अरुण शौरी की ताजा किताब ‘वी मस्ट हैव नो प्राइस-एंड एवरीवन नो दैट वी हैव नो प्राइस’ का शनिवार को मुंबई के क्रासवर्ड, केंप्स कार्नर में विमोचन किया जाएगा। रूपा और एक्सप्रेस ग्रुप की ओर से प्रकाशित होने वाली शौरी की यह 25वीं किताब कई मायनों में उनकी पहले की किताबों से काफी अलग है। पहली बात तो यह है कि विषय विस्तार और आयाम की दृष्टि से इसका फलक पूर्व की किताबों से कहीं विस्तृत है। इस किताब में उनके निबंध उन कई मुद्दों की गहराई से पड़ताल करते हैं जो गुजरे हुए साल तक देश के राजनीतिक विमर्श के केंद्र में रहे हैं। अखबारी सुर्खियों और रिपोर्ताज जैसी महसूसियत से परे होने की वजह से भी इसे उनकी अन्य किताबों के बनिस्बत एक प्रस्थान बिंदु कहा जा सकता है।
किताब के कई खंड हैं। इनमें आतंरिक सुरक्षा, देश में सामरिक या रणनीतिक सोच (या इसका अभाव), हालिया बजट, अर्थव्यवस्था की कमान संभालने वाली ‘ड्रीम टीम,’ उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सुधार और जलवायु संकट पर अंतरराष्ट्रीय वार्ताओं में भारत की स्थिति का विश्लेषण जैसे हिस्से शामिल हैं। और आखिर में शौरी अपने वैचारिक घर यानी भारतीय जनता पार्टी के संकट पर भी चर्चा करते हैं। किताब में शामिल कई निबंध दरअसल पिछले कुछ सालों में विभिन्न मौकों पर उनके व्याख्यानों का संशोधित और परिमार्जित रूप हैं। इनमें यूनाइटेड सर्विस इंस्टीट्यूशन आफ इंडिया, एशियन डेवलपमेंट बैंक और आईआईटी, कानपुर जैसे विभिन्न संस्थानों और शहरों में दिए गए उनके व्याख्यान शामिल हैं। लेकिन बहुत से निबंध मूलत: उनके राज्यसभा में दिए गए भाषणों पर आधारित हैं। शौरी राज्यसभा के सदस्य हैं।
शौरी ने बताया कि कम से कम एक मामले में वे भाग्यशाली रहे हैं। उनके पास यह मौका था कि वे अपनी बातों को रख सकते थे। इसलिए लोगों ने सुना भी। लेकिन वे महसूस करते हैं कि कई सर्वोत्कृष्ट कोटि की संसदीय चर्चाओं की उपेक्षा कर दी गई जो अनुचित है। उन्होंने बताया कि संसद में दिए गए पीसी अलेक्जेंडर के कई उत्कृष्ट भाषणों को अपेक्षित तवज्जो नहीं मिली। इसे उतना ही पढ़ा गया जितना कि इसे पढ़ा जाना चाहिए था। जाहिरा तौर यह संसदीय सचिवालय की गलती है। लेकिन हम ऐसे समय में रह रहे हैं जब संसद में हंगामे होते है तो मीडिया की सुर्खियां बनते हैं लेकिन गहन अध्ययन पर आधारित सारगर्भित भाषणों का कहीं जिक्र नहीं होता। कई निबंध दूरदर्शी हैं जिनमें भविष्य की झलक मिलती है तो कुछेक में स्तब्ध करने वाली सामयिकता है।
उदाहरण के तौर पर एक निबंध में वे इस जरूरत पर बात करते हैं कि सैन्य नेतृत्व को किस तरह सतत और आग्रही होकर नागरिक नेतृत्व को रणनीतिक सलाह मुहैया करानी चाहिए। अपने तर्क के समर्थन में वे बताते हैं कि इस मामले में सेना की नाकामी के क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं और किस तरह इसके नतीजे में विएतनाम में अमेरिका की निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित हुई थी। लेकिन मौजूदा सैन्य प्रमुख के हालिया समय में कुछ बयानों पर हुई नकारात्मक प्रतिक्रिया के बाद सवाल यह उठता है कि ‘आग्रही नेतृत्व’ का विचार कितना व्यावहारिक है। शौरी कहते हैं कि अहम चीज यह है कि नेशनल डिफेंस कालेज जैसे संस्थानों का इस्तेमाल असैन्य व नागरिक क्षेत्र के नेताओं को सैन्य, आर्थिक, कूटनीतिक जरूरतों के बारे में बुनियादी जानकारी देकर साझा समझ व समालोचना विकसित करने में की जाए। लेकिन साथ ही वे यह भी जोड़ते हैं कि नेशनल डिफेंस कालेज में महज साल भर का एक कोर्स एक रणनीतिक संस्कृति या परंपरा विकसित करने का विकल्प नहीं हो सकता।
शौरी की किताबों ने उनकी छवि प्रखर विचारक और निष्णात तथ्यान्वेषों के तौर पर गढ़ी है। लेकिन खुद शौरी का सवाल है कि क्या इस देश में सार्वजनिक बुद्धिजीवी या विचारक के तौर पर आजीविका चलाना संभव है? क्या यह पहले आसान था, या आज के दस साल पहले के मुकाबले और मुश्किल हो गया है। उदारीकरण से क्या कोई ठोस फर्क पड़ा है? शौरी ने देश में विमर्श के तौर तरीकों में आए दो तरह के बदलावों को चिन्हित किया है। पहला तो यह है कि अपनी बात कहने के लिए अब पहले के मुकाबले कई अवसर और माध्यम हैं। कोई अखबार अगर बात को छापने का अनिच्छुक है तो आप इसे कहीं और रख सकते हैं। लोगों तक आपकी बात पहुंच जाएगी।
दूसरी तरफ, वे मानते है कि सार्वजनिक बौद्धिक के तौर पर आजीविका चलाना अब भी कोई आसान बात नहीं है। साफ बात यह है कि अब भी आपके पास पर्याप्त मौके नहीं हैं। शोध के लिए शौरी अब भी संसद के तौर पर मिलने वाले वेतन भत्तों और सलाहकार के रूप में मिलने वाली फीस पर निर्भर हैं। शौरी खुद मानते है कि वे कई मामलों में भाग्यशाली रहे हैं। मीडिया में अपने लंबे करिअर और खासतौर से लंबे समय तक ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के मुख्य संपादक रहने की वजह से उनके नाम की एक मुकम्मल पहचान सुनिश्चित हो गई थी। साथ ही इस अखबार से उनके लगातार जुड़ाव और इसमें लेखन की वजह से उनका नाम सार्वजनिक चेतना में बराबर मौजूद रहा। लेकिन बकौल शौरी, और भी आवाजों को सुनने की जरूरत है।
वजह यह है कि भारत में अगर नीतिगत बहसों की गुणवत्ता सुधारनी है तो शोध और सजग तथ्यान्वेषण को आकर्षण बनाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। शोध संस्थानों और ‘थिंक टैंक’ के लिए पैसे की कमी नहीं होने देनी चाहिए ताकि वे नीतियों और विचारों को गहराई से परिलक्षित कर सकें। शौरी की शैली का अनुसरण करते हुए अगर और भी बहुत से लोग गंभीर शोध के लिए आगे नहीं आए तो सार्वजनिक बहसें जल्द ही छिछली और कानफोडू आवाजों में तब्दील हो जाएंगी। साभार : जनसत्ता