आपने उस दरबारी की कहानी ज़रूर सुनी होगी जो दरबार में आकर राजा के कान में हर दिन कुछ न कुछ फुसफुसा जाता था. उसका काम ही था राजा के कान में चुपचाप कुछ न कुछ बोल जाना. इससे संशय गहराता गया, दरबारी की औकात बढ़ती गयी, प्रजा उससे डरने लगी. वो “कनलगा” राजा का सबसे करीबी बन गया. वक़्त बदल गया. राजाओं का राज-पाट चला गया लेकिन ऐसे लोग कम नहीं हुए. राजाओं की जगह जहां मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और उनके सिपहसालारों ने ले ली. वहीँ कान में फुसफुसाने वालों की जगह किसी दरबारी ने नहीं बल्कि आज के पत्रकारों ने ले ली.
पत्रकार सलाहकार बन गए. पत्रकार मुख्यमंत्रियों के कान में फुसफुसाने लगे. पत्रकार सरेआम मंत्रियों के पैर छूने लगे. पत्रकार पत्रकारिता से वफादारी कम, नेताओं के गुलाम और चाटुकार ज़्यादा बन गए. बात यहां हरियाणा की कर रहा हूं, जहां मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा नए-नए मुख्यमंत्री बने हैं. दोबारा सत्ता में आने से उनका राजनीतिक कद तो बढा़ ही, साथ ही साथ वैसे लोगों की तादाद भी बढ़ने लगी है जो पत्रकार होते हुए ऐसा कोई मौका नहीं छोड़ते जब वो हुड्डा के करीब बैठने का कोई मौका हाथ से जाने दें. सवाल उठता है, ऐसे लोग क्यों जाने दें मुख्यमंत्री के करीब बैठने का मौका? जिनके लिए पत्रकारिता महज़ एक ज़रिया है, ज़िन्दगी में पत्रकारिता के अलावा बहुत कुछ और हासिल करने का.
एक घटना का ज़िक्र करना चाहूंगा कि जब विश्वास मत हासिल करने के बाद पत्रकारों का हुड्डा को बधाई देने का सिलसिला शुरू हुआ. विधानसभा के प्रेस रूम में सीएम के साथ कौन बैठे, इसकी ज़ंग शुरू हो गई. कुछ हिंदी और पंजाबी के पत्रकार मैदान में थे. एक-आध अंग्रेजी के पत्रकार भी शामिल थे, जो मुख्यमंत्री की कुर्सी के साथ बैठना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं.
लेकिन यह साफ़ हो गया कि तमाम दावेदारों में सरदार एन.एस. परवाना जी की दावेदारी सबसे पुख्ता थी. परवाना जी दिल्ली से प्रकाशित होने वाले अख़बार पंजाब केसरी के लिए काम करते हैं. वो सीएम के लिए लगाये गए सोफे पर विराज गए. जगह थोड़ी बाकी रह गयी. हुड्डा साहिब भी बैठ गए. कुछ पत्रकारों ने विरोध जताया, लेकिन वो अपनी जगह से टस से मस नहीं हुए. क्यों होते भला?
भला किसी मुख्यमंत्री को क्यों ऐतराज़ होगा कि कोई पत्रकार पास बैठे और हां में हां मिलाये. ऐसे दरबारियों की सत्ता में बैठे लोगों को हमेशा ही तलाश रहती है जो जनहित के लिए पूछे जाने वाले हरेक सवाल पर मसखरी करते हैं. अपने मजाकिया सवालों से नेता का और बाकी लोगों का मनोरंजन करते हैं.
शायद परवाना पहले और आखिरी पत्रकार नहीं जो सीएम के साथ फोटो में दिखना पसंद करते हैं. पटना में भी कुछ दिनों पहले एक ऐसा वाकया सामने आया, जहां एक पत्रकार का चेहरा अख़बार वालों ने इसलिए ब्लर कर दिया था क्योंकि वो हर मौके पर सीएम के फ्रेम में दिखना पसंद करते थे.
पंजाब बीट कवर कर रहे कई पत्रकार भी पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह से अपनी नजदीकियों की वजह से बदनाम रहे थे. कई पत्रकार तो अमरिंदर सिंह के मीडिया सलाहकार के पैर तक छूने में परहेज़ नहीं करते थे. क्या जनता कभी इन पत्रकारों से उम्मीद नहीं कर सकती कि वो सरकार की नीतियों की आलोचना भी करें? डर इस बात की है कि ऐसे लोगों की तादाद बढ़ रही है. नेताओं से पत्रकारों की नजदीकियों हमेशा बनी रही है लेकिन प्रेस कांफ्रेंस के दरम्यान एक दूरी बनाये रखने से पत्रकारिता की मर्यादा बनी रहेगी.