परंपरागत मीडिया हाउस और इसमें काम करने वाले ज्यादातर लोग जिस तरह दिन-ब-दिन खाऊ-कमाऊ और रेवेन्यू बनाऊ होते जा रहे हैं, उसी के ठीक उलट हिंदी ब्लागिंग और ब्लागर दिन ब दिन ज्यादा मुखर और सच के संवाहक बनते जा रहे हैं। बड़े-बड़े मीडिया हाउसों की पोल खोलने में हिंदी ब्लागर देर नहीं करते। तभी तो ये ब्लागर उन कड़वे सचों को भी अपने ब्लाग पर कह-लिख दे रहे हैं, जिसे आमतौर पर कोई मीडियाकर्मी कहने से डरता है। एक ब्लागर ने जहां अमर उजाला की साइट के खतरनाक होने के बारे में सवाल पूछा है तो उसे जवाब ब्लाग के पाठकों ने कमेंट करके दे दिया। दूसरे ब्लाग पर दैनिक जागरण की जमकर ऐसी-तैसी की गई है, कलेक्ट्रेट हलचल स्तंभ में अफसरों को जी भर तेल लगाने के कारण। तीसरे ब्लागर ने मंदी और मीडिया पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। आइए तीनों को पढ़ें-
क्या अमर उजाला की साइट खतरनाक है?
पिछले कई दिनों से मैं अमर उजाला की साईट को खोलने की कोशिश कर रहा हूँ, पर वह कोशिश करने पर attack site बताई जा रही है। मैं नहीं समझ पा रहा हूँ, की यह किस कारण है? आख़िर ठहरा निपट प्राइमरी का मास्टर ही तो!
(जवाब जानने के लिए क्लिक करें….प्राइमरी का मास्टर)
जागरण जैसा समाचार पत्र और चाटुकारिता का ऐसा नमूना, मुझे आज इस बात पर शर्म आ गई कि मैं भी पत्रकार ही हूं
कहते हैं कि मिथक कभी न कभी टूट ही जाते हैं। जैसे मेरा बनाया हुआ एक मिथक था कि मैं समाचार पत्रों में दैनिक जागरण को थोड़ा सा अलग तरह का समाचार पत्र मानता था। सहीं बताऊं तो भले ही लोग कहते हैं कि उनका दिन दैनिक भास्कर के बिना प्रारंभ नहीं होता लेकिन मैं अपनी कहूं तो मुझे रोज दो पेपर तो आवश्यक हैं ही एक तो नई दुनिया और दूसरा दैनिक जागरण। मगर अब लगता है कि दैनिक जागरण भी औरों की ही राह पर चल पड़ा है। आज मेरे यहां के पृष्ठ पर एक स्तंभ लगा है जिसका नाम है ”कलेक्टोरेट हलचल ” उसको पढ़ने के बाद एकबारगी तो ऐसा लगा कि अपने सर के सारे बाल नोंच कर सड़क पर कूद कूद कर कहूं कि मैं पत्रकार नहीं हूं कोई भी मुझे इस नाम से बुला कर गाली मत देना। स्तंभ हमने काफी पढ़े हैं और जिस स्तंभ के नाम से ये छापा गया है कलेक्ट्रेट हलचल वो भी हमने काफी पढ़े हैं मगर ऐसा … ये तो कभी नहीं पढ़ा। प्रशासनिक हलचल के नाम पर पहले जो कुछ छापा जाता था उसको पढ़कर आनंद आ जाता था। अंदर की ऐसी ऐसी खबरें निकाली जातीं थीं कि बस। मगर आज ये क्या हो रहा है। किस प्रकार की पत्रकारिता की जा रही है ये।
(कलेक्ट्रेट हलचल कालम पढ़ने के लिए क्लिक करें…कुछ खबरें और कुछ बातें)
मंदी बनाम मीडिया
मीडिया में इन दिनों मंदी का माहौल चल रहा है। इसमें नया कुछ भी नहीं है। लेकिन कई ऐसी मीडिया कंपनी भी हैं जो इन मंदी का भरपूर मजा उठा रही हैं। मंदी के बहाने जहां इन्हें लागत कम करने का बहाना मिल गया, वहीं सीमा से अधिक कर्मचारियों को भगाने का मौका भी मिल गया है। सबसे अधिक वे कंपनियां अपने आप को प्रभावित बता रही हैं जिनकी पूंजी अन्य कारोबार में फैली हुई है। मुंबई से लेकर दिल्ली तक, हर तरफ मंदी का डर फैलाकर उन्हें ही डराया जा रहा है जो समाज के लिए लड़ने की बात करते हैं। जी हां मैं पत्रकारों की बात कर रहा हूं। इनदिनों अधिकांश पत्रकार अपनी नौकरी को बचाने के लिए जी जान से जुटा पड़ा है। सबसे अधिक परेशान वे पत्रकार हैं जो अधिक वेतन पर अब तक मजे ले रहे थे। स्थिति बुरी है। गुस्सा पत्नी और बच्चों पर निकरल रहा है। जनाब पेजमेकर से लेकर संपादक तक की सांसे थमी हुई है। हालांकि कमी ही लोग हैं जो खुलकर कुछ भी बोल रहे हों। अधिकांश की स्थिति ऐसी है जो सड़क पर दूसरों के हकों की बात कर रहे हैं लेकिन दफ्तर के अंदर दुम दबाकर बैठे हुए हैं। इस मंदी के दौर में एक बात तो साफ हो गई है कि मीडिया खासतौर पर मीडिया से जुड़ी कंपनियां किसी की नहीं होती हैं।
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