राष्ट्रीय संगोष्ठी
‘मीडिया का कारोबार भाषा पर आधारित है। बिना संप्रेषणीय भाषा के जनसंचार की कल्पना करना बेमानी है। भाषा यथास्थितिवादी नहीं होती। वह विकसित होती रहती है। इसमें परिवर्तन होता रहता है। तकनीकी विकास व भाषा के बीच समन्वय जरूरी है। यह ध्यान देने की बात है कि मीडिया के लिए तैयार टेक्नोलाजी खर्चीली है। कम समय में टेक्नोलाजी के अधिक उपयोग की प्रवृत्ति ने मीडिया की गति को तेज किया है।
इसलिए भाषा के विकास की गति को भी तेज किये जाने की जरूरत है। मीडिया के कारोबार को अनुकूलन का कारोबार न बनाएं और सूचना की प्रधानता को कम करके ज्ञान का प्रसार करने की मुहिम चलाएं।’ ये बातें प्रो. राम शरण जोशी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आयोजित हुए त्रि-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में बतौर मुख्य अतिथि कहीं। संगोष्ठी का आयोजन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सेन्टर आफ फोटो जर्नलिज्म एण्ड विजुअल कम्युनिकेशन तथा वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में किया गया था। विषय था- ‘मीडिया का तकनीकी विकास ओर बदलती भाषा’।
20 फरवरी से 22 फरवरी तक चली इस संगोष्ठी में उदघाटन व समापन सत्रों के अतिरिक्त पांच तकनीकी सत्र चले। इनमें ‘मीडिया बनाम निजता में दखलंदाजी’, ‘तकनीकी लेखन और मीडिया की बदलती भाषा’, ‘शाब्दिक अराजकता से कैसे बचे मीडिया’, ‘हमारे हिस्से की खबर बनाम एंटरटेनमेंट मीडिया’ व ‘फटाफट खबरें और अनुवाद का संकट’ विषयों पर चर्चा हुई। जिन प्रमुख विद्वानों व मीडियाकर्मियों ने संगोष्ठी में भाग लिया, उनमें केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष प्रो. रामशरण जोशी, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति प्रो. अच्युतानंद मिश्र, बिजनेस भास्कर, नई दिल्ली के राजनीति संपादक उर्मिलेश, इण्डिया न्यूज, नई दिल्ली के न्यूज प्रमुख अनुरंजन झा, कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय, रायपुर के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष डा. शाहिद अली, काशी विद्यापीठ के प्रो. राममोहन पाठक, गोरखपुर विश्वविद्यालय के रीडर व वरिष्ठ पत्रकार डा. कुमार हर्ष, इण्डिया टुडे के सह सम्पादक शिवकेश मिश्र, सीएनबीसी आवाज नई दिल्ली के सीनियर प्रोड्यूसर हर्षवर्धन त्रिपाठी, आकाशवाणी लखनऊ के एफएम प्रभारी अनुपम पाठक, इण्डिया न्यूज के राजीव कमल व अतुल राय, हरियाणा के मीडियाकर्मी राजीव रंजन आदि प्रमुख हैं।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अतिथि गृह के नवनिर्मित सभागार के उदघाटन के साथ ही इस राष्ट्रीय संगोष्ठी का भी उदघाटन हुआ। उदघाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुए इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. आर.जी. हर्षे ने कहा कि इन दिनों भारत की सभी भाषायें संक्रमण के दौर से गुजर रही हैं। भाषा की ऐतिहासिकता और जीवंतता को नकारने का प्रयास चल रहा है। वास्तव में यदि भाषा की अपनी सुंदरता की अवहेलना की जायेगी तो अभिव्यक्ति में खोट आ जायेगा। उन्होंने खोजी पत्रकारिता के गायब होते जाने के संकट की ओर भी इशारा किया।
इंस्टीट्यूट आफ प्रोफेशनल स्टडीज, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के निदेशक प्रो. जी.के. राय ने कहा कि मीडिया में भाषा के संस्कार व सरोकार खारिज किये जा रहे हैं। अराजकता का माहौल बनाने वाले मीडिया में हमारे हिस्से की खबरों के लिए कोई स्थान नहीं है। शायद यही वजह है कि जब विदर्भ के किसान आत्महत्या कर रहे थे तो कोई उनकी खबर लेने नहीं गया, जबकि उन्हीं दिनों चलने वाले लक्मे फैशन शो की कवरेज करने की होड़ मीडिया में मची थी। उन्होंने टीआरपी के खेल पर भी कटाक्ष किया।
उदघाटन सत्र में शब्दावली आयोग के सहायक निदेशक डा. आर.के. मिश्र ने घोषणा की कि आयोग ने पत्रकारिता के मानक शब्द तैयार करने की परियोजना प्रारम्भ कर दी है। इसके लिए गठित विशेषज्ञ समिति की बैठक मार्च 09 में दिल्ली में होगी। उन्होंने आशा जतायी कि जल्दी है पत्रकारिता का मानक शब्दकोश तैयार कर लिया जायेगा।
‘मीडिया बनाम निजता में दखलंदाजी’ विषय पर हुए पहले तकनीकी सत्र में वरिष्ठ टीवी पत्रकार राजेश बादल ने कहा कि जो व्यक्ति सार्वजनिक पद पर है या सार्वजनिक जीवन जी रहा है, उसकी निजता में झांकना किसी तरह का अपराध नहीं हो सकता। उन्होंने मटुकनाथ और चांद मोहम्मद का उदाहरण लेते हुए कहा कि एक अध्यापक था और दूसरा एक प्रदेश का मंत्री। नैतिकता और दायित्व बोध की धज्जियां उड़ाने वालों का आपराधिक सच दिखाने को निजता में दखलंदाजी नहीं कहा जा सकता। इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो. राम शरण जोशी ने भी बादल का समर्थन किया और यह कहा कि मीडिया को अपनी पूरी ताकत से सार्वजनिक जीवन की मर्यादाओं को बचाने का काम करना होगा।
दूसरे तकनीकी सत्र में ‘तकनीकी लेखन और मीडिया की बदलती भाषा’ विषय पर अपनी बात रखते हुए रायपुर स्थित कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष डा. शाहिद अली ने तकनीकी लेखन के विविध आयामों की चर्चा की और कहा कि जरूरत इस बात की है कि नई पीढ़ी को उस भाषा से लैस किया जाये, जिसमें भविष्य की संभावनाएं निहित हों। इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए राजेश बादल ने कहा कि आज प्रिंट और टेलीविजन में भाषायी आराजकता का दौर चल रहा है और इसका दोष उन मीडिया प्रशिक्षण संस्थानों का है, जो अधकचरे लोग तैयार कर मीडिया में भेज रहे हैं।
तीसरा सत्र ‘शाब्दिक अराजकता से कैसे बचे मीडिया’ विषय पर ही था। इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रख्यात पत्रकार व बिजनेस भास्कर के राजनीतिक सम्पादक उर्मिलेश ने कहा कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा नहीं पहला और अकेला खम्भा है और इसे इसी रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि शब्द हमारे विचारों की उपज होते हैं। वे बाहर आते हैं तो मृदंग की तरह बजते हैं और न्याय की लड़ाई लड़ते हैं। आज विचारों की अराजकता का माहौल है और यही वजह है कि शाब्दिक अराजकता मची हुई है। उन्होंने कहा कि अपने समय को मात्र भूमण्डलीकरण से जोड़कर देखना गलत होगा। हमें कारपोरेट भूमण्डलीकरण की बात करनी होगी, तभी हम अपने समय को ठीक से समझ पायेंगे और शाब्दिक अराजकता के ताने-बाने को बिखरा जायेंगे।
इस सत्र में इण्डिया टुडे के सह सम्पादक शिवकेश मिश्र ने कहा कि ताजा दौर में हुआ यह है कि सूचनाएं तो खूब मिल रही हैं, बल्कि जो ढकी-छिपी और वस्त्राच्छादित होनी चाहिए, वो भी बीसियों कोणों से दिखा दी जा रही हैं और मनोरंजन तो इस कदर हो रहा है न्यूज चैनलों पर कि एंटरटेनमेंट चैनल भी उनसे कोफ्त करने लगे हैं। पर मीडिया का जो असल जिम्मा था, सारा गुड़ गोबर वही हुआ है। अराजकता की जड़ें भी यहीं पर हैं। मीडिया के खुद के लोगों का इस मोर्चे पर विकास अगर रुका नहीं तो बेहद धीमा जरूर बड़ गया। नए शब्द नए वाक्य विन्यास आने थम गये। इसीलिए खबरें देखने का भी जो अपना एक मजा, एक चार्म होता था, वह जाता रहा। हरियाणा से आये मीडियाकर्मी राजीव रंजन ने कहा कि इस समय शब्द बिक रहे हैं। बेचे जाने में शब्दों की आचार संहिता का जमकर उल्लंघन हो रहा है। ऐसे समय में जब कारपोरेट मीडिया के लोगों की चेतना, आम आदमी की चेतना से मेल नहीं खा रही है, तब शब्द की अराजकता को गम्भीर मुद्दा बनाया जाना स्वागत योग्य है।
चौथे सत्र में ‘हमारे हिस्से की खबर बनाम एंटरटेनमेंट मीडिया’ विषय पर अध्यक्षीय भाषण देते हुए इण्डिया न्यूज, नई दिल्ली के न्यूज हेड अनुरंजन झा ने कहा कि लोग जिसे जानते हैं उसे ही जानने के लिए बेचैन रहते हैं, उसे जानने की बेचैनी कहीं किसी में नहीं है। आखिर कोई यह बात क्यों नहीं जानना चाहता कि भूख से क्यों मर गये गांव के ग्रेजुएट भइया? क्यों नहीं हो रही है बुधिया की शादी? क्यों उजड़ रहे हैं गांव? खेतों की हरियाली को लग गई है किसकी नजर? कौन पी गया गांव के तालाब का सारा पानी? कौन चुपके से चाट गया रिश्तों का नमक? कौन क्यों और कैसे…. हमारे हिस्से की खबर इन्हीं शब्दों के बीच कहीं गुम हो गयी है।
अंतिम सत्र ‘फटाफट खबरें और अनुवाद के संकट’ पर हुआ। गोरखपुर विश्वविद्यालय के रीडर व वरिष्ठ पत्रकार डा. कुमार हर्ष ने कहा कि जड़ता को पकड़े रहना गलत है। हमें शब्दों को नवीनता के साथ ग्रहण करने के प्रयास करने होंगे। उन्होंने कहा कि अनुवाद की भाषा सम्प्रेषणीयता को प्राप्त नहीं कर सकती। इसीलिए अपने भाषीय शब्दों के प्रयोग को बढ़ावा देने का काम किया जाये।
सीएनबीसी आवाज नई दिल्ली के सीनियर प्रोड्यूसर हर्षवर्धन त्रिपाठी ने वेब जर्नलिज्म की संभावनाओं पर प्रकाश डाला और कहा कि यही भविष्य का मीडिया है। उन्होंने वेब जर्नलिज्म में अनुवाद के संकट की चर्चा की और कहा कि हमें अनुवाद के संकट और अनुवाद की जरूरत के बीच का रास्ता निकलना होगा। सत्र की अध्यक्षता करते हुए काशी विद्यापीठ के प्रो. राम मोहन पाठक ने मीडियाकर्मियों को शब्द क्षमता बढ़ाने व नए शब्दों का संधान करने की सलाह दी।
समापन सत्र के मुख्य अतिथि माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. अच्युतानंद मिश्र ने भाषा को नष्ट करने के षडयंत्र की तरफ ध्यान आकर्षित किया। प्रो. मिश्र ने कहा कि भाषायी स्वाभिमान का क्षरण हो रहा है। इसे नष्ट करने का षडयंत्र करने वालों ने मुहिम चला रखी है कि हिन्दी को रोमन स्क्रिप्ट में लिखने का प्रचलन चलाया जाये। उन्होंने कहा कि रोमन लिपि में यूरोप में युद्ध कराने का काम किया। जहां-जहां यह गई, शाब्दिक व सामाजिक अराजकता चरम पर रही। कमोबेश यही स्थिति अपने देश की बन गई है। समापन सत्र की अध्यक्षता प्रो. जी.के. राय ने किया।
समापन अवसर पर संगोष्ठी संयोजक वरिष्ठ पत्रकार व सेन्टर आफ फोटोजर्नलिज्म एण्ड विजुअल कम्युनिकेशन के अध्यापक धनंजय चोपड़ा ने तीन दिनों तक चली संगोष्ठी का सारांश प्रस्तुत किया और इसके निष्कर्षों को देश भर के मीडिया संस्थानों व प्रतिष्ठानों को भेजने की बात कही। आयोग के सहायक निदेशक ने सभी के प्रति आभार व्यक्त किया।