एक देसी कहावत है, रपट पड़े तो हर-हर गंगे। मतलब, आप इरादतन पूजा न करना चाहें लेकिन पूजा हो जाए। मैंने भी पिछले दिनों एक ऐसी ही समाजसेवा की, जो थी तो स्टोरी की कवायद, लेकिन समाजसेवा-सी दिखती है। पचमढ़ी में 70 फीट की ऊंचाई से फेंकी गई बच्ची इन दिनों सभी न्यूज़ चैनलों की बड़ी खबर है। यहां तक कि उसके बारे में कोई भी अपडेट प्रतिस्पर्धी चैनल के सामने पिटने या पीटने का पैमाना बना हुआ है। कल उस बच्ची की मां और पिता पहली बार उसे देखने भोपाल आए।
किसी तरह से हमें खबर लग गई। हम भी वहीं पहुंच गए। वो मां इतनी तेज थी कि उसे टीआरपी की बेचैनी के बारे में खूब पता था। दरअसल वो बच्ची को देखने नहीं आई थी बल्कि पुलिस हिरासत में इस बात का मेडिकल परिक्षण कराने आई थी कि वही उस बच्ची की मां है। सरकारी अस्पतालों में मेडिकल करा लेना किसी युद्ध जीतने से कम नही होता. कई दिनों से अस्पताल का चक्कर लगा रही उस महिला ने हमारा भरपूर इस्तेमाल किया. उसकी बानगी देखिये।
उसने कहा, “मैं जानती हूं कि आप लोगों को ताजी खबर चाहिए और वो तब मिलेगी जब मैं आईसीयू में भर्ती अपनी बेटी को या तो कांच के शीशे से निहारूं या उसे गोद में लेकर दुलार करूं। मैं ऐसा तब तक नही करूंगी जब तक आप मेरा मेडिकल करवाने में मदद नहीं करते”। वो महिला ठीक कह रही थी। उसकी बाइट, घटना के डिटेल व अन्य कुछ तो सभी चैनल कई दिनों से चला रहे थे। अब जरूरी सिर्फ यही शाट था जिसमें स्लग चलता……”आख़िर मिल ही गई बदनसीब को मां”।
उसने एक सौदा किया कि आप पहले मेरा मेडिकल कराएं फिर मैं अपनी बच्ची को देखूंगी तो शॉट बनाना. इस खबर को सबसे पहले दिखाने के उत्साह ने पूरे 5 घंटे सरकारी अस्पतालों में फैली अव्यवस्था के बीच ऐसा पीसा कि पूछो मत। पहले तो डॉक्टर ने कहा कि ये पुलिस केस है। इसमें कई तरह की जांच होगी, महिला अस्पताल (सुल्तानिया जनाना अस्पताल, भोपाल) जाइये। हम महिला को लेकर सुल्तानिया अस्पताल आए। यहां हमें कहा गया कि चूंकि इसे पचमढ़ी से हमीदिया रिफर किया गया है, लिहाजा जांच वही होगी। हमने तर्क दिए कि वहीं से हमें यहां भेजा गया है, लेकिन वे नही माने। उनका तर्क था कि हमारे अस्पताल लाने का लिखित निर्देश दिखाइये।
हम फिर हमीदिया पहुंचे। कई डॉक्टरों से बात की। किसी तरह से 50 से ज्यादा फारमेलिटि कराने के बाद वे लोग जांच को राजी हुए। इस दौरान महिला और उसके साथ आए पुलिस वाले हाथ पर हाथ बैठे रहे। तुर्रा ये कि वो महिला इस बात का जाहिरा तौर पर उदघोष भी करती रही कि मीडिया वाले की मजबूरी है कि वो हमारी मदद करें। इधर, हम लोगों को डर ये सता रहा था कि कही दूसरे चैनल वालों को पता न चल जाए और वो आकर हमारी खड़ी फसल काट कर चलता न बनें।
किसी तरह जब सारे टेस्ट करवा दिए तब चिरौरी की कि मोहतरमा अब तो बच्ची को देखने चलो। उसने कहा कि थोड़ी देर और रुक कर जाउंगी। किसी तरह पांचवे माले पर जब हम महिला को उसकी बच्ची के पास लेकर पहुंचे तो डॉक्टरों के दल ने हमें और उस महिला को अन्दर जाने से रोक दिया। उनका डर था कि जब ये महिला इसे खाई में फेंक सकती है तो बिना कोर्ट के इजाजत के इसे कैसे बच्ची के पास जाने दिया जाए। हमारा सब्र टूट रहा था। अब बारी थी डॉक्टर की चिरौरी करने की। बहुत हाथ-पांव जोड़ने के बाद वो दूर से बच्ची को दिखाने को राजी हुईं। हम खुश इस बात को लेकर थे कि मनपसंद शाट न सही, कुछ तो आ रहा है हाथ में। हमारे हाथ के तोते तब उड़ गए जब डॉक्टर ने कैमरा अन्दर ले जाने से मना कर दिया। तर्क था- बच्ची को इन्फेक्शन हो सकता है। मन में सोचा, जो बच्ची ठिठुरन भरी सर्द रात में 70 फिट पर अटक कर जीवित रह सकती है, वो इतनी मजबूत तो होगी कि कैमरे से होने वाले कथित इन्फेक्शन को झेल सके। लेकिन डॉक्टर मानने को तैयार नहीं हुए।
अब तक हमारा भरपूर इस्तेमाल कर चुकी उस मां की कोई दिलचस्पी हममें नहीं बची थी। उसने कहा कि अब मैं तो जाऊंगी। किसी तरह थोड़े बहुत शॉट हमारे कैमरामैन ने बनाए। मां- बाप दोनों की बाइट करके हमने ऐसा महसूस किया कि जंग जीत ली है। उस खबर का श्रेय भी हमें मिला। जो चैनल उस खबर पर पिछले कई दिनों से काम कर रहे थे, उनके रिपोर्टर को इस बात के लिए फटकार मिली कि वे कैसे चूक गए? बहरहाल, उस महिला के साथ आए पुलिस वाले ने हमें धन्यवाद दिया और बोला, “आप लोग बेहद संवेदनशील हो और जरुरतमंदों की मदद करते हो”।
हम अभी तक इस सवाल का जवाब तलाश रहे हैं कि वास्तविक जरूरतमंद कौन था? वो महिला या हम खुद? क्या वाकई ये किसी व्यक्ति की तरफ से ईमानदार मदद थी या फिर रपट पड़े तो हर हर गंगे।
लेखक प्रवीण दुबे हिंदी न्यूज चैनल ‘न्यूज 24’ के लिए मध्य प्रदेश के स्पेशल करेस्पांडेंट के बतौर भोपाल में कार्यरत हैं। प्रवीण से संपर्क करने के लिए आप [email protected] पर मेल कर सकते हैं।