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‘सेठ के लौंडे की ना सुनी तो खैर नाईं’

[caption id="attachment_15184" align="alignleft"]पंकज शुक्लपंकज शुक्ल[/caption]पंकज शुक्ल उन्नाव के गांव से निकलकर दिल्ली-मुंबई सब हो आए। अखबार से लेकर टीवी-फिल्म सब सीख-साख आए। इस ज्ञान को औरों के साथ भी बांट-बढ़ा आए। लेकिन कुछ है जो सीख नहीं पाए। खुद के शब्दों में- ”दिक्कत ये है ससुरी कि हमने अच्छी अच्छी चीज़ें लगता है कुछ ज्यादा ही पढ़ ली हैं।” पंकज ने हाल-फिलहाल दो धोखे, या यूं कहें, झटके झेले हैं। ये झटके अपनों ने दिए। भरोसा करने लायक ‘बेटालाल’ लोगों ने दिए। एक धोखा मुंबई के फिल्मी ‘बेटालाल’ ने दिया है तो दूसरा रायपुर में टीवी वाले ‘बेटालाल’ ने। पंकज ठहरे कर्मठ और क्रिएटिव आदमी। झूठ का भार बहुत देर तक बर्दाश्त कहां होता। मन की पीड़ा को शब्दों के जरिए अपने ब्लाग पर उतारकर दिल हल्का कर लिया। पर उन लाखों-करोड़ों गांव वाले युवाओं का क्या होगा जो हर रोज दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में छले जाते हैं! ये बेचारे तो अपनी बात भी कहीं कह नहीं पाते। ये तो टूटे हुए सपनों और रोती हुई आत्मा के साथ जिंदगी की जंग को  ‘बेटालालों’ के चंगुल तले अनाम सिपाही की तरह लड़ते रहते हैं।

पंकज शुक्ल

पंकज शुक्लपंकज शुक्ल उन्नाव के गांव से निकलकर दिल्ली-मुंबई सब हो आए। अखबार से लेकर टीवी-फिल्म सब सीख-साख आए। इस ज्ञान को औरों के साथ भी बांट-बढ़ा आए। लेकिन कुछ है जो सीख नहीं पाए। खुद के शब्दों में- ”दिक्कत ये है ससुरी कि हमने अच्छी अच्छी चीज़ें लगता है कुछ ज्यादा ही पढ़ ली हैं।” पंकज ने हाल-फिलहाल दो धोखे, या यूं कहें, झटके झेले हैं। ये झटके अपनों ने दिए। भरोसा करने लायक ‘बेटालाल’ लोगों ने दिए। एक धोखा मुंबई के फिल्मी ‘बेटालाल’ ने दिया है तो दूसरा रायपुर में टीवी वाले ‘बेटालाल’ ने। पंकज ठहरे कर्मठ और क्रिएटिव आदमी। झूठ का भार बहुत देर तक बर्दाश्त कहां होता। मन की पीड़ा को शब्दों के जरिए अपने ब्लाग पर उतारकर दिल हल्का कर लिया। पर उन लाखों-करोड़ों गांव वाले युवाओं का क्या होगा जो हर रोज दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में छले जाते हैं! ये बेचारे तो अपनी बात भी कहीं कह नहीं पाते। ये तो टूटे हुए सपनों और रोती हुई आत्मा के साथ जिंदगी की जंग को  ‘बेटालालों’ के चंगुल तले अनाम सिपाही की तरह लड़ते रहते हैं।

पंकज ने अपने ब्लाग पर जो कुछ लिखा है, वह न सिर्फ साहस का प्रतीक है कि आदमी दुनियादार होने के बावजूद सच कहने की हिम्मत रखता है, बल्कि सच कहने वालों का दौर जल्द आएगा, ऐसा भरोसा भी दिलाता है। दरअसल दिक्कतें चुप रहने से ही पैदा हुई हैं। बोलना, खूब बोलना और लगातार बोलना बहुत जरूरी है। आइए, पंकज के साहस को सलाम करें और उनके लिखे को उनके ब्लाग से साभार लेकर यहां पढ़ें…एडिटर, बी4एम


 ऐ जाने वफा ये जुल्म न कर…

blogतो भैया, अब ये भरम भी जाता रहा कि आदमी अपने काम से जाना जाता है। अब मिसल ये दी जाती है कि दुनिया में रहना है तो आराम करो प्यारे, हाथ जोड़ सबको सलाम करो प्यारे। और दिक्कत ये है ससुरी कि हमने अच्छी अच्छी चीज़ें लगता है कुछ ज्यादा ही पढ़ ली हैं। स्कूल में थे तो संस्कृत वाले पंडित जी ने पढ़ा दिया – अभिवादनशीलस्य नित्यम वृद्धोपिसेविन:, वर्ध्यन्ते तस्व चत्वारि आयुर्विद्या यशोबलम्। मतलब ये कि आयु, विद्या, यश और बल में जो तुमसे बड़ा हो, उसे सलाम करने में कभी ना हिचको। हमने बात गांठ बांध ली। और, ससुरी गड़बड़ हर बेर येईं होए जाय रही। मालिक होगा, तो कम से कम उम्र में तो बड़ा ही होगा। ठीक है उसको सलाम। बॉस होगा तो विद्या माने अक्ल में बड़ा हो ना हो, कम से कम दुनियादारी तो ज्यादा ही सीखी होगी, उसको भी सलाम। साथी भी कई बार ज्यादा मशहूर होगा, टीवी और फिल्म के धंधे में तो तमाम होते हैं, उनको भी सलाम। और, बल में तो भैया नुक्कड़ के नत्थू पहलवान बड़े हैं ही और गाड़ी के गेट से टर्न लेते ही उनको सलाम सुबह शाम हो ही जाता है।

अब इस पूरी पढ़ा लिखी में जे बात कतऊं ना आए रही कि भैया सलाम कुछ अउरो लोगन क करन पड़िहै। जिन लोगन के बाल बच्चा नौकरी चाकरी करै लायक होए गए होयं। वे बात ध्यान से सुनैं। नाव कागज की गहरा है पानी, दुनियादारी पड़ेगी निभानी। चाहे तो इस गाने से सीख ले लें, जो आसान भी है और चाहें तो तुलसीदास जी की जे चौपाई बाल गोपालन के कंप्यूटर पर चस्पा कर दें – प्रनवऊं प्रथम असज्जन चरना। ना जाने किस मुहूर्त में फिल्म बनाने निकल पड़े कि मुंबई पहुंचते ही रिसेसन आ गया। पहले हिमेश रेशमिया ने टी सीरीज़ का बंटाधार किया, फिर अपने खिलाड़ी कुमार ने लाइन से तीन तीन कंपनियों की लुटिया डुबो दी। पिरामिड सायमीरा का डिब्बा गोल हो गया, इरॉस ने भी फिल्म बनइबे से तौबा कर ली। आज फिल्म भोले शंकर होम वीडियो पर बाज़ार में पहुंची तो बेचारे अपने प्रोड्यूसर साहब फिर याद आ ही गए। लालच बुरी बला, लेकिन हमारे प्रोड्यूसर साहब फिल्म बनते ही ये भूल गए कि प्रोजेक्ट बनाते समय उनसे मुनाफे में तिहाई की भागेदारी तय हुई थी। आखिरी चेक पकड़ाने से पहले ही नया एग्रीमेंट बना लाए और लिखवा लिया कि बच्चे जैसे पाल पोसकर बनाई फिल्म के मुनाफे पर अब हमारा कोई हक़ नहीं। हम सोचे कि इंसान क्या इतना भी लालची होता है। तह तक गए तो पचा चला कि बेटा लाल की करतूत है। बेटा लाल के अलग शौक और अलग ढंग। साथी भी न्यारे न्यारे।

और, बेटा लाल चाहें मुंबई के हों या फिर रायपुर के, पैसा अगर मेहनत से कमाने की बजाय विरासत में मिल गया हो, तो शौक न्यारे न्यारे हो ही जाते हैं। खुदा ना खास्ता अगर हाथ में मीडिया की पगही आ जाए तो फिर बातै का। उनको बस यही लगता है कि जो भी उनकी बैलगाड़ी खींच रहा है वो बस बैल ही है। ना बेचारे का कोई धर्म होगा ना कर्म। बस वो पगही खींचे तो बाएं, वो पगही खींचे तो दाएं। अपने साथ दिक्कत ये कि ना तो कभी पीठ के बल गिरे कि टूटी रीढ़ के हो जाते और ना किसी ने सिखाया कि बेटा नौकरी के नौ काम, दसवां काम जी हुजूरी। तो सींग भी ना कटवाए। अब सेठ के जाते ही बेटा अगर उसकी कुर्सी पर बैठे और जानबूझकर नौ नौटंकियां बस इस बात की करे कि देखो चलती किसकी है. तो ऐसे सेठ की दुकान का तो बस भगवान ही भला करे। आठ महीने की दुकानदारी में अगर चार चार सेल्सेमैन बदल जाएं तो भैया खराबी सेल्समैनों में ना, कहीं ना कहीं दुकान में ही होगी। अब बताया जे जाय रहा कि सेठ भले कित्तउ खुस हो जाए, सेठ के लौंडे की ना सुनी तो खैर नाईं।

वैसे मीडिया की दुनिया के जे उसूल है कि किसी ना किसी मठ के आगे तो सिर झुकाना ही पड़ेगौ। जिनने ना झुकाए वो या तो खेत रहे या खेत जोत रहे। और हमने सुन लौ वो गानो – अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ भुला सकते नहीं, सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं। लेकिन, सेठ के लौंडन को यौ ठीक नाई लागत। उनसे ये बताओ कि दुकान में सेंधमारी हो रही है, तो वो बोले कि तुम्हूं थोड़ा सा हिस्सा लो, और चुप रहो। हमको मीडिया दुकान के मजे लूटने दो। अब या तो चोर बनो या फिर तमाशबीन। खतरा दोनों सूरत में है। और अगर दुकान कहीं किसी बड़े ब्रांड की फ्रैंचाइजी है तो खतरा और बड़ा है। कब किसके कंधे पर रखकर कौन गोली चला दे, पता नहीं और गोली मारने के बाद अपनी पीठ में मलहम भी लगाने को कहे तो बड़ी बात नहीं। सेठ कहेगा कि भैया हम तो एजेंसी की मार्फत लाए थे, अब एजेंसी तुम्हें दूसरी जगह भेजने को कह रही है जाओ। एजेंसी कहेगी कि हमारा तो बड़ी ब्रांड की कंपनी से नाता ही टूट गया, हमसे मत पूछो। कंपनी कहेगी कि हमारा और एजेंसी का कोई लेना देना ही नहीं, तो हमारी क्या जिम्मेदारी। फिर जब सबसे एक-एक कर पूछने लगोगे तो वो बता देंगे नाम सबसे बड़े अफसर का कि भई वो नाराज़ हैं तो हम क्या करें। सब इसी गुंताड़े में कि गेंद दूसरे के पालते में डालते जाओ और अपनी नाक बचाते जाओ।

सबको यही गुमान कि सबसे बड़ा अफसर तो किसी से बात ही नहीं करता तो इससे क्या करेगा। लेकिन, समय की बलिहारी है। इस खेल का खुलासा भी आज हो ही गया। बड़े अफसर को ये तक पता नहीं कि नीचे हो क्या रहा था और नीचे वालों ने उसी के नाम पर पूरा चक्रव्यूह बना डाला।

ज़रा सोचिए, सवाल आपका है। लेकिन, नहीं, अगर आप जी हुजूरी सीख चुके हैं, तो आपका नहीं भी हो सकता है।


पंकज के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए आप इस लिंक को क्लिक कर सकते हैं-  उस दिन मैं बाथरूम में जाकर खूब रोया
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