के कद पर लगाम

आपको एक चुनौती देता हूं। आप किसी भी दिन का नवभारत टाइम्स उठाइए। पहले तो खोजिए कि इस अखबार में प्रिंट लाइन कहां है। फिर खोजिए उस प्रिंट लाइन में नवभारत टाइम्स के संपादक का नाम। आपको लग सकता है कि भला ये क्या बात हुई। तो जनाब पहले आप अखबार उठाइए और प्रिंट लाइन खोजना शुरू कीजिए ….. आपको समझ में आ जाएगा कि मैं कहना क्या चाहता हूं।

अजीत अंजुम

अजीत अंजुमअखबार का विस्तार, संपादक के कद पर लगाम

आपको एक चुनौती देता हूं। आप किसी भी दिन का नवभारत टाइम्स उठाइए। पहले तो खोजिए कि इस अखबार में प्रिंट लाइन कहां है। फिर खोजिए उस प्रिंट लाइन में नवभारत टाइम्स के संपादक का नाम। आपको लग सकता है कि भला ये क्या बात हुई। तो जनाब पहले आप अखबार उठाइए और प्रिंट लाइन खोजना शुरू कीजिए ….. आपको समझ में आ जाएगा कि मैं कहना क्या चाहता हूं।

 दरअसल आज सुबह तमाम अखबारों के पन्ने पलटते वक्त अचानक मन में आया कि देखें इन दिनों अखबारों में कैसे और कहां प्रिंट लाइन (जहां प्रकाशक और संपादक के नाम होते हैं) छप रहा है। सबसे पहले मैंने उठाया नवभारत टाइम्स। खोजनी शुरू की प्रिंट लाइन। इतना तो पता था कि नवभारत टाइम्स में दो कार्यकारी संपादक हैं –मधुसूदन आनंद और रामकृपाल सिंह। इन दोनों संपादकों के नाम खोजने के लिए नवभारत टाइम्स के हर पन्ने को दो-दो, तीन-तीन बार पलटा। नहीं मिला। फिर कोशिश की तो अखबार के आठवें पन्ने पर सबसे नीचे कोने में कुछ छपा हुआ सा दिखा। बेहद सूक्ष्म। इतना सूक्ष्म कि कुछ पता नहीं चल रहा था कि छपा क्या है। दो महीने पहले ही मुझे चश्मा पहनने की जरूरत महसूस हुई थी। आंखों के डॉक्टर की सलाह के बाद मैंने नजदीक का चश्मा पहनना शुरू किया। आज मुझे महसूस हुआ कि मुझे फिर से अपने चश्मे का नंबर बढ़ाने की जरूरत है (कह नहीं सकता ऐसा कोई चश्मा बन पाएगा, जिसे पहनने के बाद मैं आसानी से नवभारत टाइम्स के संपादकों मधुसूदन आनंद और रामकृपाल सिंह का नाम खोज पाऊंगा)।

अखबार के जिस कोने में प्रिंट लाइन जैसा कुछ छपा हुआ दिखा रहा था, उस कोने को मोड़कर हर एंगल से आंखों के नजदीक ले जाकर पढ़ने की कोशिश की और इसी नतीजे पर पहुंचा कि यही है प्रिंट लाइन। बहुत जद्दोजहद के बाद मैंने नवभारत टाइम्स में प्रिंट लाइन तो खोज निकाला, लेकिन अखबार में काम करने वाले दो-तीन साथियों से फोन पर पूछने के बाद पता चला कि दुनिया के शायद सबसे सूक्ष्मतर फॉन्ट में है ये प्रिंट लाइन। खोजने पर संपादकों के नाम भी नजर आ गए। देश के दो वरिष्ठ हिन्दी पत्रकारों का नाम इतने छोटे (सुनहरे नहीं) अक्षरों में लिखा था। समझ में नहीं आया कि इतने बड़े और प्रतिष्ठित अखबार के इतने नामचीन संपादकों के नाम इतने छोटे फॉन्ट में क्यों छपे हैं? क्या अखबार के प्रबंधन  की कोई ऐसी मजबूरी है कि संपादक का नाम इससे बड़ा नहीं छाप सकता या फिर नाम छापने की मजबूरी है इसलिए खानापूर्ति कर रहा है। मेरे विचार से ये एक खानापूर्ति की तरह है।

अखबार के संपादकों के नाम के साथ स्टार का एक मार्क भी लगा होता है। स्टार मार्क का मतलब भी प्रिंट लाइन में छपा होता है- पीआरबी अधिनयम के तहत खबरों के चयन और संपादन के लिए जिम्मेवार।  मतलब ये कि अगर किसी खबर पर बवाल-बवंडर newspaperहुआ तो संपादक जिम्मेवार। केस-मुकदमा हुआ तो संपादक जिम्मेवार। कोर्ट में संपादक के बदले मालिकों  को न जाना पड़े, इसकी व्यवस्था इसी प्रिंट लाइन में कर दी जाती है। लेकिन अगर संपादक ही जिम्मेवार हैं (जो कि हैं और होना भी चाहिए) तो फिर उनके नाम को इतना सूक्ष्म क्यों छापा जाता है, जिसे नंगी आंखों से पढ़ना लगभग नामुमकिन है। क्यों संपादक को प्रिंट लाइन में वो सम्मान हासिल नहीं है, जिसके वो हकदार हैं (ये मेरी राय है, हो सकता है संपादक इससे इत्तेफाक न रखें)।

नवभारत टाइम्स के बाद मैंने इसी ग्रुप के इकोनामिक टाइम्स में प्रिंट लाइन खोजनी शुरू की। वहां भी वही मशक्कत। 12 वें पेज पर उतनी ही सूक्ष्म प्रिंट लाइन। पढ़ने में वही परेशानी। संपादक का नाम नदारद सा लगा। जब अपने चश्मे और अपनी आंखों का इम्तिहान लेते हुए चार लाइन का पूरा मजमून पढ़ गया तो बीच में एक जगह छपा था – एडिटर (दिल्ली मार्केट) टीके अरुण।  समझने में फिर वही मुश्किल कि अखबार में संपादक का नाम इतना छिपाकर क्यों।

अब आइए टाइम्स आफ इंडिया पर। 26 पन्नों के रविवारी संस्करण (मुख्य अखबार) के हर पन्ने को कम से कम पांच बार स्कैन किया। पेज नंबर 8-9 -10 -11 पर छपे लेखों के नीचे -ऊपर, बीच में, हर जगह प्रिंट लाइन खोजने का प्रयास किया। नहीं मिला। तब लगा फिर मेरे खोजने और चश्मे का कोई मामला है। या फिर दुनिया के किसी ऐसे फॉन्ट में छपी प्रिंट लाइन का मामला है, जो मुझे दिख नहीं रहा है। मैंने फ्रेंड और फोन की लाइफ लाइन इस्तेमाल करने का फैसला किया। अपने न्यज 24 के दफ्तर में असाइनमेंट डेस्क पर रिसर्च टीम के शिफ्ट इंचार्ज और सीनियर प्रोड्यूसर रमेश तिवारी को फोन किया। उनसे कहा कि मुझे टाइम्स आफ इंडिया के किस पन्ने पर प्रिंट लाइन छपी है, जरा खोज कर बता दें। दस मिनट बाद रमेश तिवारी का फोन आया …टाइम्स आफ इंडिया में प्रिंट लाइन तो नहीं दिख रही है, दिल्ली टाइम्स के आखिरी पेज पर एक कोने में है, आप देख लीजिए। दिल्ली टाइम्स देखने पर मुझे प्रिंट लाइन में दिखा एडीटर (दिल्ली मार्केट) अंशुल चतुर्वेदी। 

मेरे सहयोगी से दरअसल चूक हुई थी। टाइम्स आफ इंडिया में प्रिंट लाइन नहीं खोज पाए। मैं इतना तो जानता था कि टाइम्स आफ इंडिया के संपादक अरिंदम सेन गुप्ता हैं, इसलिए उनका नाम अखबार में खोजने के लिए मैं फिर अखबार पलटने में जुटा। पेज नम्बर छह पर स्वर्गीय हो चुके एक बिजनेसमैन को श्रद्धांजलि देने का विज्ञापन छपा था। उसी के नीचे उसी तरह बेहद छोटे फॉन्ट में मुझे दिख गयी प्रिंट लाइन। चार लाइनों के बीच में छपा था -एडिटर (दिल्ली मार्केट) रश्मि रोशन लाल। फिर मेरा माथा ठनका। अरिंदम सेन गुप्ता का नाम कहां है?

मैंने टाइम्स ऑफ इंडिया के एक वरिष्ठ साथी को फोन किया ये जानने के लिए कि क्या टाइम्स ऑफ इंडिया के प्रिंट लाइन में संपादक का नाम नहीं छपता है? जवाब सुनकर चौंका जब उन्होंने कहा अखबार चेक करके बताता हूं। कुछ देर बाद उनका फोन आया तो पता चला कि टाइम्स आफ इंडिया के रविवारीय संस्करण की संपादक तो रश्मि रोशन हैं, बाकी दिन उनकी जगह विकास सिंह का नाम छपता है। यानि टाइम्स आफ इंडिया के किसी ग्रुप एडिटर या कार्यकारी संपादक का नाम प्रिंट लाइन में नहीं छपता है। दिल्ली मार्केट के संपादक (स्थानीय संपादक) का नाम सूक्ष्म रूप से छपता है।

टाइम्स ऑफ इंडिया वही अखबार है, जिसके संपादक शाम लाल और गिरिलाल जैन हुआ करते थे। इनके नाम से ही अखबार जाना जाता था। एक समय वो भी था, जब इन्हें लार्जर दैन इन्स्टीट्यूशन कहा जाता था। गिरिलाल जैन के जमाने में उनका कद इतना बड़ा हुआ करता था कि लोग उनके बारे में कहते थे कि देश को दो ही लोग चलाते हैं- प्राइम मिनिस्टर आफ इंडिया या एडिटर टाइम्स आफ इंडिया! कहने का मतलब उन दिनों संपादक बहुत बड़ा ओहदा हुआ करता था। शायद ये भी एक वजह थी, जब कई संस्थानों ने संपादकों के बढ़ते कद को थामने के लिए नए तरीके खोजे। तर्क दिया गया संस्थान बड़ा होता है, व्यक्ति नहीं।

मैंने दैनिक जागरण में प्रिंट लाइन तो आसानी से खोज निकाली, लेकिन यहां मालिकों की तीन पीढ़ियों के नाम छपे हैं।  संस्थापक- स्व.पूर्णचंन्द्र गुप्त, पूर्व प्रधान संपादक- स्व.नरेन्द्र मोहन गुप्त, संपादक- संजय गुप्त। जाहिर है श्री संजय गुप्त के नीचे कोई स्थानीय संपादक भी होगा, लेकिन शायद वर्किंग संपादक (जो मालिक न हो) का नाम देना इस संस्थान की नीतियों के खिलाफ हो। दैनिक जागरण के मास्ट हेड के ऊपर छपा है- विश्व का सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला अखबार। सर्कुलेशन के मामले में दैनिक जागरण सबसे बड़ा अखबार है (उनका दावा है), लेकिन आप इस अखबार के पीछे काम करने वाले किसी वर्किंग एडिटर का नाम नहीं जान सकते। सारा श्रेय संजय गुप्त को देना होगा, जो मालिक भी हैं। दिल्ली से बाहर के संस्करणों के बारे में मेरे पास अभी पक्की जानकारी नहीं है, इसलिए उसकी चर्चा नहीं कर रहा हूं। इतना पता है कि कई रीजनल अखबार मैनेजरों को संपादक बना रहे हैं। जो अखबार का असली संपादक होता है, वो गुमनाम होता है और जो मालिकों के मैनेजर होते हैं, उनके  नाम प्रिंट लाइन में संपादक के तौर पर छपते हैं। ऐसे अखबारों में संपादक मैनेजरों के नाम से अग्रलेख भी लिखते हैं।

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अमर उजाला में भी पहले सिर्फ वर्तमान मालिकों और उनके स्वर्गीय हो चुके पूर्वजों के नाम प्रिंट लाइन में छपते थे। संस्थापक के रूप में स्वर्गीय डोरीलाल अग्रवाल और स्व. मुरारीलाल माहेश्वरी। संपादकों के तौर पर अजय अग्रवाल, अशोक अग्रवाल, अतुल माहेश्वरी, राजुल माहेश्वरी के नाम (जितना मुझे याद है) अलग-अलग संस्करणों में छपते थे। अब वहां शशि शेखर का नाम संपादक के तौर पर छपता है। शायद इसकी शुरुआत राजेश रपरिया के समय हुई थी, लेकिन शशि शेखर ने वर्किंग संपादक का नाम छापने और उन्हें श्रेय देने का सिलसिला शुरू किया। मेरी जानकारी के मुताबिक अमर उजाला के ज्यादातर संस्करणों में वहां के स्थानीय संपादक के नाम छपते हैं और कायदे से छपते हैं। खुद शशि शेखर अपने अखबार में जमकर लिखते भी हैं। जब लिखते हैं तो उनके तेवर की चर्चा भी होती है, लेकिन यहां की पॉलिसी में एक पेच है। अमर उजाला में छपने वाले उनके लेखों के नीचे लिखा होता है- लेखक अमर उजाला से जुड़े हैं।  कई बार समझने की कोशिश की, इसका मतलब क्या है, फिर लगा कि हो सकता है इसके पीछे कोई सकारात्मक सोच हो या फिर पॉलिसी, जो मुझे समझ में नहीं आ रही है।

दिल्ली के अखबारों में जनसत्ता, दैनिक हिन्दुस्तान, राष्ट्रीय सहारा, दैनिक भास्कर और नई दुनिया में प्रिंट लाइन आप आसानी से खोज सकते हैं। नई दुनिया इस मामले में बहुत उदार है या कहें कि हो गया है। आलोक मेहता का नाम बहुत प्रमुखता से प्रिंट लाइन में है। संपादकीय मामलों में मालिकों की छत्रछाया में पले बढ़े होने के बावजूद (मालिकों की तीन पीढियां इस अखबार से भी जुड़ी हैं) संपादक की छाप यहां दिखती है। मालिक होकर भी विनय छजलानी प्रिट लाइन में हावी नहीं है ।

सवाल ये है कि आखिर प्रिंट लाइन इतनी सिकुड़ती क्यों जा रही है? बीस साल पहले जिन बड़े अखबारों में बहुत प्रमुखता से संपादक के नाम छपते थे, वहां अब उनके नाम क्यों इतने सूक्ष्म हो गए हैं? क्या संपादक की जो सत्ता पहले थी, वो आज भी उसी तरह कायम है? बाकी अखबार के प्रिंट लाइन में छपा होता है फलां द्वारा प्रकाशित और मुद्रित। टाइम्स आफ इंडिया और इकोनॉमिक टाइम्स में इस सूचना के साथ यह भी छपा होता है- मेड इन न्यू देल्ही। गौर करिए शब्दों पर- मेड इन न्यू देल्ही।

स्थानीय संपादक के नाम के साथ लिखा होता है- दिल्ली मार्केट।

संस्करण यहां मार्केट है और अखबार प्रोडक्ट- मेड इन न्यू देल्ही।

संस्थानों की इस फिलासफी पर विवाद खड़ा करने का हमारा कोई मकसद नहीं है, सिर्फ इस ओर इशारा करना चाहता हूं कि हर अखबार के संपादकों को उसका पूरा श्रेय उसके प्रिंट लाइन में क्यों नहीं मिलता है। अखबार का विस्तार हो रहा है तो फिर संपादक के कद पर लगाम क्यों। संपादक नाम की संस्था को उतना तवज्जों क्यों नहीं दिया जा रहा है, जितना दिया जाना चाहिए। कई रीजनल अखबारों में पहले मालिकों के नाम पहले स्वामित्व, प्रकाशक और मुद्रक में छपते थे, अब उनके नाम संपादक के तौर पर छपते हैं और संपादक के नाम गायब हो गए हैं।

बेशक अखबार कोई प्रोफेशनल पत्रकार चलाता हो, बेशक अपने अखबार मालिक के नाम पर अग्रलेख कोई स्थानीय संपादक लिखता हो, लेकिन संपादक प्रिंट लाइन में अपना नाम देखने के लिए तरसता रह जाता है।


लेखक अजीत अंजुम वरिष्ठ पत्रकार हैं और इन दिनों हिंदी न्यूज चैनल ‘न्यूज 24’ के मैनेजिंग एडिटर हैं। इस आलेख पर अपनी राय, टिप्पणी या प्रतिक्रिया लेखक तक पहुंचाने के लिए आप [email protected] का सहारा ले सकते हैं। 
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