पंजाब के खेतों में खींच ले जाते थे पाश
अमर उजाला व दैनिक जागरण हिन्दी भाषी क्षेत्रों के दूर-दराज के इलाकों में काम करने वाले पत्रकारों को पंजाब की धरती पर उतारे हुए थे, जबकि पंजाब केसरी स्थानीय पत्रकारों का वर्षों से इस्तेमाल कर रहा था। रिपोर्टिंग के लिए पंजाब केसरी ने अपनी खास शैली इजाद कर रखी थी। पंजाब केसरी के रिपोर्टरों की खबरें उस अखबार के बड़े हाकिमों के लिए आय के स्रोत भी थे। पंजाब केसरी की रिपोर्टिंग ‘दस्तूरी प्रथा’ पर आधारित थी।
पंजाब केसरी में खबरें भेजने वाले छोटे-छोटे कस्बों के रिपोर्टर इस ‘दस्तूरी प्रथा’ को बड़ी इमानदारी से निभा रहे थे। खबरों को लेकर इनसे चूक नहीं होती थी। स्थानीय खबरों की संख्या में पंजाब केसरी अमर उजाला और दैनिक जागरण से मीलों आगे था। अमर उजाला खबरों की क्वालिटी पर जोर देता था, जबकि पंजाब केसरी खबरों की संख्या पर। पंजाब केसरी में सिंगल कॉलम की खबरों की भरमार होती थी, जबकि अमर उजाला में डीसी और टीसी खबरों की। नंगी-पुंगी तस्वीरों के मामले में पंजाब केसरी अपना झंडा गाड़े था, जबकि अमर उजाला और दैनिक जागरण ऐसी तस्वीरों को छापने को लेकर सजग थे। उस वक्त संपादकीय लेवल पर जागरण की पॉलिसी चाहे जो रही हो, लेकिन नंगी-पुगी तस्वीरों से जागरण अमर उजाला की तरह ही परहेज कर रहा था।
‘अजीत समाचार’ का पेज मेकिंग तकनीक उस वक्त ‘क्लासिक’ था। अपने बनाए हुए ग्रामर से उसके लोग जरा भी नहीं हिलते थे। ‘अजीत समाचार’ के पन्नों पर नजर मारने के दौरान बेहतरीन ले-आउट का अहसास होता था। खबरों के मामलों में भी वह अधिकतम संख्या की नीति अपनाए था। अमर उजाला पंजाब के लोगों के रीति-रिवाज समझने की कोशिश करते हुए एक अलग टेस्ट देने की कोशिश कर रहा था। रामेश्वर पांडे इस प्रयोग के सूत्रधार बने हुए थे। वह खुद भी पंजाब को समझना चाह रहे थे और अपनी लेबोरेटरी में काम करने वाले लोगों को भी पंजाब को समझने के लिए डंडा लेकर पीछे पड़े हुए थे। उन्होंने उस लेबोरेटरी में काम करने वाले सभी लोगों और पत्रकारिता के भविष्य के लिए एक बेहतरीन कदम उठाया, वह भी सस्ते में। उन्होंने सभी हिन्दी भाषी पत्रकारों के लिए पंजाबी के एक शिक्षक रमन को रख लिया, और कहा, तुम लोग पंजाबी सीखो।
पंजाबी क्लास की शुरुआत धमाकेदार तरीके से हुई। एक दिन सभी लोग लाइब्रेरी के हॉल में बैठे थे। पंजाबी टीचर रमन ‘कखा, गगा, घघा ढ़ढा…’ पढ़ा रहे थे। हंसते, खेलते, भिनभिनाते और चुटकियां लेते पत्रकार-विज्ञानियों ने पंजाबी सीखनी शुरू कर दी। शाम के दो घंटे पंजाबी क्लास में बैठने का रिवाज निकल पड़ा। रमन हिन्दी पत्रकारों को पंजाबी सिखाते हुए खुद भी पत्रकारिता के रंग में रंगते जा रहे थे। उनके चेहरे पर हमेशा मुस्कान रहती थी। उन्होंने बहुत जल्द लेबोरेटरी के सभी लोगों के दिल में जगह बना ली। वे लोगों को हंसते-हंसते पंजाबी सिखा रहे थे, पंजाबी का अल्फाबेट बता रहे थे, उसका साउंड सुना रहे थे, उसका डिजाइन बता रहे थे, उसका कंपोजीशन समझा रहे थे। साथ में लेबोरेटरी में पड़े कंप्यूटरों पर खाली टाइम में अपनी उंगलियां चला रहे थे। उस लेबोरेटरी में लोगों को सीखने और सिखाने के लिए रामेश्वर पांडे हर तरह से हाथ-पांव मार रहे थे।
पंजाबी का मामला मेरी समझ से बाहर था। मैं क्लास में बैठता तो था, लेकिन मेरा ध्यान रमन और पंजाबी सीख रहे लोगों के बात-व्यवहार पर रहता था। कुछ दिन के बाद ही रमन ने सबका टेस्ट लेने की घोषणा कर दी। पंजाबी का विधिवत टेस्ट लिया गया। एक कॉपी मुझे भी दी गई। पंजाबी मुझे खाक नहीं आती थी। मैंने परीक्षा में कॉपी पर रमन का स्केच बना दिया, और उन्हें पकड़ा दिया। दूसरे दिन रामेश्वर पांडे ने अपने चैंबर से मेरा नाम लेकर हांक लगाई। उस लेबोरेटरी में हर कोई उनकी एक हांक पर जहां भी होता था, वहीं से दौड़ पड़ता। मैं उनकी ओर भागा।
‘तुम पंजाबी की परीक्षा में नहीं बैठे थे?’ उन्होंने मेरी ओर देखते हुए पूछा। उनके मेज पर टेस्ट वाली सारी कॉपियां पड़ी हुई थीं।
‘मैं बैठा था’, मैंने दृढ़ता से जवाब दिया।
‘तुम्हारी कॉपी कहां है? मैं छोड़ने वाला नहीं हूं। यहां पर हर लोगों को पंजाबी सीखनी होगी।’
रामेश्वर पांडे द्वारा हड़काये जाने के बाद मैं बाहर निकला और सीधे रमन के पास गया और पूछा कि मेरी कॉपी कहां है।
उन्होंने हंसते हुए कहा कि आपने उस कॉपी पर मेरी तस्वीर बना दी थी इसलिए मैंने पांडे जी को नहीं दी। वैसे, आपकी बनाई हुई तस्वीर अच्छी थी।
रामेश्वर पांडे की फटकार के बाद पंजाबी मेरी नजर पर चढ़ गई। मैंने पंजाबी भाषा पर मजबूत पकड़ बनाने का निश्चय कर लिया। मेरे मकान मालकिन की बेटी अगल-बगल के बच्चों को पढ़ाती थी। मैंने उससे पंजाबी पढ़ाने को कहा। पहले तो वह हिचकी, लेकिन मेरे जोर देने पर वह मुझे पंजाबी पढ़ाने को तैयार हो गई। उस लड़की के डायरेक्शन में मैं प्रत्येक दिन चार-पांच घंटा पंजाबी पर मेहनत करता। खूब एक्सरसाइज करता और पंजाबी का अखबार उसके सामने बोल-बोल कर पढ़ता। मेरे पंजाबी पढ़ने के अंदाज पर वह होठ दबाकर मुस्काती और फिर सही तरकी से पंजाबी का उच्चारण करना सिखाती। 15 दिन के अंदर ही मैं पंजाबी धड़ल्ले से पढ़ने और लिखने की स्थिति में था।
इसी दौरान पाश की पंजाबी में लिखी कविताओं से मेरी मुलाकात हुई। नवीन पांडे ने पाश की हिन्दी में अनूदित बहुत सारी कविताएं मुझे दी थीं। उन दोनों को एक साथ लेकर मैं वर्क करने लगा। पाश की पंजाबी कविताओं की पंक्तियों को अपनी कॉपी पर लिखता और फिर अपने तरीके से उन पर टिप्पणी लिखता। पंजाबी को लेकर कॉन्फीडेंस बनता जा रहा था। पाश की शैली को अपनाते हुए मैं देखते-देखते पंजाबी में कविताएं धड़ल्ले से लिखने लगा, हालांकि बोलने के दौरान पंजाबी टोन को मैं मेनटेन नहीं कर पाता था। इस फोनेटिक्स प्रोब्लम पर काबू पाने की बहुत कोशिश की, पर सफल न हो पा रहा था। मुझे लगा कि मैं शायद लोगों के बीच पंजाबी बोलने से हिचक रहा हूं। इस हिचक को तोड़ने के लिए मैं खाली समय में ऑफिस के अंदर पंजाबी अखबार लेकर बैठ जाता और उसे जोर-जोर से पढ़ता।
एक दिन मीनाक्षी मेरे पास आई और बोली, ‘क्यों पंजाबी की लुटिया डुबोने पर तुले हुए हो। हिन्दी की तरह पंजाबी पढ़े जा रहे हो। पंजाबी ऐसे नहीं पढ़ते।’ इस प्रकरण के बाद दफ्तर के अंदर जोर-जोर से पंजाबी पढऩे की प्रक्रिया स्वत: रुक गई। मीनाक्षी ने अनजाने में ही मुझे डिसकरेज कर दिया था। पंजाबी लिखते रहने का मामला लगातार जारी रहा। अकेले बैठकर मैं पाश की कविताओं को घंटों याद करने की कोशिश करता।
पाश की कविताएं पंजाब की गलियों, चौराहों, लोगों, कस्बों, खेतों, खलिहानों, बूटों की चरमराहटों, संगीनों आदि के विषय में बहुत कुछ कहती थी। पंजाब का पूरा चरित्र मुझे पाश की कविताओं में दिखाई देता। अपनी कविताओं में वह खुद सपने देखते और लोगों को सपने देखने के लिए उकसाते थे। वह कहते, ‘सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना’। पाश की कविताओं में गर्मी थी, तेज था, विद्रोह था, बगावत थी, ललकार थी, आदर्श थे, जो इब्सन की कविताओं में हुआ करती थी। उनकी पंजाबी कविताओं में मैं उनके साथ बहता था। वह पंजाब के खेतों और खलिहानों में मुझे गन्ना चूसते हुए ले जाते थे, और बताते थे कि कैसे उनके बचपन की चोरी, चोरी न थी और कैसे जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही उनकी बात में सत्ता से बगावत की बू आने लगी, और कैसे उनके पूरे शरीर को बेड़ियों से जकड़ने के लिए सत्ता उतावला रहता।
दिल्ली में नाटक-नौटंकी के दौरान अरविंद गौड़ के नाट्य जलसों में पाश की उक्तियां अक्सर दिखाई देती थीं। पाश शब्द से मुझे लगता कि वे किसी बाहरी मुल्क के हैं। मैं उन्हें अंग्रेजी के ठिकानों पर तलाशता रहता। पाश से मेरी असली मुलाकात पंजाब में हुई, उनकी हवाओं में बारुद भर देने वाली कविताओं के माध्यम से। उनकी कविताओं को मैं पंजाबी में पढ़ रहा था। जब कभी पंजाबी के फोनेटिक्स पर अटकता, तो उस लेबोरटरी में काम करने वाले किसी पंजाबी बंदे को पकड़ लेता और उसकी फोनेटिक्स को अंदर ही अंदर दोहराता। उन दिनों मैं सपने भी पंजाबी में देखने लगा था। फिजिक्स और पाश के बीच तालमेल बैठाने की कोशिश करता और उसकी वैज्ञानिकता पर मोहित होता रहता।
इन्सानों की बस्ती में आने के बाद दारू छूट गई थी। देर रात गए ऑफिस से लौटने के बाद सुबह चिड़ियों की चहचहाअट तक पढ़ता रहता। पंजाबी के शब्दों में उर्दू के शब्द बहुत थे। उस भाषा की खूबसूरती उसके फोनेटिक्स में थी। मीनाक्षी के टोकने के बाद पब्लिकली उस फोनेटिक्स का इस्तेमाल करने से मैं हड़कता, लेकिन उसके संगीत को मन ही मन दोहराता। पंजाबी के फोनेटिक्स के साथ मेरा साउंडलेस रिलेशन बन गया। मेरे हाथ पंजाबी के शब्दों पर सटासट चलने लगे थे। मैंने अपने कंप्यूटर में भी पंजाबी फॉन्ट लोड करवा लिया और उस पर टकाटक उंगलियां चलती थीं। की-बोर्ड पर हिंदी और पंजाबी के फॉन्ट का टिप-टिपा कंपोजिंग सेटिंग एक ही था। कंप्यूटर पर पंजाबी अखबारों के हेडलाइन टाइप करने में बहुत मजा आता। पंजाबी भाषा में उर्दू शब्दों ज्यादा होने से पंजाबी सीखते-सीखते मैं धीरे-धीरे उर्दू के करीब आ रहा था।
कुछ दिन बाद पंजाबी के क्लास में जब मैंने पाश की शैली में अपनी खुद की लिखी एक कविता सुनाई तो वहां मौजूद पत्रकारों ने उसे खूब पसंद किया, हालांकि मीनाक्षी की नजरों मे उसमें सुधार की काफी गुंजाइश थी। उस दिन भरे क्लास में राघव ने पंजाबी भाषा की प्रकृति को इतनी खूबसूरती से रखा कि मीनाक्षी लाजवाब हो गई। भाषा के मर्म पर उनकी गहरी पकड़ थी। फ्रांसीसी भाषा में लिखे, ‘अनंत युद्ध जिंदाबाद’ सबसे पहले उन्होंने ही आइडेंटीफाइ किया था। पंजाबी भाषा पर उनके 15 मिनट के लेक्चर से ही दोयाब की पंजाबी भाषा के उच्चारण और पंजाब के अन्य हिस्सों के उच्चारण के मर्म को समझने की स्थिति में आ गया। मुझे लगता था कि पूरे पंजाब में पंजाबी एक जैसी बोली जाती है, लेकिन वहां तो राघव पंजाब के अंदर पंजाबी की कई उच्चारण शैलियों के विषय में बता रहे थे, वह भी दार्शनिक अंदाज में। मैं मंत्रमुग्ध भाव से उन्हें सुनता रहा।
मैं दिन में 11 बजे तक सोता और जगने पर नहा धो-कर अखबारों के साथ मगजमारी करता। पंजाब केसरी, दैनिक जागरण, और अमर उजाला लेकर बैठ जाता और इन तीनों अखबारों का फ्लो देखता। चूंकि मैं जालंधर डेस्क पर था, इसलिए जालंधर की खबरों पर खास ध्यान होता। सभी खबरों पर तीन से चार पन्ने की रिपोर्ट तैयार कर लेता और उन्हें घर पर ही छोड़ देता। ऑफिस जाते समय एक दिन अखबारों से संबंधित दो पन्नों की एक रिपोर्ट मेरे पॉकेट में ही रह गई। नवीन पांडे प्रत्येक दिन अपने जालंधर एडिशन की रिपोर्ट बनाने के लिए अपने साथ लगे सभी लोगों को प्रोत्साहित करते थे। उस दिन वह रिपोर्ट मैंने नवीन पांडे को दिखा दी। उस रिपोर्ट को नवीन पांडे ने सिटी रिपोर्टिंग ऑफिस में भेज दिया। करीब 25 मिनट के बाद रामेश्वर पांडे ने मेरे नाम से हांक लगाई। मैं चैंबर की ओर भागा।
‘ये रिपोर्ट तुम्हारी है?’, मेरी ओर घूरते हुए उन्होंने पूछा।
‘हां।’
‘तुम्हे मालूम है सिटी में सारे लोग वरिष्ठ हैं। रिपोर्ट ऐसे लिखी जाती है? और रिपोर्ट तुमने सीधे सिटी ऑफिस क्यों भेज दी। तुम्हे तो नवीन पांडे को रिपोर्ट करना चाहिए था।’
‘मैंने नवीन पांडे को ही रिपोर्ट दी थी,’ मैंने जवाब दिया।
‘नवीन पांडे’, उन्होंने जोर से हांक लगाई।
उनकी हांक पर नवीन पांडे भी हाजिर हुए।
‘यह क्या है? ऐसी रिपोर्ट भेजी जाती है। और आपको तो विवेक जी को रिपोर्ट भेजना है। सिटी कैसे भेज दिया?’, रामेश्वर पांडे थोड़ा बौखलाए हुए थे।
थोड़ी देर बाद हम दोनों उनकी गुफा से बाहर निकले।
नवीन पांडे ने मेरी ओर देखते हुए कहा, ‘सिटी रिपोर्टिंग में सब गधे बैठे हुये हैं, शिकायत लगा दी।’
जालंधर शहर को लेकर रिपोर्टिंग और डेस्क के बीच संवादहीनता की स्थिति थी। यह पूरी तरह से इगो क्लैस था। बाद में पता चला कि पत्रकारिता जगत में रिपोर्टिंग और डेस्क के बीच इगो क्लैस बेहतर काम के लिए जरूरी माना जाता था। हालांकि पत्रकारिता के इस फार्मूले पर मेरी हमेशा आशंका बनी रही। जालंधर डेस्क और रिपोर्टिंग के प्रबंधन के मामले में रामेश्वर पांडे इसी फार्मूल पर सचेतन रूप से चल रहे थे या नहीं चल रहे थे, पता नहीं, लेकिन पंजाब में पत्रकारिता के ये दोनों पहिये कुछ इसी अंदाज में चल रहे थे। डेस्क पर बैठे लोगों को खबर लिखने के पहले, यदि कोई खबर लिखना चाहता है तो, उसे सिटी के रिपोर्टिंग ऑफिस में भेजने की जरूरत थी, जिसका नकारात्मक प्रभाव क्वालिटी जर्नलिज्म पर पड़ रहा था। डेस्क के लोग बंधे हुए थे।
अमर उजाला में रिपोर्टिंग और डेस्क के साथ एस्टैटिक थ्योरी काम कर रही थी। दोनों समानांतर रेखा की तरह साथ-साथ चल रहे थे। मिलने की कहीं कोई गुंजाइश नहीं थी। रिपोर्टिंग वाले डेस्क वालों को गधा समझते और डेस्क वाले रिपोर्टिंग वालों को।
पत्रकार आलोक नंदन इन दिनों मुंबई में हैं और हिंदी सिनेमा के लिए सक्रिय हैं। वे मीडिया के दिनों के अपने अनुभव को भड़ास4मीडिया के पाठकों के लिए पेश कर रहे हैं। पीछे के पार्ट को पढ़ने के लिए (1), (2), (3), (4), (5), (6), (7), (8), (9), (10), (11), (12), (13), (14), (15), (16) पर क्लिक कर सकते हैं। 18वां पार्ट अगले शनिवार को पढ़ें।
आलोक से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है।