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पत्रकारिता की काली कोठरी से (14)

Alon Nandanमहिला डाक्टर की आंखों में करवट लेता युग

श्रीनगर के आसपास के क्षेत्रों से बड़ी संख्या में पलायल कर चुके लोगों की कहानी आंखों की लेडी डॉक्टर मुझे हमेशा सुनाती थी। सुनाने के दौरान उसकी आंखों के भाव तेजी से बदलते रहते थे। आंखों में नफरत, बेबसी, क्रोध के साथ बचपन की मीठी यादों की परछाइयां भी होती थी। घाटी में बदलते हुए समय को उसने अपनी आंखों से देखा था, उसकी आंखों में डूबते हुए मैं भी उस युग को जीने-समझने की कोशिश कर रहा था।

Alon Nandan

Alon Nandanमहिला डाक्टर की आंखों में करवट लेता युग

श्रीनगर के आसपास के क्षेत्रों से बड़ी संख्या में पलायल कर चुके लोगों की कहानी आंखों की लेडी डॉक्टर मुझे हमेशा सुनाती थी। सुनाने के दौरान उसकी आंखों के भाव तेजी से बदलते रहते थे। आंखों में नफरत, बेबसी, क्रोध के साथ बचपन की मीठी यादों की परछाइयां भी होती थी। घाटी में बदलते हुए समय को उसने अपनी आंखों से देखा था, उसकी आंखों में डूबते हुए मैं भी उस युग को जीने-समझने की कोशिश कर रहा था।

वह अक्सर मुझे जम्मू अस्पताल के लेबोरेटरी में खींच कर ले जाती थी। वहीं पर रासायनिक उपकरणों के बीच में बैठकर हम घंटों बातें किया करते थे। वह उस काली हवा की बात करती थी, जिसने उसके पिता के चेहरे को जर्द करना शुरू कर दिया था। वह उन लोगों की बात करती थी, जिनके बच्चे कल तक उसके साथ खेला करते थे, लेकिन बड़ा होने के साथ ही दूरी बनाते हुये खतरनाक किस्म के अनजान शब्दों का इस्तेमाल करने लगे थे। वह उन पड़ोसियों की बात करती थी, जिनकी आंखों का रंग बदलने लगा था, और इन बदलते हुए रंगों का असर वह अपनी मां  की आंखों में देख सकती थी। वह अपने उन सगे-संबंधियों के विषय में बातें करती थी, जो धीरे-धीरे अपने सामानों को औने-पौने दामों में बेचकर अनजान ठिकानों की ओर अपने और अपने परिवार के लोगों की सुरक्षा की तलाश में निकलते जा रहे थे। कभी वह लंबी खामोशी अख्तियार करती थी, लेकिन उसकी बड़ी-बड़ी आंखों की खामोश भाषा को भी मैं पढ़ने की पूरी कोशिश करता था। उस लेबोरेटरी मे बैठकर मैं जम्मू-कश्मीर की केमेस्ट्री को पकड़ने की कोशिश कर रहा था।  

एक दिन उसने मुझसे अजीब सा सवाल किया। ‘क्या तुम मुझसे झूठ-मूठ की शादी कर सकते हो?’ मैंने कहा, ‘मैं तुमसे सचमुच की शादी कर सकता हूं।’ मेरे इस उत्तर पर उसकी आंखों में हंसते-हंसते आंसू आ गये। फिर अपने आप को संभालते हुए बोली, ‘मैं तुमसे सचमुच की शादी नहीं कर सकती। मैं अपने मां-बाप की इकलौती बेटी हूं। मेरे पिता के पास बहुत सारी प्रापर्टी है। यदि मैं तुमसे शादी करुंगी तो वो सारी प्रापर्टी सरकार के खाते में चली जाएगी। ऐसा यहां का कानून है। यहां की कोई लड़की यदि किसी दूसरे स्टेट के लड़के से शादी करती है तो उसे अपनी पैतृक संपति से बेदखल कर दिया जाता है। इन मामलों में मैं बहुत प्रैक्टिकल हूं। इसलिए तुम्हारे साथ शादी का चांस न के बराबर है। कभी सोचना भी मत।’ 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद ३७० के मायने अब मुझे व्यावहारिक तौर पर समझ में आ रहे थे। अयोध्या का राम मंदिर, सिविल संहिता और अनुच्छेद ३७० के मामलों को ताक पर रखते हुए भाजपा ने केंद्र में सरकार बनाकर सत्ता का सुरापान तो करना शुरू कर दिया था, लेकिन मुझे नहीं पता था कि एक दिन उनके सत्ता के लिए उतावलेपन का असर सीधे मेरे ऊपर पड़ने वाला था।

जम्मू-कश्मीर की न्यायिक व्यवस्था को समझने के लिए अपनी ओर से वहां की कोर्ट कचहरियों में मैंने चक्कर लगाना शुरू किया, हालांकि मेरी बीट से इसका कोई लेना-देना नहीं था। वहां की कोर्ट के सारे काम अब भी हरि महाराज जी की प्राचीन रियासत के मुताबिक ही चल रहे थे। कश्मीर समस्या के बीज मुझे जवाहरलाल नेहरू की भलमनसी में नजर आ रही थे। मुझे स्पष्ट तौर पर लग रहा था कि कश्मीर को अनुच्छेद ३७० के तहत एक विशेष राज्य का दर्जा देना एक पोलिटिकल ब्लंडर था, इसके पीछे की सोच चाहे जो भी रही हो। भाजपा ने सही चीज को पकड़कर राष्ट्रीय लहर को तैयार किया था, लेकिन सत्ता की सीढ़ी तक आकर वह भी लड़खड़ा गई थी।  

कश्मीर समस्या का समाधान मुझे हिटलर की सूडेटेन पोलिसी में दिखाई देती थी। वहां जनसंख्या के स्वरूप को बदलने की जरूरत थी, जैसा हिटलर ने एक स्पष्ट वैज्ञानिक नीति के तहत सूडेटेन में किया था। वहां पर ऐसे लोगों को बसने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए था, जो दूसरे राज्य के थे और रोजी-रोटी की तलाश में कहीं भी जाकर रहने के लिए तैयार थे। कुछ वर्षों के परिश्रम के बाद ये लोग खुद ढाल का काम करते। जरूरत पड़ने पर पाकिस्तान से आने वाले अवांछित मेहमानों से खुद निपटने लगते। यह काम मुझे थोड़ा मुश्किल लगता था, लेकिन इसे सही तरीके से आगे बढ़ाया जा सकता था। इसके लिए अनुच्छेद ३७० को इतिहास में दफन करना जरूरी था। लेकिन ‘राज लीला’ में तल्लीन होने की चाहत से ओतप्रोत भाजपा ने इस अहम मुद्दे को छोड़ना बेहतर समझा। बहरहाल जो हो, अनुच्छेद ३७० उस महिला डॉक्टर और मेरे बीच में एक मजबूत दीवार की तरह खड़ा था।   

इन सारी बातों पर मैं खुलकर लिखना चाहता था, लेकिन मुझे पता था कि राजेंद्र तिवारी इसके लिए कभी तैयार होने वाले नहीं थे। उनके साथ संवाद की गुंजाइश पूरी तरह से खत्म हो गई थी। उनको कुछ भी कहना पत्थर पर सिर पटकने जैसा था।

डॉक्टर महिला के साथ अपने संबंधों के कारण मैं हरि सिंह की रियासत में खास रुचि लेने लगा था। जम्मू में स्थित उनकी हवेली एक होटल के रूप में तब्दील हो गई थी। लोग यहां अपनी शाम रंगीन करने आते थे और इससे हवेली के मालिकों को अच्छी खासी आमदनी होती थी। मेरे दिमाग में एक प्रश्न हमेशा घूमता रहता था। यदि रियासत की हवेली होटल में तब्दील हो सकती है तो जम्मू-कश्मीर की कोर्ट-कचहरी को हरि सिंह की रियासत के कानून से क्यों निजात नहीं मिल सकता? मुझे यही लगता था कि रियासत के पूरे मैकेनिज्म को पलटे बिना वहां की व्यवस्था को ढर्रे पर लाना असंभव था। रियासत का कानून जम्मू-कश्मीर पर भारत के पूर्ण आधिपत्य की राह में सबसे बड़ा रोड़ा था और इसकी जड़ें अनुच्छेद ३७० में थी। 

जम्मू के कॉलेज में भटकते हुए वहां के छात्रों के मुंह से अक्सर सुनने को मिलता था कि हम तो भारत सरकार के दामाद हैं। मुझे लगता था कि उनकी इस मानसिकता के निर्माता पंडित जवाहर लाल नेहरू थे। हरि सिंह के होटल में तब्दील हो चुकी हवेली की सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किये गये थे, क्योंकि यह शहर के एलीट लोगों की मनोरंजनगाह था।

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एक बार रात में रूटीन की खबर लिखने के बाद शुभ्रांशु शेखर का इरादा दारू गटकने का हुआ। हम तीन लोग एक ऑटो पर बैठकर हरि सिंह की हवेली को ओर बढ़ चले। रात के ११ बज रहे थे। ऑटो सड़क पर सरपट दौड़ा जा रहा था। कुछ सैनिकों ने एक नाकाबंदी पर हमारे ऑटो को रोक दिया। मैं ऑटो के अंदर बीच में बैठा था। मेरी बढ़ी हुई दाढ़ी को देखकर उसमें से एक सैनिक ने सबसे पहले मुझे उतरने को कहा। मैंने उससे कहा, यार तुम मुझे ही पहले क्यों उतरने के लिए कह रहे हो, जबकि मेरे अगल-बगल में दो मुस्टंडे बैठे हुए हैं। पहले इन्हें उतारो, फिर मैं उतरूंगा। वह सैनिक बक्सर का रहने वाला था। मेरी आवाज सुनते ही उसे अपने स्थानीय डायलेक्टिक की याद आ गई। इसके बाद वह काफी नरमी से पेश आया और समझाया कि रात में इस तरह से इस इलाके में न घूमूं। हम लोगों को बिना शराब पिए ही उस दिन घर लौटना पड़ा। बाद में अमर उजाला के साथियों के बीच इस बात की खूब चर्चा होती रही कि सेना ने मुझे आतंकवादी समझकर पकड़ लिया था।

लोगों के साथ मिलने-जुलने के दौरान बेहतरीन खबरें मेरे बगल से सरक कर निकल जाती थीं और मैं उन्हें देखता रहता था। बीट की जंजीरों में जकड़ा होने के कारण उन खबरों को पकड़ने की इजाजत मुझे न थी। हालांकि राजेंद्र तिवारी के नेतृत्व में अखबार तेजी से जड़ पकड़ता जा रहा था। अखबार की प्रसार संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी, जिसके कारण राजेंद्र तिवारी का कॉन्फिडेंस और बढ़ गया था। इसके साथ ही वहां काम कर रहे बाहरी लोगों को हड़काने का उनका रफ्तार भी बढ़ता जा रहा था।

इसी दौरान प्रबंधन के एक अधिकारी ने एक नया तमाशा खड़ा कर दिया। उस दिन मैं राजेंद्र तिवारी के साथ उनके ही चेंबर में बैठा था। एक कंपनी की महिला मालकिन का फोन उनके पास आया। उस महिला का कहना था कि आपने अखबार खोल रखा है, इसका यह मतलब नहीं है कि आप गुंडों की तरह लोगों से जबरन पैसे वसूलने लगें। इधर से पूछने पर उस महिला मालकिन ने बताया कि अखबार के कुछ लोग उनके पास आये थे और धमकी दे रहे थे कि यदि उन्हें कंपनी की ओर से विज्ञापन नहीं दिया गया तो वो कंपनी के खिलाफ लिखेंगे। राजेन्द्र तिवारी ने अपने सभी रिपोर्टरों से पूछा कि इस कंपनी के पास कौन गया था। सभी रिपोर्टरों ने इनकार कर दिया। इसी बीच उस महिला मालकिन का दोबारा फोन आया और उसने प्रबंधन से जुड़े एक प्रमुख व्यक्ति का नाम बताया। स्थिति की गंभीरता को राजेन्द्र तिवारी ने तुरंत भांप लिया था। उस प्रबंधन अधिकारी को अकेले में बैठा कर उन्होंने उसकी दो घंटे तक हवा टाइट की। बाद में उन्होंने सभी रिपोर्टरों को समझाते हुये कहा, ‘इन मैनेजमेंट वालों को सिर पर मत चढ़ने देना।’ इस घटना के बाद से मैनेजमेंट और संपादकीय विभाग के बीच एक स्पष्ट लकीर खिंच गई। मैनेजमेंट के प्रति राजेंद्र तिवारी का यह स्टैंड निःसंदेह काबिले तारीफ था।

इस बीच राजेंद्र तिवारी जम्मू के दूर-दराज के जिलों में रिपोर्टरों की जोड़-तोड़ में जुटे हुए थे, जबकि उनकी टीम पर सुरेश डुग्गर की पैनी नजर थी। अमर उजाला के दफ्तर में घटने वाली हर घटना की जानकारी सुरेश डुग्गर को होती थी। उनके जासूस ऑफिस के कोने-कोने में फैले थे। मेरे और राजेंद्र तिवारी के बीच में जो कुछ चल रहा था, उससे सुरेश डुग्गर भी अच्छी तरह से अवगत थे। अमर उजाला के उस दफ्तर में मुझे पहली बार अहसास हुया था कि जितनी घोर राजनीति असल की राजनीति में नहीं है, उससे अधिक पत्रकारिता में है। ऑफिस में सक्रिय सुरेश डुग्गर के लोग अक्सर मुझे उनसे मिलने के लिए उकसाते रहते थे, लेकिन मैं नहीं चाहता था कि संगठन के अंदर कार्य करने के तरीकों को लेकर चल रहा अप्रत्यक्ष विवाद को बाहर खींचा जाए। मैं हमेशा सुरेश डुग्गर से अपनी मुलाकात को एव्याड करता रहा।

मजे की बात तो यह थी कि ऑफिस में काम करने वाले लोग भी यह नहीं चाहते थे कि राजेंद्र तिवारी उन्हें मेरे साथ ऑफिस के बाहर देखें, हालांकि अकेले में राजेंद्र तिवारी के खिलाफ वे लोग खुलकर बोलते थे। पत्रकारिता के इस चरित्र के महत्व को समझने में मुझे अच्छा-खासा समय लग गया। पत्रकारिता एक सीधी राह नहीं थी। यह छल-कपट, दो-मुंही बातें, महत्वकांक्षा, सत्ता, जोड़-तोड़, सैडिज्म और प्रभुसत्ता का कॉकटेल था। इसमें आम जनता के प्रति सामाजिक उत्तरदायित्व के अलावा सब कुछ था। कम से कम मुझे तो यही लगता था। 

सब एडीटर किरण मेरे बगल के कंप्यूटर पर बैठा करती थी। एक बार उसके पास किसी व्यक्ति के आत्महत्या करने की खबर आई। खबर की लंबाई छोटी थी। वह उसकी लंबाई बढ़ाना चाहती थी। लंबाई बढ़ाने के लिए उसने अपना खुद का दिमाग दौड़ाया और लिख मारा कि यह व्यक्ति मानसिक तौर पर विक्षिप्त था, और भी न जाने क्या-क्या। और बड़ी खुश होकर मुझे सुनाने लगी कि उसने कैसे छोटी सी खबर को बड़ा कर दिया। कुछ देर तक मैं उसकी ओर देखता रहा। समझ में नहीं आया कि क्या कहूं। फिर बोला, एक तो उस आदमी ने आत्महत्या कर ली है। ऊपर से तुम उसे मानसिक तौर पर विक्षिप्त बता रही हो, जबकि तुम्हें खुद उसके बारे में पता नहीं है। गलत तथ्य देकर क्यों उस मरे हुए इनसान के परिवारवालों के दुख को बढ़ा रही हो। बात उसकी खोपड़ी में घुसी और उसने जोड़ी हुई सारी लाइनें मिटा दी।

इसके बाद किरण से मेरी अच्छी दोस्ती हो गई। बाद में जब उसकी शादी हुई तो हम सभी लोगों को उसने अपने घर पर आमंत्रित किया। अमर उजाला में काम करने वाले सभी लोग उसकी शादी में जमा हुए। वह चाहती थी कि हम लोग उसकी शादी पर नाचे। लेकिन नाचने के लिए कोई तैयार न हुआ। दो-चार पैग गटकने के बाद इस संगीत भरे माहौल में बिना किसी के कहे मैं खुद-ब-खुद झूमने लगा। ‘दिल चोरी साडा हो गया ओय की करिये की करिये’ की बोल पर मैं तब तक नाचता रहा जब तक थक कर निढाल नहीं हो गया। अगले दिन अखबार के दफ्तर में सबकी जुबान पर मेरी ही कहानियां थीं। हर कोई मेरे डांस करने की प्रतिभा का कायल हो गया था। उन्हें नहीं पता था कि एक बार कायदे से शराब गटक लेने के बाद जिंदगी को पूरी संपूर्णता के साथ मैं अपनी बांहों में भरने के लिए मचल उठता था। 


पत्रकार आलोक नंदन इन दिनों मुंबई में हैं और हिंदी सिनेमा के लिए सक्रिय हैं। वे मीडिया के दिनों के अपने अनुभव को भड़ास4मीडिया के पाठकों के लिए पेश कर रहे हैं। पीछे के पार्ट को पढ़ने के लिए (1),  (2), (3)(4), (5), (6), (7), (8), (9), (10), (11), (12)(13) पर क्लिक कर सकते हैं। 15वां पार्ट अगले रविवार को पढ़ें।

आलोक से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है।

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