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पत्रकारिता की काली कोठरी से (24)

आलोक नंदनगुप्त दरवाजे से राजनीति की गोद में बैठी पत्रकारिता

दैनिक जागरण में एक छोटे से ओहदे से महाप्रबंधक तक का निशिकांत ठाकुर का सफर निःसंदेह आकर्षित करने वाला था। अखबार की दुनिया में वह एक मजबूत हस्ती के रूप में स्थापित हो चुके थे। उनके ईद-गिर्द की आभा लोगों को प्रभावित करती थी। हालांकि दबी जुबान में लोग उनकी इस कामयाबी की व्याख्या अलग-अलग तरीके से करते थे, जैसा कि सफल लोगों के साथ होता है।

आलोक नंदन
आलोक नंदनगुप्त दरवाजे से राजनीति की गोद में बैठी पत्रकारिता

दैनिक जागरण में एक छोटे से ओहदे से महाप्रबंधक तक का निशिकांत ठाकुर का सफर निःसंदेह आकर्षित करने वाला था। अखबार की दुनिया में वह एक मजबूत हस्ती के रूप में स्थापित हो चुके थे। उनके ईद-गिर्द की आभा लोगों को प्रभावित करती थी। हालांकि दबी जुबान में लोग उनकी इस कामयाबी की व्याख्या अलग-अलग तरीके से करते थे, जैसा कि सफल लोगों के साथ होता है।

लोगों का यहां तक कहना था कि जागरण में परिवारवाद और नब्बे डिग्री की सलामी वाली संस्कृति को निशिकांत ठाकुर ने स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, लेकिन मेरी नजर में हकीकत कुछ और थी। अखबार की दुनिया में ठेकेदारी प्रथा की शुरुआत के पहले से ही निशिकांत ठाकुर जागरण के लिए सस्ते दर पर कारिंदे (पत्रकार) लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। केंद्र में भगवावादियों के नेतृत्व में गठबंधन की सरकार बनने के बाद दैनिक जागरण का पूरे देश में तेजी से विस्तार हो रहा था। देश के विभिन्न हिस्सों में नए-नए प्रिंटिंग प्रेस स्थापित किए जा रहे थे। जागरण द्वारा भगवा का परचम लहराने के कारण नई सरकार से इसे हर वह फायदा मिल रहा था जो सामान्य तौर पर एक अखबार को सरकार से मिलता है, हालांकि दावा यही किया जा रहा था कि यह अखबार पूरी तरह से निष्पक्ष है। व्यापक पैमाने पर पोलिटिकल कनेक्शन इस अखबार को फलने-फूलने में मदद पहुंचा रहा था, और इस कनेक्शन का अखबार के हित में प्रबंधन द्वारा बड़ी कुशलता से इस्तेमाल भी किया जा रहा था।

देश के विभिन्न हिस्सों में खोले जा रहे संस्करणों में अधिक से अधिक मैन-पावर की जरूरत की पूर्ति निशिकांत ठाकुर बड़ी कुशलता से सस्ते दर पर कर रहे थे। दिल्ली में तिलचट्टों की तरह फैले हुए कस्बाई पत्रकार कम दर पर कहीं भी जाकर किसी भी स्थिति में काम करने के लिए तैयार थे। निशिकांत ठाकुर एक ओर उन्हें नौकरी देने के नाम पर पुण्य कमा रहे थे, तो दूसरी और दैनिक जागरण को विभिन्न संस्करणों के लिए बहुत बड़ी संख्या में सस्ते दर पर कारिंदे (पत्रकार) उपलब्ध करा कर अर्द्ध-सामंती व्यवस्था वाली पत्रकारिता में अपने आप को बड़ी मजबूती से स्थापित किए हुए थे। जागरण में निशिकांत ठाकुर का विकास पूरी तरह से जागरण के लिए आर्थिक लाभ का मामला था।

निशिकांत ठाकुर के नेतृत्व में जागरण ने गलियों और कस्बों तक अपनी पैठ बना ली थी, और इसमें काम करने वाले पूर्णत: और अंशकालिक पत्रकार पूरी तरह से लाभ और हानि के गणित के आधार पर खबरें लिखते थे। गलियों और कस्बों तक की रुटीन खबरों पर जागरण की मजबूत पकड़ थी, लेकिन जागरण को आर्थिक नुकसान पहुंचाने वाली एक भी खबर नहीं छपती थी, चाहे वह जनहित का ही मामला क्यों न हो। यहां तक कि जागरण का संपादकीय भी बुरी तरह से उलझा हुआ होता था। संपादकीय लेखन में स्पष्टता का पूरी तरह से अभाव होता था, धार की बात को तो छोड़ ही दिया जाए।

दैनिक जागरण डेमोक्रेटिक सेटअप में अर्द्ध-सामंती व्यवस्था का बेहतरीन उदाहरण था, जिसमें काम करने वाले लोगों की स्थिति कारिंदों जैसी थी। दिन प्रतिदिन के जीवन से जूझ रहे पत्रकार बड़ी सहजता से इस स्थिति को स्वीकार किए हुए थे, क्योंकि अन्य जगहों पर पत्रकारिता में ठेकेदारी प्रथा लागू हो जाने के बाद इनके पास कोई मजबूत विकल्प नहीं बचा था। हिन्दुस्तान और नवभारत टाइम्स कैपटलिस्टिक पत्रकारिता सेट-अप के परिष्कृत रूप थे। ग्लोबलाइजेशन के बाद ये दोनों पूरी तरह से यूरोप से आयातित पत्रकारीय व्यवस्था को आत्मसात कर चुके थे, जहां पर खबरों पर प्रबंधन के लोगों का नियंत्रण होता था। हर खबर के पीछे बाजारवादी मानसिकता काम कर रही होती थी। प्रेशर ग्रुप के तौर पर ये दोनों अखबार देश की राजनीति को भी अधिक से अधिक लाभ कमाने के लिए प्रभावित कर रहे थे, जबकि दैनिक जागरण अर्द्ध-सामंती व्यवस्था के सहारे इस लक्ष्य को भेदने में लगा था।     

बछावत का गला घोंटने वाले जागरण के संपादक नरेंद्र मोहन के मरणोपरांत भगवावादी सरकार की ओर से डाक टिकट जारी करवाया जा रहा था। इसके पहले पिछले दरवाजे से वह संसद के अंदर पहुंच चुके थे, जो पूरी तरह से पत्रकारिता और पालिटिक्स के कॉकटेल का नतीजा था। उस दौर में अन्य अखबारों में पॉयनियर के संपादक चंदन मित्रा, फाइनेंसियल एक्सप्रेस के बलबीर पुंज, दीनानाथ मिश्रा, राजीव शुक्ला भी यह लाभ उठा चुके थे। उस वक्त इनमें से अधिकतर लोग दैनिक जागरण के संपादकीय पन्ने पर छप रहे थे और पत्रकारिता की पूंछ पकड़कर संसद के अंदर घुसे हुए थे या घुसने के जुगाड़ में थे। पत्रकारिता गुप्त दरवाजे से राजनीति की गोद में बैठकर आलिंगनबद्ध थी और ऊपर से तुर्रा यह कि हम पूरी तरह से पाक-साफ हैं, निष्पक्ष हैं, स्वतंत्र हैं, और देश की आवाज हैं। हकीकत में पत्रकारिता कारपोरट जगत से अधिक से अधिक धन और सरकार से अधिक से अधिक लाभ कमाने का साधन मात्र बनी हुई थी। जो पत्रकार इस व्यवस्था में फिट था वही हिट था।

हिन्दी पत्रकारिता की व्यवस्था को यदि पिरामिड की तरह देखा जाए तो इसका ऊपरी भाग पेशवराना अंदाज में अधिक से अधिक लाभ कमाने के लिए गोटी सेट करने में लगा हुया था, जबकि क्रमश: निचले पायदान पर व्यापक पैमाने पर पत्रकारिता की आत्मा को घोंट देने वाली गंदगी फैली पड़ी थी और इस गंदगी का बोझ पूरी तरह से निचले पायदान के लोगों के कंधों पर था। इस पिरामिड व्यवस्था में संपादकीय विभाग कहीं बीच के पायदान पर आता था, जिसके कारण उसकी स्थिति सबसे बुरी थी। पत्रकारिता के प्रति निष्ठा के तत्वों को कुचल कर मार दिया गया था, या फिर उसे लगातार मारने की कोशिश की जा रही थी, और यह सब अदृश्य हाथों से होता था, जो भ्रूण हत्या से भी ज्यादा खतरनाक था।    

पेज मेकिंग विभाग में काम करने वाले लोगों से मेरी अक्सर बात होती थी। उन्हीं लोगों ने बताया था कि दैनिक जागरण में वेतन के मामले को लेकर एक बार जबरदस्त हड़ताल हुई थी। गेट के बाहर खूब नारेबाजी और धरना प्रदर्शन चलता रहा था। संपादकीय विभाग के लोगों ने भी इस हड़ताल में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वे लोग बछावत को पूरी तरह से लागू करने की मांग कर रहे थे। उसी अर्द्ध-सामंती व्यवस्था में काम करने के लिए जब संपादकीय विभाग के एक-एक लोगों को हस्ताक्षर करने को कहा गया तो वे टूटते चले गए। कुछ लोगों ने न्याय का दामन थामते हुए काम करने से इनकार कर दिया और चलते बने। संपादकीय विभाग की कमजोरी के कारण पेज मेकिंग वाले लोगों को भी घुटने टेकने पड़े थे। संपादकीय विभाग के चरित्र को लेकर उनके अंदर बहुत ही रोष था। वे लोग संपादकीय विभाग को गद्दार और मरा हुआ विभाग समझते थे। उनका कहना था कि ये लोग पत्रकारिता क्या खाक करेंगे,जब खुद के हक की लड़ाई नहीं लड़ सकते। इन्हीं लोगों के कारण हम भी अभिशप्त जीवन जी रहे हैं। इस कहानी में सच्चाई चाहे जो भी हो, लेकिन संपादीय विभाग के लोगों की औकात वाकई में दैनिक जागरण के अंदर रेंगते हुए केंचुओं से ज्यादा नहीं थी। रोजी-रोटी कमाने की चिंता और परिवार को चलाने का बोझ संपादकीय विभाग में काम करने वाले लोगों को पूरी तरह से क्लर्क के रूप में तब्दील कर चुका था। प्रबंधन के एकतरफा निर्णय को खामोशी से स्वीकार करने के अलावा उनके पास और कोई चारा नहीं था, क्योंकि अन्य जगहों पर आसानी से नौकरी उपलब्ध नहीं थी।

हड़ताल के बाद यूनियन को भंग करने के बजाय प्रबंधन की ओर से संपादकीय विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी को यूनियन का संवैधानिक लीडर बना दिया गया था, जिसका काम प्रबंधन के हर निर्णय पर सिर्फ हस्ताक्षर करना होता था। इस काम के लिए उनके हिस्से की मलाई उन्हें दे दी जाती थी। इस तरह से संविधान के दायरे में पत्रकारों और पत्रकारिता के हित में सरकार द्वारा उठाए गए हर कदम को बड़ी खूबसूरती से ध्वस्त करने की अनूठी व्यवस्था की गई थी। दैनिक जागरण इसी अर्द्ध-सामंती व्यवस्था के दायरे में फल-फूल रहा था। संपादकीय विभाग के मिडिल मैनेजमेंट में इसी तरह के लोगों को बैठाया जाता था, जो इस अर्द्ध-सामंती व्यवस्था में काम करने वाले कारिंदों को हर तरह से हांकने की काबलियत रखता हो। पत्रकारिता के मूल्यों से इनका दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं होता था। दैनिक जागरण की इस अर्द्ध-सामंती व्यवस्था को देखकर पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान पढ़ी़ गई मोटी-मोटी किताबों का औचित्य मुझे समझ में नहीं आता था। पत्रकारिता के गुर सिखाने वाली किताबों का कोई मायने-मतलब नहीं था। दैनिक जागरण के इस अर्द्ध-सामंती व्यवस्था के खिलाफ हर वक्त मैं बगावती तेवर में रहता था। शायद यही कारण था कि एसके त्रिपाठी की बेलाग टिप्पणी और रोष को मैं पसंद करता था।

आर्थिक तौर पर दैनिक जागरण सफलता का परचम लहरा रहा था, देश के विभिन्न हिस्सों से निकलने वाले प्रत्येक संस्करण तेजी से जड़ पकड़ते जा रहे थे। निश्चित रूप से यह एक सफल मॉडल था, जिसकी इमारत पत्रकारों की रिसती हुई जिंदगी पर खड़ी थी, जो चूं-चपड़ तक करने की स्थिति में नहीं थे। न्यूज एडिटर के तौर पर विनोद शील इस अर्द्ध-सामंती व्यवस्था को पूरी तरह से हांकने के अनुकूल थे और कल्याण खामोशी से इस व्यवस्था का एक हिस्सा बनकर पत्रकारिता में अपना कैरियर बनाने के लिए अवसर की ताक में थे, जबकि अन्य लोगों की नजर सिर्फ वेतन पर टिकी होती थी, जिससे बड़ी मुश्किल से उनका घर चलता था। संपादकीय विभाग पूरी तरह से इसी सेटअप और मानसिकता में काम कर रहा था।

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इस अर्द्ध-सामंती व्यवस्था में फिट नहीं बैठने के कारण कथाकार कमलेश्वर को भी यहां से जाना पड़ा था। यह मेरे दैनिक जागरण में आने के बहुत पहले की बात थी। प्रबंधन का आतंक इतना अधिक था कि लोग संस्थान में कथाकार कमलेश्वर का नाम लेने से भी हिचकते थे। कमलेश्वर का नाम आते ही सबको सांप सूंघ जाता था। संपादकीय विभाग के लोगों को अप्रत्यक्ष रूप से हिदायत दी गई थी कि कमलेश्वर से संबंधित एक भी खबर दैनिक जागरण के किसी भी पन्ने पर नहीं छपनी चाहिए और लोग इस अप्रत्यक्ष हिदायत का बड़ी मुस्तैदी से पालन करते थे। कमलेश्वर को लेकर दैनिक जागरण ने पूरी तरह से चुप्पी साध रखी थी।

एक बार कमलेश्वर से संबंधित एक खबर मैंने एजेंसी पर देखी तो उसे पढ़ने लगा। मेरे बगल में बैठे एक सहयोगी ने बताया कि कमलेश्वर की खबर दैनिक जागरण में नहीं छपती है। उसी सहयोगी ने बताया कि कमलेश्वर कभी उसी जगह पर बैठा करते थे जहां अब विनोद शील बैठते हैं। जब मैंने विनोद शील के चेंबर की ओर देखा तो वह सिर झटक रहे थे। उनका पूरा चेंबर शीशे का बना हुया था, जहां पर बैठकर वह संपादकीय विभाग के कोने-कोने पर नजर रखते थे।

खेल डेस्क नवीन के हाथ में था, और निःसंदेह वह खेल पर कड़ी मेहनत करते थे। उनकी मेहनत खेल पृष्ठ पर स्पष्टतौर पर झलकती थी। इसी तरह गाजियाबाद, नोएडा, हापुड़ आदि जिलों के अलग-अलग डेस्क बने हुए थे। प्रत्येक डेस्क पर दो-तीन लोग काम करते थे। जिलो और तहसीलों से आने वाली खबरो को वे संपादित करते थे और फिर उन्हें पेज पर लगाते थे। सब कुछ रूटीन तरीके से चलता रहता था।

दैनिक जागरण के बाहर पंडित जी की पान-गुटखा-बीड़ी की दुकान जागरणकर्मियों को राहत प्रदान करने का मुख्य साधन थी। लगातार काम करने के दौरान बीच में समय निकाल कर लोग उनकी दुकान पर पहुंच कर पान-गुटखा-बीड़ी का सेवन करते हुए अपने आप को रिफ्रेश करते थे। पंडित जी को जागरण में चलने वाली प्रत्येक गतिविधि की खबर होती थी। जागरण के शुरुआत से ही उनकी दुकान वहां पर स्थित थी और उन्होंने जागरण को एक क्षेत्रीय अखबार से राष्ट्रीय अखबार में तब्दील होते अपनी आंखों से देखा था। वह जागरण के बदलते हुए जमाने का अखबार बनने के चश्मदीद थे और उसमें आने-जाने वाले प्रत्येक व्यक्ति की राम-कहानी को अच्छी तरह से जानते थे। वह जागरण से संबंधित खबरों के पुख्ता श्रोत थे।

पंडित जी के मुंह से अक्सर मुझे जागरण की अनकही कहानी सुनने को मिलती थी। तंबाकू खाने के लिए मैं अक्सर उनके पास जाया करता था। उन्हीं की दुकान के बगल में एक नेपाली दंपति ने चाय की दुकान डाल रखी थी। चाय पीने के लिए वहां पर अक्सर जागरणकर्मियों के साथ-साथ अगल-बगल की फैक्ट्रियों में काम करने वाले मजदूरों की भीड़ लगी रहती थी। उसी चाय की दुकान के बगल में जागरण की तरफ से एक कैंटीन की व्यवस्था थी। कैंटीन में दिन और रात को दो तरह के खाने बनते थे। दिन का खाना प्रबंधन के लोगों के लिए होता था, जिसे बड़ी साफ-सफाई के साथ बेहतर तरीके से बनाया जाता था, जबकि रात का खाना संपादकीय विभाग के लोगों के लिए होता था, जिसे चलताऊ ढंग से बनाया जाता था। कैंटीन को संचालित करने वाले व्यक्ति को पता था कि दिन में हुक्मरान लोग खाते हैं और रात में संपादकीय विभाग के कारिंदे। कारिंदों को कुछ भी खिला दो क्या फर्क पड़ता है, बस हुक्मरान खुश रहने चाहिए। उसकी यह अवधारणा दिन में दैनिक जागरण के बाहर लगने वाली चमकीली गाड़ियों को देखकर बनी थी। इसके अलावा प्रबंधन के लोग चमकीले ड्रेस में टाई के साथ वाकई में बाबू लगते थे और वो महंगे सिगरेट फूंकते थे, जबकि संपदकीय विभाग के लोग अस्त-व्यस्त स्थिति में उसे कारिंदे ही नजर आते थे।        

कैंटीन के पीछे एक बड़ा सा पार्क था, जिसमें प्रबंधन वालों ने अपने लिए रात में बैडमिंटन खेलने की व्यवस्था कर रखी थी। बैडमिंटन खेलने वाले लोगों के मुखिया सतीश मिश्रा थे। प्रबंधन वालों ने अपने स्वास्थ्य और मनोरंजन का पूरा इंतजाम कर रखा था, जबकि संपादकीय विभाग वाले लगातार कंप्यूटर में घुसे रहने को मजूबर थे। प्रबंधन की ओर से संपादकीय विभाग की पूरी तरह से अवहेलना की जाती थी। यह पत्रकारिता में ‘प्रबंधन युग’ का प्रतीक था। संपादकीय विभाग को बड़ी कुशलता से हाशिए पर ढकेला जा रहा था, क्योंकि महज चंद हजार रुपयों के लिए संपादकीय विभाग में सेवा देने वालों की एक पूरी फौज दिल्ली की सड़कों पर रेलमपेल कर रही थी। अर्थशास्त्र की भाषा में पत्रकारों की मांग और पूर्ति के बीच गहन असंतुलन पैदा हो गया था, जिसका भरपूर लाभ अखबार के मालिक पूरी क्रूरता से उठा रहे थे।

व्यावसायिक भाषा में यह सस्ते दर की पत्रकारिता का घिनौना युग था, जिसमें दम घोटने वाली सड़ांध थी और इस सड़ांध के बीच स्वस्थ और धारदार पत्रकारिता किसी परी कथा सी लगती थी। अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाते हुए व्यवहारिकता के धरातल पर मैं जितना इस सड़ांध वाली पत्रकारिता को समझने की कोशिश करता, पत्रकारिता के इस रूप से मेरी वितृष्णा उतनी ही बढ़ती जाती थी। बोलचाल के स्तर पर लोग मीठे थे, सहज थे, सामान्य थे, लेकिन पत्रकारिता के माहौल में गंदगी स्पष्ट रूप से तैर रही थी और उस वक्त इस गंदगी को साफ करने का कोई स्पष्ट तरीका मेरे पास नहीं था, क्योंकि पत्रकारिता के तमाम तंत्र आपस में बुरी तरह से गडमगड किए हुए थे।


पत्रकार आलोक नंदन इन दिनों मुंबई में हिंदी सिनेमा के लिए सक्रिय हैं। वे मीडिया के अपने अनुभव को भड़ास4मीडिया के पाठकों के लिए पेश कर रहे हैं। पीछे के पार्ट को पढ़ने के लिए (1),  (2), (3)(4), (5), (6), (7), (8), (9), (10), (11), (12)(13), (14), (15), (16), (17), (18), (19), (20), (21), (22), (23) पर क्लिक कर सकते हैं।

आलोक से संपर्क [email protected]  के जरिए किया जा सकता है। This e-mail address is being protected from spambots, you need JavaScript enabled to view it

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