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मीडिया में अंधविश्वास बनाम आत्मविश्वास

डा. प्रवीण तिवारीपिछले दिनों पूर्ण सूर्य ग्रहण पर एक कार्यक्रम के दौरान जाने माने वैज्ञानिक और भौतिकशास्त्री डॉ. डीएस कुलश्रेष्ठ की एक बात ने मुझे ये लेख लिखने के लिए प्रेरित किया। वो बात थी अंधविश्वास आत्मविश्वास को मारता है और आत्मविश्वास अंधविश्वास को। सूर्य ग्रहण जैसी सुंदर और महत्वपूर्ण खगोलीय घटना से पहले कई चैनल और उन पर आने वाले बाबा प्रलय, आपदा और अनर्थ जैसे शब्दों का इतना इस्तेमाल कर चुके थे की मानों सच में दुनिया ख़त्म होने वाली हो। सचमुच अंधविश्वास आत्मविश्वास को मारता है ये बात बाबाओं के शो को मिल रही टीआरपी से साफ़ है। दर्शकों के मन में पहले डर बैठाया जाता है फिर इस डर से बचने के लिए बेहुदा तरीक़े सुझाए जाते हैं तो आत्मविश्वास और कमज़ोर होता है। क्योंकि फिर विश्वास बाबाजी के बताए नुस्ख़ों या उपायों पर ज़्यादा होता है, आज ये दिन है तिल चढ़ाओ, आज वो दिन है तेल चढ़ाओ, कुत्ते को मीठी रोटी खिलाओ, हरे कपड़े में ये बांधों जैसी इतनी बकवास बातें हैं जिनसे ये पूरा लेख भर सकता है। जब इन बेहूदा तरीक़ों पर भरोसा होने लगता है तो ख़ुद पर विश्वास कम होने लगता है यही डॉ कुलश्रेष्ठ का कहना था।

डा. प्रवीण तिवारी

डा. प्रवीण तिवारीपिछले दिनों पूर्ण सूर्य ग्रहण पर एक कार्यक्रम के दौरान जाने माने वैज्ञानिक और भौतिकशास्त्री डॉ. डीएस कुलश्रेष्ठ की एक बात ने मुझे ये लेख लिखने के लिए प्रेरित किया। वो बात थी अंधविश्वास आत्मविश्वास को मारता है और आत्मविश्वास अंधविश्वास को। सूर्य ग्रहण जैसी सुंदर और महत्वपूर्ण खगोलीय घटना से पहले कई चैनल और उन पर आने वाले बाबा प्रलय, आपदा और अनर्थ जैसे शब्दों का इतना इस्तेमाल कर चुके थे की मानों सच में दुनिया ख़त्म होने वाली हो। सचमुच अंधविश्वास आत्मविश्वास को मारता है ये बात बाबाओं के शो को मिल रही टीआरपी से साफ़ है। दर्शकों के मन में पहले डर बैठाया जाता है फिर इस डर से बचने के लिए बेहुदा तरीक़े सुझाए जाते हैं तो आत्मविश्वास और कमज़ोर होता है। क्योंकि फिर विश्वास बाबाजी के बताए नुस्ख़ों या उपायों पर ज़्यादा होता है, आज ये दिन है तिल चढ़ाओ, आज वो दिन है तेल चढ़ाओ, कुत्ते को मीठी रोटी खिलाओ, हरे कपड़े में ये बांधों जैसी इतनी बकवास बातें हैं जिनसे ये पूरा लेख भर सकता है। जब इन बेहूदा तरीक़ों पर भरोसा होने लगता है तो ख़ुद पर विश्वास कम होने लगता है यही डॉ कुलश्रेष्ठ का कहना था।

बात बहुत छोटी है लेकिन इसके मायने बहुत गहरे हैं। मेरी बहन ने मुझे अपनी ज़िदंगी का एक क़िस्सा सुनाया था और मुझे लगता है कि इस बात की गहराई को समझने में उस क़िस्से ने जैसी मेरी मदद की आपकी भी कर सकता है। एक मंदिर के बाहर एक छोटी बच्ची फटे कपड़ों में आकर उससे भीख मांग रही थी, धार्मिक स्थानों पर लोगों की दान की प्रवृत्ति कुछ ज्यादा मुखर होती है और इसीलिए ऐसी जगहों पर इन भिखारियों की तादाद भी ज्यादा, मेरी बहन ने भी दान-पुण्य करने के लिहाज़ से दो रू़पय का सिक्का निकालकर उसकी ओर बढ़ा दिया। उस बच्ची ने तपाक से कहा बस दो रुपय, भगवान के घर आकर भी ऐसी कंजूसी।

किसी फ़िल्मी डायलॉग की तरह ये तमाम बातें इन बच्चों को रटा दी जाती हैं और दिन में पचासियों बार बोल-बोल कर ये इनकी ज़बान पर ऐसी चढ़ जाती हैं कि इन्हें बोलते वक्त इनका अंदाज़ बहुत स्वाभाविक लगता है और ऐसा लगता है मानों इन्हें आगे की स्क्रिप्ट भी पता है। वैसे होता भी यही है इन्हे पता होता है ‘शिकार’ आगे क्या कहने वाला है और इसके बाद उन्हें क्या कहना है। बहन ने जवाब दिया बेटा दो रुपए बहुत होते हैं यहां और भी बच्चे हैं उन्हें भी कुछ दूंगी। लेकिन इसके बाद जो कुछ उस बच्ची की स्क्रिप्ट में था उसके लिए मेरी बहन तैयार नहीं थी। एक माहिर एक्टर की तरह वो बच्ची गले का पूरा ज़ोर लगाकर बोली, अगर तूने मुझे सौ रुपय नहीं दिए तो मैं तुझे शाप देती हूं की तू कभी मां नहीं बन पाएगी, हमेशा बांझ रहेगी।

इस अप्रत्याशित हमले से मेरी बहन घबरा गई आनन-फ़ानन में उसने पर्स से सौ का नोट निकाला ओर बच्ची की ओर बढ़ा दिया, उसने भी फ़ौरन नोट लपका और वहां से चंपत हो गई। शायद वो जानती थी की शिकार अगर कमज़ोर हुआ तो दिन-भर की कमाई हो जाएगी, और नहीं तो किसी और पर ये हथियार चलाएंगें। दिन भर में ऐसे तीन चार कमज़ोर शिकार तलाशना कोई बड़ी बात नहीं।

यहां इस क़िस्से को लिखने का मक़सद कमज़ोर आत्मविश्वास का उदाहरण देने के साथ-साथ दूसरे के डर का व्यवसायिक फ़ायदा कैसे उठाया जा सकता है ये बताना भी है। उदाहरण एक भिखारी बच्ची का हैं लेकिन क्या डराकर ख़ुद का फायदा करने का तरीक़ा कई और जगहों पर आप नहीं देखते हैं? क्या मीडिया में भ्रामक तरीक़े से घटनाओं को पेश करके, डराकर कर टीआरपी बटोरने की कोशिश ऐसी ही नहीं हैं? ये सच है की ऐसा सबके साथ नहीं होता लेकिन बहुतों के साथ होता है और कईयों के साथ कुछ अलग तरीक़े से होता है। अलग तरीक़े से मेरा मतलब है, क्या आपको याद आता है की कभी आपने कोई ऐसी ई-मेल अपने मित्रों को इसलिए फॉरवर्ड की है क्योंकि उसमें सांईबाबा या अन्य किसी भगवान की तस्वीर के साथ ये लिखा था कि अगर आपने ये मेल 10-12 या ज़्यादा मित्रों को भेजी तो आपको कोई शुभ समाचार मिलेगा और अगर ऐसा नहीं किया तो अनर्थ हो जाएगा। बक़ायदा उदाहरण देते हुए लिखा जाता है कि फलाने ने ऐसा नहीं किया तो उसके माता-पिता की मौत हो गई, बिज़नेस ख़त्म हो गया वगैरह।

वेब क्रांति से पहले ये प्रिंट के ज़रिए भी किया जाता था, आप में से बहुतों को ये अनुभव हुआ भी होगा जब किसी ने कोई प्रिंटेड पर्चा आपको पकड़ाया और जब आपने उसे पढ़ा तो आप घबरा गए क्योंकि उसमें लिखा था। माता ने स्वप्न में आकर कहा है कि 250 या 500 ऐसे ही पर्चे छपवाओं ऐसा नहीं करने वालों का अनर्थ हो जाता है। घबराकर और लोग इस तरह के पर्चे छपवाते थे और इसी तरह ये ‘चेन’ आगे चलती रहती थी या रहती है, क्योंकि अब भी डराने का ये तरीक़ा कई जगहों पर प्रचलित है। इससे पहले पोस्टकार्ड के ज़रिए भी ये डर फैलाया जाता था। बदलते वक़्त के साथ-साथ तरीक़े ज़रुर बदल गए हैं लेकिन डरने और डराने की ये फ़ितरत बदस्तूर जारी है और जारी रहेगी। क्योंकि डराने वाले डरने वालों की कमज़ोर नब्ज़ जानते हैं और डरने वाले ख़ुद के आत्मविश्वास को नहीं पहचानते।

आप में से कई लोगों को ये बातें हास्यास्पद भी लग सकती हैं क्योंकि शायद आपका ऐसी घटनाओं से पाला नहीं पड़ा हो। लेकिन कई और तरीक़े है जो इसी तरह हमें आत्मविश्वास से दूर करते हैं उनमें सबसे लोकप्रिय है धार्मिक आस्था के नाम पर अंधविश्वास को पालना। महाराष्ट्र और राजस्थान दो राज्यों से पिछले दिनों मासूम बच्चों को मंदिर, मस्जिद या दरगाह की छतों से फेंककर नीचे चादरों में लपकने की तस्वीरें पूरे देश ने देखी और दिलचस्प या अनोखी तस्वीरों के नाम पर विदेशी चैनलों पर भी इन्हें जगह मिली। मंदिरों और मस्जिदों में आस्था के नाम पर ऐसे कई अंधविश्वास पनप रहे हैं लेकिन उनके बारे में लिखना, बोलना या छापना ये तीनों ही चीज़ें विवाद को बुलावा देने जैसी है। क्योंकि ये अंधविश्वास जड़ों तक घुस चुका है और उन्हें खोखला भी कर रहा है।

मैं एक ऐसे माध्यम में काम करता हूं जहां मुझे फ़िल्मी सितारों, खिलाड़ियों और कई अन्य सेलिब्रिटीज़ के अलावा ज्योतिषियों, आध्यात्मिक गुरूओं, योगियो के साथ वैज्ञानिकों, एस्ट्रोनॉमर्स और मनोवैज्ञानिकों से भी रूबरु होने और चर्चा करने का मौक़ा मिलता है। आप इसे मान सकते हैं कि मैं अपने माध्यम की श्रेष्ठता बताने के लिए लिख रहा हूं, लेकिन मेरा मक़सद यहां ये बताना है की मैं बातों को एक तरफ़ा नहीं लिख रहा हूं। संस्कृत विद्या पीठ के प्रॉक्टर डॉ डी. पी. त्रिपाठी से भी एक कार्यक्रम के दौरान मुलाक़ात हुई, कार्यक्रम था बद्रीनाथ और केदारनाथ के पट खुलने पर। वो उत्तराखंड से आते हैं और इस विषय के जानकार है इसीलिए वो कार्यक्रम के लिए सबसे बेहतर मेहमान थे। डॉ त्रिपाठी ने कार्यक्रम से पहले मुझसे बात करने की इच्छा ज़ाहिर की जिसमें मुझे कोई दिक्क़त नहीं थी। उन्होंने मुझसे जो कहा वो उनके व्यक्तित्व और अपने विषय पर उनकी पकड़ बताने के लिए पर्याप्त था।

ये उनका पहला टीवी शो था जबकि उनके कई शिष्य विभिन्न चैनलों पर रोज़ इस तरह कार्यक्रम करते हैं जैसे वो चैनल के एम्पलाई हों। उनका कहना था की आज के टीवी का ज्योतिष को पेश करने का तरीक़ा खेदजनक है, लोगों को डराकर भ्रामक तरीक़े से कार्यक्रम दिखाने पर मेरी आपत्ती है। आस्था के नाम पर अंधविश्वास को जिस तरह परोसा जाता है वो ज्योतिष संस्थानों की भी गरिमा के ख़िलाफ़ है। ये कहते हुए उन्होंने गुज़ारिश की कि किसी क़िस्म के भ्रामक बैंड और टीज़र्स कार्यक्रम के दौरान नहीं चलने चाहिए। यही वजह है की मैं और विद्यापीठ के अन्य साथी टीवी चैनल्स से तौबा करते हैं। उनका कहना था कि ज्योतिष संस्थानों में कई रिसर्च चल रही हैं जिनमें ग्रहों की बदलती स्थितियों के साथ मौसम में परिवर्तन, भूकंप और बाढ़ जैसी आपदाओं के पूर्वानुमान जैसे शोध महत्वपूर्ण हैं। लेकिन रोज़ राशियां दिखाकर और ज्योतिष के नाम पर डराकर ठग चैनल और और इन पर आने वाले बाबा, लोगों को भ्रमित कर रहे हैं। साथ ही उन्होंने ये भी कहा की वो अपने विषय पर किसी से भी शास्त्रार्थ करने को तैयार हैं, लेकिन ज्योतिष के वैज्ञानिक पहलुओं पर न की भ्रमित और झूठ पर आधारित बातों पर। इस मुलाक़ात के बाद डॉ त्रिपाठी के साथ हमने कई कार्यक्रम किए और उन्होने भी हमारे विषयों की सराहना की। इस बात को यहां रखने का मक़सद सिर्फ़ ये बताना है की कोई भी ज्ञान शोध का विषय है ना की व्यवसायिक इस्तेमाल का, जैसा कई मीडिया चैनल कर रहे हैं।

मेरे मित्र सिध्दार्थ त्रिपाठी और मेरी निजि रुचि के चलते हमने मिल कर एस्ट्रोनॉमी पर कई कार्यक्रम किए और इस दौरान मंगल पर भेजे गए मिशन्स हों, जिनमें Mars Reconnaissance Orbiter  और फ़ीनिक्स सबसे नए हैं या फिर चंद्रमा पर भेजा गया भारत का दुनिया के अलग-अलग देशों के दस उपकरण लेकर गया चंद्रयान मिशन हो या चांद पर नासा का ताज़ा मिशन Lunar Reconnaissance Orbiter (LRO) हो। हमने इन सभी मौक़ों पर जाने माने वैज्ञानिकों डॉ डी. एस. कुलश्रेष्ठ, डॉ वेदेश्वर और सीनियर एस्ट्रोनॉमर अमिताभ पांडे के साथ मिलकर कार्यक्रम किए। यहां ये जानकर आपको शायद बहुत आश्चर्य नहीं होगा कि ये वैज्ञानिक और एस्ट्रोनॉमर्स भी मीडिया के इन विषयों को सनसनीख़ेज़ तरीक़े से पेश किए जाने से ख़फ़ा हैं। मंगल पर इंसान के निशान जैसी फ़र्ज़ी ख़बरें आपने कई बार देखी होंगी। एलियन्स के नाम पर डराने का धंधा भी ज़ोरों पर है। वो नासा जो अपने एक-एक क़दम की बात दुनिया से साझा करता है उसके बारे में ये तथ्य रखना की एलियन्स की जानकारियों को वो छुपा रहा है खेदजनक और ग़ैरज़िम्मेदाराना है। इस ब्रह्मांड में कहीं और जीवन ज़रुर होगा लेकिन वो हमसे और हम उनसे अभी दूर है। जब भी कहीं और जीवन के निशान मिलेंगे वो इन वैज्ञानिकों के लिए एक बहुत बड़ी कामयाबी होगी। लेकिन इस गंभीर विषय का भी भद्दा मज़ाक बनाकर रख दिया गया है। ख़ास तौर पर वीकेंड्स पर ये कार्यक्रम आपको ज़्यादा देखने को मिले़गे क्योंकि ये टीआरपी बटोरने का सबसे उपयुक्त समय है।

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टीआरपी इसलिए नहीं मिलती क्योंकि लोगों की दिलचस्पी इस विषय में है बल्कि इसलिए क्योंकि आपने पहले डराकर, झूठ दिखाकर ये दिलचस्पी पैदा की है। यानि आत्मविश्वास को और कमज़ोर किया है और अंधविश्वास और अज्ञानता की तरफ़ धकेला है। शायद आप नहीं समझ पाएंगे अगर मैं कहूं, ‘Large Hadron Collider’ लेकिन आप फौरन समझ जाएंगे अगर मैं कहूं जिनेवा में हुआ वो महाप्रयोग जो महाप्रलय लाने वाला था। ग़लती आपकी नहीं है मीडिया ने इसे पेश ही इस अंदाज़ में किया कि कुछ दिनों तक बस दुनिया ख़त्म होने की ही चर्चाएं चलती रही। European Organization for Nuclear Research (CERN) के इस महत्वाकांक्षी प्रयोग का जो कचरा हमारे मी़डिया  भाईयों ने किया वो कहीं नहीं हो सकता था।

नास्त्रेदमस और माया सभ्यता का कैलेंडर और इनकी भविष्यवाणियां कई चैनल्स के प्रिय विषय हैं। चाहे कोई वैज्ञानिक प्रयोग हो या खगोलिय घटना इन्हें बार-बार इस्तेमाल किया जाता क्योंकि ये डर बढ़ाती हैं ओर फिर इस डर से टीआरपी मिलती है। 2012 तक दुनिया ख़त्म हो जाएगी! महाप्रलय आ जाएगी! नास्त्रेदमस की भविष्यवाणी ये कहती है, माया सभ्यता का कैलेंडर ये कहता है! इस तरह की वाहियात लाइन्स आपने बहुत से चैनल्स पर देखी होंगी। लेकिन क्या इससे पहले आप इस तरह की भविष्यवाणियों या कैलेंडरों के बारे में जानते थे? शायद नहीं। इस तरह की चीज़ों को ढूंढ-ढूंढकर निकाला जाता है यू-ट्यूब से एलियन्स के फ़र्ज़ी विडियोज़ निकाले जाते हैं, गाय को उड़न-तश्तरी ले जाते हुए एनिमेशन दिखाए जाते हैं और इस तरह की बहुत सी तस्वीरें आप के ज़ेहन में आती होंगी। इन सब का मक़सद क्या डर दिखाकर उस बच्ची की तरह सौ का नोट याने टीआरपी छीनना नहीं है?

मैंने सीनियर एस्ट्रोनॉमर अमिताभ पांडे जी के सामने सवाल किया की अब तो पढ़े लिखों की फौज तैयार हो रही है। आईटी का ज़माना है और मुझे लगता है विज्ञान को लेकर की भी जागरुकता बढ़ी हैं। उनका जवाब था आईटी ग्रेजुएट्स और वैज्ञानिकों की उस फौज के बारे में बात करना ही बेमानी है जो इस प्रकार के अंधविश्वासों पर यकीन करती हो। मुझे लगता है कि किसी को इस पर सर्वे करना चाहिए कि इन प्रोफेशनल्स की नौकरियों के लिए ये कितने टोने टोटके करते हैं। गंडे-ताविज़ों का इस्तेमाल करते हैं, यंत्र, रत्नों और मालाओं के चक्कर में रहते हैं। उन्होनें आगे आशावादी नज़रिये के साथ कहा कि, भारत का भविष्य काफी उज्‍जवल है अगर इस देश के लोग अंधविश्वास के पीछे जाना छोड़ दें। वैज्ञानिक सोच से युक्त मन:स्थिति चाहिए ताकि इस देश को विकासशील स्थिति से उठकर विकसित देशों में जगह मिल सके।

अनपढ़ या पढ़ा लिखा, अंधविश्वास के सामने सब बराबर, ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं, क्योकिं मेरे कई ‘कथित’ पढ़े लिखे मित्र टेलिविजन पर दिखाए जाने वाले विज्ञापनों को देखकर रत्न, यंत्र, रुद्राक्ष जैसी चीज़े खरीदते है और उन्हें ये लगता है कि ये सब चीज़ें उनकी क़िस्मत बदल देंगी पर कैसे ? न तो ये बेचने वालों को पता है और न ख़रीदने वालों को। मेकअप से बाबा के गेटअप में आए किसी ऐक्टर या किसी रिएलिटी शो में बिकनी पहन कर नहाने वाली अभिनेत्री के साड़ी पहन कर इन चीज़ों का विज्ञापन करवाने के मक़सद उसी तरह दर्शकों को डराना या बहकाना है जैसा मंदिर के बाहर मौजूद उस बच्ची ने मेरी बहन के साथ किया। इस तरह के भ्रामक विज्ञापनों को बैन करने के बजाए इनकी तादाद बढ़ती जा रही है। आधे घंटे के स्लॉट का अच्छा पैसा चैनल्स को मिलता है लेकिन इस पैसे के चक्कर में दांव पर है तमाम दर्शकों का आत्मविश्वास। जो दर्शक इन फ़ालतू चीज़ो पर निर्भरता बढ़ा रहे हैं वो अपने आत्मविश्वास को आप ही मार रहे हैं।

करियर के शुरुआती दौर में मुझे भी एक नामी टेली शॉपिंग कंपनी के दो ऐड्स की मॉडलिंग करने का मौक़ा मिला था और इसी बहाने इन एजेंसीज़ को जानने और समझने का मौक़ा भी। लेकिन वो दौर हेल्थ प्रोडक्ट्स का था और टेली मार्केटिंग का ये बूम नहीं था जो आज देखने को मिल रहा है। लेकिन तब भी मकसद ऐड के जरिए प्रोडक्ट के फायदों को बढ़ा-चढ़ा कर बताना और लोगों को इनकी ग़ैरमौजूदगी की वजह से होने वाले ख़तरे बता कर डराना होता था। इसका ज़िक्र मैंने यहां इसलिए किया क्योंकि अब बदलते वक़्त के साथ प्रोडक्ट भी बदल रहे हैं और इन्हें बेचने की होड़ में कई नामी चेहरों को इनकी एंकरिग के लिए बुलाया जा रहा है। टेली शॉपिंग की दुनिया में कामयाब एक मित्र से जब मैंने पूछा कि तुम लोग ये क्या बेच रहे हो, ताविज़, यंत्र, रुद्राक्ष, रत्न ? उसका जवाब था कि ‘हींग लगे न फिटकरी और रंग भी चोखा’। याने इन प्रोडक्ट्स की कोई प्रोडक्शन कॉस्ट नहीं और दाम ज़बरदस्त मिलता है, इन प्रोडक्ट्स के ख़राब होने का भी टेंशन नहीं।  बात साफ है अब तो सिर्फ़ लोगों के कमज़ोर आत्मविश्वास पर चोट करो, उन्हे डराओ और इस डर के नाम पर कुछ भी बेचो। चाहे वो यंत्र हो, रुद्राक्ष हो या फिर कुछ और जिनकी कोई वैज्ञानिका प्रामाणिकता नहीं है।

इसी तरह सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण जैसी खगोलिय घटनाएं कई टीवी चैनल्स के लिए टीआरपी बटोरने का बेहतरीन मौक़ा होती है। ग़ौर करने वाली बात ये है कि जो चैनल डराकर इन ख़बरों को भयावह तरीक़े से पेश करेगा उसे टीआरपी ज़्यादा मिलेगी फिर चाहे जितनी आलोचना प्रबुध्द वर्ग इसकी करता रहे। वजह वही है कमज़ोर आत्मविश्वास पर हमला, यहां मंदिर के बाहर मिली वो भिखारी बच्ची ऐसे चैनल हैं जो ये झूठ परोसते हैं और कमज़ोर आत्मविश्वास वाली मेरी बहन वो तमाम दर्शक जो एकटक ऐसे घटिया झूठ को देखते हैं। जैसे-जैसे अंधविश्वास गहराता है आत्मविश्वास और कमज़ोर हो जाता है और फिर इंसान यंत्रों-तंत्रों, तावीज़ों, मालाओं के अलावा ऐसे ढोंगियों के हाथों का खिलौना बन कर रह जाता है।

जब जागो तभी सवेरा, जिस वक़्त ये एहसास हो गया की हम अंधविश्वास की गिरफ़्त में हैं आत्मविश्वास जागने लगेगा और जितना दूर अंधविश्वास से हम जाएंगे उतने नज़दीक हम आत्मविश्वास के होंगे। तमाम दूसरे मुद्दों की तरह जनमानस को ये बात समझाने में भी मीडिया ही सबसे सशक्त है और ग़ैरज़िम्मेदार मीडिया उतना ही दोषी भी है। इस विषय पर सोचता भी हूं तो ख़ुद का आत्मविश्वास बढ़ता है, विश्वास जानिए इस लेख को पढ़ते-पढ़ते अगर आप अपने आस-पास अंधविश्वासों पर ग़ौर करेंगे तो आपका आत्मविश्वास भी बढ़ेगा। क्योंकि अंधविश्वास का अहसास कर लेना ही उसे मार देना है और आत्मविश्वास को बढ़ाना हैं।


लेखक डा. प्रवीण तिवारी लाइव इंडिया न्यूज चैनल में एंकर और प्रोड्यूसर हैं। पिछले 9 वर्षों से अलग-अलग संस्थानों के जरिए मीडिया में सक्रिय इंदौर निवासी डा. प्रवीण थिएटर से भी जुड़े रहे हैं। इनसे संपर्क 09871996116 या फिर [email protected] के जरिए किया जा सकता है।

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