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पत्रकारिता की काली कोठरी से (25)

Alok Nandanसंपादकीय विभाग को ब्रांडिंग की घुट्टी

मीडिया की अर्द्धसामंती व्यवस्था में वंशवाद की थ्योरी मजबूती से जड़ पकड़े थी। किसी जमाने में पूरी दुनिया में स्थापित ‘राजा का बेटा राजा’ के सिद्धांत का भारतीय मीडिया में भी ‘संपादक का बेटा संपादक’ के तहत अनुसरण किया जा रहा था। जागरण इससे अछूता नहीं था। संपादक पद पर विराजमान संजय गुप्ता दुनियाभर में बहने वाली हवाओं से वाकिफ थे। वे संपादकीय विभाग को धारदार बनाने की जुगत लगाते रहते थे।

Alok Nandan

Alok Nandanसंपादकीय विभाग को ब्रांडिंग की घुट्टी

मीडिया की अर्द्धसामंती व्यवस्था में वंशवाद की थ्योरी मजबूती से जड़ पकड़े थी। किसी जमाने में पूरी दुनिया में स्थापित ‘राजा का बेटा राजा’ के सिद्धांत का भारतीय मीडिया में भी ‘संपादक का बेटा संपादक’ के तहत अनुसरण किया जा रहा था। जागरण इससे अछूता नहीं था। संपादक पद पर विराजमान संजय गुप्ता दुनियाभर में बहने वाली हवाओं से वाकिफ थे। वे संपादकीय विभाग को धारदार बनाने की जुगत लगाते रहते थे।

जागरण का संपादकीय विभाग उनके सुधारों के लिए मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार नहीं था। वहां की कार्य-संस्कृति सबसे बड़ी बाधा थी। जिंदगी की जरूरतें लोगों के गर्दन को बुरी तरह से दबोचे हुई थी, सांस लेने और छोड़ने के लिए भी वहां काम करने वाले लोगों को मशक्कत करनी पड़ती थी। जिंदगी के बोझ से दबे लोगों को जुझारू पत्रकार बनाने के लिए संजय गुप्ता नये-नये तरीकों का इस्तेमाल कर रहे थे। जिन लोगों के सिर पर उन्होंने वहां काम करने वाले कारिंदों को तराशने की जिम्मेदारी सौंपी थी, पत्रकारिता से उनका दूर-दूर तक वास्ता नहीं था। वे लोग पत्रकारिता को ब्रांड फार्मूले की नजर से देखते थे। 

संजय गुप्ता ने जागरणकर्मियों को पेशेवर बैंड बनाने के लिए राजीव खुराना को नियुक्त किया था, जो स्वेट मार्टिन के अंदाज में जागरण को ब्रांडिंग का फार्मूला समझाया करते थे। ब्रांडिंग का फार्मूला मार्केटिंग के लोगों तक तो सही था, लेकिन संपादकीय विभाग के लिए राजीव खुराना एक मरे हुए चूहे की तरह थे, जिसकी दुम पकड़ कर बाहर फेंकने के लिए संपादकीय विभाग के लोग लालायित रहते थे। संपादकीय विभाग के लोगों के बीच राजीव खुराना के प्रति यह अवधारणा उनकी बे-सिर पैर की बातों से बनी थी। विभिन्न विभागों को ब्रांडिंग का गुर सिखाने के बाद संजय गुप्ता के कहने पर राजीव खुराना एक दिन संपादकीय विभाग के लोगों से मुखातिब हुए।

पहली बैठक में ही हाथ में जागरण की एक प्रति को लहराते हुए उन्होंने कहा था, ‘अखबार के पहले पेज पर मिर्गी का यह एड ठीक नहीं लगता है। इस एड में कुछ क्रिएटिवि करने की जरूरत है।’ उनकी बातों को सुनकर वहां पर बैठे सभी लोगों के होठों पर मुस्कराहट दौड़ने लगी। मेरे बगल में बैठे एक साथी ने मेरे कानों में फुसफुसा कर कहा था, ‘इन्हें पता नहीं है कि एड मार्केटिंग वाले बनाते हैं, संपादकीय वाले नहीं’ । मिर्गी के एड पर आधा घंटा तक पसीना बहाने के बाद एक मध्यस्थ की भूमिका में आते हुए उन्होंने कहा, ‘यदि आप लोग संपादक से किसी विषय पर बात करने में संकोच करते हैं, तो मुझे बताएं। डरने की जरूरत नहीं है। मैं संपादक से सीधे तौर पर बात करुंगा।’ मेरे बगल में बैठा बंदा एक बार फिर मेरे कानों में फुसफुसाया, ‘इनको यहां पर भेजने के बजाय प्रबंधन संपादकीय विभाग के लोगों के पैसे बढ़ा देता तो सभी लोग खुश होकर इस अखबार के लिए अपना बेस्ट देते। इस तरह के प्रवचन देने के लिए इन्हें कितना पैसा मिला है?’

‘लाखों ठगता है’, दूसरी तरफ से कोई फुसफुसाया था।   

थोड़ी देर बाद ही उस बैठक में फुसफुसाहट की आवाजें शोर में तब्दील होने लगीं और संपादकीय विभाग के प्रति राजीव खुराना की सोच को कड़ी चुनौती दी जाने लगी। राजीव खुराना को लगने लगा कि रजिया गुंडों के बीच फंस गई है। इस माहौल पर नियंत्रण करने के लिए वह अंग्रेजी का सहारा लेने लगे, जैसा कि ब्रांडिंग वाले बाबा लोग करते हैं। वहां पर बैठे कुछ घुटे हुए पत्रकार उनकी इस स्थिति का बड़ी शालिनता से मजा उठा रहे थे। उनसे सिंगल, डीसी और टीसी के विषय में पूछा जाने लगा था और वह बार-बार स्वेट मार्टिन की तरह बड़े-बड़े तुर्रम खान का नाम लेकर अखबार को और भी अधिक सफल बनाने की बात कर रहे थे।

उस हॉल में सीसी कैमरा लगा था। शायद संजय गुप्ता वहां की पूरी गतिविधि अपने चेंबर में बैठकर देख रहे थे। उन्होंने अचानक ही उस हॉल में प्रवेश किया और सभी लोग चुप हो गए। संजय गुप्ता के सामने सबकी बोलती बंद हो जाती थी, वैसे भी वह सामने वालों को अपनी इच्छा के अनुसार ही बोलने का मौका देते थे।  इसके बाद संजय गुप्ता अखबार के प्रति अपने विजन को समझाते रहे। निःसंदेह बोलने के दौरान वह फ्लो में बहते थे, लेकिन उनकी बाते यूटोपियाई होती थीं। वह श्रेष्ठ काम और काम करने के श्रेष्ठ तरीकों की बात तो करते थे, लेकिन काम करने वाले लोगों की बातें नहीं करते थे। कभी यह समझने की कोशिश नहीं करते थे कि संपादकीय विभाग में काम करने वाले लोग किस मानसिकता में काम करे हैं, अपने पारिवारिक दायित्व निभाने के लिए वे किस तरह से जिंदगी से जद्दोजहद कर रहे हैं, अखबार को लेकर उनकी सोच क्या हैं आदि आदि। जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से जूझ रहे लोगों को आदर्श पत्रकारिता के गीत सुनाना, चट्टान पर फूल खिलाने जैसा था। ब्रांडिंग की अवधारणा से प्रभावित संजय गुप्ता अपने अखबार का बेहतर व्यावसायिक इस्तेमाल कर रहे थे।

रिपोर्टरों को सख्त हिदायत दी गई थी कि गली-कूचों में होने वाले किसी भी सार्वजनिक समारोह की रिपोर्टिंग के दौरान रिपोर्ट में अधिक से अधिक लोगों के नामों को सम्मिलित किया जाए, क्योंकि इससे अखबार की बिक्री पर असर पड़ता है। डेस्क के लोग  वैसे तो खबर को धड़ल्ले से काटने में नहीं हिचकते थे लेकिन जब खबर में किसी का नाम आता था तो उनका कर्सर स्वत: आगे बढ़ जाता था। अखबार को लोगों से जोड़ने का यह तरीका कारगर तो था, लेकिन पत्रकारिता के मापदंड पर खरा नहीं था। जागरण की राष्ट्रीय रिपोर्टिंग भी पूरी तरह से लाभ-हानि के गणित से चल रही थी, इसके लिए भगवावाद का बखूबी इस्तेमाल किया जा रहा था।      

संपादकीय विभाग को प्रोफेशनल बनाने के लिए संजय गुप्ता नये-नये तरीके आजमाने में लगे हुए थे। मंडे मीटिंग की शुरुआत इन्हीं तरीकों में से एक था। सोमवार को संपादकीय विभाग के सभी लोग काम शुरू करने से पहले एक साथ बैठते थे। इस मीटिंग का प्रारूप संजय गुप्ता के दिमाग की उपज थी। मीटिंग के पहले चरण में विभिन्न डेस्कों से संबंधिक खबरों की चर्चा होती थी, जिसमें सभी डेस्क प्रभारी डेस्क से संबंधित अगले सप्ताह की कार्य योजना के विषय में बताते थे और इसी आधार पर रिपोर्टिंग विभाग से तालमेल करने की बात कहते थे। एक-एक डेस्क इंचार्ज को संजय गुप्ता उंगलियों के इशारे से उठाते थे और जवाब तलब करते थे। किसी भी बात को लेकर उनसे असहमति व्यक्त करने की हिम्मत किसी भी डेस्क इंचार्ज में नहीं थी। संजय गुप्ता सर्वविदित की भावना से ओतप्रोत होते थे, जबकि वहां पर काम करने वाले कारिंदे उनकी हां में हां मिलाते रहते थे।

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मीटिंग के दूसरे चरण में सम-सामायिक मुद्दों पर बहसबाजी की जाती थी। प्रारंभ में जब संजय गुप्ता ने इस तरह का प्रस्ताव रखा था, तो लोग हिचके थे, क्योंकि उनके सामने किसी का जुबान नहीं खुलता था। वहां काम करने वाले लगभग सभी लोग मानसिक तौर पर अपने आप को कारिंदा मान चुके थे, पत्रकारिता की लौ बस गिने चुने लोगों में धधक रही थी। खुद संजय गुप्ता ने जोर देकर बहस वाले सत्र की शुरुआत करवाई थी। मीटिंग का पहल सत्र मेरे लिए बोरिंग था, लेकिन दूसरे सत्र में मैं अपने पूरे शबाब पर होता था। हिटलर की यह उक्ति की दुनिया की बड़ी-बड़ी क्रांतियां लेखकों द्वारा नहीं बल्कि वक्ताओं द्वारा हुई है और माओत्से तुंग के ये शब्द कि भाषण मानव मस्तिष्क पर शासन करने की कला है, मेरे दिमाग में हिचकोले खाते रहते थे, और दिमाग के सबसे पतले तंतु को झकझोरा करते थे। चयनित विषय पर मैं खूब बोलता था और बड़ी बेबाकी से बोलता था, बिना किसी परवाह के, और लोग मुझे खामोशी से सुनते और समझते भी थे। किसी भी विषय के साथ रवानगी में मैं दूर तलक जाता था। एक दो मीटिंग के बाद ही एक भाषणबाज के तौर पर मैं जागरण में स्थापित हो चुका था।

बहस के दौरान सत्येंद्र सिंह मेरी बातों को अक्सर पूरी क्रूरता से काटते थे और इस तरह से वह अपने तरीके से लोगों के दिमाग पर हथौड़े चलाने की कोशिश करते थे। उनके भाषण में तार्किकता होती थी, वह भारतीय परंपराओं के वाहक के रूप में सामने आते थे, जबकि मैं लोगों की भावनाओं को उद्वेलित करने की कोशिश करता था। मेरा मानना था कि दिल से कही गई बातें सीधे दिल में उतरती हैं। मीटिंग समाप्त होने के बाद हम दोनों साथ-साथ चाय पीते थे। जागरण द्वारा प्रकाशित एक राजनीतिक पत्रिका की असफलता के बाद सत्येंद्र सिंह को संपादकीय विभाग में भेजा गया था, और वैचारिक स्तर पर वह हर चीज को ठोक बजाकर देखते थे। उनकी यही प्रवृत्ति जागरण में उनके लिए घातक साबित होती थी। कभी-कभी अपनी बात को वह बड़े बेबाक अंदाज में कहते थे, जिससे नब्बे डिग्री पर झुकने वाली कारिंदों की टोली असहजता महसूस करती थी।

धीरे-धीरे इस बहस में अन्य लोग भी कूदने लगे थे। पूरी बहस के दौरान संजय गुप्ता की स्थिति स्कूल के हेडमास्टर की तरह होती थी। वह निशिकांत ठाकुर के साथ आते थे और एक कुर्सी पर जम जाते थे। उनकी भी पूरी कोशिश होती थी कि बहस धारदार हो, और इसमें सभी लोग स्वेच्छा से भाग ले। पीछे दुबके हुए लोगों तक को वह खोज-खोज कर सामने लाते थे और उन्हें बोलने के लिए उकसाते थे। बातों ही बातों में अपने विषय में भी बहुत कुछ बताते थे। उन्होंने बताया था कि कैसे जागरण की शुरुआत आजादी के पूर्व क्रांतिकारी गतिविधियों से इतर हटकर, क्रांतिकारी विचार को फैलाने के लिए उनके पूर्वजों द्वारा किया गया था, कैसे वह बचपन में अंर्तमुखी स्वभाव के थे, और कैसे उन्होंने अपने आप को डेवलप किया। बोलते-बोलते कभी-कभी लय में बहते हुए उन पर उनका भावनात्मक पहलू हावी हो जाता था, लेकिन कुछ समय बाद फिर वह एक संपादक बन जाते थे। उनका यह रूप निरंतर विकास का ही प्रतिफल था। मनोविज्ञान की भाषा में जब कोई अंतर्मुखी व्यक्ति बाह्य दुनिया से तालमेल बिठाने की कोशिश करता है तो अपने ईद-गिर्द एक घेरा खींच लेता है, ताकि दुनिया की हलचलों से वह अपने आप को महफूज रखे। संजय गुप्ता एक संपादक के तौर पर अपने ईदगिर्द एक मजूबत घेरा खींचे थे। यह घेरा दंभ के रूप में दिखाई देता था। संपादक की सहजता का उनके अंदर अभाव था। यही कारण था कि लोग उनसे सीधे तौर पर जुड़ नहीं पाते थे, या फिर वह जोड़ने की कोशिश नहीं करते थे।      

एक बार जागरण के संपादकीय पेज पर छपने वाले स्तंभकारों की मुकेश ने जमकर खिंचाई करते हुए कहा था कि संपादकीय पेज पर नए लोगों के लिए जगह की कोई गुंजाइश नहीं है। पुराने थके हुए लोगों ने इस पर कब्जा कर रखा है। नए लोगों को संपादकीय पेज पर जगह देने की जरूरत है। संजय गुप्ता ने सार्वजनिक तौर पर उस बंदे की प्रशंसा करते हुए इसी तरह के उबलते हुए विचारों को सामने लाने के लिए अन्य लोगों को प्रेरित किया था, हालांकि इस दिशा में उन्होंने कोई ठोस कदम नहीं उठाया। उबलने वाला यह विचार जागरण की अर्द्ध-सामंती व्यवस्था में कब और कैसे ठंडा पड़ गया, किसी को पता भी नहीं चला।  

मीटिंग के दौरान विनोद शील अक्सर जी हां जी हां करते हुए नजर आते थे। उनकी अपनी कोई जमीन नहीं थी, वह पूरी तरह से संजय गुप्ता के मिजाज को देखकर चलते थे। अखबार में बैठे कुछ लोगों का यह मानना था कि दैनिक जागरण भाजपा के साथ कदमताल कर रहा है। ऐसे लोग अक्सर अपनी निष्ठा सार्वजनिक तौर पर भाजपा और संघ परिवार के प्रति व्यक्त करते थे, जिन्हें संजय गुप्ता अक्सर खारिज कर देते थे। कभी-कभी वक्ताओं को वह बीच में ही रोक देते थे। निशिकांत ठाकुर भी पूरी संजीदगी के साथ विभिन्न मुद्दों पर अपनी बात रखते थे। वह लोगों को बड़े ध्यान से सुनते थे और बीच बीच में अपनी टिप्पणी देते रहते थे। सतीश मिश्रा भी बहस में शिरकत करते थे और मौका मिलने पर अपने पत्रकारीय ज्ञान को उड़ेलने की कोशिश करते थे, हालांकि इसके साथ ही वह स्वीकार करते थे कि वह पत्रकार नहीं, प्रबंधन से जुड़े व्यक्ति हैं।

इन बहसों का निचोड़ रखने में तड़ित दा की अहम भूमिका होती थी। जीवन और पत्रकारिता का उनका अनुभव विशाल सागर की तरह था। तड़ित दा भी इस बहस के दौरान पूरे रंग में आ जाते थे और तार्किक तरीके से लोगों के दिमाग पर हथौड़े चलाते थे। हर मुद्दे को वह बहुत ही सुलझे हुए तरीके से खींचते थे। संजय गुप्ता की पूरी कोशिश होती थी कि बहस का स्तर उम्दा हो और इसका सकारात्मक प्रभाव अखबार में काम करने वाले लोगों पर पड़े। मंडे मीटिंग की व्यवस्था को उन्होंने पूरी मजबूती से  स्थापित कर दिया था। उनके नहीं रहने पर भी यह मीटिंग विनोद शील और अखिलेश जी के नेतृत्व में चलती रहती थी। संजय गुप्ता की अनुपस्थिति में बहस में रंग जमाने के लिए अखिलेश जी सबसे पहले मुझे ही खड़ा कर देते थे। इसके बाद जो भी वक्ता आता था वह मेरी बातों के ईद गिर्द घूमता रहता था। संजय गुप्ता के न रहने पर विनोद शील की कोशिश होती थी कि जल्दी से मीटिंग वाली प्रक्रिया को पूरा करके लोगों को उनके काम में लगा दिया जाए। उनके लिए इस तरह की बहसबाजी का कोई औचित्य नहीं था। संजय गुप्ता की अनुपस्थिति में वह बड़े ही अनमने तरीके से इस प्रक्रिया को पूरा करते थे।

संजय गुप्ता अखबार की आलोचना करने के लिए लोगों को पूरी तरह से उकसाते रहते थे। इसके लिए उन्होंने संपादकीय विभाग के अंदर बड़ा सा बोर्ड लगा दिया था और हर किसी को कह दिया था कि दैनिक जागरण के किसी भी पन्ने पर कोई भी गलती नजर आए तो उसे बड़ी बेबाकी से इस बोर्ड पर लिख मारे। अखबार को आलोचनात्मक नजरिए से देखने की यह एक अच्छी शुरुआत थी। लोग इस पर धड़ाधड़ टिप्पणी कर रहे थे और इन टिप्पणियों का सकारात्मक असर अखबार पर दिखाई भी दे रहा था। बोर्ड पर अभिव्यक्ति की सीमा को लेकर कई लोगों के बीच आपस में जोरदार विवाद भी हो गया था। दैनिक जागरण के ऑफिस में बहुत सारे ऐसे लोग भी थे, जो इस बोर्ड और बहस को बेकार की चीज मानते थे। उनके लिए मंडे मीटिंग जी का जंजाल बना हुआ था, क्योंकि मीटिंग के लिए उन्हें ऑफिस दो घंटे पहले आना पड़ता था। डेस्क इंचार्जों को तो इसके लिए खासतौर पर तैयारी करनी पड़ती थी।


पत्रकार आलोक नंदन इन दिनों मुंबई में हिंदी सिनेमा के लिए सक्रिय हैं। वे मीडिया के अपने अनुभव को भड़ास4मीडिया के पाठकों के लिए पेश कर रहे हैं। पीछे के पार्ट को पढ़ने के लिए (1),  (2), (3)(4), (5), (6), (7), (8), (9), (10), (11), (12)(13), (14), (15), (16), (17), (18), (19), (20), (21), (22), (23), (24) पर क्लिक कर सकते हैं।

आलोक से संपर्क [email protected]  के जरिए किया जा सकता है। This e-mail address is being protected from spambots, you need JavaScript enabled to view it

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