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पत्रकारिता की काली कोठरी से (13)

Alok Nandanपत्रकारिता में बहुत सारे बेतुके काम

बीट की खबरों से मैं बुरी तरह से उकता गया था। राजेश रपड़िया की बात अब मेरी समझ में आ रही थी कि पत्रकारिता में बहुत सारे बेतुके काम करने पड़ते हैं। नागरिक समस्या से संबंधित खबरों को लिखने में मेरी कोई रुचि नहीं थी, क्योंकि मेरी नजर में पूरे देश में नागरिक समस्याओं का कमोबेश एक जैसा ही हाल था। पानी और बिजली की कमी, टूटी-फूटी सड़कें, अस्त-व्यस्त अस्पताल वगैरह वगैरह।

Alok Nandan

Alok Nandanपत्रकारिता में बहुत सारे बेतुके काम

बीट की खबरों से मैं बुरी तरह से उकता गया था। राजेश रपड़िया की बात अब मेरी समझ में आ रही थी कि पत्रकारिता में बहुत सारे बेतुके काम करने पड़ते हैं। नागरिक समस्या से संबंधित खबरों को लिखने में मेरी कोई रुचि नहीं थी, क्योंकि मेरी नजर में पूरे देश में नागरिक समस्याओं का कमोबेश एक जैसा ही हाल था। पानी और बिजली की कमी, टूटी-फूटी सड़कें, अस्त-व्यस्त अस्पताल वगैरह वगैरह।

मैं दिल्ली से जम्मू-कश्मीर की ओर वहां की सड़कों का हाल-चाल लिखने के लिए नहीं निकला था। पत्रकारिता को लेकर एक अज्ञात-सी उदासीनता मेरे मन-मस्तिष्क पर हावी होती जा रही थी। जिंदगी को कुछ रोचक बनाने के लिए अचेतन रूप से किसी खूबसूरत बहाने की तलाश में था, और वह जम्मू के अस्पताल में मिल गई।  

एक दिन जम्मू अस्पताल में आई डिपार्टमेंट से गुजरते हुये मेरी नजर चेंबर के अंदर बैठी हुई एक खूबसूरत लेडी डॉक्टर पर पड़ी। बाहर मरीजों की लंबी लाइन लगी हुई थी। दो रुपये खर्च करके मैंने ओपीडी का कार्ड कटाया और लाइन में लग गया। करीब डेढ़ घंटे के बाद मेरी बारी आई तो अंदर चैंबर में दाखिल हुआ। मेरी ओर देखते हुए उस खूबसूरत डॉक्टर ने पूछा कि क्या प्रॉब्लम है? मैंने कहा कि मुझे अपनी आंखों का नंबर चेक करवाना है, एक वर्ष से अधिक हो गए चेक कराए हुए। उसने मुझसे चश्मा उतारने को कहा। उसकी ओर देखते हुए मैंने चश्मा उतार दिया। मेरे चेहरे को दोनों हाथों से पकड़ कर वह करीब आकर मेरी आंखों का मुआयना करने लगी। उसकी गर्म-गर्म सांसें मेरे चेहरे पर पड़ रही थी, उसकी बड़ी-बड़ी आंखें मेरी आंखों में थी। मेरे मुंह से अचानक निकल गया, ‘पहली बार कोई लड़की इतने करीब से मेरी आंखों में झांक रही है।’ इतना सुनते ही उसे  440 वोल्ट का करेंट लगा और मुझे छोड़कर वह दो कदम पीछे हट गई। उसके चेहरे पर दौड़ रही लाली को मैं स्पष्ट तौर से देख सकता था। अपने आप को नियंत्रित करने के बाद उसने कुछ गुस्से से पूछा, ‘आप करते क्या है?’

‘पत्रकार हूं।’ मैंने जवाब दिया तो वह खिलखिलाकर हंस पड़ी।

‘पत्रकार लोग बड़े बेबाक होते हैं। आपको यह तो समझना चाहिये कि एक डॉक्टर से कैसे बात की जाती है। क्या वाकई में आपकी आंख में खराबी है?’

‘डॉक्टर आप हैं, मैं नहीं’, उसकी खूबसूरत आंखों में पूरे आत्मविश्वास से देखते हुए मैंने कहा । संयत भाव से उसने मेरी आंखों को चेक किया और बताया कि मेरी आंखें बिल्कुल ठीक हैं। जो चश्मा मैं लगा रहा हूं, उसे मुझे लगाते रहना चाहिए। 

इस घटना के बाद से मैं सारे बीट छोड़कर सिर्फ अस्पताल में ही लगा रहता था। सुबह 8 बजे से दिन के 12 बजे तक मैं आई डिपार्टमेंट के ईद-गिर्द मंडराता रहता था। बहुत जल्दी ही हम लोग अस्पताल के कैंटीन में साथ-साथ घंटों बैठने लगे थे। वह कश्मीर की रहने वाली थी और डाक्टरी की पढ़ाई कर रही थी।

उसके साथ कैंटीन में बैठने के दौरान ही एक छात्र ने एक अजीबोगरीब बात बताई। उसने कहा कि जम्मू मेडिकल कॉलेज के बवाय हॉस्टल में कश्मीरी छात्रों के एक समूह ने दो कमरों को मस्जिद के रूप में तब्दील कर दिया है। वहां पर नियमित नमाज पढ़ते हैं और मजलिसे लगती हैं। कैंटीन में बकरे के मांस को लेकर भी अच्छा खासा हंगामा मचा हुआ है। ये कश्मीरी छात्र चाहते थे कि कैंटीन में सिर्फ हलाल वाले बकरे बने। हलाल और झटके के अंतर को उस वक्त मैं नहीं समझता था। यह मामला मुझे कुछ रोचक लगा। मैंने उस लड़के से कहा कि मुझे उस स्थान पर ले चलो जहां पर यह सब कुछ चल रहा है। उसने साथ ले जाने से साफ इनकार करते हुए कहा कि आप मेरे पीछे-पीछे आइए और खुद देखिए, लेकिन मुझसे बात मत कीजिएगा। उस लड़के का अनुसरण करते हुये मैं हॉस्टल के उन कमरों तक पहुंच गया, जिन्हें कश्मीरी लड़कों ने मस्जिद के रूप में तब्दील कर दिया था। एक सरकारी संस्थान में इस तरह की धार्मिक गतिविधियां निःसंदेह खबर बनती थी। करीब दो घंटे तक मस्जिद के रूप में तब्दील उन कमरों में नमाज पढ़ने का नाटक करते हुए मैं बैठा रहा। मेरी दाढ़ियां काफी बढ़ी हुई थी, और मैं पूरी तरह से इस्लाम का अनुयायी लग रहा था। वहां से निकलने के बाद मैं सीधे कैटीन में पहुंचा और अपने तरीके से झटका और हलाल के मामले का पड़ताल करता रहा। कैंटीन के कर्मचारी दबी जुबान से इस तथ्य को स्वीकार कर रहे थे कि झटका और हलाल का मामला यहां पर जड़ जमाए हुए है। इस मामले से संबंधित पर्याप्त जानकारी मैंने एकत्र कर लिया था। मेडिकल कॉलेज के बाहर मैदान में भी एक मस्जिद बनाने के लिए घेराबंदी कर दी गई थी।

ऑफिस में आने के बाद चार कॉलम की एक खबर लिखी और निकल गया।

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दूसरे दिन राजेन्द्र तिवारी ने मुझे देखते ही कहा, ‘आप कैसी खबर लिखते हैं ?’

मैंने पूछा, ‘क्या हुआ?’

‘यदि इस तरह की लिखी हुई खबर प्रकाशित कर दी जाएगी तो लोग ऑफिस पर पत्थरबाजी करने लगेंगे।’

‘तो यह खबर की गलती होगी या लोगों की?’ मैंने प्रश्न किया।

‘मैं बहस करना नहीं चाहता, मुझे ऐसी खबरें नहीं चाहिए।’

जिसे मैं खबर समझता था उसे राजेन्द्र  तिवारी खबर नहीं समझते थे और जिसे राजेंद्र तिवारी खबर समझते थे उसे मैं कूड़ा करकट समझता था। हम दोनों की स्कूलिंग ही दो अलग-अलग धाराओं की थी। मैंने खबर पूरी जिम्मेदारी के साथ लिखी थी। मेरा उद्देश्य ऑफिस पर पत्थरबाजी करवाना नहीं था, बल्कि जम्मू मेडिकल कॉलेज में किसी भी समय फट पड़ने वाले हिंसा के सैलाब के प्रति प्रशासन के साथ-साथ लोगों को अगाह कर देना था। वैसे भी पत्रकारिता को मैं तलवार की नंगी धार समझता था, इस धार पर नंगे पांव चलने का साहस मुझमें था। 

जिस तरह से मेरी खबर की हत्या की गई थी, उससे मैं समझ गया था कि बड़ी खबरों के पीछे मगजमारी करना व्यर्थ है, बस रुटीन की खबरें लिखते रहो। मैं भी रुटीन की खबरें लिखता रहा और जम्मू अस्पताल की उस लेडी डॉक्टर की बड़ी-बड़ी आंखों में खोया रहता था। अन्य बीट तेल लेने गये थे।

राजेन्द्र तिवारी उन दिनों धकाधक सिगरेट पीते थे। हर किसी के कंप्यूटर में अपनी गर्दन घुसेड़ने की उनकी आदत थी। रिपोर्टरों की खोपड़ी पर खड़े होकर खबर पढ़ने लगते थे। रिपोर्टरों के ऊपर प्रभुत्व बनाये रखने का उनका यह अपना खास स्टाइल था। एक दिन वह मेरी खोपड़ी के ऊपर खड़े होकर धुआं उड़ाने लगे। मैंने कहीं पढ़ रखा था कि धुआं कंप्यूटर के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। मैंने उन्हें मना किया कि आप मेरे कंप्यूटर के पास सिगरेट का धुआं न उड़ायें। उन्होंने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा, ‘आप कैसे पत्रकार हैं ? पत्रकारिता में सब चलता है।’

उनके जाने के बाद उनकी बातों पर मैं काफी देर तक सोचता रहा। इसी बीच एक तीखी महिला पत्रकार, जो वहां काम करने वाले सभी लौंडा पत्रकारों को हर तरह की गालियां देती थी और वे उसकी गालियों को सुनकर अपने आप को धन्य मानते थे, ने पूछा, ‘चाय पीओगे?’

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मैंने कहा, ‘चाय का मूड नहीं है, कुछ आगे बढ़ों तो सोच सकता हूं।’

‘बीयर?’

‘कुछ और आगे बढ़ो।’

‘इससे आगे मैं नहीं बढ़ सकती। बीयर बहुत है। और कुछ चाहिये तो पैसे तुम्हे देने होंगे।’ उसने कहा।

पांच सौ रुपये का एक पत्ता निकालकर मैंने उसके हाथ में रख दिये और बोला, ‘जो इच्छा करे ले आओ।’

‘लेकिन पीयेंगे कहां?’

‘यहीं इसी ऑफिस में, कैसी पत्रकार हो, पत्रकारिता में सब कुछ चलता है। और हां,  ऑफिस में सब लोगों को मेरी ओर से पीने की दावत दे दो।’

उस दिन ऑफिस में जमकर दारू का दौर चला। राजेन्द्र तिवारी को छोड़कर सभी लोगों ने पीया और छक कर पीया।  मेरी एनर्जी निगेटवि रूप ले रही थी, उस वक्त इस बात का मुझे बिल्कुल अहसास नहीं था। अमर उजाला के ऑफिस में उस समय तीन-तीन एसी चलते थे, जबकि इजाजत सिर्फ एक एसी चलाने की थी। बिजली बीट देखने के कारण यह बात बार-बार मेरे दिमाग में खटकती थी। एक ओर जम्मू बिजली कट की गंभीर समस्या से जूझ रहा था, तो दूसरी ओर अमर उजाला के दफ्तर में अवैध तरीके से दो एसी चलाये जा रहे थे। एक दिन राजेन्द्र तिवारी ने जम्मू के बिजली कट पर खबर लिखने को कहा। ऑफिस में मेरी आंखों के सामने दो अवैध एसी चल रहे थे, और जम्मू में बिजली कट पर खबर लिखते हुये की-बोर्ड पर मेरी उंगलियां कांप रही थी। पन्नों को काले करने के लिए खबर लिखना मेरे बस में नहीं था। मुझे तो खबर में सच्चाई की सुगंध अच्छी लगती थी। उस दिन चाह कर भी मैं बिजली कट पर खबर नहीं लिख सका। 

सुबह सीधे बिजली विभाग के ऑफिस में गया और जेई को बोला, ‘मेरे अखबार के दफ्तर में दो अवैध एसी चल रहे हैं, आप जाकर देखते क्यों नहीं? ‘

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जेई ने कहा, ‘भाई तुम कैसे पत्रकार हो, अपनी अखबार के ही बैंड बजवाने पर तुले हुये हो।’

मैंने कहा, ‘जेई साहब, आपके विभाग के खिलाफ कुछ भी लिखने की नैतिक शक्ति मेरे पास नहीं है, मेरे ऑफिस में चलने वाले दोनों एसी मुझे रोकते हैं। आप इन्हें बंद करवा दीजिये, फिर मैं बताता हूं कि मैं कैसा पत्रकार हूं।’

मेरे पत्रकारिता के इस अंदाज पर जेई साहब फिदा हो गये। मेरे हाथ को अपनी हाथ में लेते हुये उन्होंने कहा, ‘तुम्हारे ऑफिस में हम आएंगे और जरूर आएंगे, हमें इसी तरह के कंस्ट्रक्टिव सहयोग चाहिए, देश की तकदीर तो हम चुटकी बजा कर बदल  सकते हैं। देश के इंजीनियर लोग क्या चाहते हैं, कोई नहीं पूछता। विकास की रीढ़ तो सिर्फ और सिर्फ हमलोग ही हो सकते हैं।’

उस जेई की बातों में आत्मविश्वास झलक रहा था, उसकी हाथ की तरफ देखते हुये मुझे लगा कि पत्रकारिता और विकास को इसी तरह हाथ मिलाना चाहिए। दोनों को साथ-साथ इसी तरह डग भरना चाहिए। 

आधे घंटे के बाद वह जेई अपने चार-पांच कर्मचारियों के साथ अमर उजाला के दफ्तर में घुसा हुआ था। उस वक्त मैं ऑफिस में नहीं था। जिस वक्त वह निकल रहे थे उस वक्त मैं ऑफिस में दाखिल हो रहा था। एक बार फिर उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया और बोलने लगे, ‘अब ये लोग एसी नहीं चलाएंगे। मैं अपने विभाग की खबरों का इंतजार करूंगा। अब तो नैतिक रूप से तुम खबर लिखने के लिए कमजोर नहीं हो?’

इस घटना के कुछ दिन बाद एक दिन मैं अचानक उनके दफ्तर पहुंच गया। उनकी कुर्सी की तलाश शुरू कर दी। उस दफ्तर में उनके नाम पर कहीं कोई कुर्सी ही नहीं थी। उनके क्या, उस दफ्तर में किसी के भी  नाम पर कहीं कोई कुर्सी नहीं थी। मेरे दिमाग में खबरों की कुलबुली मचने लगी। पूछताछ करने पर जो कहानी सामने आई, वह काफी रोचक थी। एक बार बिजली कट के खिलाफ जम्मू के लोगों ने इस दफ्तर पर धावा बोल दिया था, और बिजली विभाग के दो कर्मचारियों को बंदी बनाकर अपने साथ ले गये थे। बिजली विभाग वालों ने बड़ी मुश्किल से उन्हें छुड़ाया था। लोग इंजीनियरो की तलाश कर रहे थे। उस दिन के बाद से वहां पर काम करने वाले सभी लोगों के नेमप्लेट हटा दिये गये थे। अगले दिन इसी को लेकर एक लंबी सी खबर तान मारी। यदि मेरा बस करता तो अमर उजाला की एसी की खबर को अमर उजाला में ही छाप मारता। मेरा यही मानना था कि मैं पत्रकार पहले था, और यह अखबार बाद में। किसी अखबार ने मुझे पत्रकार नहीं बनाया था, मैं पत्रकार था, इसलिए अखबार में काम कर रहा था।

बिजली विभाग और जनता के बीच के संबंधों पर मैंने खूब चुटकी ली थी। इसके बाद वह मेरे मुरीद हो गये थे और मैं उनका। बिना कहे ही हम दोनों एक दूसरे को कंस्ट्रक्टिव योगदान देने लगे थे। वह मुझे बिजली की बारीकियां समझाते थे, और घंटों समझाते थे, बिजली के तारों के विषय में बताते, उन पर दौड़ने वाली बिजली के विषय में बताते और पत्थरों को काटकर पूरे राज्य में बिजली को पहुंचाने की भावी योजनाओं के विषय में बताते थे। उनकी बातें मुझे सुकून पहुंचाती थी। वह सही मायने में मुझे नेशनल हीरो नजर आते थे। जिस राज्य की फिजा में बारुद के गंधे बसे हुये थे, वहां पर लोगों के घर-घर में बिजली पहुंचाने के लिए कमर कस कर खड़े थे। मैं यही सोचता था कि जम्मू के हीरो के रूप में मैं उन्हें अपने अखबार में प्रस्तुत करूं, लेकिन राजेन्द्र तिवारी के रहते यह संभव नहीं था। अखबार को लेकर एक पूरा खाका अपने दिमाग में उन्होंने पहले से ही बना रखा था, और उस खाके में वह किसी भी तरह का बदलाव करने के मूड में नहीं थे। अखबार के प्रति दूसरों के नजरिए को वह सुनने तक के लिए तैयार नहीं थे।

सांस्कृतिक स्तर पर जम्मू की समृद्धि से मैं दिल्ली में ही वाकिफ हो गया था। जम्मू की कई नाट्य मंडलियां दिल्ली अक्सर आती रहती थीं, और दिल्ली नाट्य जगत से जुड़े लोग अपनी प्रस्तुतियां लेकर जम्मू जाते रहते थे। उस समय जम्मू में एक नाट्य महोत्सव हो रहा था। नाटकों का शौकीन मैं पहले से ही था। मैंने राजेन्द्र तिवारी से कहा कि इस नाट्य महोत्सव पर हमारे अखबार में एक आलेख जाना चाहिए। आज इसका उदघाटन है। मैं देख आता हूं।

उन्होंने छूटते ही कहा, ‘अरे, नाटक की खबर कोई नहीं पढ़ता है। ये सब बेकार की चीज है। रहने दीजिये।’

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खबरों का उनका पैमाना क्या था, यह मेरी समझ से परे था। लेकिन इतना तो तय था कि इस अखबार के लिए स्वतंत्र आइडिया देने के रास्ते बंद थे।

अखबारों में स्वतंत्र आइडिया को पटका क्यों मारा जाता है, इस रहस्य को समझने में थोड़ा वक्त लगा। स्वतंत्र आइडिया को पटका मारने वाले मिडिल मैनेजमेंट के लोग होते हैं। दूसरों के अच्छे आइडिया को अपनाने से यह मिडिल मैनेजमेंट कतराता है। उसे लगता है कि ऐसा करने से उसकी भूमिका खत्म हो जाएगी, और उसकी इसी मानसिकता का शिकार पूरा अखबार होता है।

अगले दिन दैनिक जागरण ने नाट्य महोत्सव की खबर को चार कॉलम में छापा। सुबह की झक्क मारने वाली मीटिंग के दौरान मैं उस खबर को जोर-जोर से पढ़ता रहा।


पत्रकार आलोक नंदन इन दिनों मुंबई में हैं और हिंदी सिनेमा के लिए सक्रिय हैं। वे मीडिया के दिनों के अपने अनुभव को धाराविहक रूप में पेश कर रहे हैं। पीछे के पार्ट को पढ़ने के लिए भाग (1),  (2), (3)(4), (5), (6), (7), (8), (9), (10), (11), (12) पर क्लिक कर सकते हैं। 14वां पार्ट अगले रविवार को पढ़ें।

आलोक से संपर्क [email protected]   से किया जा सकता है।

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