Connect with us

Hi, what are you looking for?

कहिन

क्राइम रिपोर्टर की डायरी (4)

Brij Duggal‘ये चंबल है दिल्ली के बाबू!’

रज चढ़ आया था. तेज धूप जब हमारी आखों से अठखेलियां करने लगी तो हमें जगना ही पड़ा. थकान काफी हद तक दूर हो चुकी थी. निर्भय अभी भी सो रहा था. दो गंजे लड़के, उन्हें पकड़ कहना ज्यादा ठीक होगा, उस पर हवा कर रहे थे. रात के स्याह अंधेरे में जो चीजें छुपी हुई थीं अब वो साफ साफ दिखाई दे रही थीं. हम एक ऐसी जगह पर थे जहां चारों तरफ मिट्टी के उंचे-उंचे टीले थे. ऐसी जगह जिसे पाताल कहना ज्यादा सही होगा.

<p align="center"><img src="http://www.bhadas4media.com/images/stories/news/bd.jpg" border="0" alt="Brij Duggal" title="Brij Duggal" hspace="6" width="181" height="138" align="right" /><font color="#ff0000">'ये चंबल है दिल्ली के बाबू!'</font></p><p align="justify">रज चढ़ आया था. तेज धूप जब हमारी आखों से अठखेलियां करने लगी तो हमें जगना ही पड़ा. थकान काफी हद तक दूर हो चुकी थी. निर्भय अभी भी सो रहा था. दो गंजे लड़के, उन्हें पकड़ कहना ज्यादा ठीक होगा, उस पर हवा कर रहे थे. रात के स्याह अंधेरे में जो चीजें छुपी हुई थीं अब वो साफ साफ दिखाई दे रही थीं. हम एक ऐसी जगह पर थे जहां चारों तरफ मिट्टी के उंचे-उंचे टीले थे. ऐसी जगह जिसे पाताल कहना ज्यादा सही होगा. </p>

Brij Duggal‘ये चंबल है दिल्ली के बाबू!’

रज चढ़ आया था. तेज धूप जब हमारी आखों से अठखेलियां करने लगी तो हमें जगना ही पड़ा. थकान काफी हद तक दूर हो चुकी थी. निर्भय अभी भी सो रहा था. दो गंजे लड़के, उन्हें पकड़ कहना ज्यादा ठीक होगा, उस पर हवा कर रहे थे. रात के स्याह अंधेरे में जो चीजें छुपी हुई थीं अब वो साफ साफ दिखाई दे रही थीं. हम एक ऐसी जगह पर थे जहां चारों तरफ मिट्टी के उंचे-उंचे टीले थे. ऐसी जगह जिसे पाताल कहना ज्यादा सही होगा.

अगर उपर से कोई इस जगह को देखे तो उसे एहसास भी नहीं होगा कि ऐसी किसी जगह से चंबल का बेताज बादशाह अपनी हुकूमत चलाता होगा. अभी हम लेटे लेटे सोच ही रहे थे कि कानों में एक आवाज पड़ी…’चलो जंगल हो आएं’.

आवाज लाठी की थी जो हमारे सामने खड़ा था. एकदम तरोताजा । जंगल शब्द का मतलब नित्यक्रिया है. बिना कुछ कहे हम उठे और चल दिये लाठी के साथ. चेहरे पर इतनी घनी मूंछे कि ये पता लगाना मुश्किल की इसे चेहरा कहें या मूछों का जंगल. आगे-आगे लाठी चल रहा है और पीछे पीछे हम. वैसे यहां जंगल होना सचमुच जंगल ही है. पेड़ की आड़ में जहां चाहे बैठ जाइए. नित्यक्रिया से फारिग होकर एक बार फिर हम थे लाठी के साथ वापस अड्डे की तरफ. वैसे लाठी और निर्भय में एक फर्क साफ तौर पर देखा जा सकता था.  निर्भय के मुकाबले लाठी का स्वभाव बेहद शांत और गंभीर है. आगे बढते वक्त हम साफ तौर पर देख सकते थे कहीं-कहीं झा़डियों में तो कहीं पेडों पर डाकू बैठे हुए थे. हाथों में बंदूक होने के बावजूद उनके छिपकर बैठने का अंदाज कुछ ऐसा है कि जब तक पहरा दे रहे डाकू खुद न चाहें, सामने वाले को दिखाई नहीं देंगे.

‘अगर किसी ने इन्हें देख लिया तो ‘ आगे चल रहे लाठी से हमने पूछा ।

‘अगर आसपास रहने वाले लोगों ने देखा तो कोई बात नहीं, अगर पुलिस ने देख लिया तो पहले तो बचने की कोशिश करेंगे. कोशिश करेंगे कि पुलिस से मुठभेड़ न हो. लेकिन अगर पुलिस गोली बर्बाद करने पर तुली हो तो फिर होने दो आमने सामने की’- चेहरे पर कोई भाव लाए बगैर लाठी ने बड़ी ही सामान्य तरीके से कहा।

‘अच्छा, लेकिन अगर पुलिस की गोली आपमें से किसी को लग गई. आपके पास तो कोई डॉक्टर भी नहीं है. अगर किसी को गोली लग गई तो कैसे करवाओगे आप घायल का इलाज.’- हमारी तरफ से सवालों का सिलसिला शुरु हो गया।

‘तो हमारी गोलियां कोई रबड़ की थोड़े ही बनी हैं. अगर वो एक मारेंगे तो हम दस मारेंगे. एक बात समझ लो. खाकी वर्दी में इतना दम ही नहीं होता कि वो हमारे सामने आकर गोलियां चलाए. हमें देखते ही फट जाती है उनकी. पैंट में हग देते हैं साले. वो क्या हमारा मुकाबला करेंगे’- लाठी ने कहा।

‘फिर भी अगर कभी एनकाउंटर हो गया और कोई घायल हो गया तो कहां से लाएंगे आप डॉक्टर’- हमने फिर सवाल दागा।

‘अंटी में नोट और हाथ में बंदूक हो तो भला कौन चीज नामुमकिन है। चंबल में रहने वाले किस डॉक्टर की मजाल है कि इलाज नहीं करेगा। मालिक का नाम सुनते ही सबको सर्दी में पसीना आ जाता है और आप कहते डॉक्टर ….अरे आप कहो हम दिल्ली भिजवा दें डॉक्टर’

Advertisement. Scroll to continue reading.

‘नहीं नहीं…हमें जरुरत नहीं, वैसे यहां खतरा तो रहता ही है न’- लाठी की बात खत्म होते ही हमने कहा।

‘अब खतरे का क्या है …खतरा तो शहर में कम है क्या …कोई राह चलते गोली मार दे …कहीं एक्सीडेंट हो जाए तो ….हमें तो एक बात पता है …जिस दिन मौत आनी है उस दिन उसे कोई नहीं रोक सकता ….और जब तक लिखी नहीं है ,कोई मादरचोद हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता ‘…किसी दार्शनिक की भांति जब लाठी ने ये कहा तो एकबारगी हमें यकीन ही नहीं हुआ कि साल के 365 दिन, 24 घंटे चंबल में रहने वाला कोई डाकू ऐसी दार्शनिक बातें भी कर सकता है.

बातचीत आगे बढी और हमने लाठी से पूछा कि क्या वो हमें गिरोह दिखा सकता है …गिरोह के बारे में बता सकता है…

बृज दुग्गल (बाएं) और निर्भय (दाएं)बिना किसी लाग लपेट के लाठी ने कहा- ‘इसमें दिखाना क्या है ….देख लो तुम्हारे सामने हैं….ये जितने भी लोग तुम झाड़ियों के पीछे या पेड़ों के उपर बैठे देख रहे हो, ये सब पहरेदार हैं …इन सबका काम है पहरा देना …अगर कभी ये किसी संदिग्ध आदमी या पुलिस को देखते हैं तो तुरंत मालिक को खबर करते हैं …इनके पास कई किलोमीटर दूर तक देखने वाली दूरबीनें हैं …हम कोशिश करते हैं कि पुलिस के हमारे अड्डे तक पहुंचने से पहले ही हम अड्डा छोड़कर निकल जाएं। अगर ऐसा नहीं हो पाता तो फिर पहले मोर्चा ये संभालते हैं …जब पुलिस करीब एक किलोमीटर रह जाती है तो चिल्लाकर उसे चेतावनी दी जाती है ….अक्सर तो पुलिस हमें देखकर रास्ता बदल देती है मगर कई बार कोई अक्खड़ पुलिसवाला, खाकी वर्दी के रौब में आगे बढ़ने लगता है …तब हम सीधा फायर खोल देते हैं …सबसे आगे की लाइन वाले ये पहरेदार छिपने की जगह ढूंढकर मोर्चा संभाल लेते हैं …हम लोग उपर की तरफ होते हैं। पुलिस को नीचे से उपर की तरफ चढ़ना पड़ता है तो उसकी हिम्मत पास आने की तो होती नहीं,  हां  वो गोलीबारी जरुर करती रहती है …दोनों तरफ से फायरिंग होती रहती है …हमारे ये लोग फायर करते रहते हैं और पूरा गैंग घने जंगलों में गुम हो जाता है ….उसके बाद जैसे-जैसे जिसे मौका मिलता है वो भी जंगलों में गुम होकर एक निश्चित स्थान पर गिरोह के साथ मिल जाता है…जब तक पुलिस यहां पहुंचती है उसके हाथ सिवाय हमारे सामान के कुछ नहीं लगता’।

‘तो क्या उसके बाद वो आपको जंगल में नहीं ढूंढती ‘ …हमने सवाल किया।

‘अरे जिसकी हिम्मत हमारे पास आने की नहीं होती वो भला जंगल में हमारा पीछा क्या करेगा …वैसे भी जंगल में हमारी इतनी अड्डे हैं ….उन्हें कभी पता ही नहीं चलता हम कहां ठहरे हुए हैं …और अगर फिर भी कोई सिरफिरी पुलिस पार्टी वहां तक पहुंच गई तो हम तो हमेशा तैयार रहते हैं …चंबल के बादशाह हैं हम ….यहां के चप्पे-चप्पे से वाकिफ हैं …पुलिस जानती है कि वो चंबल में हमारा मुकाबला नहीं कर सकती इसलिए अगर कभी मुठभेड़ हो भी जाए तो जंगल में घुसने से पहले वो सौ बार सोचती है’.

लाठी की एक-एक बात, चंबल के उन रहस्यों पर से पर्दा उठा रही थी जिनके बारे में बाहरी दुनिया तो छोड़िए, शायद यहां के आम आदमी को भी नहीं पता।

‘और जानते हो, पुलिस की ड्यूटी तो आठ घंटे की होती है न …हमारा कोई भी आदमी दो घंटे से ज्यादा पहरा नहीं देता …हर दो घंटे बाद हम पहरा बदल देते हैं’ ….लाठी ने अपनी बात पूरी की।

सिर्फ दो घंटे का पहरा ताकि पहरे पर बैठा डाकू हमेशा चौकन्ना रहे ….कभी भी थके नहीं।

धीरे धीरे हमने पूरे गैंग का चक्कर लगा लिया …सब कुछ थोडी सी दूरी में ही सिमटा हुआ है। काफी बातें हो चुकी थी ..अचानक हमारी नजर पहरा दे रहे कुछ ऐसे डाकुओं पर पड़ी जिन्होंने मुंह पर नकाब बांधा हुआ था मानों चेहरा छिपाने की कोशिश कर रहे हों।

Advertisement. Scroll to continue reading.

‘पहरे पर बैठे दूसरे दस्युओं की तरह ये अपना चेहरा क्यों नहीं दिखा रहे ‘..उत्सुकतावश हमने पूछा।

‘ये आसपास के गावों के हैं …ये वो लोग हैं जो हमारे परमानेंट मेंबर नहीं है …इसलिए इन्होंने चेहरा छिपाया हुआ है’…लाठी का जवाब आया।

‘मतलब ये नहीं चाहते कि कोई इनका चेहरा देखे ताकि भविष्य में इन्हें कोई परेशानी न हो’- हमने पूछा ।

जवाब आया …’हां’

गिरोह का मुआयना हो चुका था …अब हम नीचे उसी तरफ बढ़ रहे थे जहां हमने रात बिताई थी …बेहद रपटीली पगडंडियां जो सिर्फ तभी तक हैं जब तक ये गिरोह यहां ठहरा हुआ है …जैसे ही ये यहां से जाएगा, जंगली झाडियां इन पगडंडियों का अस्तित्व खत्म कर देंगी।

‘लाठी …आपकी शादी हुई है क्या’…बात बदलने के मकसद से हमने पूछा।

‘दो बच्चें हैं……गांव में रहते हैं …लड़का पढ़ता है और लड़की घरबार में मां का हाथ बंटाती है’

‘कभी उनसे मिलने का मन नहीं करता’- लाठी की बात खत्म होते ही हमने पूछा।

‘क्या कर सकते हैं …इनामी हो गए हैं हम …अगर कभी गांव जाएंगे तो या तो पुलिस मार देगी और अगर पुलिस के हाथ से बच गए तो पूरे परिवार को पुलिस परेशान करेगी …इससे तो जंगल में ही अच्छा है …कम से कम ये सुकून तो है कि बच्चे सही सलामत हैं, याद तो आती है लेकिन…….. ‘

Advertisement. Scroll to continue reading.

मैनें महसूस किया कि अब तक बेहद सख्तदिल दिखने की कोशिश कर रहा लाठी इतना कहने के साथ ही अपनी आखों में आए आंसू पोंछ रहा था ….. शायद इस वक्त मेरे सामने पलक झपते ही लोगों का कत्ल कर देने वाला खूंखार डाकू नहीं, एक बाप खड़ा था … एक बाप जिसके सीने में धड़कने वाला दिल, बच्चों की याद आते ही गमजदा हो जाता है …. लेकिन इससे पहले कि मैं लाठी से कुछ और पूछूं हम नीचे पहुंच चुके थे…

सामने बिस्तर पर बैठा निर्भय शायद हमारा ही इंतजार कर रहा था …हाथ में बीडी और सिरहाने रखी…AK 47.

‘आओ…बड़ी जल्दी उठ गए, हमारी मेहमाननवाजी पसंद नहीं आई क्या’….चुहल लेने के अंदाज में निर्भय ने कहा…

‘हम तो अपने वक्त पर ही जगे …आप देर तक सोते रहे ‘…हमने भी उसी गर्मजोशी से जवाब दिया.

रात के और अब के निर्भय में जमीन आसमान का फर्क था। अब सबकुछ साफ साफ दिखाई दे रहा था…निर्भय से इधर उधर की बातें करते करते हमारी नजरों ने इस जगह का नजारा लेना शुरू किया। जिस जगह हम बैठे थे वहां से हर चीज बिल्कुल साफ दिखाई देती है। सिर्फ दो जगह ही प्लास्टिक के तंबू लगे हैं …एक वो जिस पर हम बैठे हैं और दूसरा वहां से करीब 10 मीटर दूर जहां एक लड़का और दो लड़कियां आपसे में अठखेलियां कर रहे हैं।

एक तरफ करीब 15 गंजे लोग जंजीरों में जकड़े पडे थे तो पास ही 5 गंजे (पकड़) हमारे लिए नाश्ता बनाने में लगे थे …. माहौल में थोड़ी सी उमस थी …..पसीना थमने का नाम नहीं ले रहा था …हम हाथ से पसीने को पोंछने की नाकाम कोशिश कर रहे थे लेकिन उमस इतनी ज्यादा थी कि पसीना रुकने का नाम नहीं ले रहा था…इस बीच हमारी नजर लाठी पर पड़ी.

लाठी के पास कुछ शहरी लोग बैठे हुए थे …उनके कपड़े देखकर कोई भी आसानी से अंदाजा लगा सकता था कि वो इस इलाके के नहीं है। लाठी उनसे बात कर रहा था … हर चीज रहस्य से भरी थी …हर चीज महाभारत के उस चक्रव्यूह की तरह थी जिसमें अभिमन्यु घुस तो गया लेकिन उससे बाहर निकलने का रास्ता उसे नहीं मालूम। इस बीच हमारे लिए चाय और पकौडे आ गए …चाय देखते ही हमारी हैरानी की सीमा न रही .. हम चंबल के उस इलाके में थे जहां पानी तक मिलना मुश्किल होता है और वहां चाय?.. आखिर चाय के लिए दूध कहा से आया …जल्द ही इस बात का भी राज खुला…

दूर खड़ा लाठी हमारे कौतूहल को शायद भांप गया और हमारे पास आते हुए बोला…’डिब्बे के दूध की चाय है, शायद आपको पसंद न आए’

‘नहीं-नहीं बहुत बढिया चाय बनी है’…हमने कहा। वाकई चाय सचमुच स्वादिष्ट बनी थी।

Advertisement. Scroll to continue reading.

बातचीत के इस सिलसिले को निर्भय की रौबीली आवाज ने आगे बढ़ाया …’लाठी उन्हें भी बुला लो ….सुबह सुबह बोहनी हो जाए तो बकत अच्छा बीतता है’

वो चार लोग थे …शक्ल से किसी मारवाड़ी परिवार के लग रहे थे …आगे-आगे लाठी और पीछे पीछे वो चारों। पास आकर लाठी तो बैठ गया लेकिन वो हाथ जोड़कर खड़े रहे।

‘कब तक खड़े रहोगे, आओ बैठ जाओ ‘…बिना उनकी तरफ देखे निर्भय ने कहा। अब ये हुक्म था या आग्रह ये तो पता नहीं लेकिन अगले ही पल वो चारों, डरते-डरते मिट्टी पर ही बैठ गए।

‘माल लाए हो’….निर्भय ने कहा

जी…बेहद संक्षिप्त जवाब आया

‘कितना ‘

‘जी …जी…’

‘अरे बोलते क्यों नहीं…गूंगे हो क्या …अगर नहीं बोले तो गूंगा हम बना देंगे’

जी… जी, 11 लाख …चेहरे पर खौफ का भाव लिए उनके मुंह से निकला

Advertisement. Scroll to continue reading.

‘बाकी पैसे कौन, तुम्हारा बाप देगा’ तुम्हारे आदमी को तभी छोड़ेंगे जब बाकी का 101 रुपया भी अभी दोगे’…. ऐसा लग रहा था मानों निर्भय अभी पास रखी AK 47 उठाएगा और चारों को भून देगा ।

लेकिन किस्मत से ऐसा कुछ नहीं हुआ …अबकी बार बगैर कुछ कहे चारों ने चमड़े का एक बैग निर्भय की तरफ बढ़ा दिया।

निर्भय ने उस बैग की तरफ देखा तक नहीं…वो लाठी से बोला, ‘गिन लो। वैसे पूरे ही होंगे। चंबल में किस मादरचोद की मजाल है कि हमसे धोखा करे।…अरे राजशेखर ये भी हमारे मेहमान हैं, इनके लिए भी चाय मंगवाओ भाई’

निर्भय ने इतनी तेजी से बातों का रुख बदला कि किसी को कुछ समझ नहीं आया ….और शायद यही निर्भय की सबसे बड़ी ताकत भी थी …वो इतना अनप्रिडिक्टेबल था कि कब क्या कर बैठे , शायद वो खुद भी नहीं जानता था।

इस बीच उनके लिए भी चाय आ गई। इस बार उन्होंने निर्भय को कुछ कहने का मौका नहीं दिया और सुड सुड़ कर चाय पीने लगे। इस बीच चारों तरफ सन्नाटा छाया रहा। लाठी पैसे गिनता रहा …निर्भय चुपचाप बैठा बीड़ी के कश लगाता रहा।  हम भी चुपचाप बैठे माहौल को भांपने की कोशिश करते रहे।

‘मालिक पैसे पूरे हैं ‘…चारों तरफ फैली चुप्पी को लाठी की आवाज ने तोड़ा।

हा हा हा…एक जोरदार ठहाका गूंजा ….’कम पैसे देकर इन्हें मरना है क्या ‘…आवाज निर्भय की थी।

‘मालिक, हम यश से मिल सकते हैं क्या’ …उन चारों में से एक ने कहा।

‘लाठी मिलवा दो इन्हें, इनके जश से ‘…उसी ठहाके के बीच निर्भय की आवाज आई।

Advertisement. Scroll to continue reading.

रुपयों से भरा बैग लेकर लाठी वहां से चला गया …वो चारों भी उसके पीछे पीछे चल दिए।

‘अब उसे छोड़ देंगे आप ‘ ….हमने पूछा।

दुग्गल साहब, यहां लोगों का आना और जाना हमारी मर्जी से तय होता है। हम यश को छोडेंगे जरुर लेकिन तभी जब हम चाहेंगे।

‘मतलब’…अनायास ही हमारे मुंह से निकला

‘मतलब ये कि ये यहां से कब जाएंगे ये हम तय करेंगे। तीन चार दिन ये यहीं रहेंगे और जैसे ही हमें लगेगा रास्ता क्लियर है …हम इन्हें चंबल से बाहर निकाल देंगे। हम नहीं चाहते कि बाहर जाते वक्त कोई दूसरा गिरोह इन्हें पकड़ ले और चंबल में हमारा नाम खराब हो, लोग कहें कि निर्भय ने पैसा लेकर भी नहीं छोड़ा ‘

‘लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि यूं बेगुनाह लोगों की पकड़ कर उनसे फिरौती वसूलना पाप है। क्या आपको नहीं लगता कि ये गलत है ‘….बिना सही गलत की परवाह किये जो मन में आ रहा था हम पूछ रहे थे।

‘अब पाप-पुण्य का तो हमें पता नहीं, हमें तो सिर्फ इतना पता है कि ये हमारा कर्म है…जब इंसान धरती पर आता है तो वो अपनी किस्मत लिखवाकर आता है। भगवान जो हमसे करवा रहा है, हम कर रहे हैं। तुम तो दिल्ली में रहते हो, एक बात बताओ, जल्लाद भी तो लोगों को मारता है …उसे तो कोई गलत नहीं कहता। फिर हम कैसे गलत हुए ‘…निर्भय ने न सिर्फ हमारी बात का जवाब दिया बल्कि हमसे ही सवाल पूछ डाला।

‘लेकिन जल्लाद तो उसे ही फांसी पर चढ़ाता है जिसे कानून कहता है, जिसे अदालत फांसी की सजा सुनाती है’ …हमने कहा।

‘तो बस यूं समझ लो हमारी जुबान ,चंबल का कानून और उपरवाला यहां की अदालत है। हमें उपरवाले से जैसा आदेश मिलता है हम वैसा ही करते हैं ‘…जवाब उतनी ही तेजी से आया।

Advertisement. Scroll to continue reading.

‘सिर्फ गोलियों में ही नहीं, बोली में भी आपसे कोई नहीं जीत सकता’ …बातचीत का रुख पलटते हुए हमने कहा।

‘ये चंबल है दिल्ली के बाबू, जिस दिन हम गोली चलाना या बातचीत करना भूल गए, वो दिन हमारी जिंदगी का आखिरी दिन होगा… जैसे मछली होती है न मछली, जब तक वो पानी में रहेगी तब तक जिंदा रहेगी ..पानी से बाहर निकलते ही वो मर जाती है…चंबल की जिंदगी भी ऐसी ही है …जब तक दिमाग और ताकत साथ है …हुकूमत है। जिस दिन इन दोनों में से कोई एक चीज भी छूटती है न …जिंदगी की डोर भी टूट जाती है’

…..बातें करते करते निर्भय एकदम दार्शनिक हो गया।


लेखक बृज दुग्गल वर्तमान में आईबीएन7 न्यूज चैनल में डिप्टी एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर हैं। पत्रकारिता के 12 साल के सफर में दुग्गल ने समाज के कई अनछुए पहलुओं को करीब से देखने की कोशिश की। कुछ अलग, कुछ हटके करने का जुनून बृज को कभी पूर्वोत्तर के आतंकी कैंप में रिपोर्टिंग कराने ले गया तो कभी चंबल के बीहड़ में पहुंचाया। This e-mail address is being protected from spambots, you need JavaScript enabled to view it

बृज की डायरी के पहले का पार्ट पढ़ने के लिए (1), (2), (3) पर क्लिक कर सकते हैं। 

बृज से संपर्क [email protected] के जरिए कर सकते हैं। This e-mail address is being protected from spambots, you need JavaScript enabled to view it

Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

अपने मोबाइल पर भड़ास की खबरें पाएं. इसके लिए Telegram एप्प इंस्टाल कर यहां क्लिक करें : https://t.me/BhadasMedia

Advertisement

You May Also Like

Uncategorized

भड़ास4मीडिया डॉट कॉम तक अगर मीडिया जगत की कोई हलचल, सूचना, जानकारी पहुंचाना चाहते हैं तो आपका स्वागत है. इस पोर्टल के लिए भेजी...

Uncategorized

भड़ास4मीडिया का मकसद किसी भी मीडियाकर्मी या मीडिया संस्थान को नुकसान पहुंचाना कतई नहीं है। हम मीडिया के अंदर की गतिविधियों और हलचल-हालचाल को...

टीवी

विनोद कापड़ी-साक्षी जोशी की निजी तस्वीरें व निजी मेल इनकी मेल आईडी हैक करके पब्लिक डोमेन में डालने व प्रकाशित करने के प्रकरण में...

हलचल

[caption id="attachment_15260" align="alignleft"]बी4एम की मोबाइल सेवा की शुरुआत करते पत्रकार जरनैल सिंह.[/caption]मीडिया की खबरों का पर्याय बन चुका भड़ास4मीडिया (बी4एम) अब नए चरण में...

Advertisement