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पत्रकारिता की काली कोठरी से (23)

Alok Nandanसफलता के लिए नब्बे डिग्री पर झुकने का फार्मूला

यह अखबारों में ठेकेदारी प्रथा को स्थापित करने का दौर था। दिल्ली में नवभारत टाइम्स और हिन्दुस्तान एक दूसरे से गलाकाट प्रतिस्पर्धा करते हुए ठेकेदारी प्रथा को तेजी से स्थापित करने में लगे थे। इन दोनों समूहों में काम करने वाले पुराने पत्रकारों को ठेकेदारी प्रथा में लाने के लिए प्रबंधन हर तरह के हथकंडे अपना रहा था। इन अखबारों के दूर-दराज के पत्रकारों के साथ मनमाना सलूक किया जा रहा था।

Alok Nandan

Alok Nandanसफलता के लिए नब्बे डिग्री पर झुकने का फार्मूला

यह अखबारों में ठेकेदारी प्रथा को स्थापित करने का दौर था। दिल्ली में नवभारत टाइम्स और हिन्दुस्तान एक दूसरे से गलाकाट प्रतिस्पर्धा करते हुए ठेकेदारी प्रथा को तेजी से स्थापित करने में लगे थे। इन दोनों समूहों में काम करने वाले पुराने पत्रकारों को ठेकेदारी प्रथा में लाने के लिए प्रबंधन हर तरह के हथकंडे अपना रहा था। इन अखबारों के दूर-दराज के पत्रकारों के साथ मनमाना सलूक किया जा रहा था।

छोटे-बड़े सभी पत्रकार ठेकेदारी प्रथा के सामने एक-एक कर घुटने टेक रहे थे। अपनी नियमित नौकरी को छोड़कर ठेकेदारी के मसौदे पर हस्ताक्षर कर रहे थे। ऐसा करने के लिए उन्हें वेतन वृद्धि के लालच से लेकर बाहर का रास्ता दिखाने की धमकी दी जा रही थी। इन दोनों अखबारों में नए लोगों ठेकेदारी प्रथा पर ही रखे जा रहे थे। ठेकेदारी में लागू शर्तें पत्रकारों के गर्दन को जकड़े रहने की गहरी साजिश का आभास कराती थीं। यह पूरी तरह अखबार मालिकों के पक्ष में था। खबरों के नाम पर लाइफ स्टाइल को परोसने का दौर क्लाइमेक्स की ओर बढ़ रहा था। दोनों अखबार का प्रबंधन अधिक से अधिक विज्ञापन बटोरने वाले सप्लीमेंट लेकर आ रहे थे। इनके कंटेंट पर प्रबंधन हावी था। इस तरह के सप्लीमेंट में कंटेंट के स्तर पर काम करने वाले सभी लोगों को ठेकेदारी प्रथा के तहत काम मुहैया कराया जा रहा था। सप्लीमेंट के असफल होने के बाद इन्हें सीधे बाहर का रास्ता दिखा जाया जाता था।

दूर-दराज के छोटे-बड़े शहरों में पत्रकारिता संस्थानों के खुलने से प्रत्येक वर्ष दिल्ली में बहुत बड़ी संख्या में कस्बाई पत्रकार टपक रहे थे। दिल्ली में पत्रकारों की संख्या तिलचट्टों की तरह बढ़ती जा रही थी। ये लोग किसी भी स्थिति में दिल्ली में काम करने को तैयार थे। आधुनिकता का लबादा ओढ़े दैनिक जागरण अपने अंदर अर्द्ध-सामंती व्यवस्था को मजबूती से कायम किए हुए था।    

नोएडा में एक ही बिल्डिंग में दैनिक जागरण के संपादकीय, प्रबंधन और पेस्टिंग विभाग थे। अखबारों को छापने वाली बड़ी मशीनें भी इसी बिल्डिंग के हिस्से में थी। संपादकीय विभाग बिल्डिंग के दूसरे हिस्सें में था। इस बिल्डिंग के निचले हिस्से में जनरल डेस्क के साथ अन्य विभिन्न जिलों से संबंधित अन्य कई डेस्क थे। दिल्ली डेस्क भी यहीं से संचालित हो रहा था। उन दिनों न्यूज एडिटर के तौर पर विनोद शील पूरे कुनबे को सांमती अंदाज में हांकने में लगे रहते थे। वे बाहर निकल कर चीखते-चिल्लाते थे या फिर अपनी कुर्सी पर बैठकर सिर झटकते रहते थे। जनरल डेस्क की कमान कल्याण ने संभाल रखा था। वे बड़ी तल्लीनता से लोगों से खबरें एडिट कराने में लगे रहते थे। कंप्यूटर में घंटों आंख गड़ाए रहने के बावजूद उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं आती थी। लोगों के साथ बड़ी नरमी से पेश आते हुए वे विनोद शील की चीख-चिल्लाटह का सामना करते रहते थे।

जनरल डेस्क पर दो शिफ्ट में करीब आठ-दस लोग काम करते थे। ये लोग एजेंसी से आने वाली खबरों की एडिटिंग करते थे, जो इन्हें कल्याण द्वारा दिया जाता था। कल्याण तक खबरें पहुंचने के पहले एक कंप्यूटर पर एजेंसी की खबरों की छंटनी होती थी। पीटीआई, रायटर, भाषा और एपी जैसी न्यूज एजेंसियां कंप्यूटर पर ताबड़तोड़ खबरें उड़ेले रहती थीं। बिजली से भी तेज गति से कंप्यूटर पर खबरें गिरती रहती थीं। तकनीकी दृष्टि से जागरण निःसंदेह अग्रिम पंक्ति में खड़ा था। एक आदमी लगातार इन खबरों की छंटनी करने में लगा रहता था। मैं भी इसी टीम का एक हिस्सा बन गया था।

कुछ दिन तक मेरे लिए अलग से कंप्यूटर की व्यवस्था नहीं थी। समय-परिस्थिति के मुताबिक मुझे इधर-उधर बैठाया जाता था। बहुत जल्दी सुमित्रा के बगल में मेरे बैठने की व्यवस्था कर दी गई। सुमित्रा भी उन दिनों एजेंसी से आने वाली खबरों की छंटनी करती थी।  

संपादकीय विभाग के अंदर हमेशा भनभनाहट की स्थिति रहती थी। लोग अपने कंप्यूटर पर बैठकर इसी भनभनाटह के बीच खबरों से जूझते रहते थे। ले-आउट और हेडलाइन की तकनीक के मामले में जागरण उदार था। लोग हेडिंग को तकनीकी स्तर पर कसने के बजाय, हेडिंग में इस्तेमाल किए जाने वालों शब्दों को कसने पर ज्यादा ध्यान देते थे। पन्ने पर खबरों के डिस्प्ले में भी यही मानसिकता काम कर रही थी। प्रिंटर का मनचाहा इस्तेमाल करने की छूट थी, जिससे कागजों का अपव्यय बड़ी मात्रा में होता था। लोग सहज तरीके से अपने काम में जुटे रहते थे। शाम होते ही पेस्टिंग विभाग सक्रिय हो जाता था। संपादकीय विभाग से निकलने वाले पन्ने पेस्टिंग विभाग में जाते थे और वहां पर कटिंग फिटिंग के बाद उन्हें मशीनों पर छपने के लिए भेज दिया जाता था। इधर मशीनों की घड़घड़ाहट चलती-रहती थी और उधर जागरण के प्रांगण में सैकड़ों लोग अपने सधे हुए हाथों से अखबारों के अलग-अलग सप्लीमेंटों को एक दूसरे में सटकाने में लगे रहते थे।

जागरण के संपादकीय विभाग में अर्द्ध-सामंती व्यवस्था स्पष्ट रूप से दिखती थी। पूरी टीम को विनोद शील वैसे ही हांकते थे जैसे भू-दास प्रथा की समाप्ति के पहले अपने जागीरों को रूसी सामंत हांका करते थे। वहां पर काम करने वाले अधिकतर पत्रकारों ने भी बड़ी सहजता से इस अर्द्ध-सामंती व्यवस्था को स्वीकार कर लिया था। विनोद शील के बाद कल्याण जनरल डेस्क इंचार्ज के तौर पर इस अर्द्ध-सामंती व्यवस्था की निचली सीढ़ी पर खड़े थे। विनोद शील की जवाबदेही बड़े हुक्मरानों के प्रति थी। छोटी-बड़ी गल्तियों के लिए हर दो दिन पर उनकी पेशी संजय गुप्ता के दरबार में होती थी। संजय गुप्ता उनके साथ पूरी तरह से कारिंदों के सरदार की तरह व्यवहार करते थे। उनके दरबार से निकलने के बाद संपादकीय विभाग में कदम रखते ही विनोद शील वहां काम करने वाले लोगों के प्रति आक्रामक हो जाते थे। अपनी इस आक्रामक प्रवृत्ति का उन्हें भी आभास न था। वह संपादकीय विभाग के कारिंदों से अक्सर कहा करते थे, मेरी बात का बुरा मत मानना, जो मन में आता है बोल देता हूं, दिल में कोई बात नहीं रखता। मेरी जगह पर तुम लोग होते तो शायद तुम लोग भी ऐसा ही करते।   

उस अर्द्ध-सामंती व्यवस्था में विनोद शील अस्पष्ट रूप से एक मनोवैज्ञानिक झुंझलाहट के शिकार थे, जो उनके व्यवहार में दिखाता था। केबिन में बैठकर वह अपना सिर लगातार झटकते रहते थे, मानों नाक पर कोई मक्खी बार-बार आकर बैठ रही हो। उनको सिर झटकते देखकर ऐसा लगता था जैसे वह किसी खौफनाक विचार को बार-बार झटकने की कोशिश कर रहे हों। वहां पर काम करने वाले कारिंदों पर उनकी गहरी नजर होती थी। अंग्रेजों के जमाने के जेलर की तरह उनके जासूस संपादकीय विभाग के कोने-कोने में फैले थे। उनकी अनुपस्थिति में संपादकीय विभाग में क्या कुछ चल रहा है, इस बात की उन्हें पूरी जानकारी होती थी।

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रात में खबरें न होने पर मैं अक्सर इधर-उधर घूमा करता था। एक दिन केबिन में अपना सिर झटकते हुए उन्होंने कहा, ‘मुझे पता है मेरे जाने के बाद तुम इधर-उधर घूमा करते हो।’ मैंने उनसे तत्काल पूछ डाला, ‘आपसे किसने कहा?’ उन्होंने हड़काते हुए कहा, ‘इससे तुम्हें क्या मतलब? इधर-उधर घूमने के बजाय अपने काम पर ध्यान दिया करो।’

विनोद शील की हर अदा से कल्याण अच्छी तरह से वाकिफ थे। वह चुपचाप उनके निर्देशों का पालन करते थे। आपस में दोनों की केमिस्ट्री पूरी तरह से बैठी हुई थी। विनोद शील का इशारा होते ही कल्याण तेजी से केबिन की ओर भागते थे।

अखिलेश जी का हंसता-मुस्कराता चेहरा वहां काम करने वाले हर लोगों को फ्रेश करता था। उनके होठों पर हमेशा मुस्कराहट होती थी और बहुत सहज अंदाज में वह लोगों से कम्युनिकेट करते थे। विनोद शील के बाद अखिलेश जी ही संपादकीय विभाग की कमान संभाले थे। उनकी निगाह एजेंसी से आने वाली तस्वीरों पर होती थी। इसके अलावा वह विनोद शील और कल्याण के साथ मिलकर खबरों के चयन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। उनके अंदर एक सकारात्मक ऊर्जा प्रवाहित होती थी। इससे लोग भी तरोताजा रहते थे। अपनी बात को वह सौम्य तरीके से रखते थे और सामने वाला उनकी सौम्यता का कायल हो जाता था।

कल्याण का रवैया मेरे प्रति सकारात्मक था। खबरें देने के बाद वह मुझे खबरों को अपने तरीके से एडिट करने की स्वंत्रता देते थे। मानवीय एंगिल की खबरों पर मैं खूब मेहनत करता था। एजेंसी से आने वाली मानवीय एंगल की प्रत्येक खबर का इंट्रो मैं पूरी तरह से बदल देता था। खबर के अंदर अपनी रचनात्मकता का भरपूर इस्तेमाल करता था। लिंग संबंधी कुछ भाषाई गलतियां मुझसे होती थी। कल्याण इस बात से अवगत थे। अत: मेरी खबरों पर एक नजर जरूर डालते थे और गलतियां मिलने पर मुझे बताते भी थे। खबरों को बदलने की मेरी शैली उन्हें पसंद थी। जब मैं कभी बाहर की किसी खबर के बारे में उन्हें बताता था तो वे मुझे उस खबर को लिखने के लिए कहते थे और अखबार में प्रमुखता से जगह देते थे।

नाटकों का शौकीन तो मैं था ही। एक बार श्रीराम सेंटर में परेश रावेल एक नाटक में अभिनय करने आए थे। उस नाटक को देखकर दूसरे दिन जब मैं ऑफिस पहुंचा तो कल्याण को इसकी जानकारी हुई। यह खबर दिल्ली ब्यूरो से नहीं आई थी। उन्होंने मुझे खबर को लिखने के लिए कहा। मैंने लिख मारा और उन्होंने अखबार में तीन कॉलम में लगाया।

अखबार का संपादकीय विभाग नेशनल ब्यूरो के दबाव में रहता था। नेशनल ब्यूरो वालों की यही कोशिश होती थी कि उनकी खबर जस की तस छपे। कई मौकों पर कल्याण ने मुझे नेशनल की खबरों को भी छांटने को कहा था। खबरों की महत्ता को लेकर उनका नजरिया स्पष्ट था। वह खबर को उसकी औकात के आधार पर पन्नों पर जगह देते थे। इसके लिए नेशनल ब्यूरो में बैठे लोगों से दो-दो हाथ करने के लिए तैयार रहते थे। रिपोर्टिंग के ऊपर डेस्क के महत्व को वह मजूबती से स्थापित करने की कोशिश करते थे।

डेस्क पर काम करने वाले अन्य साथियों के प्रति उनका रवैया सकारात्मक था। हालांकि उस संस्थान में उनकी खिंचाई करने वाले लोग भी कम नहीं थे। एसके त्रिपाठी की वरिष्ठता की अनदेखी करके उन्हें जनरल डेस्क का इंचार्ज बनाया गया था। उस वक्त एसके त्रिपाठी दिल्ली डेस्क पर अपनी सेवा दे रहे थे। एसके त्रिपाठी बेबाक थे। वे किसी बात को बेलाग तरीके से कहते थे। सामने वाले की परवाह नहीं करते थे।

पत्रकारिता को संचालित करने वाले दूसरों की आलोचना करना सही मानते हैं, लेकिन खुद की आलोचना होने पर वे सह नहीं पाते। एसके त्रिपाठी इस रहस्य को शायद नहीं समझते थे, या शायद इस बात की परवाह ही नहीं करते थे। मामला जो भी हो, उनकी बेलाग बातें उस अर्द्ध-सामंती व्यवस्था में उनकी तरक्की में सबसे बड़ी बाधक थी, क्योंकि जागरण में तरक्की पाने का सिर्फ एक फार्मूला था-हुक्मरानों के आगे नब्बे डिग्री पर कमर झुकाने की कला में माहिर होना। खबरों और पत्रकारिता की बेहतर समझ रखने के साथ-साथ कल्याण उस अर्द्ध-सामंती व्यवस्था में तरक्की पाने के नब्बे डिग्री के इस फार्मूले के महत्व को अच्छी तरह से समझते थे। 

साहित्यिक रूचि के कारण एसके त्रिपाठी के साथ मेरा संवाद अक्सर होता रहता था। मेरी लिखी कुछ कहानियों को पढ़ने के बाद उन्हें लगने लगा था कि मैं अच्छा लिख रहा हूं। एक बार उन्होंने मुझे सलाह दिया कि मैं कुछ स्थापित वरिष्ठ साहित्यकारों से मिलूं और उनकी देखरेख में लेखन कर्म करूं। वरिष्ठ साहित्यकारों की शागिर्दी की बात मेरे गले नहीं उतरती। मुझे लगता था कि एक साहित्यकार का सीधा संबंध पाठकों के साथ होता है। वरिष्ठ साहित्यकारों की शागिर्दी के बजाय मैं अपनी कलम को मांजते रहना बेहतर समझता था। उनकी बात को मैंने सिरे से खारिज कर दिया। इसके बावजूद उनके बेबाक बोल को मैं पसंद करता था। वह हर किसी पर अपने मौलिक अंदाज में टिप्पणी करते थे, बेलाग तरीके से। बेबाक बात करने की अपनी आदत उनके आदत से मेल खाती थी। 

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पत्रकार आलोक नंदन इन दिनों मुंबई में हिंदी सिनेमा के लिए सक्रिय हैं। वे मीडिया के अपने अनुभव को भड़ास4मीडिया के पाठकों के लिए पेश कर रहे हैं। पीछे के पार्ट को पढ़ने के लिए (1),  (2), (3)(4), (5), (6), (7), (8), (9), (10), (11), (12)(13), (14), (15), (16), (17), (18), (19), (20), (21), (22) पर क्लिक कर सकते हैं। 24वां पार्ट अगले हफ्ते पढ़ें।

आलोक से संपर्क [email protected]  के जरिए किया जा सकता है।

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