ये नायाब तस्वीरें निगम बोध घाट की : कोई ‘माई का लाल’ है, जो अपने जीते जी अपनी ‘मौत की वसीयत’ तैयार कर दे। यहां ‘मौत की वसीयत’ का मतलब मरने के बाद धन-संपत्ति के बंटवारे को लेकर कायदे-कानून लिखना नहीं है। जो असली पत्रकार होता है उस बेचारे के पास इतना धन होता ही नहीं कि उसके मरने के बाद उस धन के लिए उसके परिजनों में लड़ाई हो। उल्टे, मरने पर परिजन व दोस्त यह कहते हुए कोसते ही हैं- बड़ा ईमानदार था, गरीबी की मौत मर गया बेचारा। हम जिस ‘मौत की वसीयत’ की बात कर रहे हैं उसका मतलब है कि आप लिखें, आपकी मौत किस तरह हो।
किस आदर्श मौत की आप कल्पना करते हैं, किस तरह के मौत से डर लगता है, किस तरह के मौत को आप पसंद करते हैं, मरने के बाद आपके अंतिम संस्कार में किसे-किसे नहीं आना चाहिए, किसको आप चाहेंगे कि वह आपके ‘राम-नाम सत्य’ में शामिल जरूर हो, आप किस तरह इस धरती से विलीन होना चाहेंगे- आग से जलाकर, पानी में बहाकर, बिजली का झटका खाकर…… इस सब पर जीते-जी लिख डालना है। ‘मौत की वसीयत’ का मतलब खुद के प्राण पखेरू होने से लेकर अगले 48 घंटों, जब तक कि आपकी देह के निशान को धरती से सदा के लिए समाप्त न कर दिया जाए, में आपकी मरने के बाद भी क्या-क्या दखलंदाजी रहे, आपकी इच्छाओं के अनुरूप कार्यक्रम हो, न भी हो तो लोगों को पता रहे कि फलाने की फलां इच्छा थी, को जीते-जी लिख डालना है। जीते-जी मरणोत्सव के इस मौके की शुरुआत कर रहा है और मंच प्रदान कर रहा है भड़ास4मीडिया।
एक चीज जान लीजिए। आप लाख नवाब साहब हों, बुद्धिमान हों, चिरकुट हों, चतुर-सुजान हों, बॉस हों या बांस हों, बेवकूफ हों या बुद्धिमान हों, चोर हों या ईमानदार हों, प्रगतिशील हों या पोंगापंथी हों, जाना तो गुरु जरूर है आपको एक दिन। हालांकि उपरोक्त सभी कैटगरियों के लोग यही मानते हैं कि हम न मरें, मरिहैं संसारा….. पर ऐसा मानने वाले अचानक एक दिन टें बोल देते हैं और निकल लेते हैं इस माया नगरी से। माया नगरी वाले 24 घंटे तक अवाक रहते हैं, दोस्त-भाई-मित्र-बॉस….के अचानक गुजर जाने से। लेकिन फिर रम जाते हैं अपने-अपने काम में।
आप पूछेंगे कि सुबह-सवेरे यह क्या हो गया यशवंत को जो मरने की बात करने बैठ गया और सभी से कह रहा है कि अपने मरने पर लिखो क्योंकि जीते-जी जो तुम लिख रहे हो उससे देश, समाज और खुद तुम्हारा कोई भला नहीं हो रहा, सिवाय इसके कि तुम्हारी रोजी-रोटी चल जा रही है। तो अगर लिखना है तो वो लिखो जो सोचते हो। जमाना चाहे जो रहा हो, मौत पर चिंतन हमेशा से सदाबहार रहा है। यह ऐसा विषय, मुद्दा-मसला है कि हर किसी को इसके सामने प्रश्नवाचक चिन्ह के रूप में और बिजूका की माफिक खुद की बोलती बंद करानी पड़ती है। इस मुद्दे पर बोलती बंद करो या बोलो, मौत को कोई फरक नहीं पड़ता। हमारे देहात में कहा जाता है कि जिस चीज को नहीं चाहते कि हो तो उसकी चर्चा बार-बार करो, वह घटित नहीं होगी। यह टोटका है। हमारे गांव में खूब आजमाया जाता है। तभी तो एक पंडीजी, जिनके बच्चे बचते नहीं थे, जन्म लेते ही मर जाते थे, उन्होंने टोटका आजमाया और अपने बच्चों का उल्टा-सीधा नाम रख दिया। पैदा होते ही किसी का नाम अन्हरा, किसी का नाम बहिरा, किसी का लंगड़ा और किसी का लूलवा रख दिया। पंडीजी का टोटका काम कर गया और उनके एक के बाद एक पांच बच्चे जो पैदा हुए, वे सभी बच गए। ये पांचों मुस्टंडे आज भी गांव में किलो-किलो भर सुबह-शाम खाते हैं और खाते रहने के प्रयोजन में लगे रहते हैं। तो भइया, मौत से डर लगता है तो भी लिखो, न लगता है तो भी लिखो। लिखो जरूर। खुद के मरने के बारे में क्या सोचते हैं- कितनी उम्र में मरना चाहते हैं, कांख-कांख, हांफ-हांफ कर मरना चाहते हैं या अच्छी खासी सेहत के साथ गुजरना चाहते हैं, उम्र के सौ पूरे करने पर निपटना चाहते हैं या पचास-साठ के चलते-फिरते में चले जाने में विश्वास रखते हैं।
किस तरह जाना चाहते हैं, स्वाभाविक या अस्वाभाविक मौत के कारण। स्वाभाविक की इच्छा तो सभी रखते हैं लेकिन अगर इस विकल्प को एक मिनट के लिए खत्म कर दिया जाए, मिटा दिया जाए तो फिर अस्वाभाविक मौत में किस तरह की मौत पसंद करेंगे। सड़क पर रफ्तार के साथ स्वर्ग की ओर छलांग लगाना चाहेंगे या 420 बोल्ट करंट को हाथ से चूमकर स्वर्ग के दरवाजे में इंट्री करना चाहेंगे। बताइए, बताइए। सोचिए, सोचिए। नरक-स्वर्ग नहीं मानते तो कोई बात नहीं लेकिन एक पल के लिए आपको मजबूर किया जाए कि आप नरक-स्वर्ग बोले तो जन्नत-जहन्नुम को मानिए और तय करिए कि आपको किस जगह भेजा जाना चाहिए। आपने ऐसा क्या किया है कि आपको नर्क में न भेजा जाए। नर्क में अगर जाते ही हैं तो वहां कैसा माहौल मिलना चाहिए। गल्ती से स्वर्ग में पहुंच जाते हैं तो वहां की अय्याशी में आप अपनी किस कुंठा को पहले शांत करना चाहेंगे। सोचिए बंधु। लिखिए भाई। जीते-जी अपनी मौत का उत्सव नहीं मनाया तो यकीन मानिए, आपके मरने के बाद जो लोग अंतिम संस्कार करने निगम बोध घाट या ऐसे किसी घाट पहुंचेंगे तो वहां थोड़ी बहुत तुम्हारे बारे में बात करने के बाद फिर जुट जाएंगे करियर और धंधे के बारे में बतियाने में। वह एक अच्छा आदमी था, कहते हुए तुम्हें गुजरे जमाने की बात एक क्षण में मान लिया जाएगा। इसलिए अच्छा है कि ‘मौत की वसीयत’ में पहले ही लिख कर बता दो कि मेरे अंतिम संस्कार में वही लोग जाएंगे जो लगातार रो सकते हों, ताकि मेरे आखिरी वक्त में कोई अपनी बात न कर सके। जो रो न सकें वे मत जाएं। हालांकि ऐसा संभव नहीं है कि कोई लगातार रोता ही रहे, परिवार वाले तो लगातार रोते नहीं, दोस्त-मित्र क्या रोएंगे। सो, किसी ऐसी-वैसी शर्त को मत लिख देना कि तुम्हें कंधा देने के लिए चार लोग न मिल पाएं और बाहर से दो-चार किराए पर रुदालियों को बुलाकर जल्दी-जल्दी शरीर की ऐसी-तैसी कराना पड़े। तो भाई सोचो। नहीं सोचोगे तब भी सुन लो, मरना तो है गुरुजी एक दिन। आप भी निपटेंगे। फिर मौत की वसीयत काहे नहीं? ऐसा नहीं करेंगे तो उल्लू के पट्ठे आपकी मौत पर भी अपना मतलब साध लेंगे।
आपको अपनी मौत के बारे में लिखने से डर लगता है। तो फिर दो-चार गिलास दूध पीजिए। या दारू पीकर डर भगाइए। तब तक, चलिए, मैं खुद से ही शुरू करता हूं। लेकिन अभी बहुत थोड़ा-सा। खुद की ‘मौत की वसीयत’ मैं लंबा-चौड़ा लिखूंगा। कुछ तो लिख चुका हूं, बाकी पूरा करूंगा जल्द ही। एक हफ्ते में। लेकिन मैं इसके पहले देखना चाहता हूं कि कोई ‘माई का लाल’ है जो अपनी ‘मौत की वसीयत’ तैयार कर दुनिया के सामने भड़ास4मीडिया के जरिए पेश कर सके। ‘हंस’ में एक जमाने में राजेंद्र यादव ने ‘आत्म-तर्पण’ शुरू कराया था। लेखकों से लिखवाया था कि वे अपने मौत का नजारा जीते-जी पेश कर दें। उस समय मैं बीएचयू या इलाहाबाद में पढ़ता था। बहुत गंभीरता से इस कालम को पढ़ता था। मुझे लगता है कि उस कालम ने मेरे किशोर या युवा मन पर ठीकठाक असर किया। मौत को लेकर तमाम तरह के भयों से मुक्त हो सका। ऐसा हम पत्रकारों को भी करना चाहिए। साहित्यकार लोग तो शब्दों की जलेबी ज्यादा छानते हैं, मतलब की बात कम करते हैं लेकिन पत्रकार बेचारा तो सिर्फ मतलब की ही बात ज्यादा लिखता है, उन्होंने कहा…. उन्होंने कहा…. उन्होंने बताया…. फलाने के मुताबिक…… सूत्रों के अनुसार… । साहित्यकार तो अपनी मौत का वर्णन भी ऐसे करते हैं कि पढ़कर लगता है कि काश, ऐसी ही मौत मेरी भी हो। पत्रकार तो साफ-साफ लिखेगा कि उसके मौत के बाद क्या क्या कैसे कैसे हो। मैं बात कर रहा था खुद की। मैं अपनी जो ‘मौत की वसीयत’ तैयार कर रहा हूं, जिसकी एक झलक आपके सामने पेश कर रहा हूं। भाई शैलेंद्र के अंतिम संस्कार में जब निगम बोध घाट गया तो वहां का दृश्य देखने के बाद सोचने लगा…. तवज्जो चाहूंगा…
कतई नहीं चाहूंगा कि मरने के बाद मुझे लकड़ी पर सुलाकर धीमी आंच से जलाया जाए… मुझे आग में जलना सख्त नापसंद है…. मुझे धीमी मौत बिलकुल पसंद नहीं…. पानी में बहाए जाने को मृतक के साथ क्रूरत व कायरता का व्यवहार किया जाना मानता हूं….. उसे हम मरने के बाद भी मौत के मुंह में फेंक देते हैं…. समंदर या गंगा या यमुना में फेंकने का मतलब तो अच्छे-खासे शरीर को मौत के मुंह में ही फेंकना हुआ न….. भला-चंगा शरीर है और पानी में फेंक दो…… मछलियां नाचते हुए, कूदते हुए एक-एक अंग इत्मीनान से खाएंगी और वीकेंड (अगर शुक्रवार को मरा तो) मनाएंगी….. आप जीते-जी कुछ न कर पाने की माफिक मरते-मर भी कुछ न कर पाएंगे…. मुझे अगर थोड़ा आकर्षक लगता है तो वह है इलेक्ट्रिक दाह-संस्कार…. शरीर को बिजली की चिता पर लिटाओ और बटन दबाओ…. एक सेकेंड में भारी-भरकम शरीर को मुट्ठी या घड़े भर राख में तब्दील कर ले जाओ…. उसे घड़े को लेकर हरिद्वार घूमो या इलाहाबाद, अपन से क्या… बिजली के बटन वाले संस्कार से मृत्यु के शोक में आने वालों को भी राहत मिलेगी… फटाफट लौट जाएंगे साले….. अपने-अपने काम धंधे पर…. मरने वाले के प्यार में देर तक नाटक करना अगर किसी मरने वाले को पसंद न हो तो मेरे खयाल से उसे बिजली वाले आप्शन पर ही बटन दबाकर ओके कर देना चाहिए… मैंने तो दबा दिया… पर दिक्कत ये है कि अगर दिल्ली से बाहर मरा तो यह बिजली वाला आप्शन मिलेगा नहीं…. मेरी मौत मेरे गांव में हुई तो वहां तो पवहारी बाबा का श्राप या आशीर्वाद, जो कहें, है कि मृतक को सशरीर गंगा में बहा दिया जाए…. मेरे गांव में किसी भी मरे को आज तक जलाया नहीं गया… सिर्फ पानी में बहा दिया गया…. तो मैं नहीं चाहूंगा कि गांव में मरूं…. अगर गांव में मर भी जाऊं तो मेरे शरीर को उस शहर ले जाया जाए जहां इलेक्ट्रिक संस्कार की व्यवस्था हो…. और बटन दबाकर निपटा दिया जाए…. मुझे ऐसी मौत पसंद नहीं जिसमें शरीर का पोस्टमार्टम किया जाए…. पोस्टमार्टम हाउस के चपरासी, स्वीपर से बहुत डर लगता है मुझे …. बीएचयू में देख चुका हूं… बड़ी बदतमीजी करते हैं वो मरे हुए शरीर के साथ…. एक बार तो कहीं पढ़ा था कि वे साले दारू पीकर मृतक के साथ यौन दुर्व्यवहार तक कर देते हैं…. तो मैं किसी हालत में अपना पोस्टमार्टम कराना नहीं चाहूंगा…. अगर कानूनन यह बहुत जरूरी हुआ, मानो कि मुझे किसी ने जहर देकर मारा हो और इसकी जांच जरूरी हो तो पोस्टमार्टम हाउस में मेरी लाश के साथ हमेशा कोई मेरा दोस्त या मेरा परिचित या मेरा परिजन रहे….. जब डाक्टर आए और बाडी को अंदर ले जाए तभी ये लोग हटें….
भाई, ‘मौत की वसीयत’ बहुत लंबी है। इसको विस्तार से बाद में प्रकाशित करूंगा। ये जो तीन तस्वीरें आप इस आलेख के साथ देख रहे हैं, वे निगम बोध घाट पर ली थीं। उसी दिन सोच रहा था कि इस मुद्दे पर लिखूंगा लेकिन धंधे की व्यस्तता ने लिखने-पढ़ने से दिन-प्रतिदिन दूर करना शुरू कर दिया है। पर आज कुछ ढूंढते-तलाशते ये तस्वीरें दिखीं तो लगा कि लिख ही दूं, शनिवार-रविवार को भाई लोग थोड़े फुर्सत में होंगे तो इसे पढ़कर हल्का-फुल्का डरेंगे, और उनके डरने से अपन को थोड़ी शांति मिलेगी क्योंकि अपन के लाइफ में तो लिखा जा चुका है….. डरना मना है!!!!
आखिर में- ‘मौत की वसीयत’ लिखने वाले ‘माई के लाल’ का इंतजार शुरू होता है अबसे। अगले शनिवार तक अगर कोई ‘माई का लाल’ ‘मौत की वसीयत’ लेकर प्रकट नहीं होता है तो मैं अपनी ‘मौत की वसीयत’ को इस मंच पर प्रकाशित कर दूंगा। हालांकि मुझे पूरा विश्वास है कि धरती वीरों से खाली नहीं है। सर्वश्रेष्ठ वसीयतनामे को भड़ास4मीडिया की तरफ से एक आकर्षक पुरस्कार ‘कफन-दारू : एडवांस में’ प्रदान किया जाएगा। ये मजाक नहीं, बिलकुल हकीकत है। बस, बात इतनी है कि ‘कफन-दारू : एडवांस में’ लेने वाले के अंदर इस पुरस्कार को लेने का दम होना चाहिए।
चलिए, आज दिन भर गाइए….गाइड फिल्म का एसडी बर्मन का यह गाना…. वहां कौन है तेरा, मुसाफिर, जाएगा कहां….. दम ले ले, घड़ी भर, ये छैयां, पाएगा कहां….
इस गाने का यहां भी देख-सुन सकते हैं…..
‘मौत की वसीयत’ को लेकर आप क्या सोचते हैं, अगर आप इस पर लिख रहे हैं तो उसे यशवंत तक पहुंचाएं, [email protected] के जरिए.