मैं शायद प्रभाष जोशी जी की छौनों वाली टीम का हिस्सा था। पहली मुलाकात उनसे कलकत्ता (अब कोलकाता) के ताज बंगाल होटेल में हुई। जनसत्ता कोलकाता के लिए मुझे चुन लिया था और नियुक्ति पत्र देने वाले थे। ना तो प्रभाषजी के सहयोगी रामबाबूजी के पास टंकण सुविधा थी और ना ही प्रभाषजी ने कभी लेखन की इस आधुनिक कारीगरी का इस्तेमाल किया। तब लैपटॉप भी दूर की चीज थे, प्रभाष जी के लिए तो शायद आज भी है। बोले, भैया नियुक्ति पत्र कहां से दूं? मैं बोला कि ताज होटेल के इसी लेटरहेड पर लिख कर दे दीजिए। सलाह पसंद आ गई और 3300 रुपए में जनसत्ता कोलकाता में उप संपादक पद पर काम करने का हुक्म दे दिया। सन 1991 की बात है यह। वह नियुक्ति पत्र आज भी मेरे पास सुरक्षित रखा है प्रभाषजी। एक धरोहर की तरह। एक और चीज है मेरे पास, बाद में बताऊंगा।
अखबार की लांचिंग के कुछ रोज पहले फिर कोलकाता आए और किसी काम से इंडियन एक्सप्रेस के अशोक रोड वाले गेस्ट हाउस तक अपनी गाड़ी में साथ ले गए। पता नहीं क्यों पहले ही दिन से प्रभाषजी के करीब पहुंच कर लगा ही नहीं कि देश के इतने बड़े संपादक हैं। मुझे तो हमेशा लगा कि इनके पास जो चाहे बतिया लीजिए, खुद ही छान कर काम का निकाल लेंगे, बकिया फेंक देंगे। ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं।
रास्ते में प्रभाष जी ने पूछा, और भैया कैसा काम चल रहा है? सर्तक होते हुए मैं बोला, ठीक-ठाक। थोड़ा गौर से मेरा चेहरा देखा और दूसरा सवाल फेंका, लोग ठीक से काम कर रहे हैं ना? और चौकन्ना हुआ, जवाब दिया, मैं कैसे बता सकता हूं, मैं तो सबसे नीचे वाली पायदान का चोबदार हूं। मुझे लगा कि जासूसी करा रहे हैं। उस दिन पत्रकारिता का पहला सबक सीखा, एक संपादक को कैसा होना चाहिए। प्रभाषजी मेरे मन की संशय को ताड़ गए। बोले,,.भैया मेरे पूछने का मतलब है कि लोग मन लगा कर काम कर रहे हैं ना। फिर बोले देखो भैया, अपन तो एक चीज जानते हैं, बस आदमी सही होना चाहिए…पत्रकार तो संपादक बना लेता है। फिर एक अच्छे संपादक के एक और गुर को पेश किया पलथी मार कर बैठे प्रभाषजी ने। हम दोनों के बीच एक गाव तकिया था, सफेद कपड़े से ढका। उस पर धौल मार प्रभाषजी बोले, देखों भैया, हम तो एक बार जोड़ते हैं, छोड़ते कभी नहीं। पूछा, ऐसा क्यों? प्रभाषजी बोले, हम इतना बिगाड़ देते हैं कि कहीं जाने लायक नहीं रहता। तब नहीं समझा था प्रभाषजी, बाद में जब जनसत्ता से बाहर आया तो समझ में आया, वाकई कितना बिगाड़ दिया था आपने। कहीं का नहीं छोड़ा। जनसत्ता में मेरे पहले की पीढ़ी तो बेहतरीन उदाहरण हैं। सोच के एक नाम बताइए। प्रभाषजी के जनसत्ता से निकला एक भी शख्स बाहर किसी दूसरे अखबार में फिट हो पाया हो? आलोक भाई (तोमर), सुशील भाई (सुशील कुमार सिंह) दुरुस्त हूं ना मैं?
यह क्या दंभ था या एक संपादक का खुद पर विश्वास? यकीकन विश्वास। प्रभाषजी के साथ मेरी स्मृतियां टुकड़ों में हैं। पर इन सभी में एक अंतरसंबंध पाता हूं। जो कुछ भी उनसे सीखा, गांठ बांधी, उनसे भोगा ज्यादा पाया कम।
जनसत्ता में शायद ही किसी संवाददाता की खबर रुकी हो। बस तथ्यों के लिहाज से दुरुस्त होना चाहिए। सन 1996 में जब दिल्ली जनसत्ता में आया तो लगा, हर कोई हांका लगा रहा है। सब्जी मंडी सरीखा माहौल। धीरे-धीरे समझ में आया, यहां हांके का नहीं, निथारने का शोर है। हर किसी को अपनी बात करने की बेलगाम आजादी। चाहे अभय भाई (अभय दुबे) से भिड़ लीजिए या फिर अपने मित्र संजय सिंह (अब अनुवाद कम्युनिकेशन वाले) से देर तक बहसिया लें। पर जो भी कहें, तथ्यों के साथ कहें। विरोध में एक तर्क हो। जनसत्ता में जब तक रहा, पीछे छूटे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के दिनों की कमी नहीं महसूस की।
दिल्ली जनसत्ता में रात में श्रीशजी (श्रीश मिश्र) प्रभाषजी का हाथ का लिखा कागद कारे थमा दिया करते थे और कहते थे संपादित कर लो। मेरी औकात! प्रभाषजी के लिखे का संपादन करूं। एक बार कुछ हो ही गया। रात को डेढ़ बजे थे प्रभाषजी का कागद कारे टाइप होकर आया। नीचे अभय भाई संस्करण निकलवा रहे थे। श्रीशजी ने कहा, पढ़ लो। पढ़ने लगा तो पाया कि प्रभाषजी ने हर जगह त्योहार को त्यौहार लिख रखा है। श्रीश जी से पूछा तो मुस्करा (बहुत साजिश वाली मुस्कराहट होती है श्रीश जी आपकी) बोले, बुढ़ऊ (प्रभाष जी के लिए दुलार वाला संबोधन था यह जनसत्ता के साथियों के बीच) को फोन कर लो। ताव में आकर मैंने भी फोन लगा दिया, रात डेढ़ बजे भी फोन प्रभाषजी ने फोन उठाया। आवाज में दिन वाली ताजगी। कहीं कोई खीज नहीं। बोले, हां भैया बोलो। मैं बोला, सर आपके कागद कारे में त्योहार की जगह त्यौहार लिखा है। उधर से आवाज आई, तो भैया होता क्या है? एक क्षण के लिए लगा, बुढऊ खींच रहे हैं। मैं बोला, जहां तक मैं जानता हूं त्योहार होता है, त्यौहार नहीं। साथ में नए मुल्ले की तरह दलील दी, फादर (कामिल बुल्के) में भी यही लिखा है। इस पर प्रभाषजी ने जो कहा, उस समय तो उनकी बात घर वाली बात लगी पर वक्त के साथ समझ में आया किस हिमालय के साथ हमने काम किया है। प्रभाष जी आप घर के बुढ़ऊ थे हम सब के लिए। इस जीवन में अब तक तो दूसरे प्रभाषजी नहीं मिले। प्रभाषजी बोले, भैया रात का संस्करण जो निकालता है वही संपादक होता है, अपन तो कल 11 बजे संपादक होंगे। अभी तो हमें भी अपना संवाददाता या कॉलम लिखने वाला समझो। मैंने त्यौहार को त्योहार कर दिया। दूसरे दिन प्रभाषजी कुछ नहीं बोले। उनकी चुप्पी को अपनी भारी जीत समझी मैंने। बहुत बाद में समझा, यह तो प्रभाषजी की अपनी मालवी शैली का लेखन था और कागद कारे उनका अपना स्थान था। और मैंने उनके घर में सेंध मारी थी। अब इस बात पर नहीं जाऊंगा कि आज का संपादक क्या करता इस पर।
बातें तो बहुत है प्रभाषजी पर एक बात जरूर कहना चाहूंगा। एक पूरी नस्ल को खराब कर दिया आपने। आपके बताए राह पर चला तो धकिआया गया। सुधरने की कोशिश कर रहा हूं पर सुधरने की उम्मीद कम ही है। जयपुर में राजस्थान पत्रिका और मिड डे (मुंबई) का साझा दोपहर का अखबार न्यूज़ टुडे निकाला। मुख्यमंत्री वसुंधरा के खिलाफ दीन दयाल उपाध्याय ट्रस्ट में जमीन हड़पने की खबर हो या तिरंगा मुद्दा खड़ा कर आईपीएल चेयरमैन ललित मोदी के खिलाफ गैरजमानती वारंट जारी करवाने का मसला। आप की सीख पर चल 26 साल पुराने यूनीवर्सिटी के दोस्त राजेश्वर सिंह को नहीं छोड़ा, जो उस वक्त जयपुर के कलेक्टर थे। क्योंकि खबर रिपोर्टर लाया था। हर मुकाम पर जन को आगे रख सत्ता को ठोका। पर क्या हुआ, सत्ता और सत्ता में समझौता हुआ और अपन एक गैर दुनियादार संपादक करार दे बाहर कर दिए गए। यह दीगर है, इसमें मालिकों की कम बीच के लोगों की भूमिका ज्यादा रही। ऐसे लोगों की जो आपके सिपाहियों से सीधे टकराने की बजाय खाने में जहर मिलाकर मारने में यकीन रखते हैं। जहर मिलाने की यह कला आपने हमें क्यों नहीं सिखाई?
प्रभाषजी एक पूरी नस्ल खराब कर दी आपने, फिर भी आपसा कोई नहीं। आप शतायु हों। आपसे मिलूं भले नहीं पर एकलव्य की तरह आपकी द्रोण प्रतिमा ही मेरे लिए प्रेरणा है।
हां, एक बात और। आपकी दी एक और चीज मेरे पास है। शादी के बाद जब मैं और सौम्या आपसे मिलने गए थे तो आपने बतौर आशीर्वाद पांच सौ रुपए का नोट सौम्या के हाथों में थमाया था। आग्रह पर आपने लिखा था, पैसा हाथ का मैल है जो मिलाने से मिलता है, 15 जुलाई 1996, प्रभाष जोशी। इस नसीहत पर बढ़ा जा रहा हूं। हाथ मिलाए जा रहा हूं, पर पैसा है कि जमीन पर झरा जा रहा है। हाथ नहीं आ रहा है। यह भी आपकी ही सीख है ना?
सुमंत भट्टाचार्या
सहायक संपादक
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