मुकेश कुमार हिंदी मीडिया के विचारवान और प्रतिभावान पत्रकारों में शुमार किए जाते हैं। अपने 24 वर्ष के पत्रकारीय करियर में मुकेश 16 साल टीवी जर्नलिज्म के साथ जुड़े रहे। उन्होंने 24 वर्ष की उम्र में गुवाहाटी से सेंटीनल अखबार लांच किया था। समय सूत्रधार नामक मैग्जीन शुरू की। नई दुनिया अखबार में सहायक संपादक रहे। नामवर सिंह के साथ चार साल तक किताबों की समीक्षा मूविंग पिक्चर कंपनी की तरफ से दूरदर्शन के ‘सुबह सवेरे’ कार्यक्रम के लिए की। सहारा ग्रुप का मध्य प्रदेश का न्यूज चैनल लांच किया और नेशनल चैनल पर प्राइम टाइम की एंकरिंग की। एस1 न्यूज चैनल लांच करने के बाद सीएनईबी के साथ एडिटर के रूप में कुछ माह के लिए जुड़े रहे।
10 जनवरी 2008 को वीओआई न्यूज चैनल से जुड़े और ठीक 11 महीने बाद 10 दिसंबर 2008 को यहां से मुक्ति पा ली। मुकेश कुमार वीओआई के रीजनल न्यूज चैनलों के हेड हुआ करते थे। उनके नेतृत्व में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान के लिए वीओआई के रीजनल न्यूज चैनल लांच किए गए। मुकेश ने वीओआई एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर के रूप में ज्वाइन किया था और छह महीने बाद उन्हें एसोसिएट मैनेजिंग एडिटर बना दिया गया था। वीओआई से इस्तीफा देने का पूरा धर्म भी मुकेश कुमार ने निभाया और नोटिस पीरियड पूरा होने के बाद पूरी शालीनता और विनम्रता के साथ मुक्ति ली। वे नोटिस पीरियड के दौरान भी वीओआई में उसी तन्मयता से कार्य करते रहे, जिस तन्मयता से वे उससे पहले करते थे। साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ में मीडिया पर एक नियमित कालम लिखने वाले मुकेश कुमार टीवी जर्नलिज्म पर सीरिज लिख रहे हैं। इस सीरिज की दो किताबें राजकमल से प्रकाशित हो चुकी हैं। तीसरी पर इन दिनों काम चल रह है। मुकेश की कई कविताएं और कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।
भड़ास4मीडिया के लिए मुकेश ने वीओआई की अपनी पिछली नौकरी के अनुभवों पर आधारित एक संस्मरणात्मक आलेख लिखा है जिसके जरिए उन्होंने वर्तमान पत्रकारिता की दशा-दिशा की गहराई से पड़ताल की है। कई तरह के उतार-चढ़ाव देखने के बाद वीओआई इन दिनों फिर से मीडिया की मुख्यधारा और कंटेंट की पवित्रता की दिशा में चल पड़ा है। मुकेश का यह आलेख वीओआई के नए प्रबंधन के लिए एक गाइडलाइन की तरह है। इससे अतीत की गलतियों से सबक के बिंदु तलाश कर भविष्य के एक्शनप्लान को तैयार किया जा सकता है। जो बीत गया, जो बुरा था, उससे सबक लेकर आगे बढ़ने वाले ही विजेता कहलाते हैं। मुकेश कुमार के दर्द, विचार, अनुभव को किसी चैनल या व्यक्ति से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। यह वर्तमान मीडिया के चाल-चरित्र में सकारात्मक बदलाव की आकांक्षा से लिखा गया है, न कि किसी नकारात्मक आक्षेप या प्रतिक्रिया के वशीभूत होकर।
-एडिटर, भड़ास4मीडिया
धृतराष्ट्र की सभा में सब अंधे हैं?
-मुकेश कुमार-
कुछ दिनों पहले इसी वेबसाइट पर वॉयस ऑफ इंडिया के चंडीगढ़ ब्यूरो हेड मुकेश राजपूत के हवाले से छपा कि उनका चैनल उन पर ”खुद कमाओ, खुद खाओ और हमें भी खिलाओ” के लिए दबाव डाल रहा था, इसलिए उन्होंने इस्तीफा दे दिया है। यानी उनकी कंपनी उनसे वह नहीं करवाना चाहती थी जिसके लिए उन्हें नियुक्त किया था, वह उनसे धंधा करवाना चाहती थी। ये धंधा, जाहिर है कि मीडिया इंडस्ट्री की मान्य परंपराओं के अनुसार नहीं होना था। कंपनी उनसे पत्रकार के रूप में अर्जित की गई उनकी साख का इस्तेमाल धन कमाने के लिए करना चाहती थी। यही नहीं, इससे भी आगे जाकर शायद उन्हें ये निर्देश भी दिए गए होंगे कि वे इसके लिए पैसे लेकर खबरें बनाने या लोगों को डरा-धमकाकर धन वसूलने जैसे हथकंडे भी अपनाएं। उन्हें कोई साप्ताहिक या मासिक टारगेट भी दिया गया था और जिसके न पूरे किए जाने पर दंड का प्रावधान भी रहा होगा। जाहिर है कि पत्रकारिता को एक पवित्र पेशे के तौर पर लेने वाले किसी पत्रकार के लिए ये सब करना बहुत मुश्किल था, इसलिए वह नौकरी छोड़ने के विकल्प को आजमाने के लिए मजबूर हो गए। उनके लिए ये अच्छा था कि दूसरी नौकरी तत्काल मिल गई और उन्हें बेरोजगार नहीं रहना पड़ा।
मुकेश राजपूत ऐसे पहले पत्रकार नहीं हैं। ऐसे और भी बहुत से लोग हैं, जिन्होंने इसी आधार पर न्यूज चैनलों / अखबारों से नाता तोड़ लिया था (लेखक भी उन लोगों में शामिल है)। ऐसे लोगों के नाम भी मीडिया में प्रकाशित होते रहे हैं। कुछ ने मजबूरी में और कुछ ने खुशी-खुशी कंपनी के फरमान को स्वीकार भी किया और अभी तक वे इस पर अमल कर रहे हैं या अपने मातहत काम करने वालों से करवा रहे हैं।
जिस चैनल से मैंने मुक्ति पाई है, उस चैनल के मालिकान किस तरह से अपने कर्मचारी पत्रकारों पर नाजायज तरीकों से धन इकट्ठा करने के लिए कह रहे हैं, इसकी खबरें पिछले लगभग छह-आठ महीनों से लगातार मीडिया में आ रही हैं। यही नहीं, चार-पांच चैनलों को चलाने वाली ये कंपनी कई तरह के गलत कामों में भी संलग्न रही है जिसमें पत्रकारों के साथ दुर्व्यवहार से लेकर, वेतन न देना, इस्तीफा देने के लिए मजबूर करना, उनका बकाया धन न देना आदि शामिल है। संपादकीय मीटिंग और न्यूजरूम में महिलाओं की उपस्थिति का खयाल किए बगैर धड़ल्ले से मां-बहन की गालियों का प्रयोग किया गया। मालिकों की शह पर ग्रुप एडिटर रविशंकर पत्रकारों से पत्रकारों की तरह नहीं पेश नहीं आते थे, बल्कि अपनी स्वामिभक्ति दिखाने के लिए तमाम तरह के धतकरम करते और करवाते थे। प्रबंधन के इशारे पर पत्रकारिता की ऐसी की तैसी करने में भी उन्होंने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। बाद में तो मालिकों ने खुद कमान संभाल ली और खुद चैनल को चकलाघर में तब्दील करने में जुट गए। इसके लिए उन्होंने चुनाव के दौरान नेताओं से धन वसूली भी करवाई और जिन्होंने पैसे नहीं दिए उनके खिलाफ झूठी खबरें भी चलवाईं। इस कंपनी के दफ्तर पर छापे पड़े और मालिकों से उनकी काली करतूतों के लिए पूछताछ भी की गई। उनकी घटिया मानसिकता का अंदाज़ा चैनल लांचिंग के समय दिखाए गए विज्ञापनों में ही झलकती थी। इन विज्ञापनों में अश्लीलता भरी पड़ी थी और ये स्त्री की गरिमा की धज्जियां उड़ाने वाले थे।
हैरत की बात ये है कि इस चैनल समूह के बारे में लगातार इतनी खबरें आने के बावजूद न तो पत्रकारिता जगत में कोई हलचल मची, न न्यूज चैनलों के संगठनों ने इसको लेकर कोई चिंता जाहिर की और न ही हमेशा डंडा लेकर घूमने वाले सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के कानों में जूं रेंगी। सबके सब चुप हैं, मानो जो कुछ हो रहा है, उसमें कुछ भी नया नहीं है, गलत नहीं है। या फिर मुमकिन है कि सबने आंखें बंद कर ली हों। द्रौपदी के वस्त्र-हरण के समय धृतराष्ट्र की सभा में मौजूद तमाम सभासदों की तरह। इस चुनी हुई चुप्पी को समझने की जरूरत है, क्योंकि ये मामला केवल एक चैनल का नहीं है, बल्कि एक चैनल द्वारा की जा रही मनमानी और बाकी के द्वारा उसे देखते हुए भी अनजान बने रहने का नाटक करने का है। ये मसला है पत्रकारिता से जुड़े दायित्वों के प्रति अगंभीर होते जाने का। आखिर ऐसा क्यों है कि अपराधों की इतनी लंबी फेहरिस्त होने के बावजूद वह चैनल न केवल चल रहा है बल्कि उन्हीं सब तरीकों से चलाया जा रहा है जिन्हें किसी भी आधार पर सही ठहराया नहीं जा सकता? क्यों नहीं इस कंपनी को दिए गए तमाम चैनलों के लायसेंस रद्द किए जा रहे? आखिर लायसेंस रद्द करने के लिए गुनाहों की सूची कितनी लंबी होनी चाहिए? क्या मंत्री जी और उनका मंत्रालय बताएगा कि त्रिवेणी मीडिया लिमिटेड को कितने ख़ून माफ हैं।
अगर ऐसा नहीं हो रहा है तो इसकी दो-तीन वजहें समझ में आती हैं। एक तो यह कि मीडिया समाज में ऐसे मसलों को लेकर चिंताएं और संवेदनशीलता ख़त्म होती जा रही है, इसलिए विरोध की कोई लहर नहीं पैदा होती। सबने मान लिया है कि जो हो रहा है सब ठीक है या यही होगा, हम कुछ नहीं कर सकते। एक तरह की असहायता है जिसने दायित्वबोध को समाप्त कर दिया है। इसमें एक हद तक समझौतापरस्ती भी है और अवसरवादिता भी। इसीलिए कंटेंट कोड के खिलाफ़ तो पत्रकार जंगे आजादी छेड़ देते हैं मगर ऐसे मामलों में कोई विरोध-प्रदर्शन नहीं करते। कोई प्रेस काउंसिल नहीं जाता। एडिटर गिल्ड की तरफ से इस सबका न तो कोई नोटिस लिया जाता है और न ही कोई बयान जारी होता है। पत्रकार संगठनों की तरफ से प्रतीकात्मक तौर पर ही सही किसी को न ज्ञापन सौंपा जाता है और न ही कोई मांग उठाई जाती है। क्यों, क्या चैनल चलाने वालों की इन ओछी हरकतों से पत्रकारिता को कोई खतरा नहीं है, उसे कोई नुकसान नहीं पहुंच रहा?
ये माना जा सकता है कि मंदी ने चैनल मालिकों को कुछ भी करने का लायसेंस दे दिया है और वे जो मर्ज़ी में आए कर रहे हैं। इसी बहाने वे पत्रकारों की छंटनी कर रहे हैं और ऐसा करते वक्त नियम-कानूनों का खुला उल्लंघन भी। यही नहीं, ग़लत तरीकों से धन कमाने के रास्ते भी बिना किसी भय या हिचक के अपना रहे हैं। दूसरी तरफ इस मंदी और मालिकों की कार्रवाई से पत्रकारों के अंदर असुरक्षाबोध भर गया है और वे विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। पत्रकारों का एक वर्ग प्रबंधन का हिस्सा है और वह छँटनी से लेकर उगाही तक के आदेशों को तत्परता के साथ पालन करवाने में जुटा हुआ है। ज़ाहिर है उसका मुँह भी बंद है क्योंकि अगर वह ऐसा नहीं करेगा तो उसे नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा और ऐसा बहुत कम लोग करने को तैयार होंगे। लेकिन जो तटस्थ हैं उनका भी अपराध लिखेगा इतिहास।
जहाँ तक मंत्रालय का सवाल है तो वहाँ चाँदी का जूता चलता है। इसीलिए ऐसे लोगों को चैनल के लायसेंस मिल जाते हैं जिन्हें कतई नहीं मिलना चाहिए और ऐसे चैनल चलते रहते हैं जिन्हें कभी का बंद हो जाना चाहिए। इनमें केवल वॉयस ऑफ इंडिया ही नहीं है, बल्कि दिन-रात अंधविश्वास और दूसरी घटिया चीज़ें परोसने वाले चैनल भी हैं।
ध्यान देने की बात ये है कि ये स्थिति केवल टीवी जगत में ही नहीं है। प्रिंट में भी यही सब चल रहा है और पहले से चल रहा है।
ये सब अपवाद के रूप में हो रहा होता और यदि ये बुरे वक्त की व्याधि होती तो समझा जा सकता था। मगर ख़तरा ये है कि कहीं ये स्थायी वृत्ति न बन जाए। अगर ऐसा हुआ तो समझा जा सकता है कि पत्रकारिता कौन सा रूप ले लेगी और वह कैसी भूमिका समाज में निभाएगी। इसलिए मीडिया से जुड़े तमाम लोगों और संगठनों को इस बारे में सोचना चाहिए और योजना बनाकर इसका विरोध भी करना चाहिए। अभी तक पत्रकार जगत की तरफ से सक्रिय एवं प्रभावी हस्तक्षेप इस दिशा में नहीं हुआ है, सिवाय कुछ बयान देने और सेमिनार करने के। कंटेंट कोड प्रकरण ने साबित कर दिया है कि जब तक दबाव नहीं बनाया जाएगा, मीडिया प्रतिष्ठान कुछ नहीं करेंगे। इसलिए दबाव बनाया जाना चाहिए, सरकार के ज़रिए भी और भ्रष्ट तथा समाज-विरोधी मीडिया संस्थानों के ख़िलाफ़ बाकायदा आंदोलन करके भी। इसी सबसे ये भी पता चलेगा कि पत्रकारिता की मशाल थामे दिखने वाले पत्रकार वास्तव में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हक़ में कहाँ तक लड़ सकते हैं।