‘आतंकवाद और भारतीय मीडिया’ नामक किताब बाजार में : आतंकवाद पूरी दुनिया में अब संगठित रूप ले चुका है। इसने अपनी कामयाबी के लिए सूचना क्रांति का भी खतरनाक तरीके से भरपूर फायदा उठाया है। नवंबर 2008 में मुंबई के आतंकी हमले की बर्बरता को पूरी दुनिया ने किस तरह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जरिये खुली आंखों से देखा था, यह सच किसी से छिपा नहीं है। उन दिनों मीडिया के इस मनमानेपन को लेकर सत्ता के गलियारों से देश भर के आम बुद्धिजीवियों तक काफी तीखी प्रतिक्रियाएं सुनने में आई थीं। तब कई बार माना गया था कि उस आतंकी हमले का लाइव प्रसारण नितांत गैर-जिम्मेदराना था। ऐसा नहीं होना चाहिए था। तभी से यह जानना भी जरूरी लगने लगा था कि आतंकवाद की घटना से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संबंधित संस्थाओं, विषयों यानी भारतीय राज्य, समाज, कानून, पुलिस, खुफिया तंत्र, अंतररा्ष्ट्रीय सहयोग, मानवाधिकार आदि पर मीडिया का दृष्टिकोण क्या होना चाहिए? मुंबई के 26/11 के बाद बाटला हाउस मुठभेड़ और अंतुले प्रकरण भी कुछ इसी तरह की सुर्खियों में रहे थे। तब भी मीडिया के उचित-अनुचित को लेकर देश भर में उंगलियां उठी थीं। इन्हीं संदर्भों को रेखांकित करती हुई आतंकवाद पर हिंदी, अंग्रेजी तथा उर्दू समाचार पत्रों के दृष्टिकोणों की गहरी छानबीन करने वाली एक नई किताब आई है ‘आतंकवाद और भारतीय मीडिया’। इसके लेखक हैं प्रो. राकेश सिन्हा।
पुस्तक के प्रारंभ में ही प्रो.सिन्हा कहते हैं कि ‘आतंकवाद एवं मीडिया के बीच संबंधों पर पूरे विश्व में बहस चल रही है। अनेक प्रश्न उठाए जा रहे हैं। क्या आतंकवाद मीडिया का इस्तेमाल अपने आतंकी संदेशों को फैलाने के लिए कर रहा है? क्या मीडिया आतंकवादी घटनाओं, आतंकवादियों के साक्षात्कारों एवं उनके भेजे संदेशों का प्रसारण अपनी प्रसार संख्या या टीआरपी बढ़ाने के लिए कर रहा है? ‘ वह मानते हैं कि ये दोनों ही प्रश्न आधारहीन नहीं हैं। ऐसी घटनाओं के पाठक, दर्शक सिर्फ वे ही लोग नहीं होते, जो आतंकवाद प्रभावित क्षेत्र में होते हैं। जब मीडिया उन सूचनाओं का माध्यम बनता है, वे लोग भी उन हालात से अनभिज्ञ नहीं रह जाते, जिनका आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं रहता है। यही पर मीडिया माध्यम आतंकवाद के फायदे की बात बन जाता है। जब बिन लादेन मीडिया ठिकानों को ई-मेल, वीडियो टेप उपलब्ध कराता है, उसका एकमात्र मकसद होता है, अपने घोषित उद्देश्य के तहत समर्थकों का नया समूह जुटाना। मीडिया की आंतरिक व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विता के दौर में आतंकवाद की यह मंशा और आसानी से परवान चढ़ती नजर आने लगती है। इन्हीं स्थितियों को जानते-देखते हुए मीडिया को आतंकवाद का आक्सीजन कहा जाने लगा है। बात यहां तक पहुंच चुकी है कि आतंकवाद संबंधी खबरों को सेंसरशिप के दायरे में लाया जाना चाहिए, जबकि कुछ लोगों का कहना है कि मीडिया पर पाबंदी उचित नहीं। उसे स्वविवेक और स्वनियंत्रण के लिए आजाद रखना ही होगा।
सच है कि समय के साथ आतंकवाद के प्रति भारतीय मीडिया के दृष्टिकोण में बदलाव आया है, लेकिन दूसरी सच्चाई यह भी है कि भारत की आतंकी स्थिति योरप से भिन्न है। इसको भारतीय मीडिया विशेष परिस्थिति एवं विशेष कारणों की उपज मानता है। विदेशी मीडिया का इस पूरे मामले पर भिन्न नजरिया सामने आता है, लेकिन वहां भी आतंकवाद पर अखबारों की कोई निर्धारित नीति नहीं है। ऐसे दोराहे पर यह पुस्तक ‘आतंकवाद और भारतीय मीडिया’ हमें बताती है कि लोकतंत्र की सलामती के लिए राज्य का मीडिया के प्रति क्या रुख होना चाहिए और मीडिया का आतंकवाद, राज्य व जनता के प्रति क्या जिम्मेदारी बनती है। डेढ़ सौ से ज्यादा पृष्ठों वाली इस पुस्तक की कीमत अस्सी रुपये है। मीडिया से जुड़े वर्ग के लिए यह बेहद तथ्यपरक, उपयोगी और पठनीय है। पुस्तक मिलने का पता- भारत नीति प्रतिष्ठान, डी-51, पहली मंजिल, हौज खास, नई दिल्ली-16