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पत्रकारिता की काली कोठरी से (21)

Alok Nandanपत्रकारिता में आना-जाना तो लगा रहता है : रामेश्वर पांडे

उस दिन ऑफिस में घुसते ही मेरी नजर रामेश्वर पांडे के केबिन की टीवी पर पड़ी।  दो विशाल इमारतों को धू-धू करके जलते हुए दिखाया जा रहा था। कुछ देर तक टीवी से चिपके रहने के बाद माजरा समझ में आया कि अमेरिका पर लादेनवादियों ने जोरदार हमला किया है। टीवी पर दो बिल्डिंगों को जलते हुए दिखाया जा रहा था, पर स्पष्ट नहीं हो रहा था कि हमले का स्वरूप क्या है। मैं भागकर जनरल डेस्क की ओर गया।

<p align="center"><img src="http://bhadas4media.com/images/photo2/an1.jpg" border="0" alt="Alok Nandan" title="Alok Nandan" hspace="6" width="181" height="138" align="left" /><font color="#ff0000">पत्रकारिता में आना-जाना तो लगा रहता है : रामेश्वर पांडे<br /></font></p><p align="justify">उस दिन ऑफिस में घुसते ही मेरी नजर रामेश्वर पांडे के केबिन की टीवी पर पड़ी।  दो विशाल इमारतों को धू-धू करके जलते हुए दिखाया जा रहा था। कुछ देर तक टीवी से चिपके रहने के बाद माजरा समझ में आया कि अमेरिका पर लादेनवादियों ने जोरदार हमला किया है। टीवी पर दो बिल्डिंगों को जलते हुए दिखाया जा रहा था, पर स्पष्ट नहीं हो रहा था कि हमले का स्वरूप क्या है। मैं भागकर जनरल डेस्क की ओर गया। </p>

Alok Nandanपत्रकारिता में आना-जाना तो लगा रहता है : रामेश्वर पांडे

उस दिन ऑफिस में घुसते ही मेरी नजर रामेश्वर पांडे के केबिन की टीवी पर पड़ी।  दो विशाल इमारतों को धू-धू करके जलते हुए दिखाया जा रहा था। कुछ देर तक टीवी से चिपके रहने के बाद माजरा समझ में आया कि अमेरिका पर लादेनवादियों ने जोरदार हमला किया है। टीवी पर दो बिल्डिंगों को जलते हुए दिखाया जा रहा था, पर स्पष्ट नहीं हो रहा था कि हमले का स्वरूप क्या है। मैं भागकर जनरल डेस्क की ओर गया।

वहां पर पुरुषोत्तम जी बैठे थे। उनसे पूछा कि क्या अमेरिका हमला के संबंध में एजेंसी से कोई रिपोर्ट आ रही है तो उन्होंने न में जवाब दिया। वह तुरंत ऑफिस में आकर बैठे थे। उन्हें भी हमले के विषय में जानकारी नहीं थी। वापस आकर मैं टीवी से तब तक चिपका रहा जब तक रामेश्वर पांडे अपनी कुर्सी पर नहीं बैठ गए।

लादेन की टीम पर मेरी नजर अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा तख्ता पलट के समय से थी। अमेरिका के खिलाफ खड़ा होने की वहज से उन दिनों मैं मुल्ला ओमर का प्रशंसक था। लेकिन जिस दिन तालिबानियों ने बामियान में बुद्ध की प्रतिमा पर तोप चलाए थे, उसी दिन से मैं तालिबान विरोधी हो गया था। ट्विन टॉवर के अलावा लादेनवादियों के रेंज में पेंटागन भी था। उस समय होशियारपुर डेस्क पर काम करने के दौरान मेरा ध्यान अमेरिका पर हुए इस हमले की ओर ही था। रामेश्वर पांडे हमले से संबंधित खबरों पर नजर रखे थे। अपनी कुर्सी पर जमे रहे। खबरों का चयन करने के बाद वे खुद मुख्य पेज का ले-आउट बनाने के लिए बैठे। वह निरंतर काम किए जा रहे थे। उनके चेहरे पर थकान थी। अगली सुबह अखबार के पन्ने पर उनकी मेहनत दिखाई पड़ रही थी। जूनियर बुश की आंखों से टपकते आंसू को उन्होंने प्रभावी तरीके से पहले पेज पर टॉप पर लगाया था। अन्य अखबारों ने धधकते ट्विन टॉंवर की तस्वीरों को तरजीह दी थी। होठ चबाते जूनियर बुश की आंखों से टपकता आंसू अमेरिकी मनोदशा को व्यक्त कर रहा था। यह तस्वीर अन्य अखबारों में थी, लेकिन दबी हुई। रामेश्वर पांडे ने रोते इतिहास को प्रभावी तरीके से पहले पन्ने पर दर्ज किया था। उस दिन मैं उनकी संपादकीय अंतर्दृष्टि का मुरीद हो गया।

अमेरिका पर लादेनवादियों के हमले के बाद मेरी तीव्र इच्छा जनरल डेस्क पर काम करने की हो रही थी। वैसे भी स्थानीय खबरों से उब-सी हो रही थी। एक दिन मैंने रामेश्वर पांडे से इस बाबत कहा। उन्होंने जवाब दिया, जनरल डेस्क पर अंग्रेजी में काम होता है। तुम जल्दी आ जाया करो और तौर-तरीके सीखो। इसके बाद मैं तुम्हे जनरल डेस्क पर डालने के विषय में सोचूंगा।

उनकी बात मानकर मैं जनरल डेस्क पर कुछ समय देने लगा था। वहां पर अंग्रेजी के टेक मेरे हाथ में पकड़ा दिए जाते थे, जिनका हिन्दी में मैं अनुवाद करता रहता था। प्रत्येक दिन दो-तीन खबरें बनाता था। इसी डेस्क पर मेरी मुलाकात रवींद्र ओझा से हुई। संस्थान में कई बार रवींद्र ओझा से बातचीत हो चुकी थी, लेकिन उन्हें नजदीक से जानने का अवसर पहली बार मिला। मैं जितना ओझा के करीब आता गया, उनकी पत्रकारिता शैली का कायल होता गया, हालांकि उस संस्थान के लोग रवींद्र ओझा को फालतू की चीज मानते थे। इसका मुख्य कारण था कि सबके साथ उनका उधार खाता चलता था। लेकिन पत्रकारिता को लेकर उनके पास एक स्पष्ट विजन था, और चीजों को बहुत दूर तक देखते थे। समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की भावना उनके अंदर कूटकूट कर भरी हुई थी और मुंह बेलगाम घोड़े की तरह खुला हुआ था। हर चीज को वह बड़ी बेबाकी से बोलते थे, और उनकी इसी शैली का मैं मुरीद था। हर स्तर के लोगों से जमीनी तौर पर संवाद स्थापित करने की उनकी क्षमता अदभुद थी। अमर उजाला में उनका आगमन मेरे बाद हुआ था, लेकिन बहुत जल्द ही उन्होंने वहां काम करने वाले लोगों से  बेहतर संवाद स्थापित कर लिए थे। कई बार उनके साथ शराबखोरी करने और उनको नजदीक से सुनने और समझने का मौका मिला। हम दोनों लोग साथ-साथ गड़गच्च करके शराब पीते थे और दुनियाभर के आंदोलनों पर घंटों बात करते थे, हालांकि उनकी बातों में बड़बोलापन भी झलकता था, फिर भी उनकी बातें कहीं न कहीं जमीन से जुड़ी होती थी। वह पूरी तरह से देसज पत्रकार थे और देसज पत्रकारिता का सही मायने में प्रतिनिधित्व करते थे। उनकी बेबाक शैली और दुनिया को झंड समझने की उनकी अदा का मैं कायल था।

रामेश्वर पांडे अखबार को सफल बनाने के लिए लगातार जूझ रहे थे, लेकिन उस लेबोरेटरी में काम करने वाले लोगों के धड़े के बीच दबी जुबान से उन्हें एक असफल संपादक के रूप में चित्रित किया जा रहा था। उन्होंने रिपोर्टिंग में बहुत बड़े पैमाने पर उलटफेर किया था। विभिन्न जिलों से रिपोर्टिंग के कुछ लोगों को डेस्क पर बैठा दिया था, जिसके कारण ये लोग रामेश्वर पांडे से अच्छे-खासे नाराज थे, क्योंकि इनकी आदत रिपोर्टिंग में मलाई खाने की लगी हुई थी और डेस्क पर ये लोग अपने आप को सहज मसहूस नहीं कर रहे थे। धीरे-धीरे ये लोग रामेश्वर पांडे के खिलाफ खुलेआम बोल रहे थे। ये लोग यहां तक कह रहे थे कि मेरठ और दिल्ली में बैठे कुछ लोग भी रामेश्वर पांडे को एक असफल संपादक के रूप में चित्रित करने में लगे हुये है। उस लेबोरेटरी में रामेश्वर पांडे के खिलाफ अंदर खाते एक मजबूत धारा बहने लगी थी। लेबोरेटरी के बाहर डा. अजय, जो अमर उजाला के फीचर डेस्क पर अपनी सेवा दे चुके थे, रामेश्वर पांडे की गतिविधियों में खास रुचि रखते थे। किसी कारण वश अमर उजाला छोड़ने के बाद उनके मन भी रामेश्वर पांडे के प्रति असंतोष की गहरी भावना थी। हिन्दी में दो लघु उपन्यास लिखने के बाद एक हिन्दी साहित्यकार के तौर पर वह पंजाब में स्थापित हो चुके थे। उनके उपन्यास पंजाब के कॉलेजों के हिंदी पाठ्यक्रम में भी शामिल कर ली गई थी। अमर उजाला में रामेश्वर पांडे के कार्यकाल पर वह एक नया उपन्यास लिखने की तैयारी करने में लगे हुये थे।

जम्मू से आने के बाद मैंने राजेंद्र तिवारी पर एक कहानी लिख कर लेबोरेटरी के अंदर कंप्यूटर के नेटर्वक में डाल दिया था। इसके अलावा उस नेटर्वक में मेरी लिखी हुई और भी कई कहानिया चल रही थी। लेबोरेटरी में काम करने वाले सभी लोग मेरी कहानियों को पसंद करने लगे थे। डॉ. अजय शर्मा से मेरा परिचय नवीन पांडे ने करवाया। उनके दो उपन्यासों को मैं चलते फिरते पढ़ गया था। पंजाब की पृष्ठभूमि पर अभिनेता बनने की महत्वकांक्षा रखने वाले एक नौजवान की मुंबई की फिल्मी दुनिया में संघर्ष की कहानी कुछ अच्छी थी, लेकिन इराक युद्ध पर लिखा गया उनका लघु उपन्यास बसरा की गलिया पूरी तरह से फिल्मी जान पड़ती थी। वास्तविकता के धरातल पर उसके कथ्य कहीं से भी सटीक नहीं बैठते थे। रामेश्वर पांडे के कार्यकाल पर उपन्यास लिखने के लिए उन्होंने मुझसे मदद मांगी। उन्होंने मुझसे कुछ लिख कर देने को कहा। पंजाब के सामाजिक ताने-बाने और अखबार की दुनिया को लेकर मैंने एक कहानी लिख रखा था-काल्विन। यह चरित्र मुख्य रूप से मैक्सिम गोर्की की कहानी कोनवालोव से प्रभावित था, जो अपने अगल-बगल के परवेश को देखते हुये उसका अपने तरीके मजबूत मूल्यांकन करता है। इस कहानी में हिटलर का भी जिक्र किया गया था। मैंने अपनी अप्रकाशित कहानी डॉ. अजय शर्मा को दे दी। रामेश्वर पांडे के कार्यकाल का अपने तरीके से चित्रण करते हुये उन्होंने अपने अगले उपन्यास में काल्विन को सम्मिलत कर लिया, और इंप्रोवाइजेशन में काल्विन की वाट लगा दी। काल्विन एक अक्खड़ चरित्र था, जो सभी पत्रकारों और संपादकों से बुरी तरह से उलझा रहता था। उन्होंने उसका प्यार पंजाब की एक वेश्या से करा दिया और उनके उपन्यास में यह अखड़ चरित्र उस वेश्या के लिए बिलट-बिलट कर रोने लगा। हिटलर के संबंध में लिखे गये वाक्यों को भी उन्होंने अपने उपन्यास से हटा दिया। हालांकि काल्विन के चरित्र को छोड़कर पत्रकारिता पर लिखा गया उनका यह उपन्यास जमीन पकड़े हुये था।   

जिस समय डॉ. अजय  शर्मा यह उपन्यास लिखने की तैयारी कर रहे थे, उस समय रामेश्वर पांडे का सल्तनत वाकई में डगमगा रहा था। उस लेबोरटरी में उनके तबादले की चर्चा जोरों से चलने लगी थी, दबे-दबे स्वर में।

इसी बीच मेरठ से कुछ फार्म भेजे गये, जिन्हें वहां काम करने वाले प्रत्येक लोगों को भरना था। इस फार्म में कार्य-प्रणाली से लेकर अधिकारियों के संबंध में तमाम तरह के सवाल पूछे गये थे। फार्म देते वक्त यह भी कहा गया था कि इन्हें गुप्त रखा जाएगा। एक तरह इस फार्म के माध्यम से वहां काम करने वाले लोगों के नजरिये से अधिकारियों का मूल्यांकन किया जा रहा था। अधिकतर लोग इस फार्म को लेकर कंफ्यूज थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि इस फार्म को कैसे भरे। मैंने एक बार फार्म देखे और उसे भरकर जमा कर दिये।

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धीरे-धीरे करके वहां  से कई लोग निकल रहे थे। प्रबंधन भी खर्च में कटौती करने के नये-नये रास्तों की तलाश कर रहा था और उन्हें लागू कर रहा था। निकलने वाले लोगों के स्थान पर नये लोगों की भर्ती पूरी तरह से बंद कर दी गई थी। किसी-किसी डेस्क पर तो चार लोगों की जगह अब मात्र दो लोग ही रह गये थे। हर किसी के सिर पर काम का बोझ बढ़ता जा रहा था। मेरी साप्ताहिक अवकाश पर भी आफत आ गई थी। मेरा साप्ताहिक अवकाश लगातार कैंसिल किया जाता रहा। साप्ताहिक अवकाश न मिलने का विरोध करने के लिए मैंने अपने अखबार की एक खबर का इस्तेमाल किया। सिंगल कॉलम की उस खबर में लिखा था कि कैसे एक सैनिक ने छुट्टी न मिलने के कारण अपने वरिष्ठ अधिकारी पर गोलियों की बौछार कर दी थी। कई लोगों के मना करने के बावजूद उस खबर को काटकर मैंने उसे नोटिस बोर्ड पर चिपका दिया। इसके बावजूद साप्ताहिक अवकाश को नियमित करने की ओर ध्यान नहीं दिया गया। चरमराती हुई व्यवस्था के ये लक्षण थे।    

इसी बीच शिव कुमार विवेक किसी अन्य अखबार में ऊंचे पद पर चलते बने। रामेश्वर पांडे की ओर से उन्हें शुभकामना के साथ विदाई दी गई। शिव कुमार विवेक के स्थान पर एके सिंह ने अनाधिकारिक तौर पर कार्यभार संभाल लिया। कनफुसिआहट के बीच एक दिन रामेश्वर पांडे ने खुद संपादकीय विभाग में घोषणा की कि अब वे जालंधर से जा रहे हैं। उनकी इस घोषणा का सबसे गहरा असर मेरे ऊपर पड़ा था। दूसरे लोगों की मानसिक स्थित क्या थी मुझे नहीं पता, लेकिन अब जालंधर में रामेश्वर पांडे के बिना रहने का मुझे औचित्य समझ में नहीं आ रहा था। उसी दिन रामेश्वर पांडे से मैं मिला और कहा, आपके कारण ही मैं यहां पर रुका था, अब आप जा रहे हैं तो मैं भी यहां नहीं रहूंगा। उन्होंने समझाते हुये कहा, मेरे रहने और ना रहने से क्या फर्क पड़ता है, तुम आराम से अपना काम करते रहो। पत्रकारिता में आना-जाना तो लगा रहता है। तुम बस अपने काम पर ध्यान दो।

कुछ दिन के बाद जालंधर के एक होटल में उनकी बिदाई की रस्में अदा की गई थी। नए स्थानीय संपादक अकु श्रीवास्तव के साथ अमर उजाला से संबंधित सभी लोग इस समारोह में आये थे। उनकी विदाई के लिए रातभर जागकर मैंने उन पर एक कविता लिखी थी। वह कविता अंग्रेजी में थी। उस कविता में एक योद्धा पत्राकर के तौर उनका चित्रण करते हुये उनकी तुलना नेपोलियन बोनापार्ट से की थी। उस कविता की समाप्ति के बाद करीब तीन मिनट तक उस हॉल में तालियों की गड़गड़ाहट होती रही। उस कविता ने वहां पर मौजूद सभी लोगों के अंतर्भावों को व्यक्त कर दिया था। भोजन के दौरान लोग रामेश्वर पांडे को चारों तरफ से घेर उनसे बातें कर रहे थे। उस कविता को लेकर मैं उनके पास गया और कविता उनकी ओर बढ़ाते हुये कहा, आप इस पर अपना हस्ताक्षर कर देंगे तो मुझे खुशी होगी। मेरी ओर स्नेह से देखते हुए उनके होठों पर मुस्कराटह दौड़ पड़ी। मुस्कराते हुए उन्होंने उस कविता पर हस्ताक्षर किए और मेरी ओर बढ़ा दिया।


पत्रकार आलोक नंदन इन दिनों मुंबई में हिंदी सिनेमा के लिए सक्रिय हैं। वे मीडिया के दिनों के अपने अनुभव को भड़ास4मीडिया के पाठकों के लिए पेश कर रहे हैं। पीछे के पार्ट को पढ़ने के लिए (1),  (2), (3)(4), (5), (6), (7), (8), (9), (10), (11), (12)(13), (14), (15), (16), (17), (18), (19), (20) पर क्लिक कर सकते हैं। 22वां पार्ट अगले हफ्ते पढ़ें।

आलोक से संपर्क [email protected]  के जरिए किया जा सकता है।

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